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रविवार, 26 अगस्त 2012

क्यों वितरित करते हैं प्रसाद

क्यों वितरित करते हैं प्रसाद
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नित्य पूजा के समय मिश्री या दूध-शक्कर का अर्पित नैवेद्य वहां उपस्थित लोगों को दें एवं खुद भी ग्रहण करें। यह प्रसाद अकेले भी ले सकते हैं। महानैवेद्य का प्रसाद घर के सभी लोग बांटकर ग्रहण करें। पूजा के समय सूजी का मीठा पदार्थ, पेडे तथा मोदक आदि का प्रसाद निमंत्रित लोगों में वितरित करें। वैयक्तिक नित्य पूजा के प्रसाद के अतिरिक्त अन्य नैमित्तिक पूजा का प्रसद अपने आप न लें। जब कोई दूसरा व्यक्ति प्रसाद दे तभी ग्रहण करें। नैमित्तिक पूजा का प्रसाद गुरूजी को दें। गुरूजी प्रसाद ग्रहण करके हाथ धो-पोंछकर सबको प्रसाद दें। प्रसाद सेवन करते समय निम्नवत मंत्र पढें- बहुजन्मार्जित यन्मे देहेùस्ति दुरितंहितत्। प्रसाद भक्षणात्सर्वलयं याति जगत्पते (देवता का नाम) प्रसादं गृहीत्वा भक्तिभावत:। सर्वान्कामान वाप्नोति प्रेत्य सायुज्यमाप्नुयात्।। प्रसाद ग्रहण करने के बाद हाथ को जल से धोएं। नैवेद्य अर्पण की विधि क्या हैक् षोडशोपचार पूजा में शुरू के नौ उपचारों के बाद गंध, फूल, धूप, दीप और नैवेद्य की उपचारमालिका होती है। नैवेद्य अर्पण करने की शास्त्रोक्त विधि का ज्ञान न होने से कुछ लोग नैवेद्य की थाली भगवान के सामने रखकर दोनों हाथों से अपनी आंखें बंद कर लेते हैं जबकि कुछ लोग नाक दबाते हैं। कुछ व्यक्ति तुलसीपत्र से बार-बार सिंचन करके और कुछ लोग अक्षत चढ़ाकर भोग लगाते हैं। इसी प्रकार कुछ मनुष्य तथा पुजारी आदि भगवान को नैवेद्य का ग्रास दिखाकर थोडा-बहुत औचित्य दिखाते हैं। नैवेद्य अपैण करने की शास्त्रीय विधि यह है कि उसे थाली में परोसकर उस अन्न पर घी परोसें। एक-दो तुलसीपत्र छोडें। नैवेद्य की परोसी हुई थाली पर दूसरी थाली ढक दें। भगवान के सामने जल से एक चौकोर दायरा बनाएं। उस पर नैवेद्य की थाली रखें। बाएं हाथ से दो चम्मच जल लेकर प्रदक्षिणाकार सींचें। जल सींचते हुए सत्यं त्वर्तेन परिसिंचामि मंत्र बोलें। फिर एक चम्मच जल थाली में छो़डें तथा अमृतोपस्तरणमसि बोलेें। उसके बाद बाएं हाथ से नैवेद्य की थाली का ढक्कन हटाएं और दाएं हाथ से नैवेद्य परोसें। अन्न पदार्थ के ग्राम मनोमन से दिखाएं। दुग्धपान के समय जिस तरह की ममता मां अपने बच्चो को देती है, उसी तरह की भावना उस समय मन में होनी चाहिए। ग्रास दिखाते समय प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, ब्रrाणे स्वाहा मंत्र बोलें। यदि हो सके तो नीचे दी गई ग्रास मुद्राएं दिखाएं- प्राणमुद्रा-तर्जनी, मध्यमा, अंगुष्ठ द्वारा। अपानमुद्रा-मध्यमा, अनामिका, अंगुष्ठ द्वारा। व्यानमुद्रा-अनामिका, कनिष्ठिका, अंगुष्ठ द्वारा। उदानमुद्रा-मध्यमा, कनिष्ठिका, अंगुष्ठ द्वारा। समानमुद्रा-तर्जनी, अनामिका, अंगुष्ठ द्वारा ब्रrामुद्रा-सभी पांचों उंगलियों द्वारा। नैवेद्य अर्पण करने के बाद प्राशनार्थे पानीयं समर्पयामि मंत्र बोलकर एक चम्मच जल भगवान को दिखाकर थाली में छोडें। ऎसे समय एक गिलास पानी में इलायची पाउडर डालकर भगवान के सम्मुख रखने की भी परंपरा कई स्थानों पर है। फिर उपर्युक्ततानुसार छह ग्रास दिखाएं। आखिर में चार चम्मच पानी थाली में छोडें। जल को छोडते वक्त अमृतापिधानमसि, हस्तप्रक्षालनं समर्पयामि, मुखप्रक्षालनं समर्पयामि तथा आचमनीयं समर्पयामि-ये चार मंत्र बोलें। फूलों को इत्र लगाकर करोद्वर्तनं समर्पयामि बोलकर भगवान को चढाएं। यदि इत्र न हो तो करोर्द्वर्तनार्थे चंदनं समर्पयामि कहकर फूल को गंधलेपन करके अर्पण करें। नैवेद्य अर्पण करने के बाद वह थाली लेकर रसाईघर में जाएं। बाद में फल, पान का बीडा एवं दक्षिणा रखकर महानीरांजन यानी महार्तिक्य करें। कितने प्रकार के होते हैं क् देवता की नित्य पूजा का समय सामान्यत: प्रात:कालीन प्रथम प्रहर होता है। यदि इस वक्त रसोई हो गई हो तो दाल, चावल एवं तरकारी आदि अन्न पदार्थो का "महानैवेद्य" अर्पण करने में कोई हर्ज नहीं है। किन्तु यदि पूरी रसोई पूजा के समय तैयार न हो तो चावल में घी-शक्कर मिलाकर या केवल चावल, घी-शक्कर चपाती, परांठा, तरकारी तथा पेडे का नैवेद्य दिखाएं। यह नैवेद्य अकेला पूजा करने वाला स्वयं भक्षण करे। यदि संभव हो तो प्रसाद के रूप में सबको बांटे। नैमित्तिक व्रज पूजा के समय अर्पित किया जाने वाला नैवेद्य "प्रसाद नैवेद्य" कहलाता है। यह नैवेद्य सूजी एवं मोदक आदि पदार्थो का बनता है। नैमित्तिक महापूजा के समय संजीवक नैवेद्य के छोटे-छोटे ग्रास बनाकर उपस्थित मित्रों तथा परिजनों को प्रसाद के रूप में वितरित करें। अन्न पदार्थो का महानैवेद्य भी थोडा-थोडा प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। कुछ वैष्णव सभी अन्न पदार्थो का नैवेद्य अर्पण करते हैं परन्तु यह केवल श्रद्धा का विषय है। वैसे तो भगवान को भी एक थाली में नैवेद्य परोसकर अर्पण करना उचित होता है। कुछ क्षेत्रों में घर के अलग-अलग स्थानों पर स्थित देवी-देवताओं को पृथक-पृथक नैवेद्य परोसकर अर्पण किया जाता है। यदि घर के पूजा स्थान में स्थापित देवी-देवता-गणपति, गौरी एवं जिवंतिका आदि सभी एक जगह हों तो एक ही थाली से नैवेद्य अर्पण करना सुविधाजनक होता है। परन्तु यदि नित्य के देवी-देवताओं के अलावा गौरी-गणपति आदि नैमित्तिक देव और यज्ञादि कर्म के प्रासंगिक देवी-देवता पृथक स्थानों पर स्थापित हों तो उनको अलग-अलग नैवेद्य अर्पण करने की प्रथा है। यदि एक थाली में परोसे गए खाद्य पदार्थो का भोग अलग-अलग देवी-देवताओं को चढाया जाए तो भी आपत्ति की कोई बात नहीं है। ऎसे में नैवेद्य अर्पण करते समय अंशत: का उच्चाारण करें। घर में अलग-अलग स्थानों पर स्थापित देवी-देवता एक ही परमात्मा के विभिन्न रूप हैं। इस कारण एक ही महानैवेद्य कई बार अंशत: चढाया जाना शास्त्र सम्मत है। इस विधान के अनुसार बडे-बडे मंदिरों में एक ही थाली में महानैवेद्य परोसकर अंशत: सभी देवी-देवताओं, उपदेवता, गौण देवता एवं मुख्य देवता को अर्पण किया जाता है। कई परिवारों में वाडी भरने की प्रथा है। वाडी का मतलब है-सभी देवताओं को उद्देश्य करके नैवेद्य निकालकर रखना तथा उनके नामों का उच्चाारण करके संकल्प करना। संकल्प के उपरांत वाडी के नैवेद्य संबंधित देवी-देवताओं को स्वयं चढाए जाते हैं। कई बार संबंधित देवताओं के पुजारी, गोंधली, भोपे या गुरव आदि घर आकर नैवेद्य ले जाते हैं। भगवान भैरव का नैवेद्य विशिष्ट पात्र में दिया जाता है। इसे पत्तल भरना भी कहा जाता है। वाडी में कुलदेवता, ग्रामदेवता, स्थान देवता, मुंजा मूलपुरूष, महाुपरूष, देवचार, ब्राrाण, सती, नागोबा, वेतोबा, पुरवत तथा गाय आदि अनेक देवताओं का समावेश होता है। नैवेद्य को ढंकना सही या गलतक् कुछ मंदिरों में चढाया गया नैवेद्य वैसे ही ढककर रख दिया जाता है और दोपहर के बाद निकाल लिया जाता है। इसी प्रकार घर में ज्येष्ठा गौरी के समय नैवेद्य दिखाई थालियां ढककर रख दी जाती हैं तथा दूसरे दिन उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। ये बातें पूर्णरूपेण शास्त्र के विरूद्ध हैं। व्यवहार में भी भोजन के बाद थालियां हटाकर वह जगह साफ की जाती है। भगवान को भोग लगाने के बाद उसे वैसे ही ढककर रखना अज्ञानमूलक श्रद्धा का द्योतक है। कई बडे क्षेत्रों या तीर्थ स्थानों में पत्थर की मूर्ति के मुंह में पेडा या गुड आदि पदार्थ चिपकाएं जाते हैं। यह भी शास्त्र के विरूद्ध है। ये चीजें नैवेद्य नहीं हो सकती। नैवेद्य को अपैण करना होता है। इस रूढि के कारण पत्थर की मूर्ति को नुकसान पहुंचता है। अनेक लोगों के बाहु स्पर्श से ये चीजें त्याज्य हो जाती हैं। उनका भक्षण करने से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचने की संभावना रहती है। घर के नयिमित देवी-देवताओं के अलावा नैथ्मत्तिक व्रत प्रसंगों के अवसर पर अन्य देवी-देवताओं की स्थापना अलग-अलग की जाती है। उदाहरण के लिए सत्यनारायण, गणपति, जिवंतिका, चैत्रा गौरी, ज्येष्ठा गौरी तथा गुढी आदि देवी-देवताओं को पूजा स्थान में दूसरी जगह स्थापित किया जाता है। सभी देवी-देवताओं को महानैवेद्य अर्पण करने के पश्चात कुछ लोग महारती (महार्तिक्य) करते समय अलग-अलग आरतियां बोलते हैं परन्तु ऎसी आवश्यकता नहीं होती। महानैवेद्य चढाने के बाद पूजा स्थान में रखे देवी-देवताओं के अलावा अन्य देवताओं की एक साथ आरती करें, यह शास्त्र सम्मत नियम है। प्रत्येक देवता के लिए अलग-अलग आरती बोलना शास्त्र के विरूद्ध है।

भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी

वीरा रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी ...(२)
ए भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
भई रे एक माता रे पुत्तर चार, चारों री करणी न्यारी न्यारी
भई रे पहलों राजा रे दरबार दुजोडो हीरा पारखी
भई रे ए ए तीजो बंजारा रा री हाट, चोथोडो फेरे पुळिया ... (२)
भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
भई रे एक माटी रा बर्तन चार, चारों री करणी न्यारी न्यारी ... (२)
भई रे पहला में दहिडो विलोय, दुजो जल जमना गयो... (२)
भई रे तीजो पनिहार्याँ री शीष, चोथोडो बीजम पाणियों ... (२)
भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
भई रे एक गौ रे बछडा चार, चारों री करणी न्यारी न्यारी ... (२)
भई रे पहलों सूरज जी रो सांड, दुजोडो शिव रो नंदियो ... (२)
भई रे तीजो घाणी वाळो बेल, चोथो बिणजारे नादियों ... (२)
भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
भई रे एक वेल रे तुम्बा चार, चारों री करणी न्यारी न्यारी ... (२)
भई रे पहलों सतगुरु जी रे हाथ, दुजो जळ जमना में बह्यो ... (२)
भई रे तीजो तम्बूरा री बिन, चोथोडो भिक्षा मांग रह्यो ... (२)
भई रे कह गया दास कबीर कर्मों रा भरा न्यारा न्यारा ... (२)
भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी, कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी

बादशाह अकबर का छतर ज्वाला देवी के मंदिर में

एक समय की बात है |
बादशाह अकबर के राज के दौरान एक भगत था ध्यानु भगत | वह माँ ज्वाला जी का सच्चा भक्त था | एक बार वह माता के दर्शनकरने के लिए जा रहा था कि अकबर के सैनिकों ने उसे पकड़ लिया और अकबर के सामने पेश किया |
अकबर के पूछने पर उसने बताया कि वह माता के दर्शन के लिए जा रहा है | अकबर ने पूछा कि तुम्हारी माता क्या कर सकती है ?
ध्यानु बोला, "माँ तो सर्वशक्तिमान है, उनके लिए सब कुछ संभव है"
तो अकबर
ने उसके घोड़े का सिर काट दिया और पूछा, " क्या तुम्हारी माँ इस घोड़े का सिर वापिस लगा सकती है?"
भगत ध्यानु ने माँ के मंदिर जाकर माँ ज्वाला देवी से प्रार्थना की और घोड़ा वापिस जिंदा हो गया | बादशाह अकबर हैरान हो गया | उसने अपनी सेना बुलाई और खुद नंगे पाँव मंदिर की तरफ चल पड़ा | वहाँ पहुँच कर फिर उसके मन में शंका हुई | उसने अपनी सेना से पूरे मंदिर में पानी डलवाया, लेकिन माता की ज्वाला बुझी नहीं| तब जाकर उसे माँ की महिमा का यकीन हुआ और उसने सोने का छतर चढ़ाया | लेकिन माता ने वह छतर कबूल नहीं किया और वह छतर किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया |
आप आज भी वह बादशाह अकबर का छतर ज्वाला देवी के मंदिर में देख सकते हैं |
जय माता दी _/\_ —

कथा रावन की सोने की लंका की

जय शंकर जी की ==== कथा रावन की सोने की लंका की


एक बार माँ पार्वती और भोले नाथ जी बैठे हुए थे तो माँ पार्वती ने बाबा से कहा की भोले नाथ आप कैलाश पे और शमशानों में रहते हो जबकि आप देवो के देव महादेव हैं सब कुछ होते हुए भी आप इन वनों में रहते हो तो बाबा ने कहा की पार्वती हम बैरागी हैं हमें क्या लेना महलों में रहकर तो माँ पार्वती ने इस बात का हठ किया की नहीं मुझे भी एक ऐसा महल चहिये जो इन्
द्र के स्वर्ग से और तीनो लोको से सुन्दर हो तो बाबा ने उन्हें बहुत समझाया की पार्वती हम कैलाश में ही ठीक हैं हमें महलों से कोई मोंह नहीं है लेकिन माँ पार्वती नहीं मानी और इस बात का हठ करती रही की मुझे भी महलों में रहना है तो माँ पार्वती के इस हठ को देखकर बाबा ने कहा तो ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा फिर बाबा ने भगवान विशवकर्मा जी को बुलाया और उनसे कहा की हमारे लिए एक सोने का महल बनाओ जिसकी शोभा तीनो लोको में और कहीं न हो तब विशवकर्मा जी ने ख़ुशी ख़ुशी से एक सोने का महल बना दिया फिर बाबा ने माँ को कहा की पार्वती अब हम इसमें तब परवेश करेंगे जब इसकी ग्रेह परविष्टा हो जाएगी तब बाबा ने उस महल की ग्रेह परविष्टा करवाई बड़ी धूम धाम से उस महल की ग्रेह परविष्टा की गई सभी देवी देवता वहां पे आये हुए थे और उस महल की सुन्दरता को देख कर खुश हो रहे थे लेकिन जिस ऋषि ने उस महल की ग्रेह परविष्टा की थी जब बाबा ने उनसे ये पुछा की मांगो आपको क्या चाहिए दान में तो उन्होंने दान में बाबा से वो सोने का महल ही मांग लिया और बाबा ने खुश होकर उन्हें तथाअस्तु बोल दिया ये देखकर माँ पार्वती बहुत क्रोधित हुई और उन्होंने उस ऋषि को ये शाप दिया की तुमने भोलेनाथ के भोले पन का फाएदा उठाया है और हमसे ये महल मांगकर हमें घर से बेघर किया है और मैं तुम्हे ये शाप देती हूँ की जिस महल को तुमने हमसे माँगा है तेरे इसी महल को शिव के 11 वें अवतार के हाथो जलना होगा अर्थात की शिव का 11 वां अवतार तेरे इस महल को जलाकर भस्सम कर देगा और फिर जब शिव के 11 अवतार हनुमान जी का जनम हुआ तब उस ऋषि के पुत्र रावन ने हनुमान जी की पूँछ में आग लगाईं थी और हनुमान जी ने रावन की सोने की लंका को जलाकर भस्सम कर दिया था,रावन ये अच्छी तरह से जानता था की उसका विनाश श्री राम के हाथों से ही होना है लेकिन वो भी श्री राम जी के हाथों से मुक्ति प्राप्त करना चाहता था इसलिए सब कुछ जान कर भी उसने श्री राम जी से बैर किया और उनके हाथों से रावण का विनाश हुआ और जब रावन का विनाश हुआ था तो उस वक़्त रावन के मूंह से सिर्फ येही शब्द निकला था की श्री राम श्री राम ==

जय भोले जय भंडारी तेरी है महिमा न्यारी
शुभ रात्रि
जय महाकाल
जय श्री राम जी की

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