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रविवार, 14 अक्टूबर 2012

सेंधा नमक

सेंधा नमक

= नमक हमारे शरीर के लिये बहुत जरूरी है। इसके बावजूद हम सब घटिया किस्म का नमक खाते है। यह शायद आश्चर्यजनक लगे , पर यह एक हकीकत है ।

= नमक विशेषज्ञ एन के भारद्वाज का कहना है कि भारत मे अधिकांश लोग समुद्र से बना नमक खाते है । श्रेष्ठ प्रकार का नमक सेंधा नमक है, जो पहाडी नमक है ।

= प्रख्यात वैद्य मुकेश पानेरी कहते है कि आयुर्वेद की बहुत सी दवाईयों मे सेंधा नमक का उपयोग होता है।आम तौर से उपयोग मे लाये जाने वाले समुद्री नमक से उच्च रक्तचाप का भय रहता है । इसके विपरीत सेंधा नमक के उपयोग से रक्तचाप पर नियन्त्रण रहता है । इसकी शुध्धता के कारण ही इसका उपयोग व्रत के भोजन मे होता है ।

= सेंधा नमक की सबसे बडी समस्या है कि भारत मे यह काफ़ी कम मात्रा मे होता है , और वह भी शुद्ध नही होता है। भारत मे ८० प्रतिशत नमक समुद्री है, १५ प्रतिशत जमीनी और केवल पांच प्रतिशत पहाडी यानि कि सेंधा नमक । सबसे अधिक सेंधा नमक पाकिस्तान की मुल्तान की पहडियों मे है।

= ऐतिहासिक रूप से पूरे उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप में खनिज पत्थर के नमक को 'सेंधा नमक' या 'सैन्धव नमक' कहा जाता है जिसका मतलब है 'सिंध या सिन्धु के इलाक़े से आया हुआ'। अक्सर यह नमक इसी खान से आया करता था। सेंधे नमक को 'लाहौरी नमक' भी कहा जाता है क्योंकि यह व्यापारिक रूप से अक्सर लाहौर से होता हुआ पूरे उत्तर भारत में बेचा जाता था।

= समुद्री और सेंधा नमक के दाम मे इतना अधिक अंतर है जिसके कारण लोग समुद्री नमक खरीद्ते हैं । समुद्री नमक जहां नौ रु किलो है तो सेंधा नमक का दाम रु ४० प्रति किलो है । सेंधा नमक समुद्री नमक से कम नमकीन होता है । साफ़ है कि इसका अधिक उपयोग करना पडता है ।और इसीलिये लाख उपयोगी होने के बावजूद लोग इसकी जगह समुद्री नमक से ही चला लेते है । पर अगर उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियाँ हुई तो इसके इलाज में जो हज़ारो रुपये खर्च होंगे ; इसकी तुलना में दाम का ये फर्क कुछ भी नहीं ।

= सिर्फ आयोडीन के चक्कर में ज्यादा नमक खाना समझदारी नहीं है, क्योंकि आयोडीन हमें आलू, अरवी के साथ-साथ हरी सब्जियों से भी मिल जाता है।

= यह सफ़ेद और लाल रंग मे पाया जाता है । सफ़ेद रंग वाला नमक उत्तम होता है।

= यह ह्रदय के लिये उत्तम, दीपन और पाचन मे मददरूप, त्रिदोष शामक, शीतवीर्य अर्थात ठंडी तासीर वाला, पचने मे हल्का है । इससे पाचक रस बढ़्ते हैं।

= रक्त विकार आदि के रोग जिसमे नमक खाने को मना हो उसमे भी इसका उपयोग किया जा सकता है।

= यह पित्त नाशक और आंखों के लिये हितकारी है ।

= दस्त, कृमिजन्य रोगो और रह्युमेटिज्म मे काफ़ी उपयोगी होता है ।

सेंधा नमक के विशिष्ठ योग

= हिंगाष्ठक चूर्ण, लवण भास्कर और शंखवटी इसके कुछ विशिष्ठ योग हैं ।

काला नमक

= यह भी ह्रदय के लिये उत्तम, दीपन और पाचन मे मददरूप, वायु शामक है । पेट फ़ूलने की समस्या मे मददरुप है। इसके सेवन से डकार शुद्ध आती है और छोटे बच्चो की कब्ज की समस्या मे इसका उपयोग होता है ।

= काला नमक बनाने के लिये सेंधा नमक और साजीखार सम प्रमाण मे ले। साजीखार का उपयोग पापड बनाने में होता है और यह पंसारी की दुकान पर आसानी से मिलता है। इस मिश्रण को पानी मे घोलें । अब इसे धीमी आंच पर गर्म करे और पूरा पानी जला दें । अंत मे जो बचेगा वह काला नमक है ।

= नमक आवश्यक है पर उसे कम से कम मात्रा में खाना चाहिए ।

चरणामृत का क्या महत्व है?

चरणामृत का क्या महत्व है?

अक्सर जब हम मंदिर जाते है तो पंडित जी हमें भगवान का चरणामृत देते है.

क्या कभी हमने ये जानने की कोशिश की.

कि चरणामृतका क्या महत्व है.

शास्त्रों में कहा गया है

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते ।।

"अर्थात भगवान विष्णु के चरण का अमृत रूपी जल समस्त पाप- व्याधियोंका शमन करने वाला है तथा औषधी के समान है।

जो चरणामृत पीता है उसका पुनः जन्म नहीं होता"

जल तब तक जल ही रहता है जब तक भगवान के चरणों से नहीं लगता,
जैसे ही भगवान के चरणों से लगा तो अमृत रूप हो गया और चरणामृत बन जाता है.

जब भगवान का वामन अवतार हुआ,
और वे राजा बलि की यज्ञ शाला में दान लेने गए तब उन्होंने तीन पग में तीन लोक नाप लिए जब उन्होंने पहले पग में नीचे के लोक नाप लिए और दूसरे मेंऊपर के लोक नापने लगे तो जैसे ही ब्रह्म लोक में उनका चरण गया तो ब्रह्मा जी ने अपने कमंडलु में से जल लेकर
भगवान के चरण धोए और फिर चरणामृत
को वापस अपने
कमंडल में रख लिया.

वह चरणामृत गंगा जी बन गई,
जो आज भी सारी दुनिया के पापों को धोती है,

ये शक्ति उनके पास कहाँ से आई ये शक्ति है भगवान के चरणों की.
जिस पर ब्रह्मा जी ने साधारण जल चढाया था पर चरणों का स्पर्श होते ही बन गई गंगा जी .

जब हम बाँके बिहारी जी की आरती गाते है तो कहते है -

"चरणों से निकली गंगा प्यारी जिसने सारी दुनिया तारी "

धर्म में इसे बहुत ही पवित्र माना जाता है तथा मस्तक से लगाने के बाद इसका सेवन
किया जाता है।

चरणामृत का सेवन अमृत के समान माना गया है।

कहते हैं भगवान श्री राम के चरण धोकर उसे चरणामृत के रूप में स्वीकार कर केवट न केवल स्वयं भव-बाधा से पार हो गया बल्कि उसने अपने पूर्वजों को भी तार दिया।

चरणामृत का महत्व सिर्फ धार्मिक ही नहीं चिकित्सकीय भी है।

चरणामृत का जल हमेशा तांबे के पात्र में रखा जाता है।
आयुर्वेदिक मतानुसार तांबे के पात्र में अनेक रोगों को नष्ट करने की शक्ति होती है जो उसमें रखे जल में आ जाती है।

उस जल का सेवन करने से शरीर में रोगों से लडऩे की क्षमता पैदा हो जाती है तथा रोग नहीं होते।

इसमें तुलसी के पत्ते डालने की परंपरा भी है जिससे इस जल की रोगनाशक क्षमता और भी बढ़ जाती है।

तुलसी के पत्ते पर जल इतने परिमाण में होना चाहिए कि सरसों का दाना उसमें डूब जाए।

ऐसा माना जाता है कि तुलसी चरणामृत लेने से मेधा, बुद्धि, स्मरण शक्ति को बढ़ाता है।

इसीलिए यह मान्यता है कि भगवान का चरणामृत औषधी के समान है। यदि उसमें तुलसी पत्र भी मिला दिया जाए तो उसके औषधीय गुणों में और भी वृद्धि हो जाती है।

कहते हैं सीधे हाथ में तुलसी चरणामृत ग्रहण करने से हर शुभ काम या अच्छे काम का जल्द परिणाम मिलता है। इसीलिए चरणामृत हमेशा सीधे हाथ से लेना चाहिये, लेकिन चरणामृत लेने के बाद अधिकतर लोगों की आदत होती है कि वे अपना हाथ सिर पर फेरते हैं।

चरणामृत लेने के बाद सिर पर हाथ रखना सही है या नहीं यह बहुत कम लोग जानते हैं?

दरअसल शास्त्रों के अनुसार चरणामृत लेकर सिर पर हाथ रखना अच्छा नहीं माना जाता है।

कहते हैं इससे विचारों में सकारात्मकता नहीं बल्कि नकारात्मकता बढ़ती है।
इसीलिए चरणामृत लेकर कभी भी सिर पर हाथ नहीं फेरना चाहिए।

भगवान वाराह

धरा के उद्धार के समय भगवान ने वाराहरूप धारण करके हिरण्याक्ष का वध किया। उसका बड़ा भाई हिरण्यकशिपु बड़ा रुष्ट हुआ। उसने अजेय होने का संकल्प किया। सहस्त्रों वर्ष  बिना जल के वह सर्वथा स्थिर तप  करता रहा। ब्रह्मा जी सन्तुष्ट हुए।  दैत्य को वरदान मिला। उसने स्वर्ग  पर अधिकार कर लिया।  लोकपालों को मार भगा दिया। स्वत: सम्पूर्ण लोकों का अधिपति हो गया।  देवता निरूपाय थे। असुर को किसी प्रकार वे पराजित नहीं कर सकते थे। 
'बेटा, तुझे क्या अच्छा लगता है?'

दैत्यराज ने एक दिन सहज ही अपने  चारों पुत्रों में सबसे छोटे प्रह्लाद से  पूछा।
'इन मिथ्या भोगों को छोड़कर वन में  श्री हरि का भजन करना!' बालक  प्रह्लाद का उत्तर स्पष्ट था।
दैत्यराज जब तप कर रहे थे, देवताओं ने  असुरों पर आक्रमण किया। असुर उस समय भाग गये थे। यदि देवर्षि न छुड़ाते  तो दैत्यराज की पत्नी कयाधू को  इन्द्र पकड़े ही लिये जाते थे। देवर्षि ने  कयाधू को अपने आश्रम में शरण दी। उस  समय प्रह्लाद गर्भ में थे। वहीं से  देवर्षि के उपदेशों का उन पर प्रभाव पड़ चुका था।
'इसे आप लोग ठीक-ठीक शिक्षा दें!'  दैत्यराज ने पुत्र को आचार्य शुक्र के पुत्र षण्ड तथा अमर्क के पास भेज दिया। दोनों गुरुओं ने प्रयत्न किया।  प्रतिभाशाली बालक ने अर्थ, धर्म,  काम की शिक्षा सम्यक् रूप से प्राप्त की; परंतु जब पुन: पिता ने उससे पूछा तो उसने श्रवण, कीर्तन, स्मरण,  पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य
और आत्मनिवेदन— इन  नौ भक्तियों को ही श्रेष्ठ बताया।  'इसे मार डालो। यह मेरे शत्रु  का पक्षपाती है।' रुष्ट दैत्यराज ने  आज्ञा दी। असुरों ने आघात किया।  भल्ल-फलक मुड़ गये, खडग टूट गया,  त्रिशूल टेढ़े हो गये; पर वह कोमल शिशु  अक्षत रहा। दैत्य चौंका। प्रह्लाद  को विष दिया गया; पर वह जैसे अमृत हो। सर्प छोड़े गये उनके पास और वे फण  उठाकर झूमने लगे। मत्त गजराज ने उठाकर उन्हें मस्तक पर रख लिया।  पर्वत से नीचे फेंकने पर वे ऐसे उठ खड़े  हुए, जैसे शय्या से उठे हों। समुद्र में पाषाण बाँधकर डुबाने पर दो क्षण पश्चात ऊपर आ गये। घोर चिता में  उनको लपटें शीतल प्रतीत हुई। गुरु  पुत्रों ने मन्त्रबल से कृत्या (राक्षसी) उन्हें मारने के लिये उत्पन्न की तो वह  गुरु पुत्रों को ही प्राणहीन कर गयी। प्रह्लाद ने प्रभु की प्रार्थना करके उन्हें जीवित किया। अन्त में वरुण पाश  से बाँधकर गुरु पुत्र पुन: उन्हें पढ़ाने ले  गये। वहाँ प्रह्लाद समस्त  बालकों को भगवद्भक्ति की शिक्षा देने लगे। भयभीत गुरु पुत्रों ने दैत्येन्द्र से  प्रार्थना की 'यह बालक सब बच्चों को अपना ही पाठ पढ़ा रहा है!' 'तू किस के बल से मेरे अनादर पर  तुला है?' हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बाँध दिया और स्वयं खड्ग उठाया।  'जिसका बल आप में तथा समस्त चराचर  में है!' प्रह्लाद निर्भय थे।
'कहाँ है वह?'
'मुझमें, आप में, खड्ग में, सर्वत्र!'
'सर्वत्र? इस स्तम्भ में भी?'
'निश्चय!' प्रह्लाद के वाक्य के साथ दैत्य ने खंभे पर घूसा मारा। वह और  समस्त लोक चौंक गये। स्तम्भ से
बड़ी भयंकर गर्जना का शब्द हुआ। एक  ही क्षण पश्चात दैत्य ने देखा- समस्त शरीर मनुष्य का और मुख सिंह का, बड़े-  बड़े नख एवं दाँत, प्रज्वलित नेत्र,  स्वर्णिम सटाएँ, बड़ी भीषण आकृति खंभे से प्रकट हुई। दैत्य के अनुचर झपटे और  मारे गये अथवा भाग गये। हिरण्यकशिपु को भगवान ने पकड़ लिया।
'मुझे ब्रह्माजी ने वरदान दिया है!'  छटपटाते हुए दैत्य चिल्लाया। 'दिन में या रात में न मरूँगा; कोई देव, दैत्य, मानव, पशु मुझे न मार सकेगा। भवन में  या बाहर मेरी मृत्यु न होगी। समस्त शस्त्र मुझ पर व्यर्थ सिद्ध होंगे। भुमि,  जल, गगन-सर्वत्र मैं अवध्य हूँ।' 'यह सन्ध्या काल है। मुझे देख कि मैं कौन हूँ। यह द्वार की देहली, ये मेरे नख और  यह मेरी जंघा पर पड़ा तू।' अट्टहास करके भगवान ने नखों से उसके वक्ष  को विदीर्ण कर डाला।
वह उग्ररूप— देवता डर गये,  ब्रह्मा जी अवसन्न हो गये, महालक्ष्मी दूर से लौट आयीं; पर  प्रह्लाद-वे तो प्रभु के वर प्राप्त पुत्र  थे। उन्होंने स्तुति की। भगवान नृसिंह  ने गोद में उठा कर उन्हें बैठा लिया। स्नेह से चाटने लगे। प्रह्लाद दैत्यपति हुए

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