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रविवार, 14 अक्टूबर 2012

नवरात्रों का महत्त्व - मनोभाव को सकारात्मकता प्रदान करते हैं नवरात्र

नवरात्रों का महत्त्व
मनोभाव को सकारात्मकता प्रदान करते हैं नवरात्र

पितृपक्ष अथवा श्राद्घ की समाप्ति हो अथवा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की समाप्ति, इनके साथ ही परिवेश में एक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगता है। इस परिवर्तन के कई स्तर और रूप हैं। पहला परिवर्तन है ऋतु परिवर्तन। इसीलिए नवरात्रों का आयोजन भी वर्ष में दो बार किया जाता है- एक वसंतकालीन नवरात्र तथा दूसरा शरदकालीन नवरात्र । वसंत और शरद दोनों ही ऋतु परिवर्तन के सूचक हैं। दोनों ही विषम ऋतुओं के मध्य संधिकाल के सूचक हैं। यदि इन्हें भी अलग ऋतुओं की तरह देखें तो, वसंत ऋतु का आगमन सर्दी और गर्मी के मध्य तथा शरद ऋतु का आगमन बरसात और सर्दी के मध्य होता है।

ऋतुओं के संधिकाल में नवरात्रों का आयोजन वास्तव में मनुष्य के बाह्य और आंतरिक परिवर्तन में संतुलन स्थापित करना है। जिस प्रकार बाह्य जगत में परिवर्तन व्याप्त है, उसी प्रकार मनुष्य के अंतर्जगत में भी परिवर्तन व्याप्त है। इस आयोजन का उद्देश्य ही मनुष्य के अंतर्जगत में सही परिवर्तन के अनुकूल बनाकर उसे संतुलन प्रदान करना है। मनुष्य के लिए बाह्य परिवर्तन को स्वीकार करना अनिवार्य है। बाह्य परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए आंतरिक परिवर्तन अनिवार्य है। यदि मनुष्य के मनोभावों में अपेक्षित परिवर्तन हो जाता है, उसकी स्वीकार्यता बढ़ जाती है।

नवरात्रों के दौरान किए जाने वाले अनुष्ठान व्रत तथा पूजा-अर्चना आदि पर्यावरण की शुद्घि के साथ-साथ मनुष्य की शरीर शुद्घि और भाव शुद्घि करने में भी सक्षम हैं। आप नवरात्र के समय किए जाने वाले फलाहार या उपवास व्रत को ही लीजिए। यह शरीर शुद्घि का पारंपरिक तरीका है जो प्राकृतिक चिकित्सा का भी एक अनिवार्य तत्व है। सभी धर्म में इसीलिए तो व्रत का महत्व है। नवरात्रों के दौरान व्रत का भी यही उद्देश्य है कि उसके द्वारा सबसे पहले मनुष्य शरीर की शुद्घि करे। शरीर की शुद्घि के बिना मन की शुद्घि अर्थात भावशुद्घि संभव नहीं।

नवरात्रों का आयोजन हमेशा मास के शुक्ल पक्ष में ही होता है, क्योंकि कृष्ण पक्ष बढ़ते अंधकार और अज्ञान का प्रतीक है। शुक्ल पक्ष घटते अंधकार, अज्ञान व बढ़ते प्रकाश और ज्ञान का प्रतीक। वेदों में प्रार्थना की गई है :

'असतो मा सद्गमय,

तमसो मा ज्योतिर्गमय,

मृत्योर्मामृतमगमय।'

शुक्ल पक्ष में नवरात्रों का आयोजन इस तथ्य का प्रतीक है कि हम निरंतर असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरता की ओर अग्रसर हों। अपने मनोभावों को सकारात्मकता प्रदान करें, क्योंकि सकारात्मकता के अभाव में असत्य, तमस और मृत्यु से पार पाना असंभव है।

नवरात्रों के आयोजन का एक और पक्ष भी है। इन दिनों दुर्गा के विभिन्न नौ रूपों की अर्चना की जाती है। दुर्गा के ये रूप वस्तुत: मनुष्य की विभिन्न मनोदशाओं के परिष्कार से जुडे़ हैं। दुर्गा के विभिन्न रूप विभिन्न राक्षसों के संहार से जुडे़ हैं। ये राक्षस वास्तव में मनुष्य की नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रतीक हैं। राक्षसों का संहार करने वाली देवी की पूजा का अर्थ है आसुरी वृत्तियों अर्थात अपने मन से नकारात्मक भावों का उन्मूलन। यदि हम ऐसा नहीं कर पाते, तो नवरात्रों का आयोजन निरर्थक है।

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