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शनिवार, 18 जनवरी 2020

सनातनी स्त्रियाँ भी सोने के मृग के कारण घर में कलह न करें

स्त्रियों के लिए 

( सभी स्त्रियाँ अवश्य पढ़ें ) 

यह पोस्ट मैं विशेष रूप से स्त्रियों और उन परिवारों के लिए लिख रहा हूँ जिनकी बेटियाँ teen age में प्रवेश कर रहीं हैं ।

घटना का वर्णन वाल्मीकि रामायण के अनुसार है ।

राम रावण युद्ध समाप्त हो चुका है । हनुमान जी , सीता जी के पास जाते हैं और यह समाचार देते हैं ।

हनुमान जी पूछते हैं, माता , अब बाक़ी बचे हुए राक्षसों का क्या किया जाए ? क्योंकि बचे खुचे राक्षस बहुत ही भयभीत हैं ।

सीता जी कहती हैं की “ क्षमा दे दो “ ।

हनुमान जी कहते हैं, ऐसा क्यों माता ?

सीता : भूल तो सभी करते हैं और जो उस भूल का पश्चाताप करते हैं उन्हें क्षमा कर देना चाहिए ।

हनुमान जी की आँखों में प्रेम के आँशू थे ।

सीता जी बोली ..भूलें तो मुझसे भी हुई ..

आपसे भूल ? हनुमान जी को आश्चर्य हुआ 

सीता जी बोली , हाँ हनुमान जी मुझसे एक नहीं तीन भूलें एक ही दिन हुईं ।

हनुमान जी प्रश्नवाचक अवस्था में आ गए ।

सीता जी बोली ;

01. पहली भूल , सोने का मृग देखकर मुझमें उसके चर्म को पाने की कामना जगी और मैंने राम को उसके पीछे , स्त्री हठ करके भेजा ।

02. दूसरी भूल हुई , मारीच की आवाज़ सुनने के बाद , मैंने लक्ष्मण की बात सुननी बन्द कर दी । और लक्ष्मण जी को बुरा भला कहकर बाहर भेज दिया ।

03. और तीसरी सबसे बड़ी भूल करी की मैंने देखा एक हट्टा कट्टा व्यक्ति बाहर आया , मैंने देखा की उसने गेरूआ कपड़ा पहना है , शिखा सूत्र पहने हुए है और मेरी प्रशंसा करें जा रहा है । अपनी प्रशंसा सुनने के बाद मैं अपना विवेक खो बैठी । और भयानक भूल करते हुए जोगी भेषधारी राक्षस रावण के चंगुल में फँस गई ...

कथा का तात्पर्य निश्चय..

आज भी विधर्मी मुन्ना , गुड्डू , नन्हे , पप्पू, छोटे इत्यादि के नाम से , बढ़िया ट्रेंडी बाल कटवा कर , क्रीम स्रीम पोतकर और वॉलीवुडिया डॉयलॉग्स रटकर सनातनी बच्चियों को अपने चंगुल में डाल रहे हैं । 

सनातनी स्त्रियाँ भी सोने के मृग के कारण घर में कलह न करें , पड़ोसी के वहाँ 52 इंच की टीवी और आपके पास 32 इंच की तो उसके कारण घर में कलह न करें ।

कथाएं , आपको जीवन में सीख देने के लिए हैं और जीवन को आगे उन्नत बनाने के लिए हैं । 

मैंने संकेत दे दिया है । बच्चियाँ और स्त्रियाँ भी , मुन्ना नामधारी विधर्मियों से बचें ।
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मैंने स्कूल के इतिहास में भारत का स्वतंत्रता संग्राम पढ़ते वक्त दामोदर चापेकर, बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर की कहानी नहीं पढ़ी थी।

आज अगर कोई कहे कि घर में पूजा है, तो ये माना जा सकता है कि “सत्यनारायण कथा” होने वाली है। ऐसा हमेशा से नहीं था। दो सौ साल पहले के दौर में घरों में होने वाली पूजा में सत्यनारायण कथा सुनाया जाना उतना आम नहीं था। हरि विनायक ने कभी 1890 के आस पास स्कन्द पुराण में मौजूद इस संस्कृत कहानी का जिस रूप में अनुवाद किया, हमलोग लगभग वही सुनते हैं। हरि विनायक की आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत नहीं थी और वो दरबारों और दूसरी जगहों पर कीर्तन गाकर आजीविका चलाते थे।

कुछ तो आर्थिक कारणों से और कुछ अपने बेटों को अपना काम सिखाने के लिए उन्होंने अपनी कीर्तन मंडली में अलग से कोई संगीत बजाने वाले नहीं रखे। उन्होंने अपने तीनो बेटों को इसी काम में लगा रखा था। दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव को इसी कारण कोई ख़ास स्कूल की शिक्षा नहीं मिली। हाँ ये कहा जा सकता है कि संस्कृत और मराठी जैसी भाषाएँ इनके लिए परिवार में ही सीख लेना बिलकुल आसान था। ऊपर से लगातार दरबार जैसी जगहों पर आने जाने के कारण अपने समय के बड़े पंडितों के साथ उनका उठाना बैठना था। दामोदर हरि अपनी आत्मकथा में भी यही लिखते हैं कि दो चार परीक्षाएं पास करने से बेहतर शिक्षा उन्हें ज्ञानियों के साथ उठने बैठने के कारण मिल गयी थी।

आज अगर पूछा जाए तो हरि विनायक को उनके सत्यनारायण कथा के अनुवाद के लिए तो नहीं ही याद किया जाता। उन्हें उनके बेटों की वजह से याद किया जाता है। सर्टिफिकेट के आधार पर जो तीनों कम पढ़े-लिखे बेटे थे और अपनी पत्नी के साथ हरि विनायक पुणे के पास रहते थे। आज जिसे इंडस्ट्रियल एरिया माना जाता है, वो चिंचवाड़ उस दौर में पूरा ही गाँव हुआ करता था। 1896 के अंत में पुणे में प्लेग फैला और 1897 की फ़रवरी तक इस बीमारी ने भयावह रूप धारण कर लिया। ब्युबोनिक प्लेग से जितनी मौतें होती हैं, पुणे के उस प्लेग में उससे दोगुनी दर से मौतें हो रही थीं। तबतक भारत के अंतिम बड़े स्वतंत्रता संग्राम को चालीस साल हो चुके थे और फिरंगियों ने पूरे भारत पर अपना शिकंजा कस रखा था।

अंग्रेजों को दहेज़ में मिले मुंबई (तब बॉम्बे) के इतने पास प्लेग के भयावह स्वरुप को देखते हुए आईसीएस अधिकारी वाल्टर चार्ल्स रैंड को नियुक्त किया गया। उसे प्लेग के नियंत्रण के तरीके दमनकारी थे। उसे साथ के फौजी अफसर घरों में जबरन घुसकर लोगों में प्लेग के लक्षण ढूँढ़ते और उन्हें अलग कैंप में ले जाते। इस काम के लिए वो घरों में घुसकर औरतों-मर्दों सभी को नंगा करके जांच करते। तीनों भाइयों को साफ़ समझ में आ रहा था कि महिलाओं के साथ होते इस दुर्व्यवहार के लिए वाल्टर रैंड ही जिम्मेदार है। उन्होंने देशवासियों के साथ हो रहे इस दमन के विरोध में वाल्टर रैंड का वध करने की ठान ली।

थोड़े समय बाद (22 जून 1897 को) रानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक की डायमंड जुबली मनाई जाने वाली थी। दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव ने इसी दिन वाल्टर रैंड का वध करने की ठानी। हरेक भाई एक तलवार और एक बन्दूक/पिस्तौल से लैस होकर निकले। आज जिसे सेनापति बापत मार्ग कहा जाता है, वो वहीँ वाल्टर रैंड का इन्तजार करने वाले थे मगर ढकी हुई सवारी की वजह से वो जाते वक्त वाल्टर रैंड की सवारी पहचान नहीं पाए। लिहाजा अपने हथियार छुपाकर दामोदर हरि ने लौटते वक्त वाल्टर रैंड का इंतजार किया। जैसे ही वाल्टर रवाना हुआ, दामोदर हरि उसकी सवारी के पीछे दौड़े और चिल्लाकर अपने भाइयों से कहा “गुंडया आला रे!”

सवारी का पर्दा खींचकर दामोदर हरि ने गोली दाग दी। उसके ठीक पीछे की सवारी में आय्रेस्ट नाम का वाल्टर का ही फौजी एस्कॉर्ट था। बालकृष्ण हरि ने उसके सर में गोली मार दी और उसकी फ़ौरन मौत हो गयी। वाल्टर फ़ौरन नहीं मरा था, उसे ससून हॉस्पिटल ले जाया गया और 3 जुलाई 1897 को उसकी मौत हुई। इस घटना की गवाही द्रविड़ बंधुओं ने दी थी। उनकी पहचान पर दामोदर हरि गिरफ्तार हुए और उन्हें 18 अप्रैल 1898 को फांसी दी गयी। बालकृष्ण हरि भागने में कामयाब तो हुए मगर जनवरी 1899 को किसी साथी की गद्दारी की वजह से पकड़े गए। बालकृष्ण हरि को 12 मई 1899 को फांसी दी गयी।

भाई के खिलाफ गवाही देने वाले द्रविड़ बंधुओं का वासुदेव हरि ने वध कर दिया था। अपने साथियों महादेव विनायक रानाडे और खांडो विष्णु साठे के साथ उन्होंने उसी शाम (9 फ़रवरी 1899) को पुलिस के चीफ कांस्टेबल रामा पांडू को भी मारने की कोशिश की मगर पकड़े गए। वासुदेव हरि को 8 मई 1899 और महादेव रानाडे को 10 मई 1899 को फांसी दी गयी। खांडो विष्णु साठे उस वक्त नाबालिग थे इसलिए उन्हें दस साल कैद-ए-बामुशक्कत सुनाई गयी।

मैंने स्कूल के इतिहास में भारत का स्वतंत्रता संग्राम पढ़ते वक्त दामोदर चापेकर, बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर की कहानी नहीं पढ़ी थी। जैसे पटना में सात शहीदों की मूर्ती दिखती है वैसे ही चापेकर बंधुओं की मूर्तियाँ पुणे के चिंचवाड में लगी हैं। उनकी पुरानी किस्म की बंदूकें देखकर जब हमने पूछा कि ये क्या 1857 के सेनानी थे? तब चापेकर बंधुओं का नाम और उनकी कहानी मालूम पड़ी। भारत के स्वतंत्रता संग्राम को अहिंसक साबित करने की जिद में शायद इनका नाम किताबों में शामिल करना उपन्यासकारों को जरूरी नहीं लगा होगा। काफी बाद में (2018) भारत सरकार ने दामोदर हरि चापेकर का डाक टिकट जारी किया है।

बाकी इतिहास खंगालियेगा भी तो चापेकर के किये अनुवाद से पहले, सत्यनारायण कथा के पूरे भारत में प्रचलित होने का कोई पुराना इतिहास नहीं निकलेगा। चापेकर बंधुओं को किताबों और फिल्मों आदि में भले कम जगह मिली हो, धर्म अपने बलिदानियों को कैसे याद रखता है, ये अगली बार सत्यनारायण की कथा सुनते वक्त जरूर याद कर लीजियेगा। धर्म है, तो राष्ट्र भी है!

धर्मो रक्षति रक्षितः
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भगवद्गीता पर पोस्ट लिखने पर कई बार लोग ये पूछते थे कि कौन सी पढूं? हम मन ही मन सोचते पांच सौ वाली भगवद्गीता पचास वाली से बेहतर होती है क्या! करीब हर शहर में गीता प्रेस की दुकानें होती हैं, जो भी आर्थिक सामर्थ्य के हिसाब से सही लगे बारह से दो सौ रुपये के बीच की वो खरीद के रख लें। इन्टरनेट से मुफ्त डाउनलोड हो सकता है, उसे भी पढ़ सकते हैं। फिर भला मुझसे क्यों पूछना है? चलो पूछ भी लिया और हमने बता भी दिया तो उस जानकारी का कोई कुछ करता भी है?

शुरूआती दौर में नतीजे नहीं दिखेंगे ऐसा मानते हुए हमने बताना जारी रखा। एक बार में ही पूरा पढ़ना बोरियत भरा और मुश्किल हो सकता है इसलिए पेंसिल लेकर गीता के साथ रखिये, और उसे किसी सामने की जगह पर रखिये जिस से आते जाते, टीवी देखते कभी भी उसपर नजर पड़ जाए। जब समय मिले, याद आये, उठा के दो-चार, पांच जितने भी श्लोक हो सके पढ़ लीजिये। रैंडमली कभी भी कहीं से भी पढ़िए और जिसे पढ़ लिया उसपर टिक मार्क कर दीजिये। थोड़े दिन में सारे श्लोक पढ़ चुके होंगे, ये भी बताते रहे।

कई बार यही दोहराने पर भी करीब साल भर होने को आया और नतीजे लगभग कुछ नहीं दिख रहे थे। फिर एक दिन किसी ने बताया कि उसने पूरी भगवद्गीता पढ़ ली है, फिर दुसरे ने, अचानक कई लोग बताने लगे थे! मामला यहीं नहीं रुका, लोगों ने बच्चों के लिहाज से लिखी गई भगवद्गीता की टीकाएँ उठाई, किसी ने अंग्रेजी वाली ली, किसी ने उपन्यास की सी शक्ल वाली, और लोग पढ़ते गए। अब एक कदम और आगे बढ़ते हुए भगवद्गीता बांटी भी जाने लगी है। कीमत बहुत ज्यादा नहीं होती इसलिए इतना मुश्किल भी नहीं। घर में होगी तो अपना पाठक वो खुद ढूंढ लेगी।

घर में होने वाले पूजा या अन्य आयोजनों में ऐसी किताबें आसानी से अतिथियों को भेंट की जा सकती हैं। कोशिश कीजिये, उतना मुश्किल भी नहीं है। कहते हैं :-

धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्।।

जो धर्म का नाश करता है, उसका नाश धर्म स्वयं कर देता है, जो धर्म और धर्म पर चलने वालों की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा अपनी प्रकृति की शक्ति से करता है। अत: धर्म का त्याग कभी नहीं करना चाहिए। आपके धर्म की रक्षा आपकी ही जिम्मेदारी है। अगली पीढ़ी तक उसे पहुँचाने का अगर आपने कोई प्रयास नहीं किया तो उसके क्षय का किसी और को दोषी भी मत कहिये, ये आपकी ही जिम्मेदारी है।

आप “राष्ट्र” का क्या अर्थ समझते हैं? कभी सोचा भी है क्या इस बारे में? अगर नहीं सोचा तो ऐसे सोचिये – भारत के प्रधानमंत्री अमेरिका जाते हैं और वहां भारी प्रवासी भारतीय और भारतवंशियों की भीड़ उनके नारे लगा रही होती है! चलिए प्रवासियों पर तो शायद असर होता होगा, लेकिन भारतवंशी को किसी के भारत का प्रधानमंत्री हो जाने, या ना होने से क्या फर्क पड़ेगा? उसके नाते रिश्ते तो दशकों पहले छूट गए।

वो ना भारत आता जाता है, ना ही जिन लोगों ने प्रधानमंत्री चुना, उनके जीवन से उसका कोई लेना-देना है। फिर वो खुश क्यों हो रहा है? कौन सी डोर उसे बांधती है? सवाल इतने पर ही ख़त्म नहीं होता, अभी दिल्ली के किले तक सिमित हो चुके मुग़ल साम्राज्य के शासक बहादुरशाह जफ़र पर चिपकाया जाने वाला शेर भी याद कीजिये – “गाज़ी खूं में बू रहेगी, जब तलक ईमान की, तख्ते लन्दन तक चलेगी तेग हिन्दुस्तान की”।

इसके साथ याद कीजिये कि जलियांवाला बाग़ के नरपिशाच को लन्दन में जाकर कुत्ते की मौत मारा गया था। एक आदमी के वहां होने से भारत का वहां होना अगर ऐसे समझने में दिक्कत होती हो तो इस तर्क को उल्टा कर लीजये। जो भारत में ही कहीं “भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा### के नारे लगा रहा था वो कौन था? भारतीय था या कोई बाहर का था? सीमाओं के हिसाब से राष्ट्र होता तो वो भारत में भारत का था।

सीमाओं के हिसाब से राष्ट्र तय नहीं होता। ये किसी एक भाषा, किसी एक धर्म, किसी एक जाति, काबिले, वंश से भी तय नहीं होता। इन सब से अलग राष्ट्र सिर्फ एक सोच है। ये विचार जहाँ होगा, राष्ट्र उस हर जगह होगा। फिर चाहे वो सोच भौगोलिक सीमाओं के अन्दर हो, या फिर इनके बाहर। इसे समझने में दिक्कत इसलिए है क्योंकि इस विषय पर सोचने कभी किसी ने कहा ही नहीं। 

#शहरी_नक्सलों की धड़पकड़ ने इस सवाल को जिन्दा कर दिया है। वो प्रोफेसरों, लेखकों, पत्रकारों और क्रांतिकारियों के वेश में आपके बच्चों को बरगलाकर ले जा रहे हैं। आपके बच्चों को बचाने क्या आपके पड़ोसी आने वाले हैं? नहीं आ रहे तो कम से कम खुद तो सोचकर देखिये...
✍🏻आनंद कुमार जी की पोस्टों से   संग्रहित

बीमार कर देगी ये जहरीली हवा तो जानिए इससे बचने के नेचुरल उपाय

*बीमार कर देगी ये जहरीली हवा तो जानिए इससे बचने के नेचुरल उपाय।*
1. खाना खाने के बाद थोड़ा सा गुड़ जरूर खाएं गुड़ खून साफ करता है। इससे आप प्रदूषण से बचे रहेंगे।

 2. फेफड़ों को धूल के कणों से बचाने के लिए आप रोजाना एक गिलास गर्म दूध जरूर पियें। 

3. अदरक का रस और सरसों का तेल नाक में बूंद-बूंद कर डालने से भी आप हानिकारक धूल कणों से भी बचे रहेंगे।

4. खुद को प्रदूषण के प्रभाव से बचाने के लिए आप ज्यादा से ज्यादा पानी का सेवन करें।

 5. शहद में काली मिर्च मिलाकर खाएं, आपके फेफड़े में जमी कफ और गंदगी बाहर निकल जाएगी।

 6. अजवायन की पत्तियों का पानी पीने से भी व्यक्ति का खून साफ होने के साथ शरीर के भीतर मौजूद दूषित तत्व बाहर निकल जाते हैं।

7. तुलसी प्रदुषण से आपकी रक्षा करती है, इसलिए रोजाना तुलसी के पत्तों का पानी पीने से आप स्वस्थ बने रहेंगे।

8. ठंडे पानी की जगह गर्म पानी का सेवन करना शुरू कर दें।
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जब केवट भगवान के चरण धो रहे हैं।

क्षीर सागर में भगवान विष्णु शेषशैया पर विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मीजी उनके पैर दबा रही हैं। 
विष्णुजी के एक पैर  का अँगूठा शैया के बाहर आ गया और लहरें उससे खिलवाड़ करने लगीं । 

क्षीरसागर के एक कछुवे ने इस दृश्य को देखा और मन में यह विचार कर कि मैं यदि भगवान विष्णु के अँगूठे को अपनी जिह्वा से स्पर्श कर लूँ तो मेरा मोक्ष हो जायेगा, 
यह सोच कर उनकी ओर बढ़ा। 

उसे भगवान विष्णु की ओर आते हुये शेषनाग ने देख लिया और कछुवे को भगाने के लिये जोर से फुँफकारा। 
फुँफकार सुन कर कछुवा भाग कर छुप गया। 

कुछ समय पश्चात् जब शेषजी का ध्यान हट गया तो उसने पुनः प्रयास किया। 
इस बार लक्ष्मीदेवी की दृष्टि उस पर पड़ गई और उन्होंने उसे भगा दिया। 

इस प्रकार उस कछुवे ने अनेक प्रयास किये पर शेष नाग और लक्ष्मी माता के कारण उसे  सफलता नहीं मिली। 
यहाँ तक कि सृष्टि की रचना हो गई और सत्युग बीत जाने के बाद त्रेता युग आ गया। 
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इस मध्य उस कछुवे ने अनेक बार अनेक योनियों में जन्म लिया और प्रत्येक जन्म में भगवान की प्राप्ति का प्रयत्न करता रहा। अपने तपोबल से उसने दिव्य दृष्टि को प्राप्त कर लिया था। 

कछुवे को पता था कि त्रेता युग में वही क्षीरसागर में शयन करने वाले विष्णु राम और वही शेषनाग लक्ष्मण व वही लक्ष्मीदेवी सीता के रूप में अवतरित होंगे तथा वनवास के समय उन्हें गंगा पार उतरने की आवश्यकता पड़ेगी। 
इसीलिये वह भी केवट बन कर वहाँ आ गया था।

एक युग से भी अधिक काल तक तपस्या करने के कारण उसने प्रभु के सारे मर्म जान लिये थे, इसीलिये उसने रामजी से कहा था कि मैं आपका मर्म जानता हूँ। 
संत श्री तुलसीदासजी भी इस तथ्य को जानते थे, 
इसलिये अपनी चौपाई में केवट के मुख से कहलवाया है कि.. 
“कहहि तुम्हार मरमु मैं जाना”।

केवल इतना ही नहीं, इस बार केवट इस अवसर को किसी भी प्रकार हाथ से जाने नहीं देना चाहता था। 
उसे याद था कि शेषनाग क्रोध कर के फुँफकारते थे और मैं डर जाता था। 
अबकी बार वे लक्ष्मण के रूप में मुझ पर अपना बाण भी चला सकते हैं, 
पर इस बार उसने अपने भय को त्याग दिया था, 
लक्ष्मण के तीर से मर जाना उसे स्वीकार था पर इस अवसर को खो देना नहीं। 

इसीलिये विद्वान संत श्री तुलसीदासजी ने लिखा है..
हे नाथ! मैं चरणकमल धोकर आप लोगों को नाव पर चढ़ा लूँगा; 
मैं आपसे उतराई भी नहीं चाहता। 
हे राम ! मुझे आपकी दुहाई और दशरथजी की सौगंध है, 
मैं आपसे बिल्कुल सच कह रहा हूँ। 
भले ही लक्ष्मणजी मुझे तीर मार दें, 
पर जब तक मैं आपके पैरों को पखार नहीं लूँगा, 
तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे कृपालु! मैं पार नहीं उतारूँगा। 

तुलसीदासजी आगे और लिखते हैं..
केवट के प्रेम से लपेटे हुये अटपटे वचन को सुन कर करुणा के धाम श्री रामचन्द्रजी जानकी और लक्ष्मण की ओर देख कर हँसे। 
जैसे वे उनसे पूछ रहे हैं... 
"कहो, अब क्या करूँ, उस समय तो केवल अँगूठे को स्पर्श करना चाहता था और तुम लोग इसे भगा देते थे पर अब तो यह दोनों पैर माँग रहा है!"

केवट बहुत चतुर था। 
उसने अपने साथ ही साथ अपने परिवार और पितरों को भी मोक्ष प्रदान करवा दिया। 

तुलसीदासजी लिखते हैं...
चरणों को धोकर पूरे परिवार सहित उस चरणामृत का पान करके उसी जल से पितरों का तर्पण करके अपने पितरों को भवसागर से पार कर फिर आनन्दपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्र को गंगा के पार ले गया।

उस समय का प्रसंग है... 
जब केवट भगवान के चरण धो रहे हैं।
बड़ा प्यारा दृश्य है, भगवान का एक पैर धोकर उसे निकलकर कठौती से बाहर रख देते हैं, और जब दूसरा धोने लगते हैं, 
तो पहला वाला पैर गीला होने से जमीन पर रखने से धूल भरा हो जाता है,
केवट दूसरा पैर बाहर रखते हैं, फिर पहले वाले को धोते हैं, 
एक-एक पैर को सात-सात बार धोते हैं।
फिर ये सब देखकर कहते हैं, 
प्रभु, एक पैर कठौती में रखिये दूसरा मेरे हाथ पर रखिये, ताकि मैला ना हो।
जब भगवान् ऐसा ही करते हैं। तो जरा सोचिये... क्या स्थिति होगी, 
यदि एक पैर कठौती में है और दूसरा केवट के हाथों में, 
भगवान् दोनों पैरों से खड़े नहीं हो पाते! 
बोले- केवट मैं गिर जाऊँगा?
केवट बोला - चिंता क्यों करते हो भगवन्!
दोनों हाथों को मेरे सिर पर रख कर खड़े हो जाइये, फिर नहीं गिरेंगे,,
जैसे कोई छोटा बच्चा है जब उसकी माँ उसे स्नान कराती है तो बच्चा माँ के सिर पर हाथ रखकर खड़ा हो जाता है, भगवान भी आज वैसे ही खड़े हैं। 
भगवान् केवट से बोले - भइया केवट ! मेरे अंदर का अभिमान आज टूट गया...
केवट बोला - प्रभु ! क्या कह रहे हैं?.
भगवान् बोले - सच कह रहा हूँ केवट, 
अभी तक मेरे अंदर अभिमान था, 
कि .... मैं भक्तों को गिरने से बचाता हूँ,,
पर.. आज पता चला कि, भक्त भी भगवान् को गिरने से बचाता है।
जै राम जी की।।🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

प्याज़ खाना क्यों मना?

*प्याज़ खाना क्यों मना!?!*

(कृपया पोस्ट पूरी पढ़ें; ये जानकारी अन्य कहीं नहीं मिलेगी)
शाकाहार होने तथा चिकित्सीय गुण होने के बावजूद साधकों हेतु प्याज-लहसुन वर्जित क्यों है, इसपर विस्तृत शोध के कुछ बिंदु आपके समक्ष रख रहा हूं!....

*1)मलूक पीठाधीश्वर संत श्री राजेन्द्र दास जी बताते हैं कि एक बार प्याज़-लहसुन  खाने का प्रभाव देह में 27 दिनों तक रहता है,और उस दौरान व्यक्ति यदि मर जाये तो नरकगामी होता है!ऐसा शास्त्रों में लिखा है!*

*2) प्याज़ का सेवन करने से 55 मर्म-स्थानों में चर्बी जमा हो जाती है, जिसके फलस्वरूप शरीर की सूक्ष्म संवेदनाएं नष्ट हो जाती हैं!*

3) भगवान के भोग में, नवरात्रि आदि व्रत-उपवास में ,तीर्थ यात्रा में ,श्राद्ध के भोजन में और विशेष पर्वों पर प्याज़-लहसुन युक्त भोजन बनाना निषिद्ध है, जिससे समझ में आ जाना चाहिए कि प्याज-लहसुन दूषित वस्तुएं हैं! 

4)कुछ देर प्याज़ को बगल में दबाकर बैठने से बुखार चढ़ जाता है! प्याज काटते समय ही आंखों में आंसू आ जाते हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शरीर के भीतर जाकर यह कितनी अधिक हलचल उत्पन्न करता होगा!?!

*5) हवाई-जहाज चलाने वाले 👉पायलटों को जहाज चलाने के 72 घंटे पूर्व तक प्याज़ का सेवन ना करने का परामर्श दिया जाता है, क्योंकि प्याज़ खाने से तुरंत प्रतिक्रिया देने की क्षमता(Reflexive ability) प्रभावित होती है!*

6) शास्त्रों में प्याज़ को "पलांडू" कहा गया है! *याज्ञवल्क्य संहिता के अनुसार प्याज एवं गोमांस दोनों के ही खाने का प्रायश्चित है--- चंद्रायण व्रत! (इसीलिए श्री जटिया बाबा प्याज़ को गो मांस तुल्य बताते थे!)*

*7) ब्रह्मा जी जब सृष्टि कर रहे थे, तो दो राक्षस उसमें बाधा उत्पन्न कर रहे थे! उनके शरीर क्रमशः मल और मूत्र के बने हुए थे! ब्रह्मा जी ने उन्हें मारा तो उनके शरीर की बोटियां पृथ्वी पर जहां-जहां गिरीं, वहां प्याज़ और लहसुन के पेड़ उग आए! लैबोरेट्री में टेस्ट करने पर भी प्याज़ और लहसुन में क्रमशः गंधक और यूरिया प्रचुर मात्रा में मिलता है, जो क्रमशः मल मूत्र में पाया जाता है!*

*8) एक अन्य कथा के अनुसार,भगवान विष्णु के मोहिनी अवतार द्वारा राहूकेतू का सिर काटे जाने पर उसके कटे सिर से अमृत की कुछ बूंदे ज़मीन पर गिर गईं थीं,जिनसे प्याज़ और लहसुन उपजे! चूंकि यह दोनों सब्जियां अमृत की बूंदों से उपजी हैं, इसलिए यह रोगों और रोगाणुओं को नष्ट करने में अमृत समान होती हैं,पर क्योंकि यह राक्षस के मुख से होकर गिरी हैं, इसलिए इनमें तेज गंध है और ये अपवित्र हैं, जिन्हें कभी भी भगवान के भोग में इस्तमाल नहीं किया जाता! कहा जाता है कि जो भी प्याज और लहसुन खाता है उनका शरीर राक्षसों के शरीर की भांति मजबूत हो जाता है, लेकिन साथ ही उनकी बुद्धि और सोच-विचार राक्षसों की तरह दूषित भी हो जाते हैं!*

*9)इनके राजसिक तामसिक गुणों के कारण आयुर्वेद में भी प्याज़-लहसुन खाने की मनाही है! 👉प्राचीन मिस्र के पुरोहित प्याज़-लहसुन नहीं खाते थे!  चीन में रहने वाले बौद्ध धर्म के अनुयायी भी प्याज़-लहसुन खाना पसंद नहीं करते!* 

*वैष्णव और जैन पूरी तरह से प्याज और लहसुन का परहेज करते हैं ।*


         
इतने प्रमाण होते हुए भी केवल जीभ के स्वार्थ हेतु प्याज़-लहसुन खाते रहेंगे,तो जड़ बुद्धि कहलाएंगे! इसलिए इनका तुरंत परित्याग करने में ही भलाई है!
घरवाले नहीं मानते,तो उन्हें उपरोक्त बातें समझाएँ ।
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