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शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

श्री गणेश चतुर्थी विशेष

श्री गणेश चतुर्थी विशेष


* श्रीगणेशजी द्वारा चन्द्रमा को शाप की कथा -

          प्राचीन काल की बात है–कैलास शिखर पर अनेक देव, दिव्य ऋषिगण, सिद्धगणादि के साथ चतुरानन ब्रह्माजी भी एक उच्च आसन पर विराजमान थे। वहीं पर एक अन्य आसन पर भगवान् शंकर भी जगज्जननी उमा के सहित सुशोभित थे। उनके निकट ही गणपति और कुमार कार्तिकेय दोनों ही अन्य बालकों के साथ क्रीड़ा में मग्न हो रहे थे।'
          शिवजी के हाथ में एक दिव्य फल था। वे सोच रहे थे कि इसे किसे दिया जाये ? पार्वती जी से पूछा तो वे कभी कहतीं कि गणेश को दे दीजिए और कभी कहतीं कुमार को देना उचित होगा। जब वे कुछ निश्चयात्मक उत्तर न दे पाईं तो शिवजी ने उसे बाद में विचार करने के उद्देश्य से अपने पास रख लिया।
          अब दोनों बालक-गणेश और कुमार उस फल की माँग करने लगे। जब उनका अधिक आग्रह बढ़ा तब शिवजी ने ब्रह्मा जी से पूछा–'ब्रह्मन् ! यह अपूर्व फल देवर्षि नारदजी दे गये थे। इसे यह दोनों बालक माँग रहे। हैं। फल एक ही है और आधा फल कोई लेना नहीं चाहता। ऐसी स्थिति में आप ही निर्णय कीजिए कि यह इनमें से किसे दिया जाय ?'
          चतुरानन विचार कर बोले–'यदि फल एक ही है तो नियमानुसार कुमार को दिया जाना चाहिए। क्योंकि किसी भी वस्तु पर बड़े बालक का अधिकार पहिले पहुँचता है।'
          ब्रह्माजी की बात सुनकर शिवजी ने वह फल कुमार को दे दिया। यह देखकर गणपति रुष्ट हो गये, विशेष कर उनका क्रोध चतुरानन पर ही था कि उन्होंने ऐसी व्यवस्था क्यों दे डाली ?
          सभा समाप्त हुई। सभी देवता आदि उठ उठकर अपने-अपने स्थानों को चले गये। ब्रह्माजी भी अपने लोक में जा पहुँचे। वहाँ उन्हें सृष्टि का आरम्भ करना था। किन्तु, जैसे ही वे सर्गरचना में लगे, वैसे ही गणेश्वर ने विघ्न उपस्थित कर दिया। उस समय उन्होंने प्रकट होकर अपना अत्यन्त उग्र रूप दिखाया। उनके उस रूप को देखकर ब्रह्माजी डर के कारण काँपने लगे।
          चन्द्रमा ने देखा कि गणपति के उग्ररूप को देखकर ब्रह्माजी भय से काँप रहे हैं, तो उसे हँसी आ गई। उसके साथ ही चन्द्रमा के जो गण उस दृश्य को देख रहे थे, वे भी हँस पड़े। यह देखकर भगवान् गजानन को क्रोध आ गया और वे चन्द्रमा को शाप देते हुए बोले–'मयंक ! तूने इस समय मेरी हँसी उड़ाकर जो अभद्रता प्रदर्शित की है, उसका फल तुझे मिलना ही चाहिए। जा तू किसी के भी देखने के योग्य नहीं रहेगा और यदि कोई भूल से भी देख लेगा तो अवश्य ही पाप का भागी होगा।'
          इतना कहकर गजमुख अन्तर्धान हो गये। उनका शाप प्राप्त होते ही चन्द्रमा श्रीहत मलिन एवं दीन हो गया। उनके तेज में अत्यन्त न्यूनता आ गई। इससे वह बहुत व्याकुल हुआ और खिन्नतापूर्वक पश्चात्ताप करने लगा–'देखो ! मैं कैसी मूर्खता कर बैठा, उन जगदीश्वर के साथ, वे प्रभु तो अणिमादि गुणों से सम्पन्न, संसार के कारण के भी कारण एवं महाप्रभु हैं। उनके रुष्ट होने से मैं अदर्शनीय एवं कलाहीन हो गया हूँ। अब इससे छुटकारा पाने के लिए क्या करूँ ?'
          जब चन्द्रमा की समझ में कोई उपाय नहीं आया तो वह तुरन्त ही देवराज इन्द्र के पास गया। परन्तु इन्द्रादि देवता भी उसे नहीं देखना चाहते थे। उन सभी ने अपनी-अपनी आँखें झुका लीं। तब इन्द्र ने भी उसकी ओर न देखते हुए ही पूछा–'अरे, चन्द्रमा ! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ? क्या गजकर्ण के शाप का ही प्रभाव है यह ? सब बात स्पष्ट कहो।'
          चन्द्रमा बोला–'देवराज ! आपसे क्या छिपा है ! सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनकर क्यों पूछ रहे हो ? सहस्त्राक्ष ! अब शीघ्र ही मेरे शाप मुक्त होने के यत्न करो, अन्यथा समस्त संसार ही मेरे शापित होने से अशुभ फल भोगेगा।'
          इन्द्र ने सान्त्वना दी और बोले–'चलो ब्रह्माजी से ही इसका उपाय पूछें। क्योंकि उनके समान ज्ञानी और सर्व लोकोपकारी अन्य कोई भी नहीं है।
          सब देवता उसके साथ ब्रह्मलोक पहुँचे। आगे-आगे चन्द्रमा और पीछे-पीछे इन्द्र के नेतृत्व में सब देवगण। ब्रह्माजी ने जब यह जाना कि चन्द्रमा आ रहा है तो पाप लगने के भय से उन्होंने भी दृष्टि नीची कर ली और बोले–'कहो सुधांशु ! यहाँ किस अभिप्राय से आना हुआ ? अरे, तुम्हारे पीछे तो देवराज इन्द्र और समस्त सुरगण ही चले आ रहे हैं !!
          ब्रह्माजी के प्रश्न का उत्तर सुरपति ने ही दिया। वे बोले–'ब्रह्मन् ! भगवान् गणेश्वर आप पर कुपित हुए थे और शाप दे बैठे चन्द्रमा को। इसलिए अब आप ही इसे छुड़ाने का कुछ उपाय कीजिए। हम सभी देवता इसी प्रयोजन से आपकी सेवा में उपस्थित हुए हैं।'
          चतुरानन ने कुछ विचार कर कहा–'उन्हीं गणेश्वर प्रभु की शरण लेनी होगी, देवराज ! चन्द्रमा को आगे रखकर उन्हीं का पूजन एवं स्तवनं करो।'
   * चन्द्रमा के ऊपर गणेश्वर की कृपा -

          ब्रह्माजी की बात सुनकर भगवान् गजानन के पूजन की तैयारी की गई। गणेश्वर की प्रतिमा बनाकर षोड़शोपचार पूजन एवं भावनापूर्वक स्तुति कर निवेदन किया गया–'प्रभो ! इस चन्द्रमा पर कृपा कीजिए, उस समय यह अज्ञानवश हँस पड़ा था, किन्तु अब इसे अपनी मूर्खता का ज्ञान हो गया है नाथ !'
          देवताओं की प्रार्थना पर भगवान् गणेश्वर प्रकट हो गए। सभी ने उनका अद्भुत रूप देखकर उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया। तब गणपति प्रसन्न होकर बोले–'देवगण ! मैं सन्तुष्ट हूँ, अतएव जो चाहो वह अभीष्ट वर माँग लो।'
          चन्द्रमा ने उनके चरणों में मस्तक रख दिया और अश्रुजल से पदारविन्दों को धोने लगा। गणेश्वर बोले–'उठ उठ ! चन्द्रमा ! अब संताप न कर, मैं तुझपर प्रसन्न हूँ।'
          चन्द्रमा ने कहा–'प्रभो ! मुझे शाप मुक्त कीजिए। मेरी कांति नष्ट। हो गई है उसे लौटा दीजिए। मैं अदर्शनीय से दर्शनीय हो जाऊँ नाथ ! मेरे अपराध को क्षमा कर दीजिए भक्तवत्सल।'
          गजकर्ण बोले–'अच्छा, बोल तुझे एक वर्ष, छः मास अथवा तीन मास के लिए अदर्शनीय रहने दिया जाय अथवा कुछ और चाहता है ? शीघ्र ही स्पष्ट बता।'
          चन्द्रमा ने कहा–'प्रभो ! मुझे बहुत दण्ड मिल गया है। अब तो क्षमा कर दीजिए।' यह कहकर उसने पुनः दण्डवत् प्रणाम किया तथा सब देवता भी उनके चरणों में झुक गये।
          गणेश्वर ने मुस्कराते हुए कहा–'मैं अपने वचन को मिथ्या कैसे करूँ ? चाहे सूर्य और सुमेरु अपना स्थान त्याग दें, समुद्र अपनी मर्यादा छोड़ दे अथवा अग्नि शीतल हो जाये, किन्तु मेरा वचन मिथ्या नहीं हो सकता। फिर भी मैं तुम्हें वर्ष में एक ही दिन के लिए शापित रखूँगा तथा–

          भाद्रशुक्लचतुर्थ्यां यो ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपि वा। 
          अभिशापो भवेच्चन्द्र दर्शनाद् भृशदुःखभाक्॥

          'जाने या अनजाने में भी जो कोई भाद्रपदशुक्ल चतुर्थी को चन्द्रमा को देखेगा वही अभिशप्त होगा और वही अधिक दुःख का भागी होगा इसमें कोई सन्देह नहीं।'
          भगवान् हेरम्ब के इन कृपापूर्ण वचनों को सुनकर चन्द्रमा बहुत प्रसन्न हुआ तथा समस्त देवगण भी उनका जय-जयकार करने लगे। चन्द्रमा ने पुनः निवेदन किया–'प्रभो ! भविष्य में मुझसे इस प्रकार की मूर्खता न हो और मेरा चित्त आपके चरण कमलों के स्मरण में लगा रहे, ऐसा वर मुझे प्रदान करें।'
          गणेश्वर ने प्रसन्न होकर कहा–'ऐसा ही होगा। परन्तु मेरे एकाक्षरी मन्त्र 'गं' का जप करते रहना। यह कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और तब समस्त देवता स्वर्गलोक को गये तथा चन्द्रमा भी अपने लोक में जा पहुँचा।
          चन्द्रमा ने बारह वर्ष तक तपश्चर्या की और गणेश्वर के एकाक्षरी मन्त्र 'गं' का निरन्तर जप करते रहे। पवित्र जाह्नवी के तट पर भक्तिपूर्वक, एकाग्र मन से उनका यह तप चलता रहा था। तभी सहसा एक दिन वे परम प्रभु चन्द्रमा के समक्ष प्रकट हो गए। इस समय उनकी रूप-छटा देखकर निशापति अवाक् रह गया। उसके चित्त में आश्चर्य मिश्रित भय की अवतारणा हुई। किन्तु शीघ्र ही उसे निश्चय हो गया कि वह साक्षात् आदिदेव भगवान् गजानन ही हैं, तो वह हाथ जोड़कर प्रणाम करता हुआ उनकी स्तुति करने लगा–

          नमामि देवं द्विरदाननं तं यः सर्वविघ्नं हरते जनानाम्।
          धर्मार्थकामांस्तनुतेऽखिलानां तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय॥

          'मैं उन दो दाँतों से युक्त परमेश्वर को नमस्कार करता हूँ, जो अपने भक्तों के सभी विघ्नों का हरण करते तथा सभी के लिए धर्म, अर्थ और काम को प्रशस्त करते हैं। उन विघ्न विनाशक परमात्मा गजानन को नमस्कार है। हे प्रभो ! मैंने अज्ञानवश जो अपराध किया था, उसे क्षमा करके मुझे मेरा पूर्व रूप प्रदान कीजिए। हे नाथ ! आप ही मुझे मेरा यह रूप प्राप्त करा सकते हैं। हे दयानिधान! आप सभी देवताओं के अधीश्वर, नित्य बोध स्वरूप एवं सत्य हैं। समस्त वेद आपके ही स्वरूप हैं तथा आपके द्वारा ही उनका प्रतिपादन हुआ है। हे देव ! यह जत् आपका ही स्वरूप है तथा आप ही साक्षात् परब्रह्म हैं।'
          हे कृपानिधि ! विश्व की उत्पत्ति, पालन और प्रलय के भी आप ही एकमात्र कारण हैं। आपका तिरस्कार कोई नहीं कर सकता।'
          भगवान् गजकर्ण ने चन्द्रमा की ओर कृपापूर्ण दृष्टि से देखा और मधुर मुस्कान बिखेरते हुए बोले–'सुधांशु ! यह तो मैं पहिले ही कह चुका था कि तुम प्रत्येक वर्ष केवल एक दिन के लिए ही अदर्शनीय रहोगे। उस दिन तुम्हें जो कोई भी जाने-अनजाने देख लेगा वही बस अभिशाप का भागी बनेगा। इस प्रकार तुम्हारी निस्तेजस्विता को ऐसे ही लोग बाँट लेंगे।
          'कृष्णपक्ष की चतुर्थी में जो व्रत किया जाय, उसमें तुम्हारा उदय होने पर व्रत करने वाले वे लोग यदि मेरी और तुम्हारी यत्नपूर्वक पूजा करेंगे तो भी उस व्रत का फल लाभ होगा। उस दिन तुम्हारा दर्शन अवश्य करना चाहिए, अन्यथा व्रत का फल नहीं होगा।'
          'चन्द्रदेव ! तुम अब भविष्य में अपने एक अंश से मेरे मस्तक में विद्यमान हो जाओ। इससे मुझे तो प्रसन्नता होगी ही, तुम्हारी भी शोभा होगी। प्रत्येक मास की शुक्लपक्ष की द्वितीया में तुम्हारे दर्शन का बड़ा महत्त्व रहेगा तथा उस दिन अधिकांश स्त्री-पुरुष तुम्हारे दर्शन का पुण्य लाभ करते हुए तुम्हें नमस्कार किया करेंगे। मैं वर देता हूँ कि अब तुम पूर्ववत् तेजस्वी, सुन्दर एवं वन्दनीय हो जाओ।
          इस प्रकार वर देकर भगवान् गजानन अन्तर्हित हो गये तथा चन्द्रमा अपना पूर्व तेज प्राप्त करके प्रसन्न हो गया।
                          ० ० ०

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                  !! ॐ गंग गणपतये नमः !!

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