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सोमवार, 29 अप्रैल 2024

वैशाखमास महात्म्य (तृतीय अध्याय)

वैशाखमास महात्म्य (तृतीय अध्याय) 
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इस अध्याय में:- वैशाख मास में छत्रदान से हेमकान्त का उद्धार का वर्णन किया गया है।

नारदजी कहते हैं👉 एक समय विदेहराज जनक के घर दोपहर के समय श्रुतदेव नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ मुनि पधारे, जो वेदों के ज्ञाता थे उन्हें देख कर राजा बड़े उल्लास के साथ उठ कर खड़े हो गये और मधुपर्क आदि सामग्रियों से उनकी विधि पूर्वक पूजा करके राजा ने उनके चरणोदक को अपने मस्तक पर धारण किया। इस प्रकार स्वागत सत्कार के पश्चात् जब वे आसन पर विराजमान हुए, तब विदेहराज के प्रश्न के अनुसार वैशाख मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए वे इस प्रकार बोले।
         
श्रुतदेव ने कहा 👉 राजन्! जो लोग वैशाख मास में धूप से सन्तप्त होने वाले महात्मा पुरुषों के ऊपर छाता लगाते हैं, उन्हें अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पहले वंगदेश में हेमकान्त नाम से विख्यात एक राजा हो गये हैं। वे कुशकेतु के पुत्र परम बुद्धिमान् और शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ थे। एक दिन वे शिकार खेलने में आसक्त होकर एक गहन वन में जा घुसे वहाँ अनेक प्रकार के मृग और वराह आदि जन्तुओं को मारकर जब वे बहुत थक गये, तब दोपहर के समय मुनियों के आश्रम पर आये। उस समय आश्रम पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शर्तरचि नाम वाले ऋषि समाधि लगाये बैठे थे, जिन्हें बाहर के कार्यो का कुछ भी भान नहीं होता था। उन्हें निश्चल बैठे देख राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उन महात्माओं को मार डालने का निश्चय किया। तब उन ऋषियों के दस हजार शिष्यों ने राजा को मना करते हुए कहा- ओ खोटी बुद्धि वाले नरेश! हमारे गुरु लोग इस समय समाधि में स्थित हैं, बाहर कहाँ क्या हो रहा है-इसको ये नहीं जानते। इसलिये इन पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।'
         
तब राजा ने क्रोध से विह्वल होकर शिष्यों से कहा-द्विजकुमारो! मैं मार्ग से थका-माँदा यहाँ आया हूँ। अत: तुम्हीं लोग मेरा आतिथ्य करो। राजा के ऐसा कहने पर वे शिष्य बोले-'हम लोग भिक्षा माँग कर खाने वाले हैं। गुरुजनों ने हमें किसी के आतिथ्य के लिये आज्ञा नहीं दी है। हम सर्वथा गुरु के अधीन हैं। अत: तुम्हारा आतिथ्य कैसे कर सकते हैं।' शिष्यों का यह कोरा उत्तर पाकर राजा ने उन्हें मारने के लिये धनुष उठाया और इस प्रकार कहा-'मैंने हिंसक जीवों और लुटेरों के भय आदि से जिनकी अनेकों बार रक्षा की है, जो मेरे दिये हुए दानों पर ही पलते हैं, वे आज मुझे ही सिखलाने चले हैं। ये मुझे नहीं जानते, ये सभी कृतघ्न और बड़े अभिमानी हैं इन आततायियों को मार डालने पर भी मुझे कोई दोष नहीं लगेगा।' ऐसा कह कर वे कुपित हो धनुष से बाण छोड़ने लगे बेचारे शिष्य आश्रम छोड़कर भय से भाग चले। भागने पर भी हेमकान्त ने उनका पीछा किया और तीन सौ शिष्यों को मार गिराया। शिष्यों के भाग जाने पर आश्रम में जो कुछ सामग्री थी उसे राजा के पापात्मा सैनिकों ने लूट लिया। राजा के अनुमोदन से ही उन्होंने वहाँ इच्छानुसार भोजन किया। तत्पश्चात् दिन बीतते-बीतते राजा सेना के साथ अपनी पुरी में आ गये राजा कुशकेतु ने जब अपने पुत्र का यह अन्यायपूर्ण कार्य सुना, तब उसे राज्य करने के अयोग्य जानकर उसकी निन्दा करते हुए उसे देश निकाला दे दिया। पिता के त्याग देने पर हेमकान्त घने वन में चला गया। वहाँ उसने बहुत वर्षो तक निवास किया। ब्रह्महत्या उसका सदा पीछा करती रहती थी, इसलिये वह कहीं भी स्थिरता पूर्वक रह नहीं पाता था । इस प्रकार उस दुष्टात्मा के अट्ठाईस वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन वैशाख मास में जब दोपहर का समय हो रहा था, महामुनि त्रित तीर्थ यात्रा के प्रसंग से उस वन में आये। वे धूप से अत्यन्त संतप्त और तृषा से बहुत पीड़ित थे, इसलिये किसी वृक्षहीन प्रदेश में मूर्छित होकर गिर पड़े। दैवयोग से हेमकान्त उधर आ निकला; उसने मुनि को प्यास से पीड़ित, मूर्छित और थका-माँदा देख उन पर बड़ी दया की। उसने पलाश के पत्तों से छत्र बनाकर उनके ऊपर आती हुई धूप का निवारण किया। वह स्वयं मुनिके मस्तक पर छाता लगाये खड़ा हुआ और तूँबी में रखा हुआ जल उनके मुँह में डाला। इस उपचार से मुनि को चेत हो आया और उन्होंने क्षत्रिय को दिये हुए पत्ते के छातेको लेकर अपनी व्याकुलता दूर की। उनकी इन्द्रियों में कुछ शक्ति आयी और वे धीरे-धीरे किसी गाँव में पहुँच गये। उस पुण्य के प्रभाव से हेमकान्त की तीन सौ ब्रह्महत्याएँ नष्ट हो गयीं। इसी समय यमराज के दूत हेमकान्त को लेने के लिये वन में आये। उन्होंने उसके प्राण लेने के लिये संग्रहणी रोग पैदा किया। उस समय प्राण छूटने की पीड़ा से छटपटाते हुए हेमकान्त ने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतों को देखा, जिनके बाल ऊपर की ओर उठे हुए थे। उस समय अपने कर्मों को याद करके वह चुप हो गया। छत्र-दान के प्रभाव से उसको भगवान् विष्णु का स्मरण हुआ। उसके स्मरण करने पर भगवान् महाविष्णु ने विष्वक्सेन से कहा-'तुम शीघ्र जाओ, यमदूतों को रोको, हेमकान्त की रक्षा करो। अब वह निष्पाप एवं मेरा भक्त हो गया है। उसे नगर में ले जाकर उसके पिता को सौंप दो। साथ ही मेरे कहने से कुशकेतु को यह समझाओ कि तुम्हारे पुत्र ने अपराधी होने पर भी वैशाख मास में छत्र-दान करके एक मुनि की रक्षा की है। अत: वह पापरहित हो गया है। इस पुण्य के प्रभाव से वह मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला दीर्घायु, शूरता और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा तुम्हारे समान गुणवान् हो गया है। इसलिये अपने इस महाबली पुत्र को तुम राज्य का भार सँभालने के लिये नियुक्त करो। भगवान् विष्णु ने तुम्हें ऐसी ही आज्ञा दी है। इस प्रकार राजा को आदेश देकर हेमकान्त को उनके अधीन करके यहाँ लौट आओ।'
         
भगवान् विष्णु का यह आदेश पाकर महाबली विष्वक्सेन ने हेमकान्त के पास आकर यमदूतों को रोका और अपने कल्याणमय हाथों से उसके सब अंगों में स्पर्श किया। भगवद्भक्त के स्पर्श से हेमकान्त की सारी व्याधि क्षण भर में दूर हो गयी। तदनन्तर विष्पकसेन उसके साथ राजा की पुरी में गये। उन्हें देखकर महाराज कुशकेतु ने आश्चर्ययुक्त हो भक्तिपूर्वक मस्तक झुका कर पृथ्वी पर साष्टांगकर घ रमें प्रवेश कराया वहाँ नाना प्रकार के स्तोत्रों से इनकी स्तुति तथा वैभवों से उनका पूजन किया। तत्पश्चात् महाबली विष्वक्सेन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा को हेमकान्त के विषय में भगवान् विष्णु ने जो सन्देश दिया था, वह सब कह सुनाया। उसे सुनकर कुशकेतु ने पुत्र को राज्य पर बिठा दिया और स्वयं विष्वक्सेन की आज्ञा लेकर उन्होंने पत्नी सहित वन को प्रस्थान किया।
         
तदनन्तर महामना विष्वक्सेन हेमकान्त से पूछकर और उसकी प्रशंसा करके श्वेतद्वीप में भगवान् विष्णु के समीप चले गये तब से राजा हेमकान्त वैशाख मास में बताये हुए भगवान् की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले शुभ धर्मो का प्रतिवर्ष पालन करने लगे। वे ब्राह्मणभक्त, धर्मनिष्ठ, शान्त, जितेन्द्रिय, सब प्राणियों के प्रति दयालु और सम्पूर्ण यज्ञों की दीक्षा में स्थित रहकर सब प्रकार की सम्पदाओं से सम्पन्न हो गये। उन्होंने पुत्र-पौत्र आदि के साथ समस्त भोगों का उपभोग करके भगवान् विष्णु का लोक प्राप्त किया। वैशाख सुख से साध्य, अतिशय पुण्य प्रदान करने वाला है। पापरूपी इन्धन को अग्नि की भाँति जलाने वाला, परम सुलभ तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष–चारों पुरुषार्थों को देने वाला है।
  
"जय जय श्री हरि"
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