वैशाख मास-महात्मय (चतुर्थ अध्याय)
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इस अध्याय में महर्षि वसिष्ठ के उपदेश से राजा कीर्तिमान् का अपने राज्य में वैशाख मास के धर्म का पालन कराना और यमराज का ब्रह्माजी से राजा के लिये शिकायत करने सम्बंधित वर्णन किया गया है।
मिथिलापति ने पूछा 👉 ब्रह्मन् ! जब वैशाख मास के धर्म अतिशय सुलभ, पुण्यराशि प्रदान करने वाले, भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक, चारों पुरुषार्थों की तत्काल सिद्धि करने वाले, सनातन और वेदोक्त हैं तब संसार में उनकी प्रसिद्धि कैसे नहीं हुई ?
श्रुतदेवजी ने कहा-राजन्! इस पृथ्वी पर लौकिक कामना रखने वाले ही मनुष्य अधिक हैं। उनमें से कुछ राजस और कुछ तामस हैं। वे लोग इस संसार के भोगों तथा पुत्र- पौत्रादि सम्पदाओं की ही अभिलाषा रखते हैं। कहीं किसी प्रकार कभी बड़ी कठिनाई से कोई एक मनुष्य ऐसा मिलता है, जो स्वर्गलोक के लिये प्रयत्न करता है और इसीलिये वह यज्ञ आदि पुण्यकर्मों का अनुष्ठान बड़े प्रयत्न से करता है; परंतु मोक्ष की उपासना प्राय: कोई नहीं करता। तुच्छ आशाएँ लेकर बहुत-से कर्मो का आयोजन करने वाले लोग प्रायः काम्य-कर्मो के ही उपासक हैं। यही कारण है। कि संसार में राजस और तामस धर्म अधिक विख्यात हो गये, परंतु सात्त्विक धर्मो की प्रसिद्धि नहीं हुई। ये सात्त्विक धर्म भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाले हैं, निष्काम भाव से किये जाते हैं और इहलोक तथा परलोक में सुख प्रदान करते हैं। देवमाया से मोहित होने के कारण मूढ़ मनुष्य इन धर्मो को जानते ही नहीं हैं ।
पूर्वकाल की बात है, काशीपुरी में कीर्तिमान् नाम से विख्यात एक चक्रवर्ती राजा थे। वे इक्ष्वाकुवंश के भूषण तथा महाराज नृग के पुत्र थे। संसार में उनका बड़ा यश था। वे अपनी इन्द्रियों पर और क्रोध पर विजय पा चुके थे ब्राह्मणों के प्रति उनके मन में बड़ी भक्ति थी । राजाओं में उनका स्थान बहुत ऊँचा था। एक दिन वे मृगया में आसक्त होकर महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर आये। वैशाख की चिलचिलाती हुई धूप में यात्रा करते हुए राजा ने मार्ग में देखा, महात्मा वसिष्ठ के शिष्य जगह-जगह अनेक प्रकार के कार्यों में विशेष तत्परता के साथ संलग्न थे। वे कहीं पौंसला बनाते थे और कहीं छायामण्डप। किनारे पर झरनों के जल को रोककर स्वच्छ बावली बनाते थे। कहीं वृक्षों के नीचे बैठे हुए लोगों को वे पंखा डुलाकर हवा करते थे, कहीं ऊख देते, कहीं सुगन्धित पदार्थ भेंट करते और कहीं फल देते थे। दोपहरी में लोगों को छाता देते और सन्ध्या के समय शर्वत। कोई शिष्य घनी छाया वाले वन में झाड़ बुहारकर साफ किये हुए आश्रम के प्रांगणों में हितकारक बालुका बिछाते थे और कुछ लोग वृक्षों की शाखा में झूला लटकाते थे। उन्हें देखकर राजा ने पूछा- 'आप लोग कौन हैं?' उन्होंने उत्तर दिया-'हम लोग महर्षि वसिष्ठ के शिष्य हैं।' राजा ने पूछा- 'यह सब क्या हो रहा है?' वे बोले-'ये वैशाख मास में कर्तव्य रूप से बताये गये धर्म हैं, 'जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष - चारों पुरुषार्थों के साधक हैं। हम लोग गुरुदेव वसिष्ठ की आज्ञा से इन धर्मोका पालन करते हैं । राजा ने पुन: पूछा-'इनके अनुष्ठान से मनुष्यों को कौन-सा फल मिलता है? किस देवता की प्रसन्नता होती है?' उन्होंने उत्तर दिया- ' हमें इस समय यह बताने के लिये अवकाश नहीं है, आप गुरुजी से ही यथोचित प्रश्न कीजिये वे महायशस्वी महर्षि इन धर्मो को यथार्थ रूप से जानते हैं।'
शिष्यों से ऐसा उत्तर पाकर राजा शीघ्र ही महर्षि वसिष्ठ के पवित्र आश्रम पर जो विद्या और योग शक्ति से सम्पन्न था, गये राजा को आते देख महर्षि वसिष्ठ मन-ही-मन बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने सेवकों सहित महात्मा राजा का विधिपूर्वक आतिथ्य-सत्कार किया। जब वे आराम से बैठ गये, तब गुरु वसिष्ठ से प्रसन्नता पूर्वक बोले- 'भगवन् ! मैंने मार्ग में आपके शिष्यों द्वारा परम आश्चर्यमय शुभ कर्मो का अनुष्टान होते देखा है; किंतु उसके सम्बन्ध में जब प्रश्न किया, तब उन्होंने दूसरी कोई बात न बताकर आपके पास जाने की आज्ञा दी उनकी आज्ञा के अनुसार मैं इस समय आपके समीप आया हूँ। मेरे मन में उन धर्मो को सुनने की बड़ी इच्छा है। अत: आप मुझसे उनका वर्णन करें।
तब महायशस्वी वसिष्ठजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा-राजन् ! तुम्हारी बुद्धि को उत्तम शिक्षा मिली है। अत: उसने यह उत्तम निश्चय किया है। भगवान् विष्णु की कथा के श्रवण और भगवद्धर्मो के अनुष्ठान में जो तुम्हारी बुद्धि की आत्यन्तिक प्रवृत्त हुई है, यह तुम्हारे किसी पुण्य का ही फल है। जिसने वैशाख मास में बताये हुए महाधर्मो के द्वारा भगवान् श्रीहरि की आराधना की है, उसके उन धर्मो से भगवान् बहुत सन्तुष्ट होते और उसे मनोवांछित वस्तु प्रदान करते हैं। सम्पूर्ण जगत् के स्वामी भगवान् लक्ष्मीपति समस्त पापराशि का विनाश करने वाले हैं। वे सूक्ष्म धर्मो से प्रसन्न होते हैं, केवल परिश्रम और धन से नहीं। भगवान् विष्णु भक्ति से पूजित होने पर अभीष्ट वस्तु प्रदान करते हैं; इसलिये सदा भगवान् विष्णु की भक्ति करनी चाहिये। जगदीश्वर श्रीहरि जल से भी पूजा करने पर अशेष क्लेश का नाश करते और शीघ्र प्रसन्न होते हैं। वैशाख मास में बताये हुए ये धर्म थोड़े-से परिश्रम द्वारा साध्य होने पर भी भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक एवं शुभ होने के कारण अधिक व्यय से सिद्ध होने वाले बड़े-बड़े यज्ञादि कर्मो का भी तिरस्कार करने वाले हैं। अत: भृपाल ! तुम भी वैशाख मास में बताये हुए धर्मो का पालन करो और तुम्हारे राज्य में निवास करने वाले अन्य सब लोगों से भी उन कल्याणकारी धर्मो का पालन कराओ।
इस प्रकार से वैशाख-धर्म के पालन की आवश्यकता को शास्त्रों और युक्तियों से भली-भाँति सिद्ध करके वसिष्ठजी ने वैशाख मास के सब धर्मो का राजा के समक्ष वर्णन किया। उन सब धर्मो को सुनकर राजा ने गुरु का भक्ति भाव से पूजन किया और घर आकर वे सब धर्मो का विधिपूर्वक पालन करने लगे। देवाधिदेव भगवान् विष्णु में भक्ति रखते हुए राजा कीर्तिमान् देवेश्वर पद्मनाभ के अतिरिक्त और किसी देवता को नहीं देखते थे। उन्होंने हाथी की पीठ पर नगाड़ा रखकर सिपाहियों से अपने राज्य भर में डंके की चोट यह घोषणा करा दी कि मेरे राज्य में जो आठ वर्ष से अधिक की आयु वाला मनुष्य है, उसकी आयु जब तक अस्सी वर्ष की न हो जाय, तब तक मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर यदि वह प्रात:काल स्नान नहीं करेगा तो मेरे द्वारा दण्डनीय, वध्य तथा राज्य से निकाल देने योग्य समझा जायगा यह मेरा निश्चित आदेश है। पिता, पुत्र, अथवा सुहृद्-जो कोई भी वैशाख धर्म का पालन नहीं करेगा, वह चोर की भाँति दण्ड का पात्र समझा जायगा। प्रात:काल शुभ जल में स्नान करके श्रेष्ठ ब्राह्मणों को दान करना चाहिये। तुम सब लोग अपनी शक्ति के अनुसार पौंसला और दान आदि धर्मो का आचारण करो।'
राजा कीर्तिमान् ने प्रत्येक ग्राम में धर्म का उपदेश करने वाले एक-एक ब्राह्मण को बसाया। पाँच-पाँच गाँवों पर एक-एक ऐसे अधिकारी की नियुक्ति की, जो धर्म का त्याग करने वाले लोगों को दण्ड दे सके। उस अधिकारी की सेवा में दस-दस घुड़सवार रहते थे। इस प्रकार चक्रवर्ती नरेश के शासन से सर्वत्र और सब देशों में यह धर्म का पौधा प्रारम्भ हुआ और आगे चलकर खूब बढ़े हुए वृक्ष के रूप में परिणत हो गया उस राजा के राज्य में जो लोग मर जाते थे, वे भगवान् विष्णु के धाम में जाते थे। वहाँ के मनुष्यों को विष्णु लोक की प्राप्ति निश्चित थी। एक बार भी वैशाख स्नान कर लेने से मनुष्य यमराज के पास नहीं जाता। अपने धर्मानुकूल कर्म में स्थित हुए सब लोगों के विष्णुलोक में चले जाने से यमपुरी के सब नरक खाली हो गये। वहाँ एक भी पापी प्राणी नहीं रह गया वैशाख मास के प्रभाव से यमपुरी के मार्ग की यात्रा ही बंद हो गयी। सब मनुष्य दिव्य आकृति धारण करके भगवान् के धाम में जाने लगे। देवताओं के जो लोक हैं, वे सब भी शून्य हो गये। स्वर्ग और नरक दोनों के शून्य हो जाने पर एक दिन नारदजी ने धर्मराज के पास जाकर कहा-'धर्मराज ! आपके इस नरक में पहले-जैसा कोलाहल नहीं सुनायी पड़ता, पहले की भाँति पाप - कर्मो का लेखा भी नहीं लिखा जा रहा है। चित्रगुप्तजी तो ऐसे मौन भाव से बैठे हुए हैं, जैसे कोई मुनि हों। महाराज ! इसका कारण तो बताइये?
महात्मा नारद के ऐसा कहने पर राजा यम ने कुछ दीनता के स्वर में कहा-नारद! इस समय पृथ्वी पर जो यह राजा राज्य करता है, वह पुराणपुरुषोत्तम भगवान् विष्णु का बड़ा भक्त है। उसके भय से कोई भी मनुष्य कभी वैशाख मास का उल्लंघन नहीं करता। उस पुण्य कर्म के प्रभाव से सभी भगवान् विष्णु के परम धाम में चले जाते हैं। मुनिश्रेष्ठ ! उस राजा ने इस समय मेरे लोक का मार्ग लुप्त-सा कर रखा है। स्वर्ग और नरक दोनों को शून्य बना दिया है। अत: ब्रह्माजी के समीप जाकर यह सब समाचार उनसे निवेदन करके तभी मैं स्वस्थ होऊँगा। ऐसा निश्चय करके यमराज ब्रह्माजी के लोक में गये और वहाँ बैठे हुए उन ब्रह्माजी का दर्शन किया, जिनका आश्रय ध्रुव है, जो इस जगत् के बीज तथा सब लोकों के पितामह हैं और समस्त लोकपाल, दिक्पाल तथा देवता जिनकी उपासना करते हैं।
ब्रह्माजी ने यमराज को देखा और यमराज ब्रह्माजी के आगे पृथ्वी पर गिर पड़े। फिर यमराजने कहा- कमलासन! काम में लगाया हुआ जो पुरुष स्वामी की आज्ञा का ठीक-ठीक पालन नहीं करता और उसका धन लेकर भोगता है, वह काठ का कीड़ा होता है। जो बुद्धिमान् मनुष्य लोभवश स्वामी के धन का उपभोग करता है, वह तीन सौ कल्पों तक तिर्यग्-योनिरूप नरक में जाता है। जो कार्य में नियुक्त हुआ पुरुष कार्य करने में समर्थ होकर भी अपने घर में ही बैठा रहता है, वह बिलाव होता है। देव! मैं आपकी आज्ञा से धर्म पूर्वक प्रजा का शासन करता आ रहा हूँ। मैं अब तक मुनियों और धर्मशास्त्रों के कथनानुसार पुण्यात्मा को पुण्य के फल से और पापात्मा को पाप के फल से संयुक्त किया करता था, परंतु अब आपकी आज्ञा का पालन करने में असमर्थ हो गया हूँ। कीर्तितमान् के राज्य में सब लोग वैशाखमासोक्त पुण्य कर्मो का अनुष्ठान करके पितरों और पितामहों के साथ वैकुण्ठधाम में चले जाते हैं। उनके मरे हुए पितर और मातामह आदि भी विष्णुलोक में चले जाते हैं। इतना ही नहीं, पत्नी के पिता- श्वशुर आदि भी मेरे लेख को मिटाकर विष्णुलोक में चले जाते हैं। देव! बड़े-बड़े यज्ञों द्वारा भी मनुष्य वैसी गति नहीं पाता है, जैसी वैशाख मास में मिल रही है। सम्पूर्ण तीर्थों से, दान आदि से, तपस्याओं से, व्रतों से अथवा सम्पूर्ण धर्मो से युक्त मनुष्य भी उस गति को नहीं पाता, जो वैशाख धर्म तत्पर हुए मनुष्य को प्राप्त हो रही है। वैशाख में प्रात:काल स्नान करके देवपूजन, मास-माहात्म्य की कथाका श्रवण तथा भगवान् विष्णु को प्रिय लगने वाले तदनुकृूल धर्म का पालन करने वाला मनुष्य एकमात्र विष्णु लोक का स्वामी होता है और जगत् पति भगवान् विष्णु के लोक की तो मेरी समझ में कोई सीमा ही नहीं है; क्योंकि सब ओर से कोटि-कोटि प्राणियों का समुदाय वहाँ पहुँच रहा है तो भी वह भरता नहीं है। इस संसार में पवित्र और अपवित्र सभी लोग राजा की आज्ञा से वैशाख मास के धर्म का पालन करके विष्णुलोक को जा रहे हैं। लोकनाथ! उसकी प्रेरणा से संस्कारहीन मनुष्य भी वैशाख-स्नान मात्र से वैकुण्ठधाम में चले जाते हैं। वह केवल भगवान् विष्णु के चरणों की शरण लेने वाला है जान पड़ता है, वह समस्त संसार को विष्णुलोक में पहुँचा देगा। जो पुत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के प्रतिकृूल चलता हो, वह पृथ्वी पर माता के पेट से पैदा हुआ रोग है। वह अधम पुरुष अपनी माता का घात करने वाला कहा जाता है; किंतु राजा कीर्तिमान् की माता और उसकी पत्नी का पुण्य संसारमें विख्यात है। उसकी माता एकमात्र वीरजननी है और वह राजा निश्चय ही संसार में बहुत बड़ा वीर है। जिस प्रकार कीर्तिमान् मेरी लिपि को मिटाने में उद्यत हुआ है, ऐसा उद्योग पुराणों में और किसी का नहीं सुना गया है। भगवान् विष्णु की भक्ति में तत्पर हुए राजा कीर्तिमान् के सिवा दूसरे ऐसे किसी को मैं नहीं जानता, जो डंका बजाकर घोषणा करते हुए लोगों को ऐसी प्रेरणा देता हो और मेरे लोक के मार्ग को विलुप्त करने की चेष्टा करता रहा हो।'
"जय जय श्री हरि"
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