हिन्दू वर्ण-व्यवस्था "व्यवस्था" की बात थी इसलिये वहाँ त्योहारों और संस्कारों के माध्यम से ऐसे प्रावधान रखे गये थे, ऐसे रीति-रिवाज गढ़े गये थे कि उसमें समाज के सभी वर्णों के लोगों के आर्थिक उन्नयन का आधार मौजूद था।
ऐसा ही एक बड़ा माध्यम बनाया गया था छठ पर्व को; जो आज बिहार की सीमा से बाहर निकल कर वैश्विक स्वरूप लेने की ओर अग्रसर है।
ये पर्व न जाने कब से समाज के अर्थ-संचालन को गति देता रहा है; जिससे समाज के हरेक तबके का आर्थिक उन्नयन होता रहा और समाज को धर्मांतरण के खतरे से भी बचा रहा।
पिछले साल छठ पूजा के अगले दिन मैं एक अखबार में छपी खबर पढ़ रहा था, जिसमें लिखा था कि इस छठ के अवसर पर केवल मुजफ्फरपुर जिले के अंदर सूप और बांस की टोकरी का व्यापार 52 करोड़ रूपए का था। बिहार में जिस जाति के लोगों का सूप और टोकरी के व्यवसाय पर एकाधिकार है वो सबके सब "डोम जाति" के हैं जिन्हें बिहार सरकार ने महादलित की सूची में रखा है।
अब सोचिये कि सूप और टोकरी के व्यवसाय से समाज के किस वर्ग का हित-साधन हुआ?
इस व्यवसाय से जुड़े लोग साल भर छठ पर्व की प्रतीक्षा करतें हैं; क्योंकि अकेले इस पर्व से ही उनकी आमदनी इतनी हो जाती है कि पूरे साल उन्हें धन का अभाव नहीं रहता। रोचक बात ये है कि इस व्यवसाय में सहभागिता अधिकांशतः महिलाओं की होती है। इसी तरह छठ पर्व के दौरान मिट्टी के बने चूल्हे, हाथी की प्रतिमा और कुंभ (घड़े) की बिक्री भी उतनी ही होती है जो कुंभकार समाज को लाभान्वित करता है। गन्ने , दूसरे मौसमी फल और केले की खेती करने वालों की साल भर में जितनी बिक्री नहीं होती उतनी अकेले इस पर्व में हो जाती है।
आज उपभोक्तावाद अपने चरम पर है, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ लगभग हमारे घरों में घुस चुकी है पर एक बिहारवासी होने के नाते मुझे गर्व है कि मेरे यहाँ का ये त्योहार केवल और केवल मेरे देश के लोगों को रोजगार देता है। इसलिये छठ स्वदेशी भाव जागरण और और अपने लोगों को रोजगार देने का बहुत बड़ा माध्यम भी है।
छठ पर्व का महत्त्व हम बिहार-वासियों के लिये केवल यहीं तक नहीं है। आज मिशनरियों ने अपने मत-प्रचार के लिये बिहार को निशाने पर लिया हुआ है पर अपने "इन्वेस्टमेंट" के अनुरूप उन्हें बिहार में अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकी है तो इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह लोक-आस्था का महापर्व छठ भी है। एक ही घाट में व्रत करते व्रतियों में समाज के कथित उच्च जाति के लोगों से लेकर समाज के निचले पायदान पर खड़े लोग भी होतें हैं, जहाँ जाति-भेद और अस्पृश्यता पूरी तरह मिट जाता है।
"जाति से इतर व्रत करने वाली हरेक महिला देवी का रूप होती है जिसके पैर छूकर प्रसाद लेने को लोग अपना सौभाग्य समझतें हैं।"
ट्रेन में किसी भी तरह कष्ट सह के अगर कोई बिहारवासी छठ पर अपने घर जाता है तो उसका मजाक मत बनाइये, उसके ऊपर चुटकुले मत बनाइये। कम से कम इस बात के लिये उसका अभिनन्दन करिये कि उसने अपनी परंपरा को इतने कष्ट सह कर भी अक्षुण्ण रखा है और अपने समाज के सबसे निम्न तबके के न सिर्फ आर्थिक उन्नयन में परोक्ष सहायता कर रहा है बल्कि उन्हें विधर्मियों के पाले में भी जाने से बचाये रखा है।
पिछले वर्ष नाक तक लगे सिंदूर के कारण छठ व्रती महिलाओं का मजाक उड़ाने वाली "मैत्रियी पुष्पाओं" के निशाने पर छठ का पर्व इसीलिये आया था क्योंकि यह पर्व उनके आकाओं द्वारा मतान्तरण का फसल काटने देने में बाधा बन रहा है, साथ ही इस पर्व में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दाल नहीं गल पा रही है और तो और उत्तर आधुनिकता और नारीवाद का फ़र्ज़ी आडम्बर भी ध्वस्त हो रहा है; क्योंकि नाक तक सिंदूर लगाने वाली महिलाएँ इस परंपरा को दकियानूसी परंपरा नहीं मानतीं।
हर्ष की बात है कि छठ पर कु-प्रचार करने की कोशिश करने वाली पुष्पा सरीखी "विष-कन्याओं" के खिलाफ हर राज्य से लोगों ने आगे आकर उसका विरोध किया था।
समाज की शक्ति इसी तरह संगठित रहे तो भारत का हित हमेशा अक्षुण्ण रहेगा।
दलित- महादलित और जाति की राजनीति करने वालों के पास छठ जैसे त्योहार का कोई विकल्प है जो उन लोगों का इतने बड़े पैमाने पर आर्थिक उन्नयन करती हो? और अगर नहीं है तो क्यों नहीं वो हिन्दू धर्म के उज्ज्वल पक्षों को स्वीकार करते हैं?
छठ को एक अलग नज़रिये से भी देखने का भाव जाग्रत हो, इस पोस्ट का यही हेतू है।
~ अभिजीत
Abhijeet Singh भइया।।
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