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सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

महामहिमामयी गौ हमारी माता है उनकी बड़ी ही महिमा है

महामहिमामयी गौ हमारी माता है उनकी बड़ी ही महिमा है वह सभी प्रकार से पूज्य है

गौमाता की रक्षा और सेवा से बढकर कोई दूसरा महान पुण्य नहीं है .

*१.*/ गौमाता को कभी भूलकर भी भैस बकरी आदि पशुओ की भाति साधारण नहीं समझना

चाहिये गौ के शरीर में /*"३३ करोड़ देवी देवताओ"*/ का वास होता है. गौमाता श्री कृष्ण

की परमराध्या है, वे भाव सागर से पार लगाने वाली है.

/*२.*/ गौ को अपने घर में रखकर तन-मन-धन से सेवा करनी चाहिये, ऐसा कहा गया है जो

तन-मन-धन से गौ की सेवा करता है. तो गौ उसकी सारी मनोकामनाएँ पूरी करती है.




/*३.*/ प्रातः काल उठते ही श्री भगवत्स्मरण करने के पश्चात यदि सबसे पहले गौमाता के

दर्शन करने को मिल जाये तो इसे अपना सौभाग्य मानना चाहिये.




/*४.*/ यदि रास्ते में गौ आती हुई दिखे, तो उसे अपने दाहिने से जाने देना चाहिये .




/*५.*/ जो गौ माता को मारता है, और सताता है, या किसी भी प्रकार का कष्ट देता है,

उसकी २१ पीढियाँ नर्क में जाती है.




/*६.*/ गौ के सामने कभी पैर करके बैठना या सोना नहीं चाहिये, न ही उनके ऊपर कभी

थूकना चाहिये, जो ऐसा करता है वो महान पाप का भागी बनता है .




/*७. */गौ माता को घर पर रखकर कभी भूखी प्यासी नहीं रखना चाहिये न ही गर्मी में

धूप में बाँधना चाहिये ठण्ड में सर्दी में नहीं बाँधना चाहिये जो गाय को भूखी प्यासी रखता है

उसका कभी श्रेय नहीं होता .




/*८. */नित्य प्रति भोजन बनाते समय सबसे पहले गाय के लिए रोटी बनानी चाहिये गौग्रास

निकालना चाहिये.गौ ग्रास का बड़ा महत्व है .




/*९. */गौओ के लिए चरणी बनानी चाहिये, और नित्य प्रति पवित्र ताजा ठंडा जल भरना

चाहिये, ऐसा करने से मनुष्य की /*"२१ पीढियाँ" */तर जाती है .




/*१०.*/ गाय उसी ब्राह्मण को दान देना चाहिये, जो वास्तव में गाय को पाले, और गाय

की रक्षा सेवा करे, यवनों को और कसाई को न बेचे. अनाधिकारी को गाय दान देने से घोर

पाप लगता है .




/*११.*/ गाय को कभी भी भूलकर अपनी जूठन नहीं खिलानी चाहिये, गाय साक्षात् जगदम्बा

है. उन्हें जूठन खिलाकर कौन सुखी रह सकता है .




/*१२.*/ नित्य प्रति गाय के परम पवित्र गोवर से रसोई लीपना और पूजा के स्थान को भी,

गोमाता के गोबर से लीपकर शुद्ध करना चाहिये .




/*१३.*/ गाय के दूध, घी, दही, गोवर, और गौमूत्र, इन पाँचो को/*'पञ्चगव्य'*/ के

द्वारा मनुष्यों के पाप दूर होते है.




/*१४. */गौ के/*"गोबर में लक्ष्मी जी"*/ और /*"गौ मूत्र में गंगा जी"*/ का वास होता है

इसके अतिरिक्त दैनिक जीवन में उपयोग करने से पापों का नाश होता है, और गौमूत्र से रोगाणु

नष्ट होते है.




/*१५.*/ जिस देश में गौमाता के रक्त का एक भी बिंदु गिरता है, उस देश में किये गए योग,

यज्ञ, जप, तप, भजन, पूजन , दान आदि सभी शुभ कर्म निष्फल हो जाते है .




/*१६ .*/ नित्य प्रति गौ की पूजा आरती परिक्रमा करना चाहिये. यदि नित्य न हो सके

तो/*"गोपाष्टमी"*/ के दिन श्रद्धा से पूजा करनी चाहिये .




/*१७.*/ गाय यदि किसी गड्डे में गिर गई है या दलदल में फस गई है, तो सब कुछ छोडकर

सबसे पहले गौमाता को बचाना चाहिये गौ रक्षा में यदि प्राण भी देना पड़ जाये तो सहर्ष दे

देने से गौलोक धाम की प्राप्ति होती है.




/*१८ .*/ गाय के बछड़े को बैलो को हलो में जोतकर उन्हें बुरी तरह से मारते है, काँटी चुभाते

है, गाड़ी में जोतकर बोझा लादते है, उन्हें घोर नर्क की प्राप्ति होती है .




/*१९. */जो जल पीती और घास खाती, गाय को हटाता है वो पाप के भागी बनते है .




/*२०. */यदि तीर्थ यात्रा की इच्छा हो, पर शरीर में बल या पास में पैसा न हो, तो गौ

माता के दर्शन, गौ की पूजा, और परिक्रमा करने से, सारे तीर्थो का फल मिल जाता है,

गाय सर्वतीर्थमयी है, गौ की सेवा से घर बैठे ही ३३ करोड़ देवी देवताओ की सेवा हो जाती है .




/*२१ .*/ जो लोग गौ रक्षा के नाम पर या गौ शालाओ के नाम पर पैसा इकट्टा करते है,

और उन पैसो से गौ रक्षा न करके स्वयं ही खा जाते है, उनसे बढकर पापी और दूसरा कौन

होगा. गौमाता के निमित्त में आये हुए पैसो में से एक पाई भी कभी भूलकर अपने काम में नहीं

लगानी चाहिये, जो ऐसा करता है उसे /*"नर्क का कीड़ा" */बनना पडता है .




गौ माता की सेवा ही करने में ही सभी प्रकार के श्रेय और कल्याण है.



जो गौ की एक बार प्रदक्षिणा करके उसे प्रणाम करता है वह सबी पापों से मुक्त होकर अक्षय

स्वर्ग का सुख भोगता है . गौ के




१. सीगों में भगवान *श्री शंकर* और *श्रीविष्णु *सदा विराजमान रहते है.




२. गौ के उदर में *कार्तिकेय, *मस्तक में *ब्रह्मा*, ललाट में *महादेवजी *रहते है .




३. सीगों के अग्र भाग में *इंद्र, *दोनों कानो में *अश्र्वि़नी कुमार,* नेत्रो मे *चंद्रमा *और

*सूर्य,* दांतों में * गरुड़, *जिह्वा में *सरस्वती देवी *का वास होता है .* *




४. अपान (गुदा)में सम्पूर्ण *तीर्थ*, मूत्र स्थान में *गंगा जी*, रोमकूपो में *ऋषि*, मुख और

प्रष्ठ भाग में *यमराज *का वास होता है .




५. दक्षिण पार्श्र्व में *वरुण और कुबेर,* वाम पार्श्र्व में तेजस्वी और महाबली *यक्ष,* मुख के

भीतर *गंधर्व*, नासिका के अग्र भाग में *सर्प*, खुरों के पिछले भाग में *अप्सराएँ *वास

करती है .




*६. *गोबर में *लक्ष्मी*, गोमूत्र में *पार्वती*, चरणों के अग्र भाग में *आकाशचारी देवता

*वास करते है .




*७.* रँभाने की आवाज में *प्रजापति *और थनो में भरे हुए *चारो समुद्र* निवास करते है .




जो प्रतिदिन स्नान करके गौ का स्पर्श करता है और उसके खुरों से उडाई हुई धुल को सिर पर धारण करता है वह मानो सारे *तीर्थो के जल* में स्नान कर लेता है, और सब पापों से छुट जाता है.

जनेऊ कान पर क्यों चढ़ाते है?

जनेऊ कान पर क्यों चढ़ाते है?
जनेऊ को अपवित्र होने से बचाने के लिए लघुशंका एवं दीर्घशंका के समय उसे दाहिने कान पर चढाने का नियम है। दाहिने कान पर जनेऊ चढ़ाने का वैज्ञानिक कारण है; आयुर्वेद के अनुसार, दाहिने कान पर 'लोहितिका' नामक एक विशेष नाड़ी होती है, जिसके दबने से मूत्र का पूर्णतया निष्कासन हो जाता है। इस नाड़ी का सीधा संपर्क अंडकोष से होता है। हर्निया नामक रोग का उपचार करने के लिए डॉक्टर दाहिने कान की नाड़ी का छेधन करते है । एक तरह से जनेऊ 'एक्यूप्रेशर' का भी काम करता है
पूर्व में बालक की उम्र आठ वर्ष होते ही उसका यज्ञोपवित संस्कार कर दिया जाता था। वर्तमान में यह प्रथा लोप सी गयी है। जनेऊ पहनने का हमारे स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। विवाह से पूर्व तीन धागों की तथा विवाहोपरांत छह धागों की जनेऊ धारण की जाती है। पूर्व काल में जनेऊ पहनने के पश्चात ही बालक को पढऩे का अधिकार मिलता था। मल-मूत्र विसर्जन के पूर्व जनेऊ को कानों पर कस कर दो बार लपेटना पड़ता है। इससे कान के पीछे की दो नसे जिनका संबंध पेट की आंतों से है। आंतों पर दबाव डालकर उनको पूरा खोल देती है। जिससे मल विसर्जन आसानी से हो जाता है तथा कान के पास ही एक नस से ही मल-मूत्र विसर्जन के समय कुछ द्रव्य विसर्जित होता है। जनेऊ उसके वेग को रोक देती है, जिससे कब्ज, एसीडीटी, पेट रोग, मूत्रन्द्रीय रोग, रक्तचाप, हृदय रोगों सहित अन्य संक्रामक रोग नहीं होते।जनेऊ पहनने वाला नियमों में बंधा होता है। वह मल विसर्जन के पश्चात अपनी जनेऊ उतार नहीं सकता। जब तक वह हाथ पैर धोकर कुल्ला न कर ले। अत: वह अच्छी तरह से अपनी सफाई करके ही जनेऊ कान से उतारता है। यह सफाई उसे दांत, मुंह, पेट, कृमि, जिवाणुओं के रोगों से बचाती है। जनेऊ का सबसे ज्यादा लाभ हृदय रोगियों को होता है।

ॐ की महिमा

ॐ की महिमा
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१. ॐ किसी एक धर्म या जाती का प्रतीक नहीं है | इस छोटे से अक्षर में ईश्वर का विशाल स्वरूप समाया हुआ है | इश्वर को स्मरण करने का यह सबसे सरल एवम् सीधा-सादा चिन्ह है | ॐ ही एकमात्र ऐसा अक्षर है जिसका कभी क्षरण नहीं होता है |

२. संसार कि सारी चुम्बकीय शक्ति ब्रह्म से जुड़ी हुई है | उपनिषद में ब्रह्म को ही ॐ कहा गया है | अगर आपने कार्य के आरम्भ में ॐ लिख दिया तो समझ लीजिए, इसमें – गणेशाय नम:, लक्ष्मी देवी नम:, सरस्वती देवी नम:, कुलदेवताय नम: वगैरा सभी देवता ॐ कि परिधि में समाहित हो गए हैं |

३. अतः आप जब भी कोई मंगल-कार्य आरम्भ करें तो सबसे पहले ॐ का उच्चारण कीजिए | अपना नया माकान, नई दुकान, नये बही-खाते आदि का आरम्भ करने से पूर्व ॐ लिखकर परमात्मा को याद करना अत्यंत शुभ फलदायक होता है |

४. ॐ की महिमा अपार है | जहाँ-जहाँ ॐ प्रतिष्ठित है, वहाँ-वहाँ आनंद ही आनंद है | अतः आप सदा ही ॐ का स्मरण कीजिए एवं मानव जीवन का आनंद लीजिए |

अर्जुन को अहंकार

एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं। उनकी इस भावना को श्रीकृष्ण ने समझ लिया।

एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनकी मुलाकात एक गरीब ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी। अर्जुन ने उससे पूछा, ‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’ ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं।’

‘ आपके शत्रु कौन हैं?’ अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की। ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।’

‘आपका तीसरा शत्रु कौन है?’ अर्जुन ने पूछा।

‘ वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया। और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को।’ यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए। यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।’ —

जय श्री कृष्ण !!!
Jai mahakal.

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