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शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

होलाष्टक प्रारम्भ 2015, 26 फरवरी - बृहस्पतिवार

होलाष्टक प्रारम्भ 2015, 26 फरवरी - बृहस्पतिवार

hola astak चन्द्र मास के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को होलिका पर्व मनाया जाता है. होली पर्व के आने की सूचना होलाष्टक से प्राप्त होती है. होलाष्टक को होली पर्व की सूचना लेकर आने वाला एक हरकारा कहा जात सकता है. "होलाष्टक" के शाब्दिक अर्थ पर जायें, तो होला+ अष्टक अर्थात होली से पूर्व के आठ दिन, जो दिन होता है, वह होलाष्टक कहलाता है. सामान्य रुप से देखा जाये तो होली एक दिन का पर्व न होकर पूरे नौ दिनों का त्यौहार है. दुलैण्डी के दिन रंग और गुलाल के साथ इस पर्व का समापन होता है.

होली की शुरुआत होली पर्व होलाष्टक से प्रारम्भ होकर दुलैण्डी तक रहती है. इसके कारण प्रकृ्ति में खुशी और उत्सव का माहौल रहता है. वर्ष 2015 में 26 फरवरी, 2015 से 5 मार्च, 2015 के मध्य की अवधि होलाष्टक पर्व की रहेगी. होलाष्टक से होली के आने की दस्तक मिलती है, साथ ही इस दिन से होली उत्सव के साथ-साथ होलिका दहन की तैयारियां भी शुरु हो जाती है.

होलिका दहन में होलाष्टक की विशेषता

होलिका पूजन करने के लिये होली से आंठ दिन पहले होलिका दहन वाले स्थान को गंगाजल से शुद्ध कर उसमें सूखे उपले, सूखी लकडी, सूखी खास व होली का डंडा स्थापित कर दिया जाता है. जिस दिन यह कार्य किया जाता है, उस दिन को होलाष्टक प्रारम्भ का दिन भी कहा जाता है. जिस गांव, क्षेत्र या मौहल्ले के चौराहे पर पर यह होली का डंडा स्थापित किया जाता है. होली का डंडा स्थापित होने के बाद संबन्धित क्षेत्र में होलिका दहन होने तक कोई शुभ कार्य संपन्न नहीं किया जाता है.

होलाष्टक के दिन से शुरु होने वाले कार्य

सबसे पहले इस दिन, होलाष्टक शुरु होने वाले दिन होलिका दहन स्थान का चुनाव किया जाता है. इस दिन इस स्थान को गंगा जल से शुद्ध कर, इस स्थान पर होलिका दहन के लिये लकडियां एकत्र करने का कार्य किया जाता है. इस दिन जगह-जगह जाकर सूखी लकडियां विशेष कर ऎसी लकडियां जो सूखने के कारण स्वयं ही पेडों से टूट्कर गिर गई हों, उन्हें एकत्र कर चौराहे पर एकत्र कर लिया जाता है.

होलाष्टक से लेकर होलिका दहन के दिन तक प्रतिदिन इसमें कुछ लकडियां डाली जाती है. इस प्रकार होलिका दहन के दिन तक यह लकडियों का बडा ढेर बन जाता है. व इस दिन से होली के रंग फिजाओं में बिखरने लगते है. अर्थात होली की शुरुआत हो जाती है. बच्चे और बडे इस दिन से हल्की फुलकी होली खेलनी प्रारम्भ कर देते है.

होलाष्टक में कार्य निषेध

होलाष्टक मुख्य रुप से पंजाब और उत्तरी भारत में मनाया जाता है. होलाष्टक के दिन से एक ओर जहां उपरोक्त कार्यो का प्रारम्भ होता है. वहीं कुछ कार्य ऎसे भी है जिन्हें इस दिन से नहीं किया जाता है. यह निषेध अवधि होलाष्टक के दिन से लेकर होलिका दहन के दिन तक रहती है. अपने नाम के अनुसार होलाष्टक होली के ठिक आठ दिन पूर्व शुरु हो जाते है.

होलाष्टक के मध्य दिनों में 16 संस्कारों में से किसी भी संस्कार को नहीं किया जाता है. यहां तक की अंतिम संस्कार करने से पूर्व भी शान्ति कार्य किये जाते है. इन दिनों में 16 संस्कारों पर रोक होने का कारण इस अवधि को शुभ नहीं माना जाता है.

होलाष्टक की पौराणिक मान्यता

फाल्गुण शुक्ल अष्टमी से लेकर होलिका दहन अर्थात पूर्णिमा तक होलाष्टक रहता है. इस दिन से मौसम की छटा में बदलाव आना आरम्भ हो जाता है. सर्दियां अलविदा कहने लगती है, और गर्मियों का आगमन होने लगता है. साथ ही वसंत के आगमन की खुशबू फूलों की महक के साथ प्रकृ्ति में बिखरने लगती है. होलाष्टक के विषय में यह माना जाता है कि जब भगवान श्री भोले नाथ ने क्रोध में आकर काम देव को भस्म कर दिया था, तो उस दिन से होलाष्टक की शुरुआत हुई थी.

होलाष्टक से जुडी मान्यताओं को भारत के कुछ भागों में ही माना जाता है. इन मान्यताओं का विचार सबसे अधिक पंजाब में देखने में आता है. होली के रंगों की तरह होली को मनाने के ढंग में विभिन्न है. होली उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, तमिलनाडू, गुजरात, महाराष्ट्र, उडिसा, गोवा आदि में अलग ढंग से मनाने का चलन है. देश के जिन प्रदेशो में होलाष्टक से जुडी मान्यताओं को नहीं माना जाता है. उन सभी प्रदेशों में होलाष्टक से होलिका दहन के मध्य अवधि में शुभ कार्य करने बन्द नहीं किये जाते है.

होलाष्टक का एक अन्य रुप बीकानेर की होली

होलाष्टक से मिलती जुलती होली की एक परम्परा राजस्थान के बीकानेर में देखने में आती है. पंजाब की तरह यहां भी होली की शुरुआत होली से आठ दिन पहले हो जाती है. फाल्गुन मास की सप्तमी तिथि से ही होली शुरु हो जाती है, जो धूलैण्डी तक रहती है. राजस्थान के बीकानेर की यह होली भी अंदर मस्ती, उल्लास के साथ साथ विषेश अंदाज समेटे हुए हैं. इस होली का प्रारम्भ भी होलाष्टक में गडने वाले डंडे के समान ही चौक में खम्भ पूजने के साथ होता है.

रविवार, 22 फ़रवरी 2015

होई है वही जो राम रची राखा।।


होई है वही जो राम रची राखा।।
को करी तर्क बढ़ावहि शाखा।।

हनुमानजी इस कलियुग के अंत तक अपने शरीर में ही रहेंगे। वे आज भी धरती पर विचरण करते हैं। वे कहां रहते हैं, कब-कब व कहां-कहां प्रकट होते हैं और उनके दर्शन कैसे और किस तरह किए जा सकते हैं, हम यह आपको बताएंगे अगले पन्नों पर। और हां, अंतिम दो पन्नों पर जानेंगे आप एक ऐसा रहस्य जिसे जानकर आप सचमुच ही चौंक जाएंगे...



चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥
संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
अंतकाल रघुवरपुर जाई, जहां जन्म हरिभक्त कहाई॥
और देवता चित्त ना धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥



चारों जुग परताप तुम्हारा : लंका विजय कर अयोध्या लौटने पर जब श्रीराम उन्हें युद्घ में सहायता देने वाले विभीषण, सुग्रीव, अंगद आदि को कृतज्ञतास्वरूप उपहार देते हैं तो हनुमानजी श्रीराम से याचना करते हैं- यावद् रामकथा वीर चरिष्यति महीतले। तावच्छरीरे वत्स्युन्तु प्राणामम न संशय:।

अर्थात : 'हे वीर श्रीराम! इस पृथ्वी पर जब तक रामकथा प्रचलित रहे, तब तक निस्संदेह मेरे प्राण इस शरीर में बसे रहें।' इस पर श्रीराम उन्हें आशीर्वाद देते हैं- 'एवमेतत् कपिश्रेष्ठ भविता नात्र संशय:। चरिष्यति कथा यावदेषा लोके च मामिका तावत् ते भविता कीर्ति: शरीरे प्यवस्तथा। लोकाहि यावत्स्थास्यन्ति तावत् स्थास्यन्ति में कथा।'

अर्थात् : 'हे कपिश्रेष्ठ, ऐसा ही होगा, इसमें संदेह नहीं है। संसार में मेरी कथा जब तक प्रचलित रहेगी, तब तक तुम्हारी कीर्ति अमिट रहेगी और तुम्हारे शरीर में प्राण भी रहेंगे ही। जब तक ये लोक बने रहेंगे, तब तक मेरी कथाएं भी स्थिर रहेंगी।'

चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा।।

1. त्रेतायुग में हनुमान : त्रेतायुग में तो पवनपुत्र हनुमान ने केसरीनंदन के रूप में जन्म लिया और वे राम के भक्त बनकर उनके साथ छाया की तरह रहे। वाल्मीकि 'रामायण' में हनुमानजी के संपूर्ण चरित्र का उल्लेख मिलता है।

2. द्वापर में हनुमान : द्वापर युग में हनुमानजी भीम की परीक्षा लेते हैं। इसका बड़ा ही सुंदर प्रसंग है। महाभारत में प्रसंग है कि भीम उनकी पूंछ को मार्ग से हटाने के लिए कहते हैं तो हनुमानजी कहते हैं कि तुम ही हटा लो, लेकिन भीम अपनी पूरी ताकत लगाकर भी उनकी पूंछ नहीं हटा पाते हैं। इस तरह एक बार हनुमानजी के माध्यम से श्रीकृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा, सुदर्शन चक्र और गरूड़ की शक्ति के अभिमान का मान-मर्दन करते हैं।


चारों युग में हनुमानजी के ही परताप से जगत में उजियारा है। हनुमान को छोड़कर और किसी देवी-देवता में चित्त धरने की कोई आवश्यकता नहीं है। द्वंद्व में रहने वाले का हनुमानजी सहयोग नहीं करते हैं। हनुमानजी हमारे बीच इस धरती पर सशरीर मौजूद हैं। किसी भी व्यक्ति को जीवन में श्रीराम की कृपा के बिना कोई भी सुख-सुविधा प्राप्त नहीं हो सकती है। श्रीराम की कृपा प्राप्ति के लिए हमें हनुमानजी को प्रसन्न करना चाहिए। उनकी आज्ञा के बिना कोई भी श्रीराम तक पहुंच नहीं सकता। हनुमानजी की शरण में जाने से सभी सुख-सुविधाएं प्राप्त होती हैं। इसके साथ ही जब हनुमानजी हमारे रक्षक हैं तो हमें किसी भी अन्य देवी, देवता, बाबा, साधु, ज्योतिष आदि की बातों में भटकने की जरूरत नहीं।

युवाओं के आइडल बजरंग बली

हनुमान इस कलियुग में सबसे ज्यादा जाग्रत और साक्षात हैं। कलियुग में हनुमानजी की भक्ति ही लोगों को दुख और संकट से बचाने में सक्षम है। बहुत से लोग किसी बाबा, देवी-देवता, ज्योतिष और तांत्रिकों के चक्कर में भटकते रहते हैं और अंतत: वे अपना जीवन नष्ट ही कर लेते हैं... क्योंकि वे हनुमान की भक्ति-शक्ति को नहीं पहचानते। ऐसे भटके हुए लोगों का राम ही भला करे।

क्यों प्रमुख देव हैं हनुमान : हनुमानजी 4 कारणों से सभी देवताओं में श्रेष्ठ हैं। पहला यह कि वे रीयल सुपरमैन हैं, दूसरा यह कि वे पॉवरफुल होने के बावजूद ईश्वर के प्रति समर्पित हैं, तीसरा यह कि वे अपने भक्तों की सहायता तुरंत ही करते हैं और चौथा यह कि वे आज भी सशरीर हैं। इस ब्रह्मांड में ईश्वर के बाद यदि कोई एक शक्ति है तो वह है हनुमानजी। महावीर विक्रम बजरंगबली के समक्ष किसी भी प्रकार की मायावी शक्ति ठहर नहीं सकती।

चौसठ कलाएँ

चौसठ कलाएँ

भारतीय साहित्य में 64 कलाओं का वर्णन है, जो इस प्रकार हैं -
1- गानविद्या
2- वाद्य : भांति-भांतिके बाजे बजाना
3- नृत्य
4- नाट्य
5- चित्रकारी
6- बेल-बूटे बनाना
7- चावल और पुष्पादिसे पूजा के उपहार की रचना करना
8- फूलों की सेज बनान
9- दांत, वस्त्र और अंगों को रंगना
10- मणियों की फर्श बनाना
11- शय्मा-रचना
12- जलको बांध देना
13- विचित्र सििद्धयां दिखलाना
14- हार-माला आदि बनाना
15- कान और चोटी के फूलों के गहने बनाना
16- कपड़े और गहने बनाना
17- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना
18- कानों के पत्तों की रचना करना
19- सुगंध वस्तुएं-इत्र, तैल आदि बनाना
20- इंद्रजाल-जादूगरी
21- चाहे जैसा वेष धारण कर लेना
22- हाथ की फुतीकें काम
23- तरह-तरह खाने की वस्तुएं बनाना
24- तरह-तरह पीने के पदार्थ बनाना
25- सूई का काम
26- कठपुतली बनाना, नाचना
27- पहली
28- प्रतिमा आदि बनाना
29- कूटनीति
30- ग्रंथों के पढ़ाने की चातुरी
31- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना
32- समस्यापूर्ति करना
33- पट्टी, बेंत, बाण आदि बनाना
34- गलीचे, दरी आदि बनाना
35- बढ़ई की कारीगरी
36- गृह आदि बनाने की कारीगरी
37- सोने, चांदी आदि धातु तथा हीरे-पन्ने आदि रत्नों की परीक्षा
38- सोना-चांदी आदि बना लेना
39- मणियों के रंग को पहचानना
40- खानों की पहचान
41- वृक्षों की चिकित्सा
42- भेड़ा, मुर्गा, बटेर आदि को लड़ाने की रीति
43- तोता-मैना आदि की बोलियां बोलना
44- उच्चाटनकी विधि
45- केशों की सफाई का कौशल
46- मुट्ठी की चीज या मनकी बात बता देना
47- म्लेच्छ-काव्यों का समझ लेना
48- विभिन्न देशों की भाषा का ज्ञान
49- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना
50- नाना प्रकार के मातृकायन्त्र बनाना
51- रत्नों को नाना प्रकार के आकारों में काटना
52- सांकेतिक भाषा बनाना
53- मनमें कटकरचना करना
54- नयी-नयी बातें निकालना
55- छल से काम निकालना
56- समस्त कोशों का ज्ञान
57- समस्त छन्दों का ज्ञान
58- वस्त्रों को छिपाने या बदलने की विद्या
59- द्यू्त क्रीड़ा
60- दूरके मनुष्य या वस्तुओं का आकर्षण
61- बालकों के खेल
62- मन्त्रविद्या
63- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या
64- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या

सहज समाधि की ओर

सहज समाधि की ओर

जिस समय समाधि द्वारा आँखों की दोनों पुतलियाँ अन्दर की और उलटने लगती है । तो सबसे पहले अन्धकार में प्रकाश की कुछ किरणें दिखायी देती हैं । और फ़िर अलोप हो जाती हैं । बिजली जैसी चमक दिखाई देती है । दीपक जैसी ज्योति दिखाई देती है । पाँच तत्वों के रंग लाल , पीला , नीला हरा और सफ़ेद दिखाई देते हैं । इससे वृति अभ्यास में लीन होने लगती है । इसके बाद आसमान पर तारों जैसी चमक । दीपमाला जैसी झिलमिल दिखाई देगी । और चाँद जैसा प्रकाश और सूर्य जैसी किरणें दिखाई देंगी । जिस समय आँख बिलकुल भीतर की ओर उलट जायेगी । तब सुरती शरीर
छोङकर ऊपर की ओर चङेगी । तो आकाश दिखाई देगा । जिसमें " सहस्त्रदल " कमल दिखाई देगा ।
उसके हजारों पत्ते अलग अलग त्रिलोकी का काम कर रहे हैं । अभ्यासी यह दृश्य देखकर बहुत खुश होता है । यहाँ उसे तीन लोक के मालिक का दर्शन होता है । बहुत से अभ्यासी इसी स्थान को पाकर इसको ही कुल का मालिक समझकर गुरु से आगे चलने का रास्ता नहीं पूछते । यहाँ का प्रकाश देखकर सुरति त्रप्त हो जाती है । इस प्रकाश के ऊपर एक " बारीक और झीना दरबाजा " अभ्यासी को चाहिये कि इस छिद्र में से सुरति को ऊपर प्रविष्ट करे । इसके आगे " बंक नाल " याने टेङा मार्ग है । जो कुछ दूर तक सीधा जाकर नीचे की ओर आता है । फ़िर ऊपर की ओर चला जाता है । इस नाल से पार होकर सुरति " दूसरे आकाश " पहुँची । यहाँ " त्रिकुटी स्थान " है । यह लगभग लाख योजन लम्बा और चौङा है । इसमें अनेक तरह के विचित्र तमाशे और लीलाएं हो रही हैं । हजारों सूर्य और चन्द्रमा इसके प्रकाश से लज्जित है । " ॐ" और " बादल की सी गरज " सुनाई देती है । जो बहुत सुहानी लगती है । तथा वह आठों पहर होती रहती है । इस स्थान को पाकर सुरती को बहुत आनन्द मिलता है । और वह सूक्ष्म और साफ़ हो जाती है । इस स्थान से अन्दर के गुप्त भेदों का पता चलने लगता है । कुछ दिन इस स्थान की सैर करके सुरती ऊपर की ओर चढने लगी । चढते चढते लगभग करोङ योजन ऊपर चङकर तीसरा परदा तोङकर वह " सुन्न " में पहुँची ।
यह स्थान अति प्रसंशनीय है । यहाँ सुरति बहुत खेल विलास आदि करती है । यहाँ " त्रिकुटी स्थान " से बारह गुणा अधिक प्रकाश है । यहाँ अमृत से भरे बहुत से " मानसरोवर " तालाब स्थित हैं । और बहुत सी अप्सरायें स्थान स्थान पर नृत्य कर रही हैं । इस आनन्द को वहाँ पहुँची हुयी सुरति ही जानती है । यह लेखनी या वाणी का विषय हरगिज नहीं है । यहाँ तरह तरह के अति स्वादिष्ट सूक्ष्म भोजन तैयार होते हैं । अनेको तरह के राग रंग नाना खेल हो रहे हैं । स्थान स्थान पर कलकल करते हुये झरने बह रहे हैं । यहाँ की शोभा और सुन्दरता का वर्णन नहीं किया जा सकता । हीरे के चबूतरे । पन्ने की क्यारियाँ । तथा जवाहरात के वृक्ष आदि दिखाई दे रहे हैं । यहाँ अनन्त शीशमहल का निर्माण है ।
यहाँ अनेक जीवात्माएं अपने अपने मालिक के अनुसार अपने अपने स्थानों पर स्थित हैं । वे इस रंग विलास को देखती हैं । और दूसरों को भी दिखलाती हैं । इन जीवात्माओं को " हंस मंडली " भी कहा गया है । यहाँ स्थूल तथा जङता नहीं है । सर्वत्र चेतन ही चेतन है । शारीरिक स्थूलता और मलीनता भी नहीं हैं । इसको संतजन भली प्रकार जानते हैं । इस तरह के भेदों को अधिक खोलना उचित नहीं होता । सुरति चलते चलते पाँच अरब पचहत्तर करोङ योजन और ऊपर की ओर चली गयी ।
अब " महासुन्न " का नाका तोङकर वह आगे बङी । वहाँ दस योजन तक घना काला घोर अंधकार है । इस अत्यन्त तिमिर अंधकार को गहराई से वर्णित करना बेहद कठिन है । फ़िर लगभग खरब योजन का सफ़र तय करके सुरति नीचे उतरी । परन्तु फ़िर भी उसके हाथ कुछ न लगा । तब वह फ़िर और ऊपर को चङी । और जो चिह्न ? सदगुरुदेव ने बताया था । उसकी सीध लेकर सुरति उस मार्ग पर चली । इस यात्रा का और इस स्थान का सहज पार पाना बेहद मुश्किल कार्य है ।
सुरति और आगे चली तो महासुन्न का मैदान आया । इस जगह पर " चार शब्द और पाँच स्थान " अति गुप्त हैं । सच्चे दरबार के मालिक की अनन्त सुर्तियां यहाँ रहती हैं । उनके लिये बन्दी खाने बने हुये हैं । यहाँ पर उनको कोई कष्ट नहीं है । और अपने अपने प्रकाश में वे कार्य कर रहीं हैं । परन्तु वे अपने मालिक का दर्शन नहीं कर सकती हैं । दर्शन न होने के कारण वे व्याकुल अवश्य हैं । इनको क्षमा मिलने की एक युक्ति होती है । जिससे वे मालिक से मिल सकती हैं । जब कोई सन्त इस मार्ग से जाते हैं । तो जो सुरतियां नीचे संतो के द्वारा वहाँ जाती हैं । तब उन सुरतियों को उनका दर्शन होता है । फ़िर उन जीवात्माओं को ऊपर ले जाने से जो प्रसन्नता उन संतो को होती है । उसका वर्णन कैसे हो सकता है । सच्चे मालिक की करुणा और दया उन पर होती है । संतजन उन सुरतियों को क्षमा प्रदान करवाकर सच्चे मालिक के पास बुलबाते हैं ।

आइय़े फ़िर से सोना बनायें ।

"सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे" लेख  को मेरे ब्लाग पाठकों ने न सिर्फ़ जबर्दस्त सराहा । बल्कि कई लोगों ने सोना बनाने हेतु प्रयोग भी किये । 
ये बात अलग है कि जिन लोगों के मेरे पास फ़ोन आये । उनमें से कोई भी सफ़ल नहीं हुआ ।
 ज्यादातर लोगों की मिश्रण धातुयें जल गयी । 
इसका कारण क्या था ?? 
संक्षिप्त में । मगर सारगर्भित लेख को जल्दबाजी में पढकर ।
 बिना ठीक से समझे ही प्रयोग शुरू कर देना । 
यहां ध्यान देने की एक बात है । 
सोने जैसी चीज आप चूल्हे । अंगीठी पर घर के नमक मिर्च डालकर बना लो । तो फ़िर सोने का महत्व ही क्या रह जायेगा । 
उसकी कीमत क्या होगी ?
 क्योंकि हर कोई ही उसे बना लेगा ? 

पाठकों की प्रतिक्रिया के आधार पर । उनके सामने जो जो कठिनाईयां आयीं । उनका निदान और समाधान यहां करने की कोशिश करूंगा । इसी संदर्भ में एक बात याद आ गयी । कुछ लोग जो सोना बनाने में विफ़ल रहे । या धन से सामर्थ्यवान थे । उन्होंने कहा । आप यहां हमारे पास आ जाइये । हम आपको सभी सुविधा देंगे । सोचने वाली बात है । मुझे सोने में कोई इंट्रेस्ट होता ? तो मैं फ़िर खुद ही समर्थ था । कोई भी सच्चा साधु भलीभांति जानता है कि धन नाशवान है । यहीं सब पडा रह जायेगा । और परम धन जो सतनाम की जप कमाई से पैदा होता है । वह अक्षय धन है । जो सदा रहता है ।भगवान की कृपा से मेरे पास सामान्य जीवन की आवश्यकतायें पूरी करने हेतु सभी व्यवस्था है ।

 और न भी होती ? तो संतमत का एक सिद्धांत है कि कोई भी इंसान अपनी बुद्धि मेहनत आदि से अपनी व्यवस्था कर रहा है । ये उसका सिर्फ़ मायाकृत भारी भृम है ??? मां के गर्भ से लेकर । चींटी से कुंजर तक । नभचर । जलचर । थलचर । वनचर सबकी व्यवस्था ईश्वरीय सत्ता के द्वारा ही हो रही है । हम सब कठपुतली हैं । निमित्त मात्र हैं ? समय से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को कुछ प्राप्त नहीं होता ? फ़िर भी इंसान को आगे के लिये प्रयत्नशील रहना चाहिये । क्योंकि हमारे आज से ही आने वाले कल का निर्माण होता है । 

यहां मैं एक बात स्पष्ट कर दूं । सोना बनाना या किसी चमत्कारिक औषधि जैसे ग्यान सत्ता द्वारा परोपकारी और भक्तभाव के लोगों को ही दिये जाते हैं क्योंकि ये सामान्य ग्यान के अंतर्गत नहीं आता । खैर..। जो लोग प्रयोग करना चाहते हैं । उनके लिये कुछ बिंदु स्पष्ट कर रहा हूं ।
तोरस, मोरस, गंधक, पारा
इनहीं मार इक नाग संवारा।
नाग मार नागिन को देही
सारा जग कंचन कर लेही।।

सोना । चांदी आदि बनाने में 5 चीजों की प्रमुख आवश्यकता होती है । सबसे पहले 1 तेज ताप हेतु भट्टी । 2 -वेधक । 3 - आठ धातु । 4 - पीले लाल वर्ग के फ़ूल ( ये फ़ूल जितने जंगली मिलें । उतना ही बेहतर है ।क्योंकि जंगली फ़ूलों में पाये जाने वाले दृव्य और रसायन बेहद शक्तिशाली होते है । जबकि शहर की आवोहवा और मिट्टी बेकार होने से पौधों में जंगली पौधों के समान ताकत नहीं होती । ) 5 गंधक । गोंद आदि अन्य चीजें जो लेख में वर्णित हैं ।
1- सबसे पहली चीज है । भट्टी - ये भट्टी चाहे विधुत की हो या किसी अन्य की । मुख्य बात है । तेज ताप की । ये ताप इतना तेज होना चाहिये कि शीशा । लोहा । तांवा जैसी धातुओं का चूर्ण दो तीन मिनट में ही पिघलकर तरल ( यानी पानी की तरह ) हो जाय ।
2 - वेधक । धूर्त तेल ( धतूरे का तेल ) अहिफ़ेन ( अफ़ीम ) कंगुनी तेल । मूंग तेल । जायफ़ल का तेल । हयमार तेल । शिफ़ा ( ब्रह्मकन्द का तेल ) आदि को बेधक माना गया है । अब आप वेधक का मतलब ठीक से समझिये । इसकी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है ? वेधक का मतलब होता है । कण कण को वेध देने वाला । उदाहरण । 1 - जिस प्रकार आप एक दो किलो पकाई हुयी गरम सब्जी में एक छोटा सा तीखे रस वाला नीबू पूरा निचोड दें । तो नीबू सब्जी के फ़ुल स्वाद को बदलकर अपने स्वाद में । अपने प्रभाव में बदल देगा । यानी उसके कण कण में घुस जायेगा । 2 - आप 5 किलो मिर्च आदि का अचार रखें । और उसमें चौथाई कप अच्छा सिरका डाल दें । तो सिरका कण कण में समा जायेगा ।.. तो साहब । इन्हीं वेधक पदार्थ के साथ पारे की क्रिया कराकर शतवेधी ( सौ प्रकार के मिश्रण को वेधने वाला ) सहस्त्रवेधी ( हजार प्रकार के मिश्रण को वेधने वाला ) सर्ववेधी ( सभी प्रकार के मिश्रण को वेधने वाला ) बनाया जाता है ।
3 - आठ धातु । आठ धातु आप सब जानते ही हैं । इसमें ये ध्यान रखना है कि धातुयें । मिलावट से रहित ।एकदम शुद्ध और उत्तम गुण वाली निर्दोष हो । इन धातुओं का आपको बेहद महीन मैदा के समान चूर्ण करना होगा । और बेहतर होगा कि आप एक बार धातु को पिघलाकर उसका चूर्ण करें । इस तरह उसकी अशुद्धियां खत्म हो जायेंगी । अधिक जानकारी के लिये । धातु का कार्य करने वाले या स्वर्णकार भाइयों से धातु शोधन के बारे में जानकारी ले सकते हैं ।
4 - पीले लाल वर्ग के फ़ूल ( ये फ़ूल जितने जंगली मिलें । उतना ही बेहतर है ।क्योंकि जंगली फ़ूलों में पाये जाने वाले दृव्य और रसायन बेहद शक्तिशाली होते है । जबकि शहर की आवोहवा और मिट्टी बेकार होने से पौधों में जंगली पौधों के समान ताकत नहीं होती । ) ये फ़ूल जितने दुर्लभ और जंगली पौधों के होंगे । उतना ही रिजल्ट बेहतर होगा । ध्यान रहे । तीखी खुशबू वाले फ़ूल अच्छा कार्य करेंगे । इसमें प्रयोग होने वाली एक बेहद महत्वपूर्ण चीज की मैं तलाश करता रहा था । पर उस समय मिली नहीं थी । ये थी । कलियारी पौधे की जड । बाद में पता चला कि ये पौधा आसाम की तरफ़ मिलता है ।
5 - गंधक । गोंद आदि अन्य चीजें जो लेख में वर्णित हैं ।..इन सभी चीजों का मिलना अधिक कठिन नहीं है । और थोडी सी ही खोजवीन के बाद इनके बारे में जाना और इनको प्राप्त भी किया जा सकता है । अब आईये चीजों की तैयारी के बाद सोना बनाते हैं ।
1 - सबसे पहले वांछित धातु का पिघलता लावा । 2 - पीले लाल वर्ग के फ़ूलों का निकाला हुआ रस । 100 gm धातु मिश्रण की मात्रा पर कम से कम 400 gm रस । क्योंकि ये तेजी से जलेगा भी । 3 - वेधक । बेहतर हो । वेधक को पारे के साथ क्रिया कराकर । जब वेधक तैयार हो जाय । तो सफ़लता शीघ्र मिलेगी । 4 - किसी भी विधि ( जो फ़ार्मूला आप अपनायें । उसमें वर्णित गंधक । गोंद आदि दृव्यों का विधि अनुसार तैयार हुआ सार । )
प्रयोग ऐसे करें । - धातु के पिघलते लावे में । शीघ्रता से फ़ूलों का अर्क । पहले से ही तैयार हुआ वेधक । और अन्य वांछित चीजों का पहले से ही तैयार सार दृव्य । ये सभी चीजें । आपको खोलती हुयी धातु में आधा मिनट में डाल देनी है । और जब ये सभी एकरस ( जो अधिक से अधिक दो तीन मिनट में हो जायेगा । उस समय देखकर अपनी बुद्धि अनुसार निर्णय लें । ) तब ताप को बन्द कर दें । धातु जले भी नहीं और मिश्रण ठीक से पक जाय । ये ध्यान रखना है ।..अगर आपने चीजों को सही अनुपात में और विधि को ठीक से समझकर प्रयोग किया । तो एक बार या दो तीन बार में ही सफ़लता मिल सकती है । पूर्ण जानकारी के लिये इसी ब्लाग में मेरे तीनों लेख । सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे । लेख 1 । 2 । 3 । और पढें ।
महारस ये हैं । - माक्षिक । विमल । शैल । चपल । रसक । सस्यक । दरद । और स्रोतोडाजन ( रसार्णव ) ।
विशेष - मैं फ़िर से यही बात कहूंगा । कि ये प्रयोग वही लोग करें । जो इस सम्बन्ध में पहले से कुछ जानकारी रखते हैं । और पैसे से सम्पन्न हैं । आर्थिक रूप से कमजोर लोग जुगाड से इसमें सफ़लता नहीं पा सकते । इसलिये उनका कुछ लाभ होने के स्थान पर ? कुछ हजार का नु्कसान हो जाय । तो क्या फ़ायदा ? आगे आपकी मरजी ?

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सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे


 हांलाकि मैं आप लोगों की जिग्यासा पूर्ति हेतु लिख अवश्य रहा हूं । पर ये सब क्रियायें बेहद कठिन हैं और इनके लिये विशेष साधन विशेष उपकरणों की आवश्यकता होती है । जिसमें सबसे मुश्किल तेज ताप की गलाने वाली भट्टी की ही आती है । फ़िर भी इनके छोटे प्रयोग कोई करना चाहें और वांछित वस्तुओं के वर्तमान नाम जानने की दिक्कत आये । तो किसी " आयुर्वेद " की मूल पुस्तक और संस्कृत के शब्दकोष का सहारा लें । वैसे पुराने विद्वान । और वैध लोग इन नामों को अक्सर जानते हैं । ये प्रयोग विशेष रुचि वालो के लिये । शोधकर्ताओं के लिये ही लाभदायक हैं । साधारण आदमी द्वारा ये प्रयोग करना समय और पैसे की बरबादी के अलावा कुछ नही है । लेख प्रकाशित करने का उद्देश्य पाठकों को भारत की महान प्राचीन ग्यान परम्परा से अवगत कराना है । " सोना बनाने के रहस्यमय नुस्खे " तीन भागों में प्रकाशित है । जो एक साथ ही प्रकाशित हो चुके हैं । कृपया लेख में दिये गये खाने के नुस्खे का प्रयोग कतई न करें । अन्यथा " मृत्यु " हो सकती है ।
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रसक calamine दरद cinnabar ताप्य golden pyrites गगन mica और कुजरी real gar इन्हें बराबर लेकर लाल सेंहुड के दूध में सात दिन तक घोंटे । फ़िर 24 घडी तक इसे जलयन्त्र में पकायें । इस प्रकार सहस्त्र वेधी कल्क मिलेगा । जो पिघले तांबे । चांदी । या सीसे को निसंदेह सोना बना देगा ।
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एक भाग पारे को पांच भाग बज्रवल्ली और त्रिदन्डी के रस के साथ बेंत या रागिणी ( अशोक ) की मूसली के साथ खरल में मर्दन करें । ऐसा करने से जो पीला कल्क मिलता है । उसे पिघले तांबे में सोलहवां भाग मिलाये । तो सुन्दर सोना बन जाता है ।
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नवसार ( नौसादर ) और पारे को निम्ब , मातुलुंग ( बिजौरा नींबू ) और घृतकुमारी के रस के साथ धूप में मर्दन करें । और जलयन्त्र में तीन दिन तक तेज आंच पर पकायें । तो इस प्रकार शतवेधी पदार्थ मिलेगा । जो चांदी को सोने में बदल देगा ।
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एक पल लौह चूर्ण में सुमल क्षार और सुहागा मिलाकर एरंड तेल के साथ दो घडी तक घोंटे । फ़िर कल्क का गोला बनाकर धोंकनी से धोंके । इस प्रकार लोहा गलकर पारे के समान हो जायेगा । इसमें रसक की उचित मात्रा मिलायें । और वज्रमूषा में लोहे और रसक के मिश्रण को गलायें । फ़िर उसे उतारकर तांबे में मिलायें तो शुद्ध चांदी बन जायेगी ।
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मछली की आंख निकालकर दूध में पकायें । फ़िर पुतली निकालकर साफ़ कर लें । फ़िर ईंट के चूर्ण से मर्दन करें । ऐसा करने से मोती उत्पन्न हो जायेगा । ऐसा प्रयोग कुछ लोगों ने किया भी है ।
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महारस ये हैं । माक्षिक । विमल । शैल । चपल । रसक । सस्यक । दरद । और स्रोतोडाजन ( रसार्णव ) ।
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यदि राजार्वत lapis lazuli को शिरीश फ़ूल के रस से भावित किया जाय । तो इसकी एक गुज्जा से श्वेत स्वर्ण ( चांदी ) के 100 गुज्जा को सूर्य के समान तेज सोने में बदल सकते हैं ।
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पीले गन्धक को पलाश के गोंद के रस से शोधित किया जाय और अरने कन्डों की आग पर तीन बार पकाया जाय । तो इससे चांदी को सोने में बदला जा सकता है ।
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रसक calamine को तीन बार तांबे के साथ तपायें । तो तांबा सोने में बदल जाता है ।
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दरद cinnabar को कई बार भेड के दूध से । और अम्लवर्ग पदार्थों के साथ भावित करें । और धूप में रखें । तो चांदी केसरिया रंग के सोने में बदल जाती है ।
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चांदी को शुद्ध करना हो तो इसे शीशे के साथ गलायें । और क्षारों के साथ तपायें । फ़िर छोटी जटामासी ( पिशाची ) के तेल में तीन बार डुबायें । सोने जैसा रंग उत्पन्न करता है ।
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बन्दमूषा में मदार के दूध और रसक ( जिंक सल्फ़ाइड ) के साथ पारे का यदि तीन बार जारण करें तो इससे सोने का रंग आ जाता है ।
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एक मुठ्ठी शुद्ध पारा । एक मुठ्ठी गन्धक इन्हें धतूरे के रस में घोंट लें । फ़िर चक्रयोग के द्वारा भावना दें । ऐसा करने से पारा भस्म हो जाता है । फ़िर इन्हें बन्दमूषा में फ़ूंके तो सुन्दर खोट प्राप्त होता है । जिससे धातुओं का वेधन किया जा सकता है ।
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धूर्त तेल ( धतूरे का तेल ) अहिफ़ेन ( अफ़ीम ) कंगुनी तेल । मूंग तेल । जायफ़ल का तेल । हयमार तेल । शिफ़ा ( ब्रह्मकन्द का तेल ) आदि को बेधक माना गया है । इनके साथ पारे की इस प्रकार क्रिया करायी जाय । कि जो पारा बने । उसकी सहायता से साधारण धातुओं का बेधन कर स्वर्ण बनाया जा सके ।
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सहस्त्रवेधी पारा तैयार करने के लिये । मिट्टी की कूपी । सोने की कूपी । अथवा लोहे की कूपी लें । इस कूपी पर बहुत सी खडिया । लवड । और लौह चूर्ण मिले गारे का लेप करें । इसका प्रयोग भूधर यन्त्र में करें । पारे की मात्रा का सौ गुना गन्धक पाचित करा दिया जाय । तो ऐसा पारा चांदी । तांबा रांगा । सीसा आदि के प्रति सहस्त्रवेधी हो जाता है ।
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दरद ( सिंगरफ़ ) माक्षिक ( सोना माखी ) गन्धक । राजावर्त । मूंगा । मनशिला । तूतिया । और कंकुष्ठ इनका बराबर चूर्ण लें । फ़िर पीले और लाल वर्ग के फ़ूल बराबर लें । और कंगुनी के तेल के साथ पांच दिन धूप में बराबर भावना दें । फ़िर जारित पारे को कल्क के साथ सकोरे के सम्पुट में बालू की हांडी में भरकर तीन दिन पाक करें । पाक के समय ये कल्क बार बार डालें । ऐसा करने से पारा रंजित हो जाता है और उसमें शतवेधी शक्ति उत्पन्न हो जाती है ।
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पारा । दरद ( सिंगरफ़ ) ताप्य ( स्वर्ण माक्षिक ) गन्धक और मनशिला इनको क्रमानुसार एक एक भाग बडाकर लें । फ़िर इनके साथ एक भाग चांदी । तीन भाग तांबा मिलाकर जारित करें । तो श्रेष्ठ सोना तैयार हो जाता है ।
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शुद्ध रांगा सावधानी के साथ गलायें । और उसमें सोंवा भाग पारा मिलायें । ऐसा करने से 32 कला की शुद्ध चांदी बनती है ।
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तैलकन्द नाम का कमलकन्द के समान प्रसिद्ध कन्द है । इसके पत्ते कमल जैसे होते हैं । इस कन्द से सदा तेल
चूता रहता है । पानी में दस हाथ की दूरी तक ये तेल फ़ैला रहता है । इसके नीचे हमेशा एक महाविषधर रहता है । इस कन्द की पहचान ये है कि इसमें लोहे की सुई प्रविष्ट करायें तो सुई तुरन्त घुल जाती है । इस कन्द को लाकर तीन बार शुद्ध पारे के साथ खरल में पीसो । फ़िर इसका तेल मिला दो । फ़िर मूसा में रखकर बांस के कोंपलो की आग में तपाओ । ऐसा करने से पारा मर जाता है । और उसमें लक्ष वेधी गुण आ जाते हैं । अर्थात साधारण धातु के एक लाख भाग और ऐसे पारे का एक भाग हो । इसको खाने से भूख और नींद पर विजय प्राप्त हो जाती है ।
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शुद्ध हरताल ( orpiment ) लेकर उस कन्द तेल के साथ 20 दिन तक खरल में पीसे । तो वह हरताल मर जायेगी । और निश्चय ही निर्धूम हो जायेगी । याने गरम करने पर उडेगी नहीं । इसे फ़िर आग में डाल दें । आठ धातुओं में से किसी को गला लें । गलित धातु में मरी हरताल मिलाये । तो सर्व वेधी का कार्य करेगी । मरी हरताल और तांबा मिलाने पर सोना बन जायेगा । मरी हरताल के साथ रांगा या कांसा मिलाने पर चांदी बन जायेगी । मरी हरताल के साथ लोहा । पीतल ।चांदी मिलाने से सोना बन जायेगा ।
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वज्रमूषा में यदि पारा और लौह सूचीद्राव रस लिया जाय और आग में साबधानी के साथ तपाया जाय । तो पारा मर जायेगा । इस मरे पारे को किसी धातु से मिलायें । तो वह सोना बन जायेगी । इस मरे पारे को खाने से अमरत्व की प्राप्ति हो सकती है । इसे खाने वाले के मलमूत्र से तांबा सोने में बदल जायेगा ।
चेतावनी -- खाने वाला कोई प्रयोग न करें । मेरी आंखों के सामने ही बुझा पारा खाकर अमरता प्राप्त करने की चाहत रखने वाले एक व्यक्ति की एक साल तक बेहद कष्ट भुगतने के बाद दर्दनाक मृत्यु हुयी है । इस व्यक्ति के शरीर की सभी नसें नीली और हरी हो गयीं थी । और ये हर समय ठन्डे पानी में बैठा रहता था । फ़िर भी इसे गरमी लगती रहती थी । दरअसल ये उच्च स्तर के साधु संतो का ग्यान है । जन साधारण को खाने वाले प्रयोग कदापि नहीं करने चाहिये । अन्यथा परिणामस्वरूप " मृत्यु " भी साधारण बात है । अतः खाने वाला प्रयोग किसी भी अनजानी चीज का कभी न करें । बल्कि करें ही न तो बेहतर है ।
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शूद्ध तूतिया लें जो पीले गन्धक से उत्पन्न हुआ हो । और आक के दूध के साथ खरल में भावना देकर यत्नपूर्वक एक पहर तक अच्छी तरह घोंटे । इसमें सीसा के समान धातु मिलाने पर सोना बन जाता है ।
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सीसा और तांबे के मिलने से बने दृव्य के मध्य में मेलापन क्रिया करें । उसमें से कुम्पिका उत्पन्न होती है । उसमें तीन बार यत्नपूर्वक सीसा गलायें । तो कुम्पिका के बीच में निर्मल स्वर्ण प्राप्त होता है ।
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" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "

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सोना बनाने की रहस्यमय विद्या

  सोना बनाने का रहस्य 

प्राचीनकाल में रसायनज्ञ पारद या पारे से सोना बनाने की विधि जानते थे.यह बात आज कपोल कल्प्ना या मिथ सरीखी लगती है जबकी इसके कई प्रमाण मौज़ूद हैं.सच्चाई यह है कि य प्रकिया बेहद कठिन और अनुभव सिद्ध है.तमाम कीमियाग़र सोना बनाने में नाकामयाब रहे, कुछ थोडे से जो सफल रहे उन्होने इस विद्या को गलत हाथों में पडने के डर से इसे बेहद गोपनीय रखा.

          यह सौभाग्य की बात है कि  आज नेट सुविधा के कारण  आपको सोना बनाने की अद्भुत जानकारी बहुत ही सहज रूप से दे रहा हूँ। इसके अनुसार कोई भी व्यक्ति विभिन्न सामग्री  इकट्ठी करके अपने आत्मविश्वाश के योगदान से अपनी हाथों से सोने का निर्माण कर सकता है। क्योंकि दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है। असंभव उनके लिए है जो हाथ पर हाथ धरे बैठे रहते है, उनके लिए है जो ख्याली पुलाव बनाते रहते है। किन्तु आज मैं स्वर्ण निर्माण की चर्चा कर ही रहा हूँ।    
          
        आप थोड़ा हैरान, थोड़ा आश्चर्य चकित हो सकते हैं। मगर यह हैरान और परेशान होने का विषय बिलकुल ही नहीं है। आज भी कई ऐसे नाम गिनाए जा सकते हैं जो पूर्व काल में स्वर्ण निर्माण के सिद्धहस्त  रहे हैं। तंत्र  मंत्र, सिद्धियों से, पारे से, जड़ी वनस्पत्तियोँ से और रसायनों से सोने का निर्माण करके समाज की आर्थिक व्यवस्था सही कर चुके हैं। इनके नाम इस प्रकार है। प्रभुदेवा जी, व्यलाचार्य जी, इन्द्रधुम जी, रत्न्घोश जी आदि स्वर्ण विज्ञानी के तौर पर प्रसिद्ध रह चुके है। ये अपने आप में पारद सिद्धि पुरुष के रूप में जाने जाते हैं। 
          
          किन्तु एक भारतीय नाम है नागार्जुन की, जिनको समूचा विश्व स्वर्ण विज्ञानी के ही रूप में जानता है। नागार्जुन ने अपने समय में विभिन्न विधिओं से सोने का निर्माण कर पूरी दुनिया को हैरत में डाल दिया। आज भी भारत के सुदूर प्रान्तों में कुछ ज्ञानी जानकार, योगी साधक हो सकते हैं जो सोने का निर्माण करने में सक्षम है, यह तो खोज और शोध की बात है। ऐसे ही नामो में एक प्रसिद्ध नाम है श्री नारायण दत्त श्रीमाली जी, जो 13 जुलाई  सन 1998 ई० को इक्छा मृत्यु प्राप्तकर सिधाश्रम को प्रस्थान कर गए, परन्तु अपने पीछे अनेक दीपक छोड़ गए जो आज समाज कल्याण करने में सक्षम है और गुरु आदेश पर निरंतर कार्यशील हैं।  
          
          जैसाकि विभिन्न विधियों से सोने का निर्माण संभव है तथा पूर्व समय में कई अनुभवी रसाचार्यों ने सोने का निर्माण कर समाज को चकित किया, यह गर्व की ही बात है। 6 नवम्बर सन 1983 साप्ताहिक हिन्दुस्तान के अनुसार सन 1942 में पंजाब के कृष्णपाल शर्मा ने ऋषिकेश में मात्र  45 मिनट में पारा के दवारा दो सौ तोला सोना बनाकर रख दी जो उस समय 75 हजार रूपये में बिका तथा वह धनराशि दान में दे दिया गया। उस समय वहा पर महात्मा गाँधी, उनके सचिव श्री महादेव देसाई, और युगल किशोर बिड़ला आदि उपस्थित थे। इससे पहले 26 मई सन 1940 में भी श्री कृष्णपाल शर्मा ने दिल्ली स्थित बिड़ला हॉउस में पारे को शुद्ध सोने में बदलकर प्रत्यक्ष  दिखा दिया था। उस समय भी वहा विशिष्ट गणमान्य  लोग उपस्थित थे। 
          
           इस घटना का वर्णन बिड़ला मंदिर में लगे शिलालेख से भी मिलता है। इस सिलसिले में नागार्जुन का नाम विख्यात तो है ही, जिन्हें स्वर्ण निर्माण में महारत हासिल थी। उनके लिखे कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ मौजूद है। उनका अध्ययन करके साधारण व्यक्ति भी भिन्न-भिन्न विधियों से सोना बनाने की प्रक्रिया समझ सकता है। नागार्जुन की संघर्ष कथा किसी आगामी पोस्ट में जरुर दूंगा। यहाँ मैं स्वर्ण निर्माण की सहज विधि के चर्चे पर आता हूँ। और इस समय मैं सिर्फ एक अत्यंत ही सरल विधि को बता रहा हूँ  यह विधि विश्वसनीय और प्रामाणिक है। इसे त्रिधातु विधि भी कहते हैं। यानी तीन  धातुओं को मिलाकर पहले एक कटोरानुमा बर्तन बनाया जाता है। फिर उसमें शुद्ध पारे सहित भिन्न-भिन्न सामग्री  के सहयोग से स्वर्ण बनाया जाता है। बर्तन की निर्माण विधि इस प्रकार है। 

आइए बनाएं सोना
राक्षस दैत्य दानवों के गुरू जिन्हें शुक्राचार्य के नाम से भी संबोधित किया जाता है, उन्होंने ऋग्वेदीय उपनिषद श्रीसूक्त के माध्यम से सोना बनाने का तरीका बताया है. श्रीसूक्त के मंत्र व प्रयोग बहुत गुप्त व सांकेतिक भाषा में बताया गया है. संपूर्ण श्रीसूक्त में 16 मंत्र हैं.

श्रीसूक्त का पहला मंत्र
ॐ हिरण्य्वर्णां हरिणीं सुवर्णस्त्र्जां।
चंद्रां हिरण्यमणीं लक्ष्मीं जातवेदो मआव॥
शब्दार्थ – हिरण्य्वर्णां- कूटज, हरिणीं- मजीठ, स्त्रजाम- सत्यानाशी के बीज, चंद्रा- नीला थोथा, हिरण्यमणीं- गंधक, जातवेदो- पाराम, आवह- ताम्रपात्र.
विधि – सोना बनाने के लिए एक बड़ा ताम्रपात्र लें, जिसमें लगभग 30 किलो पानी आ सके. सर्वप्रथम, उस पात्र में पारा रखें. तदुपरांत, पारे के ऊपर बारीक पिसा हुआ गंधक इतना डालें कि वह पारा पूर्ण रूप से ढँक जाए. उसके बाद, बारीक पिसा हुआ नीला थोथा, पारे और गंधक के ऊपर धीरे धीरे डाल दें. उसके ऊपर कूटज और मजीठ बराबर मात्रा में बारीक करके पारे, गंधक और नीले थोथे के ऊपर धीरे धीरे डाल दें और इन सब वस्तुओं के ऊपर 200 ग्राम सत्यानाशी के बीज डाल दें. यह सोना बनाने का पहला चरण है.
श्रीसूक्त का दूसरा मंत्र
तां मआवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीं।
यस्या हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहं॥
शब्दार्थ – तां- उसमें, पगामिनीं- अग्नि, गामश्वं- जल, पुरुषानहं- बीस.
विधि – ऊपर बताए गए ताँबे के पात्र में पारा, गंधक, सत्यानाशी के बीज आदि एकत्र करने के उपरांत, उस ताम्रपात्र में अत्यंत सावधानीपूर्वक जल इस तरह भरें कि जिन वस्तुओं की ढेरी पहले बनी हुई है, वह तनिक भी न हिले. तदनंतर, उस पात्र के नीचे आग जला दें. उस पात्र के पानी में, हर एक घंटे के बाद, 100 ग्राम के लगभग, पिसा हुआ कूटज, पानी के ऊपर डालते रहना चाहिए. यह विधि 3 घंटे तक लगातार चलती रहनी चाहिए.
श्रीसूक्त का तीसरा मंत्र
अश्व पूर्णां रथ मध्यां हस्तिनाद प्रमोदिनीं।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवीजुषातम॥
शब्दार्थ – अश्वपूर्णां- सुनहरी परत, रथमध्यां- पानी के ऊपर, हस्तिनाद- हाथी के गर्दन से निकलने वाली गंध, प्रमोदिनीं- नीबू का रस, श्रियं- सोना, देवी- लक्ष्मी, पह्वये- समृद्धि, जुषातम- प्रसन्नता.
विधि – उपरोक्त विधि के अनुसार, तीन घंटे तक इन वस्तुओं को ताम्रपात्र के पानी के ऊपर एक सुनहरी सी परत स्पष्ट दिखाई दे तो अग्नि जलाने के साथ ही उस पात्र से हाथी के चिंघाड़ने जैसीध्वनि सुनाई देने लगेगी. साथ ही हाथी के गर्दन से निकलने वाली विशेष गंध, उस पात्र से आने लगे तो समझना चाहिए कि पारा सिद्ध हो चुका है, अर्थात सोना बन चुका है. सावधानी से उस पात्र को अग्नि से उतारकर स्वभाविक रूप से ठंडा होने के लिए कुछ् समय छोड़ दें. पानी ठंडा होने के पश्चात, उस पानी को धीरे धीरे निकाल दें. तत्पश्चात्, उस पारे को निकालकर खरल में सावधानी से डालकर, ऊपर से नींबू का रस डालकर खरल करना चाहिए. बार बार नींबू का रस डालिए और खरल में उस पारे को रगड़ते जाइए, जब तक वह पारा सोने के रंग का न हो जाए.
विशेष सावधानी
· इस विधि को करने से पहले, इसे पूरी तरह समझ लेना आवश्यक है.
· इसे किसी योग्य वैद्याचार्य की देख रेख में ही करना चाहिए.
· इसके धुएँ में मौजूद गौस हानिकारक हैं, जिससे कई असाध्य रोग उत्पन्न हो सकते हैं अतः, कर्ता को अत्यंत सावधान रहते हुए, उस जगह खड़े या बैठे रहना चाहिए, जहाँ इससे निकलने वाला धुआँ, न आए.

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