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बुधवार, 4 सितंबर 2019

हरि सुमिरन के लिये समय मिलता नहीं, निकालना पड़ता है।

हरि सुमिरन के लिये समय मिलता नहीं, निकालना पड़ता है।
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एक बार महर्षि नारद किसी नगर से होकर जा रहे थे। एक वैश्य ने उनका आतिथ्य सत्कार किया। उसकी श्रद्धा - भक्ति देख कर उन्होंने उसका एक गिलास दुग्ध पी लिया। वेश्य ने पूछा -
महाराज, कहाँ से आ रहे हो?
नारद जी ने कहा - भगवान् कृष्ण के धाम  से।
वैश्य ने पूछा - महाराज, अब यहाँ पधारोगे?
नारद जी ने कहा - थोड़ा मृत्युलोक में घूम कर फिर भगवान् कृष्ण के धाम लौट जायेंगे।
वैश्य ने प्रार्थना की - महाराज, लौटते समय हमें भी भगवान् कृष्ण के धाम लेते चलें तो बड़ी कृपा होगी।
नारद ने कहा - अच्छा ले, चलेंगे।
कुछ् दिनों के पश्चात् नारद जी घूम - फिर कर लौटे तो पूछा - सेठजी, भगवान् कृष्ण के धाम  चलोगे?
सेठजी ने कहा - महाराज, चलना तो अवश्य है पर अभी ये लड़के बहुत छोटे नासमझ हैं। ये लोग गृहस्थी का काम संभाल नहीं सकेंगे। थोड़े दिन में ये काम - काज सँभालने योग्य हो जायँ तब चलेंगे।
नारद जी चले गये। थोड़े दिन में वे फिर लौटे। पूछा - सेठजी अब चलोगे?
सेठजी ने कहा - हाँ महाराज, अब तो लड़का बड़ा हो गया है, काम - काज भी कुछ देखने - सुनने लगा है, परन्तु यह अभी अपनी पूरी जिम्मेदारी नहीं समझता। अगले वर्ष इसका विवाह कर दें फिर निश्चिन्त हो जायँ तब चलेंगे। चार वर्ष बाद नारद जी। फिर लौटे तो दुकान पर लड़के से पूछा कि सेठ जी कहाँ हैं? लड़के ने कहा - महाराज, क्या बतायें। एक ही तो हमारे घर में पिता जी सब सँभाले हुए थे, उनका शरीर छूट गया, तब से हम तो बड़ी परेशानी में हैं।
नारद जी ने ध्यान लगा कर देखा तो मालूम हुआ कि सेठजी मर कर बैल हुए हैं और इसी घर में जनमे हैं।  नारद जी बैल के पास गये और कहा कि सेठ जी अब तो मनुष्य शरीर भी छूट गया, अब भगवान् कृष्ण के धाम चलोगे ना?
बैल ने कहा - महाराज! आपकी बड़ी कृपा है। मैं भी चलने को तैयार हूँ, पर सोचता हूँ कि घर के और बैल इतने सुस्त हैं कि आगे मैं न चलूँ तो कुछ काम ही न हो। कुछ नये बैल आने वाले हैं तब तक मैं इनका काम संभाल दूं, फिर आप कृपा करना मैं अवश्य चलूँगा।
नारद जी फिर दो - चार वर्ष बाद लौटे। उन्हें तो अपना वचन पूरा करना था और वैश्य का एक गिलास् दूध चुकाना था, इसीलिये बार - बार उसके पास आते थे। इस बार आये तो बैल नहीं दिखा। लड़कों से पूछा कि तुम्हारे यहाँ जो बूढ़ा बैल था वह कहाँ गया? लड़कों ने दुःखी होकर कहा कि महाराज! बड़ा मेहनती बैल था। सब से आगे चलता था। जब से मर गया है तब से वैसा दूसरा बैल नहीं मिला।
नारद जी ने ध्यान करके देखा तों मालूम हुआ कि इस बार सेठ जी कुत्ता होकर अपने ही घर के आगे पहरा दे रहे हैं।
कुत्ते के पास जाकर नारद जी ने कहा - कहो सेठ जी! क्या समाचार है? तीन जन्म तों हो गया।  अब भगवान् कृष्ण के धाम के सम्बन्ध में क्या विचार है?
कुत्ता रुपी सेठ ने कहा - महाराज! आप बड़े दयालु हैं। एक ओर मैं आपकी दयालुता देखता हूँ और दूसरी ओर लड़कों का आलस्य और बदइन्तजामी। महाराज! ये इतने आलसी हो गये हैं हि मैं दरवाजे पर न रहूँ तो दिन में ही लोग इन्हें लूट ले जाँय। इसलिये सोचता हुँ कि जब तक हूँ, तब तक इनकी रक्षा रहे तो अच्छा। थोड़े दिन में जरूर चलूँगा।
नारद जी फिर लौट गये। चार - छःह वर्ष में फिर आये तो कुत्ता दरवाजे पर नहीं दिखा। लड़कों से पूछा तो पता चला कि वह मर गया है। ध्यान लगाकर देखा तो मालूम हुआ कि इस बार सेठजी सर्प होकर उसी घर के तलघर में कोष की रक्षा करते हुए बैठे हैं।
नारद जी वहाँ पहुँचे। कहा - कहिये सेठ जी! यहाँ आप कैसे बैठे हैं? भगवान् कृष्ण के धाम चलने का समय अभी आया कि नहीं?
सर्प ने कहा - महाराज! ये लड़के इतने फिजूलखर्ची हों गये हैं कि मैं न होता तो अब तक खजाना खाली कर देते। सोचता हूँ कि मेरी गाढ़ी कमाई का पैसा है, जितने दिन रक्षित रह जाय उतना ही अच्छा है। इसीलिये यहाँ मेरी आवश्यकता है, नहीं तो मैं तो चलने को तैयार ही हूँ।
नारद जी फिर निराश होकर लौटे। बाहर आकर उन्होंने बड़े लड़के को बुलाकर कहा कि तुम्हारे खजाने में एक भयंकर कालरूप सर्प बैठा हुआ है।  ऐसा न हो कि कभी किसी को हानि पहुँचा दे। इसलिये उसे मारकर भगा दो। ऐसा मारना कि उसके सर में लाठी न लगे। सर में लाठी पड़ने से वह मर जायगा। मरने न पावे और कूट - पीट कर उसको खजाने से बाहर कर दो।
महात्मा का आदेश पाकर लड़कों ने वैसा ही किया। सारे शरीर में लाठियों की मार लगाकर उसको लस्त कर दिया और घर के बाहर फेंक आये।
वहाँ जाकर नारद जी उससे मिले और कहा - कहिये सेठ जी! लड़कों ने तो खूब पुटपुटी लगाई।  अभी आपका मन भरा या नहीं? फिर वापिस जाकर घर की रक्षा करोगे या अब चलोगे भगवान् कृष्ण के धाम ? सर्प ने कहा - हाँ महाराज! अब चलेंगे।
तात्पर्य यह है कि गृह में, पुत्र में, धन में, स्त्री आदि में प्रेम हो जाने पर कई जन्म तक वह प्रेम - बन्धन शिथिल नहीं होता और कई जन्मों तक उसी के कारण अनेक यातनायें सहनी पड़ती हैं। इसीलिये कहा जाता है कि संसार में प्रेम मत फँसाओ। यहाँ प्रेम करोगे तो कई जन्म तक रोना पड़ेगा ।
WWW.SANWARIYA.ORG

हरि सुमिरन के लिये समय मिलता नहीं, निकालना पड़ता है।

हरि सुमिरन के लिये समय मिलता नहीं, निकालना पड़ता है।
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एक बार महर्षि नारद किसी नगर से होकर जा रहे थे। एक वैश्य ने उनका आतिथ्य सत्कार किया। उसकी श्रद्धा - भक्ति देख कर उन्होंने उसका एक गिलास दुग्ध पी लिया। वेश्य ने पूछा -

महाराज, कहाँ से आ रहे हो?

नारद जी ने कहा - भगवान् कृष्ण के धाम  से।

वैश्य ने पूछा - महाराज, अब यहाँ पधारोगे?

नारद जी ने कहा - थोड़ा मृत्युलोक में घूम कर फिर भगवान् कृष्ण के धाम लौट जायेंगे।

वैश्य ने प्रार्थना की - महाराज, लौटते समय हमें भी भगवान् कृष्ण के धाम लेते चलें तो बड़ी कृपा होगी।

नारद ने कहा - अच्छा ले, चलेंगे।

कुछ् दिनों के पश्चात् नारद जी घूम - फिर कर लौटे तो पूछा - सेठजी, भगवान् कृष्ण के धाम  चलोगे?

सेठजी ने कहा - महाराज, चलना तो अवश्य है पर अभी ये लड़के बहुत छोटे नासमझ हैं। ये लोग गृहस्थी का काम संभाल नहीं सकेंगे। थोड़े दिन में ये काम - काज सँभालने योग्य हो जायँ तब चलेंगे।

नारद जी चले गये। थोड़े दिन में वे फिर लौटे। पूछा - सेठजी अब चलोगे?

सेठजी ने कहा - हाँ महाराज, अब तो लड़का बड़ा हो गया है, काम - काज भी कुछ देखने - सुनने लगा है, परन्तु यह अभी अपनी पूरी जिम्मेदारी नहीं समझता। अगले वर्ष इसका विवाह कर दें फिर निश्चिन्त हो जायँ तब चलेंगे। चार वर्ष बाद नारद जी। फिर लौटे तो दुकान पर लड़के से पूछा कि सेठ जी कहाँ हैं? लड़के ने कहा - महाराज, क्या बतायें। एक ही तो हमारे घर में पिता जी सब सँभाले हुए थे, उनका शरीर छूट गया, तब से हम तो बड़ी परेशानी में हैं।

नारद जी ने ध्यान लगा कर देखा तो मालूम हुआ कि सेठजी मर कर बैल हुए हैं और इसी घर में जनमे हैं।  नारद जी बैल के पास गये और कहा कि सेठ जी अब तो मनुष्य शरीर भी छूट गया, अब भगवान् कृष्ण के धाम चलोगे ना?

बैल ने कहा - महाराज! आपकी बड़ी कृपा है। मैं भी चलने को तैयार हूँ, पर सोचता हूँ कि घर के और बैल इतने सुस्त हैं कि आगे मैं न चलूँ तो कुछ काम ही न हो। कुछ नये बैल आने वाले हैं तब तक मैं इनका काम संभाल दूं, फिर आप कृपा करना मैं अवश्य चलूँगा।

नारद जी फिर दो - चार वर्ष बाद लौटे। उन्हें तो अपना वचन पूरा करना था और वैश्य का एक गिलास् दूध चुकाना था, इसीलिये बार - बार उसके पास आते थे। इस बार आये तो बैल नहीं दिखा। लड़कों से पूछा कि तुम्हारे यहाँ जो बूढ़ा बैल था वह कहाँ गया? लड़कों ने दुःखी होकर कहा कि महाराज! बड़ा मेहनती बैल था। सब से आगे चलता था। जब से मर गया है तब से वैसा दूसरा बैल नहीं मिला।

नारद जी ने ध्यान करके देखा तों मालूम हुआ कि इस बार सेठ जी कुत्ता होकर अपने ही घर के आगे पहरा दे रहे हैं।

कुत्ते के पास जाकर नारद जी ने कहा - कहो सेठ जी! क्या समाचार है? तीन जन्म तों हो गया।  अब भगवान् कृष्ण के धाम के सम्बन्ध में क्या विचार है?

कुत्ता रुपी सेठ ने कहा - महाराज! आप बड़े दयालु हैं। एक ओर मैं आपकी दयालुता देखता हूँ और दूसरी ओर लड़कों का आलस्य और बदइन्तजामी। महाराज! ये इतने आलसी हो गये हैं हि मैं दरवाजे पर न रहूँ तो दिन में ही लोग इन्हें लूट ले जाँय। इसलिये सोचता हुँ कि जब तक हूँ, तब तक इनकी रक्षा रहे तो अच्छा। थोड़े दिन में जरूर चलूँगा।

नारद जी फिर लौट गये। चार - छःह वर्ष में फिर आये तो कुत्ता दरवाजे पर नहीं दिखा। लड़कों से पूछा तो पता चला कि वह मर गया है। ध्यान लगाकर देखा तो मालूम हुआ कि इस बार सेठजी सर्प होकर उसी घर के तलघर में कोष की रक्षा करते हुए बैठे हैं।

नारद जी वहाँ पहुँचे। कहा - कहिये सेठ जी! यहाँ आप कैसे बैठे हैं? भगवान् कृष्ण के धाम चलने का समय अभी आया कि नहीं?

सर्प ने कहा - महाराज! ये लड़के इतने फिजूलखर्ची हों गये हैं कि मैं न होता तो अब तक खजाना खाली कर देते। सोचता हूँ कि मेरी गाढ़ी कमाई का पैसा है, जितने दिन रक्षित रह जाय उतना ही अच्छा है। इसीलिये यहाँ मेरी आवश्यकता है, नहीं तो मैं तो चलने को तैयार ही हूँ।

नारद जी फिर निराश होकर लौटे। बाहर आकर उन्होंने बड़े लड़के को बुलाकर कहा कि तुम्हारे खजाने में एक भयंकर कालरूप सर्प बैठा हुआ है।  ऐसा न हो कि कभी किसी को हानि पहुँचा दे। इसलिये उसे मारकर भगा दो। ऐसा मारना कि उसके सर में लाठी न लगे। सर में लाठी पड़ने से वह मर जायगा। मरने न पावे और कूट - पीट कर उसको खजाने से बाहर कर दो।

महात्मा का आदेश पाकर लड़कों ने वैसा ही किया। सारे शरीर में लाठियों की मार लगाकर उसको लस्त कर दिया और घर के बाहर फेंक आये।

वहाँ जाकर नारद जी उससे मिले और कहा - कहिये सेठ जी! लड़कों ने तो खूब पुटपुटी लगाई।  अभी आपका मन भरा या नहीं? फिर वापिस जाकर घर की रक्षा करोगे या अब चलोगे भगवान् कृष्ण के धाम ? सर्प ने कहा - हाँ महाराज! अब चलेंगे।

तात्पर्य यह है कि गृह में, पुत्र में, धन में, स्त्री आदि में प्रेम हो जाने पर कई जन्म तक वह प्रेम - बन्धन शिथिल नहीं होता और कई जन्मों तक उसी के कारण अनेक यातनायें सहनी पड़ती हैं। इसीलिये कहा जाता है कि संसार में प्रेम मत फँसाओ। यहाँ प्रेम करोगे तो कई जन्म तक रोना पड़ेगा ।
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भाद्रपद कुशोत्पाटिनी अमावस्या विशेष

भाद्रपद कुशोत्पाटिनी अमावस्या विशेष
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हिन्दू धर्म में अमावस्या की तिथि पितरों की आत्म शांति, दान-पुण्य और काल-सर्प दोष निवारण के लिए विशेष रूप से महत्व रखती है। चूंकि भाद्रपद माह भगवान श्री कृष्ण की भक्ति का महीना होता है इसलिए भाद्रपद अमावस्या का महत्व और भी बढ़ जाता है। इस अमावस्या पर धार्मिक कार्यों के लिये कुशा एकत्रित की जाती है। कहा जाता है कि धार्मिक कार्यों, श्राद्ध कर्म आदि में इस्तेमाल की जाने वाली कुशा यदि इस दिन एकत्रित की जाये तो वह पुण्य फलदायी होती है। अध्यात्म और कर्मकांड शास्त्र में प्रमुख रूप से काम आने वाली वनस्पतियों में कुशा का प्रमुख स्थान है। इसका वैज्ञानिक नाम Eragrostis cynosuroides है। इसको कांस अथवा ढाब भी कहते हैं। जिस प्रकार अमृतपान के कारण केतु को अमरत्व का वर मिला है, उसी प्रकार कुशा भी अमृत तत्त्व से युक्त है।

अत्यन्त पवित्र होने के कारण इसका एक नाम पवित्री भी है। इसके सिरे नुकीले होते हैं। इसको उखाड़ते समय सावधानी रखनी पड़ती है कि यह जड़ सहित उखड़े और हाथ भी न कटे। कुशल शब्द इसीलिए बना।

इस वर्ष कुशोत्पाटिनी अमावस्या 30 अगस्त दिन शुक्रवार को पड़ रही है। कुशोत्पाटिनी अमावस्या मुख्यत: पूर्वान्ह में मानी जाती है।

भाद्रपद्र कुशोत्पाटिनी अमावस्या व्रत में किये जाने वाले धार्मिक कर्म
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स्नान, दान और तर्पण के लिए अमावस्या की तिथि का अधिक महत्व होता है।भाद्रपद कुशोत्पाटिनी अमावस्या के दिन किये जाने वाले धार्मिक कार्य इस प्रकार हैं।

👉  इस दिन प्रातःकाल उठकर किसी नदी, जलाशय या कुंड में स्नान करें और सूर्य देव को अर्घ्य देने के बाद बहते जल में तिल प्रवाहित करें।

👉  नदी के तट पर पितरों की आत्म शांति के लिए पिंडदान करें और किसी गरीब व्यक्ति या ब्राह्मण को दान-दक्षिणा दें।

👉  इस दिन कालसर्प दोष निवारण के लिए पूजा-अर्चना भी की जा सकती है।

👉  अमावस्या के दिन शाम को पीपल के पेड़ के नीचे सरसो के तेल का दीपक लगाएं और अपने पितरों को स्मरण करें। पीपल की सात परिक्रमा लगाएं।

👉  अमावस्या शनिदेव का दिन भी माना जाता है। इसलिए इस दिन उनकी पूजा करना जरूरी है।

भाद्रपद अमावस्या का महत्व
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पूजाकाले सर्वदैव कुशहस्तो भवेच्छुचि:।
कुशेन रहिता पूजा विफला कथिता मया॥

हर माह में आने वाली अमावस्या की तिथि का अपना विशेष महत्व होता है। हिन्दू धर्म में कुश के बिना किसी भी पूजा को सफल नहीं माना जाता है। भाद्रपद अमावस्या के दिन धार्मिक कार्यों के लिये कुशा एकत्रित की जाती है, इसलिए इसे कुशग्रहणी या कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा जाता है। वहीं पौराणिक ग्रंथों में इसे कुशोत्पाटिनी अमावस्या भी कहा गया है। यदि भाद्रपद अमावस्या सोमवार के दिन हो तो इस कुशा का उपयोग 12 सालों तक किया जा सकता है।

किसी भी पूजन के अवसर पर पुरोहित यजमान को अनामिका उंगली में कुश की बनी पवित्री पहनाते हैं। शास्त्रों में 10 प्रकार के कुश का वर्णन है।

कुशा:काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।
गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।

मान्यता है कि घास के इन दस प्रकारों में जो भी घास सुलभ एकत्रित की जा सकती हो इस दिन कर लेनी चाहिये। लेकिन ध्यान रखना चाहिये कि घास को केवल हाथ से ही एकत्रित करना चाहिये और उसकी पत्तियां पूरी की पूरी होनी चाहिये आगे का भाग टूटा हुआ न हो। इस कर्म के लिये सूर्योदय का समय उचित रहता है।

इनमें जो भी आपको मिल सके, उसे पूजा के समय या धार्मिक अनुष्ठान के समय ग्रहण करें।

ऐसे कुश का प्रयोग वर्जित
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जिस कुश का मूल सुतीक्ष्ण हो, अग्रभाग कटा न हो और हरा हो, वह देव और पितृ दोनों कार्यों में वर्जित होता है।

कुश उखाड़ने की प्रक्रिया
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अमावस्या के दिन दर्भस्थल में जाकर व्यक्ति को पूर्व या उत्तर मुख करके बैठना चाहिए। फिर कुश उखाड़ने के पूर्व निम्न मंत्र पढ़कर प्रार्थना करनी चाहिए।

कुशाग्रे वसते रुद्र: कुश मध्ये तु केशव:।
कुशमूले वसेद् ब्रह्मा कुशान् मे देहि मेदिनी।।

'विरञ्चिना सहोत्पन्न परमेष्ठिन्निसर्गज।
नुद सर्वाणि पापानि दर्भ स्वस्तिकरो भव।।

मंत्र पढ़ने के बाद "ऊँ हूँ फट्" मंत्र का उच्चारण करते कुशा दाहिने हाथ से उखाड़ें। इस वर्ष आपके घर जो भी पूजा या धार्मिक कार्यों का आयोजन हो, उसमें इस कुश का प्रयोग करें। यह पूरे वर्षभर के लिए उपयोगी और फलदायी होता है।

कुशा:काशा यवा दूर्वा उशीराच्छ सकुन्दका:।
गोधूमा ब्राह्मयो मौन्जा दश दर्भा: सबल्वजा:।।

यह पौधा पृथ्वी लोक का पौधा न होकर अंतरिक्ष से उत्पन्न माना गया है। मान्यता है कि जब सीता जी पृथ्वी में समाई थीं तो राम जी ने जल्दी से दौड़ कर उन्हें रोकने का प्रयास किया, किन्तु उनके हाथ में केवल सीता जी के केश ही आ पाए। ये केश राशि ही कुशा के रूप में परिणत हो गई। सीतोनस्यूं पौड़ी गढ़वाल में जहाँ पर माना जाता है कि माता सीता धरती में समाई थी, उसके आसपास की घास अभी भी नहीं काटी जाती है।

भारत में हिन्दू लोग इसे पूजा /श्राद्ध में काम में लाते हैं। श्राद्ध तर्पण विना कुशा के सम्भव नहीं हैं ।

कुशा से बनी अंगूठी पहनकर पूजा /तर्पण के  समय पहनी जाती है जिस भाग्यवान् की सोने की अंगूठी पहनी हो उसको जरूरत नहीं है। कुशा प्रत्येक दिन नई उखाडनी पडती है लेकिन अमावस्या की तोडी कुशा पूरे महीने काम दे सकती है और भादों की अमावस्या के दिन की तोडी कुशा पूरे साल काम आती है। इसलिए लोग इसे तोड के रख लते हैं।

केतु शांति विधानों में कुशा की मुद्रिका और कुशा की आहूतियां विशेष रूप से दी जाती हैं। रात्रि में जल में भिगो कर रखी कुशा के जल का प्रयोग कलश स्थापना में सभी पूजा में देवताओं के अभिषेक, प्राण प्रतिष्ठा, प्रायश्चित कर्म, दशविध स्नान आदि में किया जाता है।

केतु को अध्यात्म और मोक्ष का कारक माना गया है। देव पूजा में प्रयुक्त कुशा का पुन: उपयोग किया जा सकता है, परन्तु पितृ एवं प्रेत कर्म में प्रयुक्त कुशा अपवित्र हो जाती है। देव पूजन, यज्ञ, हवन, यज्ञोपवीत, ग्रहशांति पूजन कार्यो में रुद्र कलश एवं वरुण कलश में जल भर कर सर्वप्रथम कुशा डालते हैं। कलश में कुशा डालने का वैज्ञानिक पक्ष यह है कि कलश में भरा हुआ जल लंबे समय तक जीवाणु से मुक्त रहता है। पूजा समय में यजमान अनामिका अंगुली में कुशा की नागमुद्रिका बना कर पहनते हैं। 

कुशा आसन का महत्त्व
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धार्मिक अनुष्ठानों में कुश (दर्भ) नामक घास से निर्मित आसान बिछाया जाता है। पूजा पाठ आदि कर्मकांड करने से व्यक्ति के भीतर जमा आध्यात्मिक शक्ति पुंज का संचय कहीं लीक होकर अर्थ न हो जाए, अर्थात पृथ्वी में न समा जाए, उसके लिए कुश का आसन विद्युत कुचालक का कार्य करता है। इस आसन के कारण पार्थिव विद्युत प्रवाह पैरों के माध्यम से शक्ति को नष्ट नहीं होने देता है।

इस पर बैठकर साधना करने से आरोग्य, लक्ष्मी प्राप्ति, यश और तेज की भी वृद्घि होती है और साधक की एकाग्रता भंग नहीं होती। कुशा की पवित्री उन लोगों को जरूर धारण करनी चाहिए, जिनकी राशि पर ग्रहण पड़ रहा है। कुशा मूल की माला से जाप करने से अंगुलियों के एक्यूप्रेशर बिंदु दबते रहते हैं, जिससे शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है।

यह भी कहा जाता है कि कुश के बने आसन पर बैठकर मंत्र जप करने से सभी मंत्र सिद्ध होते हैं। नास्य केशान् प्रवपन्ति, नोरसि ताडमानते। -देवी भागवत 19/32 अर्थात कुश धारण करने से सिर के बाल नहीं झडते और छाती में आघात यानी दिल का दौरा नहीं होता। उल्लेखनीय है कि वेद ने कुश को तत्काल फल देने वाली औषधि, आयु की वृद्धि करने वाला और दूषित वातावरण को पवित्र करके संक्रमण फैलने से रोकने वाला बताया है।

आपको पता होगा कि कुश के ऊपर अमृत कलश रखा गया था। इसलिए इस पर अमृत का संयोग भी है। रक्षा करने वाले नागों ने जब कुश चाटने शुरू किये तब जीभ कुशों के कारण फटी थी उसकी कथा इस प्रकार से है।
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सभी साँप और गरुड़ दोनों सौतेले भाई थे, लेकिन साँपों की माँ कद्रू ने गरुड़ की माँ विनता को छल से अपनी दासी बना लिया। सभी साँपों ने गरुड़ के सामने यह शर्त रखी कि अगर वह स्वर्ग से उनके लिए अमृत लेकर आयेगा तो उसकी माँ को दासता से मुक्त कर दिया जायेगा। यह सुनकर गरुड़ ने स्वर्ग पर आक्रमण कर दिया और सभी को परास्त कर दिया। युद्ध में स्वर्ग के देवता इन्द्र को भी उसने मारकर मूर्छित कर दिया। उसका यह पराक्रम देखकर भगवान विष्णु बहुत प्रसन्न हुए और उसे अपना वाहन बना लिया। गरुड़ ने भगवान् विष्णु से यह वरदान भी माँग लिया कि वह हमेशा अमर रहेगा और उसे कोई नहीं मार सकेगा।

अमृत लेकर गरुड़ वापस धरती पर आ रहा था कि तभी इंद्र ने उस पर अपने वज्र से प्रहार कर दिया। गरुड़ को अमरता का वरदान मिला था, इसलिए उस पर वज्र के प्रहार का कोई असर नहीं हुआ, लेकिन गरुड़ ने इंद्र से कहा कि आपका वज्र दधीचि के हड्डियों से बना हुआ है, इसलिए मैं उनके सम्मान में अपना एक पंख गिरा देता हूँ। यह देखकर इंद्र ने कहा कि तुम जो अमृत साँपों के लिए ले जा रहे हो, उससे वह पूरी सृष्टि का विनाश कर देंगे, इसलिए अमृत को स्वर्ग में ही रहने दो।

इंद्र की बात सुनकर गरुड़ ने कहा इस अमृत को देकर वह अपनी माँ को दासता से मुक्त कराना चाहता है। वह इन्द्र से कहता है- मैं इस अमृत को जहाँ रख दूंगा, आप वहाँ से उठा लीजियेगा। गरुड़ की यह बात सुनकर इंद्र बहुत प्रसन्न हुए और बोले कि तुम मुझसे कोई वर मांगो। गरुड़ ने कहा कि जिन साँपों ने मेरी माँ को अपनी दासी बनाया है, वे सभी मेरा प्रिय भोजन बने। गरुड़ अमृत लेकर साँपों के पास पहुँचा और साँपों से बोला कि मैं अमृत ले आया हूं। अब तुम मेरी माँ को अपनी दासता से मुक्त कर दो। साँपों ने ऐसा ही किया और उसकी माँ को मुक्त कर दिया। गरुड़ अमृत को एक कुश के आसन पर रख कर बोलता है कि तुम सभी पवित्र होकर इसको पी सकते हो।

सभी साँपों ने मिलकर विचार किया और स्नान करने चले गये। दूसरी तरफ इंद्र वहुं घात लगाकर बैठे हुए थे। जैसे ही सभी सांप चले जाते हैं, इन्द्र अमृत कलश लेकर स्वर्ग भाग जाते हैं। जब साँप वापस आये तो उन्होंने देखा कि अमृत कलश कुश के आसन पर नहीं है, उन्होंने सोचा कि जिस तरह से हमने छल करके गरुड़ की माँ को अपनी दासी बनाया हुआ था, उसी तरह से हमारे साथ भी छल हुआ है। लेकिन उन्हें थोड़ी देर बाद ध्यान आता है कि अमृत इसी कुश के आसन पर रखा हुआ था, तो हो सकता है, इस पर अमृत की कुछ बूंदे गिरी हों। सभी सांप कुश को अपनी जीभ से चाटने लगते हैं और उनकी जीभ कुशों के कारण बीच से दो भागों में कट जाती है।
अमृत कलश के स्पर्श के बाद से कुश और पवित्र भी माने जाते हैं।

कुशा की पवित्री का महत्त्व
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कुश की अंगूठी बनाकर अनामिका उंगली में पहनने का विधान है, ताकि हाथ द्वारा संचित आध्यात्मिक शक्ति पुंज दूसरी उंगलियों में न जाए, क्योंकि अनामिका के मूल में सूर्य का स्थान होने के कारण यह सूर्य की उंगली है। सूर्य से हमें जीवनी शक्ति, तेज और यश प्राप्त होता है। दूसरा कारण इस ऊर्जा को पृथ्वी में जाने से रोकना भी है। कर्मकांड के दौरान यदि भूलवश हाथ भूमि पर लग जाए, तो बीच में कुश का ही स्पर्श होगा। इसलिए कुश को हाथ में भी धारण किया जाता है। इसके पीछे मान्यता यह भी है कि हाथ की ऊर्जा की रक्षा न की जाए, तो इसका दुष्परिणाम हमारे मस्तिष्क और हृदय पर पडता है।

पिथौरा अमावस्या
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भाद्रपद अमावस्या को पिथौरा अमावस्या भी कहा जाता है, इसलिए इस दिन देवी दुर्गा की पूजा की जाती है। इस संदर्भ में पौराणिक मान्यता है कि इस दिन माता पार्वती ने इंद्राणी को इस व्रत का महत्व बताया था। विवाहित स्त्रियों द्वारा संतान प्राप्ति एवं अपनी संतान के कुशल मंगल के लिये उपवास किया जाता है और देवी दुर्गा की पूजा की जाती है।

अमावस्या तिथि आरंभ – 19:56:55 बजे (29 अगस्त 2019)
अमावस्या तिथि समाप्त – 16:08:29 बजे (30 अगस्त 2019)
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गुरुवार, 22 अगस्त 2019

पत्रकारिता की आड़ में पनप रहे माफिया तंत्र

जानिए सरकार किसे मानती है पत्रकार?





महेश झालानी
मैं आज अपने सभी पत्रकार साथियो, बुद्धिजीवियों, सूचना एवं जन सक्षम्पर्क विभाग में कार्य करने वालो से यह जानना चाहता हूँ कि आखिर पत्रकार किसे कहते है या पत्रकार कौन होता है । मैंने गूगल, विकिपीडिया तथा अनेक पुस्तको को खंगाल डाला । लेकिन मुझे पत्रकार या पत्रकारिता की सर्व सम्मत परिभाषा उपलब्ध नही हो पाई ।
मजे की बात यह है कि सरकारी विभाग भी इसकी परिभाषा से बचते नजर आए । अनेक विद्वानों ने पत्रकारिता की व्याख्या तो की है, लेकिन असल पत्रकार किसे कहा जाता है, इस पर कोई एक राय नही है । यहां तक कि प्रेस कौंसिल की वेब साइट पर भी पत्रकार की परिभाषा का स्पस्ट उल्लेख नही है । मीडिया और प्रेस, ये दो शब्द तो अवश्य है, लेकिन पत्रकार के फ्रेम में किसे रखा जाए, इस पर कौंसिल भी मौन है ।

जब सरकार की ओर से पत्रकारिता की कोई स्पस्ट और कानून सम्मत परिभाषा ही उपलब्ध नही है तो वह किस आधार पर पत्रकारो का अधिस्वीकरण कर सकती है ? राजस्थान के सूचना और जन सम्पर्क विभाग ने पत्रकारो के अधिस्वीकरण के लिए न्यूनतम स्नातक योग्यता निर्धारित कर रखी है । जबकि किसी भी संस्था, प्रेस कौंसिल के नियमो, उप नियमो, आदेश, संविधान, परिपत्र आदि में न्यूनतम योग्यता का कोई प्रावधान नही है । फिर राज्य का सूचना और जन सम्पर्क विभाग अधिस्वीकरण के लिए न्यूनतम योयता कैसे तय कर सकता है ? क्या दसवीं पास व्यक्ति जिसे पत्रकारिता का लंबा तजुर्बा हासिल है, वह अधिस्वीकरण के योग्य नही है ? सूचना और जन सम्पर्क विभाग का यह आदेश संविधान के प्रतिकूल है ।

अधिकांशत सूचना और जन सम्पर्क विभाग उन्ही पत्रकारो का अधिस्वीकरण करता है जो फील्ड में काम (रिपोर्टर) करते है । अखबार, चैनल में कार्य करने वाले उप संपादक, सहायक संपादक, समाचार संपादक, अनुवादक, कॉपी राइटर, स्तम्भ लेखक पत्रकार नही है ? यदि हाँ तो उनको अधिस्वीकरण की सुविधा क्यो नही ? होता यह है कि बड़े मीडिया संस्थानों में सैकड़ो पत्रकार (?) कार्य करते है, लेकिन अधिस्वीकरण लाभ केवल चन्द लोगो को ही मिलता है । ऐसा क्यों ?

कई जेबी संस्थान या अखबार जिनका वास्तविक बिक्री संख्या तो शून्य होती है, लेकिन फर्जी तौर पर इनका सर्कुलेशन लाखो-हजारो में होता है तथा इसी फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सरकार से हर माह के फर्जी तौर पर लाखों रुपये के विज्ञापन, दफ्तर के लिए रियायती दर जमीन भी हथिया लेते है । ये जेबी संस्था अपने बेटे, बेटी, दामाद, ड्राइवर, गार्ड, रिश्तेदारों को पत्रकार होने का सर्टिफिकेट देकर अधिस्वीकरण करवाकर सरकार से मिलने वाली सुविधा की मांग करते है और कई जेबी संस्थाओं ने इसका भरपूर रूप से दोहन भी किया है । संस्थान में कलम घसीटू असल पत्रकार सरकारी सुविधा पाने से वंचित रह जाते है ।

एक सवाल यह भी पैदा होता है कि मान लो कि किसी व्यक्ति ने दस-पन्द्रह साल किसी बड़े मीडिया हाउस में काम किया । अपरिहार्य कारणों से आज वह किसी संस्थान से नही जुड़ा हुआ है । क्या सरकार उसे पत्रकार मानेगी या नही । नही मानती है तो इसका तर्कसंगत जवाब क्या है ? क्या ऐसा व्यक्ति सरकारी सुविधा पाने का अधिकारी है या नही ? नही है तो उस बेचारे के दस-पन्द्रह साल कागज काले करने में ही स्वाहा होगये । सरकारी सुविधा से वंचित रखना ऐसे व्यक्ति के साथ घोर अन्याय है ।

एक सवाल यह भी उठता है कि कोई व्यक्ति पिछले 30-40 साल से विभिन्न अखबारों/मीडिया हाउस में कार्य कर रहा है । किसी कारण वह स्नातक तक की योग्यता हासिल नही कर पाया तो क्या उसका अधिस्वीकरण नही होगा ? नही होगा तो किन प्रावधानों के अंतर्गत ? और होता है तो फिर स्नातक योग्यता की अनिवार्यता क्यो ?

फ्रीलांस पत्रकारो के सम्बंध में भी एक सवाल उठ रहा है । फ्रीलांस पत्रकार के लिए जहां तक मुझे पता है, सरकार ने 60 वर्ष की आयु निर्धारित कर रखी है । जिस व्यक्ति की आयु 60 वर्ष है तो निश्चय ही उसने कम से कम 25-30 साल तक तो अवश्य कलम घसीटी होगी । सरकार ने एक प्रावधान कर रखा है कि उसकी खबर या आलेख नियमित रूप से अखबारों या पत्रिकाओ में प्रकाशित होने चाहिए ।
सभी को पता है कि बड़े संस्थानों में उनके नियमित लेखक होते है । इनके अतिरिक्त वे अन्य के समाचार या आलेख प्रकाशित नही करते । छोटे अखबार आलेख तो छाप सकते है, लेकिन फोकट में । सरकार क्या यह चाहती है कि उसके नियमो की पूर्ति के लिए एक वरिष्ठ पत्रकार फोकट में मेहनत करे । यह बेहूदा नियम है जो वरिष्ठ पत्रकारों के साथ अन्याय है ।

अब आते है पत्रकार संगठनों पर । जिस किसी के पास कोई काम नही होता है या समाज और सरकार पर रुतबा झाड़ना चाहता है, वह स्वयंघोषित अध्यक्ष बनकर उन लोगो को अपने जेबी संगठन में शरीक कर लेता है जिनमे पत्रकार बनने की भूख होती है । संगठन के लिए ये पहले खुद की जेब से पैसे खर्च करते है और बाद में दूसरों की जेब काटने का हुनर सीख लेते है । फिर किसी मंत्री को बुलाकर वही रटे-रटाये विषय पर गोष्ठी का नाटक कर पत्रकारो को सम्मानित करने का करतब भी दिखाते है । यह पत्रकार संगठनों की असली तस्वीर ।

एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि सरकारी कमेटियों में पत्रकारो की नियुक्ति । ये नियुक्ति विशुद्ध रूप से चमचागिरी और जी हुजूरी के आधार पर होती है । परम्परा बनी हुई है कि कुछ बड़े अखबारों से, कुछ तथाकथित पत्रकार संगठनों से तो कुछ ऐसे लोग होते है जो अफसरों और राजनेताओ की चिलम भरते हो ।
भले ही उन्हें उस कमेटी की एबीसीडी नही आती हो, लेकिन चाटुकारिता के बल पर पत्रकारो के कल्याण करने वालो की भीड़ में शामिल होकर समाज मे अपना रुतबा झाड़ते है । सरकार का एक मापदंड है कि कौन पत्रकार उसकी तारीफ करता है और कौन नुकसान । ये पिक और चूज करने वाली नीति अब नही चलने वाली । सरकार को आरटीआई और अदालत के जरिये जवाब देना होगा कि फला व्यक्ति को किस आधार पर नियुक्त किया गया । बेहतर होगा कि कमेटी के सदस्यों का चयन लॉटरी के आधार पर किया जाए ।

लगे हाथों पत्रकारो से जुड़ी समस्या पर भी चर्चा करली जाए । पत्रकार साथी कई दिनों से अपनी बुनियादी मांगों को लेकर क्रमिक धरने पर बैठे है । सरकार आंदोलनकारियों को तवज्जो दे नही रही और अखबार मालिकों ने घोषित रूप से आंदोलन की खबरों के प्रकाशन पर रोक लगा दी है । संभवतया ऐसा पहली दफा हो रहा है कि जब अखबार मालिकों ने अपने मुंह पर ताला लगा दिया है ।
जरूर कोई ना कोई तो घालमेल है । सरकार को चाहिए कि वे उदारता का परिचय देते हुए वाजिब मांगों को मानकर अपनी सदाशयता का परिचय दे । लोकतंत्र में सरकार और पत्रकार परस्पर एक दूसरे के पूरक है । बिना पत्रकारो के सरकार अधूरी है तो सरकार के बिना पत्रकार भी अपंग रहेंगे । कुछ दिन तक तो एक दूसरे के बगैर काम चलाया जा सकता है लेकिन लंबे समय तक नही । दूरियां ज्यादा बढ़े, उससे पहले निदान आवश्यक है ।

मेरी अधिकतम जानकारी के अनुसार सरकार आवासीय योजना के अलावा अन्य सभी मांगों को मानने के लिए तत्पर है । सरकार की ओर से जो बातें छनकर आ रही है कि तत्कालीन गहलोत सरकार ने धौलाई में पत्रकार आवासीय योजना के नाम पर जूतों में दाल बांटी थी । सरकार का यह मानना है कि जिस तरह धौलाई में 60 फीसदी के करीब पत्रकारो ने प्लाट बेच खाये, कमोबेश यही हाल नायला आवासीय योजना का भी होगा । यह भी तर्क दिया जा रहा है कि नायला में आवेदन करने में बहुत से लोगो का पत्रकारिता से दूर दूर तक का भी ताल्लुक नही है ।
सरकार का यह तर्क वाजिब हो सकता है । लेकिन चन्द फर्जी लोगो की वजह से जायज पत्रकारो को भूखण्ड से वंचित रखना कतई न्यायोचित नही है । सरकार को चाहिए कि पहली किश्त में उन लोगो को भूखण्ड का आवंटन ही नही, पट्टा जारी करना चाहिए जो वास्तविक और निर्विवाद पत्रकार है । दूसरी किश्त में उन लोगो की सूची प्रकाशित कर आपत्ति आमंत्रित करें । जो प्रामाणिक रूप से फर्जी पत्रकार माना जाता है, उसकी राशि जब्त कर उसके खिलाफ तथा पत्रकार होने का प्रमाणपत्र जारी करने वालो के खिलाफ फौजदारी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि पत्रकारिता की आड़ में पनप रहे माफिया तंत्र पर प्रभावी अंकुश लग सके ।

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