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गुरुवार, 22 अगस्त 2019

पत्रकारिता की आड़ में पनप रहे माफिया तंत्र

जानिए सरकार किसे मानती है पत्रकार?





महेश झालानी
मैं आज अपने सभी पत्रकार साथियो, बुद्धिजीवियों, सूचना एवं जन सक्षम्पर्क विभाग में कार्य करने वालो से यह जानना चाहता हूँ कि आखिर पत्रकार किसे कहते है या पत्रकार कौन होता है । मैंने गूगल, विकिपीडिया तथा अनेक पुस्तको को खंगाल डाला । लेकिन मुझे पत्रकार या पत्रकारिता की सर्व सम्मत परिभाषा उपलब्ध नही हो पाई ।
मजे की बात यह है कि सरकारी विभाग भी इसकी परिभाषा से बचते नजर आए । अनेक विद्वानों ने पत्रकारिता की व्याख्या तो की है, लेकिन असल पत्रकार किसे कहा जाता है, इस पर कोई एक राय नही है । यहां तक कि प्रेस कौंसिल की वेब साइट पर भी पत्रकार की परिभाषा का स्पस्ट उल्लेख नही है । मीडिया और प्रेस, ये दो शब्द तो अवश्य है, लेकिन पत्रकार के फ्रेम में किसे रखा जाए, इस पर कौंसिल भी मौन है ।

जब सरकार की ओर से पत्रकारिता की कोई स्पस्ट और कानून सम्मत परिभाषा ही उपलब्ध नही है तो वह किस आधार पर पत्रकारो का अधिस्वीकरण कर सकती है ? राजस्थान के सूचना और जन सम्पर्क विभाग ने पत्रकारो के अधिस्वीकरण के लिए न्यूनतम स्नातक योग्यता निर्धारित कर रखी है । जबकि किसी भी संस्था, प्रेस कौंसिल के नियमो, उप नियमो, आदेश, संविधान, परिपत्र आदि में न्यूनतम योग्यता का कोई प्रावधान नही है । फिर राज्य का सूचना और जन सम्पर्क विभाग अधिस्वीकरण के लिए न्यूनतम योयता कैसे तय कर सकता है ? क्या दसवीं पास व्यक्ति जिसे पत्रकारिता का लंबा तजुर्बा हासिल है, वह अधिस्वीकरण के योग्य नही है ? सूचना और जन सम्पर्क विभाग का यह आदेश संविधान के प्रतिकूल है ।

अधिकांशत सूचना और जन सम्पर्क विभाग उन्ही पत्रकारो का अधिस्वीकरण करता है जो फील्ड में काम (रिपोर्टर) करते है । अखबार, चैनल में कार्य करने वाले उप संपादक, सहायक संपादक, समाचार संपादक, अनुवादक, कॉपी राइटर, स्तम्भ लेखक पत्रकार नही है ? यदि हाँ तो उनको अधिस्वीकरण की सुविधा क्यो नही ? होता यह है कि बड़े मीडिया संस्थानों में सैकड़ो पत्रकार (?) कार्य करते है, लेकिन अधिस्वीकरण लाभ केवल चन्द लोगो को ही मिलता है । ऐसा क्यों ?

कई जेबी संस्थान या अखबार जिनका वास्तविक बिक्री संख्या तो शून्य होती है, लेकिन फर्जी तौर पर इनका सर्कुलेशन लाखो-हजारो में होता है तथा इसी फर्जी प्रसार संख्या के आधार पर सरकार से हर माह के फर्जी तौर पर लाखों रुपये के विज्ञापन, दफ्तर के लिए रियायती दर जमीन भी हथिया लेते है । ये जेबी संस्था अपने बेटे, बेटी, दामाद, ड्राइवर, गार्ड, रिश्तेदारों को पत्रकार होने का सर्टिफिकेट देकर अधिस्वीकरण करवाकर सरकार से मिलने वाली सुविधा की मांग करते है और कई जेबी संस्थाओं ने इसका भरपूर रूप से दोहन भी किया है । संस्थान में कलम घसीटू असल पत्रकार सरकारी सुविधा पाने से वंचित रह जाते है ।

एक सवाल यह भी पैदा होता है कि मान लो कि किसी व्यक्ति ने दस-पन्द्रह साल किसी बड़े मीडिया हाउस में काम किया । अपरिहार्य कारणों से आज वह किसी संस्थान से नही जुड़ा हुआ है । क्या सरकार उसे पत्रकार मानेगी या नही । नही मानती है तो इसका तर्कसंगत जवाब क्या है ? क्या ऐसा व्यक्ति सरकारी सुविधा पाने का अधिकारी है या नही ? नही है तो उस बेचारे के दस-पन्द्रह साल कागज काले करने में ही स्वाहा होगये । सरकारी सुविधा से वंचित रखना ऐसे व्यक्ति के साथ घोर अन्याय है ।

एक सवाल यह भी उठता है कि कोई व्यक्ति पिछले 30-40 साल से विभिन्न अखबारों/मीडिया हाउस में कार्य कर रहा है । किसी कारण वह स्नातक तक की योग्यता हासिल नही कर पाया तो क्या उसका अधिस्वीकरण नही होगा ? नही होगा तो किन प्रावधानों के अंतर्गत ? और होता है तो फिर स्नातक योग्यता की अनिवार्यता क्यो ?

फ्रीलांस पत्रकारो के सम्बंध में भी एक सवाल उठ रहा है । फ्रीलांस पत्रकार के लिए जहां तक मुझे पता है, सरकार ने 60 वर्ष की आयु निर्धारित कर रखी है । जिस व्यक्ति की आयु 60 वर्ष है तो निश्चय ही उसने कम से कम 25-30 साल तक तो अवश्य कलम घसीटी होगी । सरकार ने एक प्रावधान कर रखा है कि उसकी खबर या आलेख नियमित रूप से अखबारों या पत्रिकाओ में प्रकाशित होने चाहिए ।
सभी को पता है कि बड़े संस्थानों में उनके नियमित लेखक होते है । इनके अतिरिक्त वे अन्य के समाचार या आलेख प्रकाशित नही करते । छोटे अखबार आलेख तो छाप सकते है, लेकिन फोकट में । सरकार क्या यह चाहती है कि उसके नियमो की पूर्ति के लिए एक वरिष्ठ पत्रकार फोकट में मेहनत करे । यह बेहूदा नियम है जो वरिष्ठ पत्रकारों के साथ अन्याय है ।

अब आते है पत्रकार संगठनों पर । जिस किसी के पास कोई काम नही होता है या समाज और सरकार पर रुतबा झाड़ना चाहता है, वह स्वयंघोषित अध्यक्ष बनकर उन लोगो को अपने जेबी संगठन में शरीक कर लेता है जिनमे पत्रकार बनने की भूख होती है । संगठन के लिए ये पहले खुद की जेब से पैसे खर्च करते है और बाद में दूसरों की जेब काटने का हुनर सीख लेते है । फिर किसी मंत्री को बुलाकर वही रटे-रटाये विषय पर गोष्ठी का नाटक कर पत्रकारो को सम्मानित करने का करतब भी दिखाते है । यह पत्रकार संगठनों की असली तस्वीर ।

एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि सरकारी कमेटियों में पत्रकारो की नियुक्ति । ये नियुक्ति विशुद्ध रूप से चमचागिरी और जी हुजूरी के आधार पर होती है । परम्परा बनी हुई है कि कुछ बड़े अखबारों से, कुछ तथाकथित पत्रकार संगठनों से तो कुछ ऐसे लोग होते है जो अफसरों और राजनेताओ की चिलम भरते हो ।
भले ही उन्हें उस कमेटी की एबीसीडी नही आती हो, लेकिन चाटुकारिता के बल पर पत्रकारो के कल्याण करने वालो की भीड़ में शामिल होकर समाज मे अपना रुतबा झाड़ते है । सरकार का एक मापदंड है कि कौन पत्रकार उसकी तारीफ करता है और कौन नुकसान । ये पिक और चूज करने वाली नीति अब नही चलने वाली । सरकार को आरटीआई और अदालत के जरिये जवाब देना होगा कि फला व्यक्ति को किस आधार पर नियुक्त किया गया । बेहतर होगा कि कमेटी के सदस्यों का चयन लॉटरी के आधार पर किया जाए ।

लगे हाथों पत्रकारो से जुड़ी समस्या पर भी चर्चा करली जाए । पत्रकार साथी कई दिनों से अपनी बुनियादी मांगों को लेकर क्रमिक धरने पर बैठे है । सरकार आंदोलनकारियों को तवज्जो दे नही रही और अखबार मालिकों ने घोषित रूप से आंदोलन की खबरों के प्रकाशन पर रोक लगा दी है । संभवतया ऐसा पहली दफा हो रहा है कि जब अखबार मालिकों ने अपने मुंह पर ताला लगा दिया है ।
जरूर कोई ना कोई तो घालमेल है । सरकार को चाहिए कि वे उदारता का परिचय देते हुए वाजिब मांगों को मानकर अपनी सदाशयता का परिचय दे । लोकतंत्र में सरकार और पत्रकार परस्पर एक दूसरे के पूरक है । बिना पत्रकारो के सरकार अधूरी है तो सरकार के बिना पत्रकार भी अपंग रहेंगे । कुछ दिन तक तो एक दूसरे के बगैर काम चलाया जा सकता है लेकिन लंबे समय तक नही । दूरियां ज्यादा बढ़े, उससे पहले निदान आवश्यक है ।

मेरी अधिकतम जानकारी के अनुसार सरकार आवासीय योजना के अलावा अन्य सभी मांगों को मानने के लिए तत्पर है । सरकार की ओर से जो बातें छनकर आ रही है कि तत्कालीन गहलोत सरकार ने धौलाई में पत्रकार आवासीय योजना के नाम पर जूतों में दाल बांटी थी । सरकार का यह मानना है कि जिस तरह धौलाई में 60 फीसदी के करीब पत्रकारो ने प्लाट बेच खाये, कमोबेश यही हाल नायला आवासीय योजना का भी होगा । यह भी तर्क दिया जा रहा है कि नायला में आवेदन करने में बहुत से लोगो का पत्रकारिता से दूर दूर तक का भी ताल्लुक नही है ।
सरकार का यह तर्क वाजिब हो सकता है । लेकिन चन्द फर्जी लोगो की वजह से जायज पत्रकारो को भूखण्ड से वंचित रखना कतई न्यायोचित नही है । सरकार को चाहिए कि पहली किश्त में उन लोगो को भूखण्ड का आवंटन ही नही, पट्टा जारी करना चाहिए जो वास्तविक और निर्विवाद पत्रकार है । दूसरी किश्त में उन लोगो की सूची प्रकाशित कर आपत्ति आमंत्रित करें । जो प्रामाणिक रूप से फर्जी पत्रकार माना जाता है, उसकी राशि जब्त कर उसके खिलाफ तथा पत्रकार होने का प्रमाणपत्र जारी करने वालो के खिलाफ फौजदारी कार्रवाई करनी चाहिए ताकि पत्रकारिता की आड़ में पनप रहे माफिया तंत्र पर प्रभावी अंकुश लग सके ।

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