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मंगलवार, 24 मई 2011

ढाई अक्षर प्रेम का

ढाई अक्षर प्रेम का......
एक बार चैतन्य महाप्रभु को विद्वानों ने घेर लिया। पूछने लगेः
"आप न्यायशास्त्र के बड़े विद्वान हो, वेदान्त के अच्छे ज्ञाता हो। हम समझ नहीं पाते कि इतने बड़े भारी विद्वान होने पर भी आप 'हरि बोल.... हरि बोल....' करके सड़कों पर नाचते हो, बालकों जैसी चेष्टा करते हो, हँसते हो, खेलते हो, कूदते हो !"
चैतन्य महाप्रभु ने जवाब दियाः "बड़ा भारी विद्वान होकर मुझे बड़ा भारी अहं हो गया था। बड़ा धनवान होने का भी अहं है और बड़ा विद्वान होने का भी अहं है। यह अहं ईश्वर से दूर रखता है। इस अहं को मिटाने के लिए मैं सोचता हूँ कि मैं कुछ नहीं हूँ......मेरा कुछ नहीं है। जो कुछ है सो तू है और तेरा है। ऐसा स्मरण करते-करते, हरि को प्यार करते-करते मैं जब नाचता हूँ, कीर्तन करता हूँ तो मेरा 'मैं' खो जाता है और उसका मैं हो जाता है।
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ईशकृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान।।

मौन का असर

 मौन का असर है।
एक गांव में सास और बहू रहती थी। उन दोनों के बीच अक्सर लडाई-झगडा होता रहता था। सास बहू को खूब खरी-खोटी सुनाती थी। पलटकर बहू भी सास को एक सवाल के सात जवाब देती थी।
एक दिन गांव में एक संत आए। बहू ने संत से निवेदन किया-गुरूदेव, मुझे ऐसा मंत्र दीजिए या ऐसा उपाय बताइए कि मेरी सास की बोलती बंद हो जाए। जवाब में संत ने कहा बेटी, यह मंत्र ले जाओ। जब तुम्हारी सास तुमसे गाली-गलौज करे, तो इस मंत्र को एक कागज पर लिखना और दांतो के बीच कसकर भींच लेना।
दूसरे दिन जब सास ने बहू के साथ गाली-गलौज किया, तो बहू ने संत के कहे अनुसार मंत्र लिखे कागज को दांतों के बीच भींच लिया। ऐसी स्थिति में बहू ने सास की बात को कोई जवाब नहीं दिया। यह सिलसिला दो-तीन दिन चलता रहा।
एक दिन सास के बडे प्रेमपूर्वक बहू से कहा-अब मैं तुमसे कभी नहीं लडूंगी
क्योंकि अब तुमने मेरी गाली के बदले गाली देना बंद कर दिया।
बहू ने सोचा- मंत्र का असर हो गया है और सासूजी ने हथियार डाल दिए है।
दूसरी दिन बहू ने जाकर संत से निवेदन किया-गुरूजी आपका मंत्र काम कर गया।
संत ने कहा यह मंत्र का असर नही, मौन का असर है।

भगवान की पूजा में महत्व सोने-चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है।

भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के मन में एक दिन एक विचित्र विचार
आया। उन्होंने तय किया कि वह भगवान श्रीकृष्ण को अपने गहनों से तौलेंगी।
श्रीकृष्ण ने जब यह बात सुनी तो बस मुस्कुराए, बोले कुछ नहीं। सत्यभामा
ने भगवान को तराजू के पलडे़ पर बिठा दिया। दूसरे पलड़े पर वह अपने गहने रखने लगीं।
भला सत्यभामा के पास गहनों की क्या कमी थी। लेकिन श्रीकृष्ण का पलड़ा
लगातार भारी ही रहा। अपने सारे गहने रखने के बाद भी भगवान का पलड़ा नहीं उठा तो वह हारकर बैठ गईं। तभी रुक्मिणी आ गईं। सत्यभामा ने उन्हें सारी बात बताई। रुक्मिणी तुरंत पूजा का सामान उठा लाईं। उन्होंने भगवान की पूजा की। जिस पात्र में भगवान का चरणोदक था, उसे उठाकर उन्होंने गहनों वाले पलड़ों पर रख दिया।
देखते ही देखते भगवान का पलड़ा हल्का पड़ गया। ढेर सारे गहनों से जो बात नहीं बनी, वह चरणोदक के छोटे-से पात्र से बन गई। सत्यभामा यह सब आश्चर्य से देखती रहीं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हुआ। तभी वहां नारद मुनि आ पहुंचे। उन्होंने समझाया, 'भगवान की पूजा में महत्व सोने-चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है। रुक्मिणी की भक्ति और प्रेम की भावना भगवान के चरणोदक में समा गई। भक्ति और प्रेम से भारी दुनिया में कोई वस्तु नहीं है। भगवान की पूजा भक्ति-भाव से की जाती है, सोने-चांदी से नहीं। पूजा करने का ठीक ढंग भगवान से मिला देता है।' सत्यभामा उनकी बात समझ गईं।

संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना श्रेष्ठ कार्य है। (श्रेष्ठता के 3 सवाल)

एक राजा जिस साधु-संत से मिलता, उनसे तीन प्रश्न पूछता। पहला- कौन व्यक्ति श्रेष्ठ है? दूसरा- कौन सा समय श्रेष्ठ है? और तीसरा- कौन सा कार्य श्रेष्ठ है? सब लोग उन प्रश्नों के अलग-अलग उत्तर देते, किंतु राजा को उनके जवाब से संतुष्टि नहीं होती थी। एक दिन वह शिकार करने जंगल में गया। इस दौरान वह थक गया, उसे भूख-प्यास सताने लगी। भटकते हुए वह एक आश्रम में पहुंचा। उस समय आश्रम में रहने वाले संत आश्रम के फूल-पौधों को पानी दे रहे थे। राजा को देख उन्होंने अपना काम फौरन रोक दिया। वह राजा को आदर के साथ अंदर ले आए। फिर उन्होंने राजा को खाने के लिए मीठे फल दिए। तभी एक व्यक्ति अपने साथ एक घायल युवक को लेकर आश्रम में आया। उसके घावों से खून बह रहा था। संत तुरंत उसकी सेवा में जुट गए। संत की सेवा से युवक को बहुत आराम मिला। राजा ने जाने से पहले उस संत से भी वही प्रश्न पूछे। संत ने कहा, 'आप के तीनों प्रश्नों का उत्तर तो मैंने अपने व्यवहार से अभी-अभी दे दिया है।'राजा कुछ समझ नहीं पाया। उसने निवेदन किया, 'महाराज, मैं कुछ समझा नहीं। स्पष्ट रूप से बताने की कृपा करें।' संत ने राजा को समझाते हुए कहा, 'राजन्, जिस समय आप आश्रम में आए मैं पौधों को पानी दे रहा था। वह मेरा धर्म है। लेकिन आश्रम में अतिथि के रूप में आने पर आपका आदर सत्कार करना मेरा प्रधान कर्त्तव्य था। आप अतिथि के रूप में मेरे लिए श्रेष्ठ व्यक्ति थे। पर इसी बीच आश्रम में घायल व्यक्ति आ गया। उस समय उस संकटग्रस्त व्यक्ति की पीड़ा का निवारण करना भी मेरा कर्त्तव्य था, मैंने उसकी सेवा की और उसे राहत पहुंचाई। संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना श्रेष्ठ कार्य है। इसी तरह हमारे पास आने वालों के आदर सत्कार करने का, उनकी सेवा-सहायता करने का समय ही श्रेष्ठ है।' राजा संतुष्ट हो गया।

जीने का अधिकार (सुवचन) एवं कुछ महत्वपूर्ण बातें

एक बार राजा अजातशत्रु एक साथ कई मुसीबतों से घिर गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इन आपदाओं को कैसे दूर किया जाए। वह दिन-रात इसी चिंता में डूबे रहते। तभी एक दिन उनकी मुलाकात एक वाममार्गी तांत्रिक से हुई। उन्होंने उस तांत्रिक को अपनी आपदाओं के बारे में बताया।

तांत्रिक ने राजा से कहा कि उन्हें संकट से मुक्ति तभी मिल सकती है जब वह पशुओं की बलि चढ़ाएं। अजातशत्रु ने उस तांत्रिक की बात पर विश्वास कर लिया और बलि देने की योजना बना ली। एक विशेष अनुष्ठान का आयोजन किया गया। बलि के लिए एक भैंसे को मैदान में बांधकर खड़ा कर दिया गया।

वधिक हाथ में तलवार थामे संकेत की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी संयोगवश गौतम बुद्ध वहां से गुजरे। उन्होंने मूक पशु को मृत्यु की प्रतीक्षा करते देखा
तो उनका हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने राजा अजातशत्रु को एक तिनका देते हुए कहा, 'राजन्, इस तिनके को तोड़कर दिखाइए।' बुद्ध के ऐसा कहते ही राजा ने तिनके के दो टुकड़े कर दिए। तिनके के टुकड़े होने पर बुद्ध राजा से बोले, 'अब इन टुकड़ों को जोड़ दीजिए।'

बुद्ध का यह आदेश सुनकर अजातशत्रु हैरान होकर उनसे बोले, 'भगवन् टूटे
तिनके कैसे जोड़े जा सकते हैं?' अजातशत्रु का जवाब सुनकर बुद्ध ने कहा,
'राजन् जिस प्रकार आप तिनका तोड़ तो सकते हैं जोड़ नहीं सकते, उसी प्रकार निरीह प्राणी का जीवन लेने के बाद आप उसे जीवित नहीं कर सकते। निरीह प्राणी की हत्या से आपदाएं कम होने के बजाय बढ़ती ही हैं। आपकी तरह इस पशु को भी तो जीने का अधिकार है। समस्याएं कम करने के लिए अपनी बुद्धि और साहस का प्रयोग कीजिए, निरीह प्राणियों का वध मत कीजिए।'

बुद्ध की बात सुनकर अजातशत्रु लज्जित हो गए। उन्होंने उसी समय पशु-बलि बंद करने का आदेश जारी कर दिया।

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