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सोमवार, 13 नवंबर 2023

अब चूने में नील मिलाकर पुताई का जमाना नहीं रहा

*अब चूने में नील मिलाकर पुताई का जमाना नहीं रहा। चवन्नी, अठन्नी का जमाना भी नहीं रहा। हमारे बचपन और किशोरावस्था में दीवाली ऐसी ही मनती थी जैसा  गुलजार साहब की लिखी यह कविता बता रही है...*
हफ्तों पहले से साफ़-सफाई में जुट जाते हैं
चूने के कनिस्तर में थोड़ी नील मिलाते हैं
अलमारी खिसका खोयी चीज़ वापस पाते हैं
दोछत्ती का कबाड़ बेच कुछ पैसे कमाते हैं 
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

दौड़-भाग के घर का हर सामान लाते हैं 
चवन्नी -अठन्नी पटाखों के लिए बचाते हैं
सजी बाज़ार की रौनक देखने जाते हैं
सिर्फ दाम पूछने के लिए चीजों को उठाते हैं
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

बिजली की झालर छत से लटकाते हैं
कुछ में मास्टर बल्ब भी लगाते हैं
टेस्टर लिए पूरे इलेक्ट्रीशियन बन जाते हैं
दो-चार बिजली के झटके भी खाते हैं
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

दूर थोक की दुकान से पटाखे लाते है
मुर्गा ब्रांड हर पैकेट में खोजते जाते है
दो दिन तक उन्हें छत की धूप में सुखाते हैं
बार-बार बस गिनते जाते है
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

धनतेरस के दिन कटोरदान लाते है
छत के जंगले से कंडील लटकाते हैं
मिठाई के ऊपर लगे काजू-बादाम खाते हैं
प्रसाद की थाली पड़ोस में देने जाते हैं
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

अन्नकूट के लिए सब्जियों का ढेर लगाते है 
भैया-दूज के दिन दीदी से आशीर्वाद पाते हैं 
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं ....* 

दिवाली बीत जाने पर दुखी हो जाते हैं 
कुछ न फूटे पटाखों का बारूद जलाते हैं 
घर की छत पर दागे हुए राकेट पाते हैं 
बुझे दीयों को मुंडेर से हटाते हैं 
 *चलो इस दफे दिवाली घर पर  मनाते हैं ....* 

बूढ़े माँ-बाप का एकाकीपन मिटाते हैं 
वहीँ पुरानी रौनक फिर से लाते हैं 
सामान से नहीं, 
समय देकर सम्मान जताते हैं
उनके पुराने सुने किस्से फिर से सुनते जाते हैं 

 *चलो इस दफे दिवाली घर पर मनाते हैं*
      
*दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं*
🌹

बुधवार, 8 नवंबर 2023

हम अपने शब्दों को भूलेंगे तो निश्चय ही हमें परभाषाजीवी बनना ही पड़ेगा।

#पितृव्य 

हिन्दी में 'काका' के लिए चाचा शब्द रूढ़ हो गया है। लेकिन महाभारत धारावाहिक जैसे पीरियड फिल्म और सीरियल चाचा या चचा बोलकर किसी चरित्र का संबोधन नही करवा सकते हैं।

इसलिए वे 'काकाश्री' जैसे शब्द गढ़कर मध्य मार्ग अपना लेते हैं।

आज यदि किसी को 'काका' का तत्सम शब्द #पितृव्य लिखने बोलने या व्यवहार के लिए कहा जाए तो वह नाक-भौं सिकोड़ने लगेगा। आउटडेटेड कहेगा। हम अपने शब्दों का व्यवहार नहीं करेंगे तो स्वाभाविक है कि अगली पीढ़ी की अवचेतन बुद्धि से वह शब्द विलुप्त होने लगेगा।

सबसे पहले मैंने पितृव्य शब्द को पुस्तक #हिन्दी_साहित्य_की_भूमिका में आचार्य द्विवेदी जी द्वारा प्रयुक्त देखा था, इस पुस्तक को उन्होंने अपने पितृव्य को समर्पित किया है।

हम अपने शब्दों को भूलेंगे तो निश्चय ही हमें परभाषाजीवी बनना ही पड़ेगा।

हम प्रसन्न हो सकते हैं कि हमारी भाषा में बहुत विदेशी शब्दों को खूब स्थान दिया गया है!
✍🏻गजेंद्र कुमार पाटीदार

कृष्णावल....!!!

यदि आज की आधुनिक शिक्षा प्राप्त पीढ़ी से आप पूछें कि "कृष्णावल" क्या है तो संभव है कि ९८ % तो यही कहेंगे कि उन्होंने यह शब्द कभी सुना ही नहीं है।
पर यदि आप दादी नानी से पूछें या पचास वर्ष पूर्व के लोगों से पूछें तो वे आपको बता देंगे कि गाँव में "कृष्णावल" प्याज या पालंडु को कहा जाता है। और यह शब्द ही प्याज के लिए प्रचलित था उस समय में।
प्याज को ग्रामीण क्षेत्रों में कांदा भी कहते हैं।
अंग्रेजी में इसे Onion 🧅 ऑनियन या अन्यन कहते हैं। यह कंद श्रेणी में आता है जिसकी सब्जी भी बनती है और इसे सब्जी बनाने में मसालों के साथ उपयोग भी किया जाता है।
इसे संस्कृत में कृष्णावल कहते थे।
वैसे इस शब्द को विस्मृत कर दिया गया है और आजकल यह शब्द प्रचलन में नहीं है।
कृष्‍णावल कहने के पीछे एक रहस्य छुपा हुआ है।
आईए, देखिए कि प्याज को क्यों कहते हैं कृष्णावल.!

१. दक्षिण भारत में खासकर कर्नाटक और तमिलनाडु के ग्रामीण क्षेत्रों में प्याज को आज भी कृष्णावल नाम से ही जाना जाता है।
२. इसे कृष्णवल कहने का तात्पर्य यह है कि जब इसे खड़ा काटा जाता है तो वह शङ्खाकृति यानी शङ्ख के आकार में दिखता है।
वहीं जब इसे आड़ा काटा जाता है तो यह चक्राकृति यानी चक्र के आकार में दिखाई देता है।
३. आप जानते ही हैं कि शङ्ख और चक्र दोनों श्री हरि विष्णु के आयुधों में से हैं और श्री कृष्ण जी श्री हरि के दशावतार में ही पूर्णावतार (नवें अवतार) हैं।
४. शङ्ख और चक्र की आकृतियों के कारण ही प्याज को कृष्णावल कहते हैं।
कृष्ण और वलय शब्दों को मिलाकर बना "कृष्णावल" शब्द है।
५. कृष्णावल कहने के पीछे केवल यही एक कारण नहीं है ; अपितु यदि आप प्याज को उसकी पत्तियों के साथ उलटा पकड़ेंगे तो वह गदा का भी रूप ले लेता है।
यह भी रोचक है कि यदि पत्तों के काट दिया जाए तो वह पद्म यानी कमल का आकार लेता है।
गदा और पद्म भी भगवान श्री हरि विष्णु के आयुध हैं जिसे वे चक्र और शङ्ख के साथ धारण करते हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना ही है कि आजकल किन्नर जैसा रूप धरे कथित धार्मिक कथावाचक,  जो केवल अपने आप को ही धर्म का झण्डावरदार समझते हैं ; इस कृष्णावल की निंदा में अनर्गल बातें करते हैं और घृणित शब्दों से इसे लांछित कर रहे हैं।
साभार/संशोधन/संकलन - ✍🏻प्रेमझा

शुक्रिया नहीं, शुक्रियम् बोलिए!

2005 की घटना है- अटल सरकार चली गई थी। कांगी-वामी की सरकार आई थी, एनसीईआरटी में बड़ी गहमागहमी थी।

मई माह में 6-7 दिनों खुला विचार-मंथन चल रहा था। 

सभागार भरा हुआ, मंच पर अशोक वाजपेयी बोल रहे थे- "धन्यवाद नहीं, शुक्रिया बोलिए।"

संस्कृत के प्रोफेसर मिश्र जी थे तो फूल काँग्रेसी! ललित मिश्र के क्षेत्र के, लेकिन अशोक वाजपेयी के फरमान से दुख हुए। 

मुझसे बोले- "जवाब दीजिए, क्यों शुक्रिया बोलें।"

मैं भी आक्रोशित था, पर द्रष्टा भाव में बस सत्ता का मद देख रहा था।  
प्रो.केके मिश्र जी, मुझे बार बार प्रेरित कर रहे थे। मैं नहीं नहीं की मुद्रा में था।

मंच से अशोक वाजपेयी ने देख लिया, और मुझ से कहा- "आप कुछ कहना चाहते हैं"? 

वह एक पल का ईक्षण था, ललकारता हुआ। मेरे मन में बात आ गई।

मैंने कहा- मैं कुछ कहना नहीं चाहता। सर मुझे कहलाना चाहते हैं, यदि आप सुनना चाहें तो बोलू दूँ?

अशोक जी मेरे राष्ट्रधर्मी विचारों के कट्टर विरोधी हैं, 
फिर भी राष्ट्र वादी ढोंढ़ा- मंगरुओं से सम्मानीय विरोधी। 

क्योंकि इंडिया इंटरनेशनल की एक गोष्ठी में भी जब उन्होंने राधा को आर्टी फैक्ट कहा था, मैंने  उन्हें जवाब दिया था। फिर एक मौका हाथ आया था। 

मैंने कहा- अशोक जी, दस हजार या पांच हजार वर्ष पुराना वैदिक शब्द  "शुक्रिय" हम से क्यों बोलवाना चाहते हैं?
सामवेद में शुक्रिय पर्व है।

फारसी में भी यह शब्द धन्यवाद अर्थक ही है।

यह सुनते ही पूरी सभा सन्न हो गई- मुर्दो का टीला। काँगी-वामी, मुस्लिम प्रोफेसर निरुत्तर, काटो तो खून नहीं। 
इस घटना के साक्षी लोग अभी सदेह हैं। 

इसके बाद की कहानी संघी होने के व्यर्थ तमगे से शुरू होती है, कि संघ ने चेलिया रखा है, 

मैं स्वयं से अपना पक्ष लेता रहा और शत्रु संघी मान कर नुकसान पहुंचाते रहे।

ये बीती बातें याद इसलिए आईं कि  आज मैंने पाणिनि का एक सूत्र देखा-

।। शुक्राद् घनम् ।।

शुक्रियम्-  इसका देवता शुक्र है! शुक्र: देवता अस्य!

इस सूत्र पर ध्यान जाने से लाभ यह हुआ कि शुक्रिय को वैदिक शब्द के बदले अब मैं संस्कृत शब्द कह  सकता हूँ-

कोई "शुक्रिया" कहे तो आप भी शुक्रियम्  कहिए या हिन्दी में शुक्रिया नहीं,  शुक्रिय बोलिए ।

"इया" प्रत्यय भी अपना ही है, गइया, मइया, तकिया, इंडिया वैसे ही शुक्र+इया = शुक्रिया।

पर, आप शुक्रियम् बोलिए। स्वागतम् की तरह।   

शुक्राचार्य को कौन नहीं जानता,  वे महादेव के अनन्य भक्त और असुरों के गुरु थे।
✍🏻प्रमोद दुबे

गुण्डा
यह शब्द  किस भाषा बोली  से  है ?
व्याकरण क्या हो सकता है ?

गुण्ड शब्द का प्रयोग तुलसीबाबा ने भी किया-
गीतावली  उत्तरकाण्ड ::-
झुण्ड-झुण्ड झूलन चलीं गजगामिनि बर नारि |
कुसुँभि चीर तनु सोहहीं, भूषन बिबिध सँवारि ||

पिकबयनी मृगलोचनी सारद ससि सम तुण्ड |
रामसुजस सब गावहीं सुसुर सुसारँग गुण्ड ||

सारङ्ग गुण्ड-मलार, सोरठ, सुहव सुघरनि बाजहीं |
बहु भाँति तान-तरङ्ग सुनि गन्धरब किन्नर लाजहीं ||

अति मचत, छूटत कुटिल कच, छबि अधिक सुन्दरि पावहीं |
पट उड़त, भूषन खसत, हँसि-हँसि अपर सखी झुलावहीं |
 
चालुक्य साम्राज्य के विजयादित्य के पुत्र   विक्रमादित्य द्वितीय (733 से 745 ई.), की प्रथम पत्नी 'लोक महादेवी' ने 'पट्टलक' में विशाल शिव मंदिर (विरुपाक्षमहादेव मंदिर) का निर्माण करवाया था, जो अब 'विरुपाक्ष महादेव मंदिर' के नाम से प्रसिद्ध है।
इस विशाल मंदिर के 
प्रधान शिल्पी 'आचार्य गुण्ड' थे, जिन्हें 'त्रिभुवनाचारि', 'आनिवारितचारि' तथा 'तेन्कणदिशासूत्रधारी' आदि उपाधियों से विभूषित किया गया था।
गुड् रक्षायाम् (पाणिनीय धातुपाठ ६/७९) = रक्षा करना या बनाना। या गुडि वेष्टने रक्षणे च (१०/५१)= घेरना, पीसना, चूर्ण करना, संरक्षण करना। अतः जो रक्षा करने केलिये पैसे लेता है वह गुण्डा है। पैसा नहीं मिलनेपर घेर कर चूर चूर कर देता है। इसी अर्थ में राक्षस शब्द है जिसका अर्थ रक्षक है, महापद्मनन्द का पुलिस मुख्य पद राक्षस कहा जाता था। रक्षा करने तक ठीक है पर उसके लिये पैसे वसूलना राक्षसी काम है। गुण्डा से अंग्रेजी का गून (Goon) शब्द है।
✍🏻 सनातन कालयात्री 

शिक्षा पर एक पोस्ट पर हुई चर्चा में मित्रवर अमरनाथ झा जी ने एक प्रश्न पूछा था कि यदि विद्या को हम कौशल मानें तो इससे विनय कैसे उत्पन्न होगा। 

इस प्रश्न का मूल कारण विनय शब्द का आज प्रचलित अर्थ है। आज विनय का अर्थ माना जाता है नम्र होना। वास्तव में विनय शब्द में जो नय है, उसका अर्थ है नीति, नेता तथा मार्गदर्शन। इसलिए विनय शब्द का अर्थ जो "विद्या ददाति विनयं" में नीतिकार का अभिप्रेत है, वह नम्रता नहीं है, बल्कि विशेष नीति तथा मार्गदर्शन का जानकार होना है। विशेष नीति केवल सामाजिक ही नहीं होती, वह हरेक क्षेत्र में होती है। विशेष नीति से संपन्न व्यक्ति ही पात्र यानी योग्य माना जाता है। यह विनय और उससे जन्य पात्रता कौशल यानी विद्या से ही मिल सकती है।

विनय शब्द के इस अर्थ की ओर मेरा ध्यान सर्वप्रथम गुरुवर रामेश्वर मिश्र पंकज जी ने दिलाया था। अमरनाथ जी ने जब यह प्रश्न पूछा तो इस पर मुझे और अध्ययन करने का अवसर मिला। इससे यह विषय और अधिक स्पष्ट हुआ कि शास्त्रों का अर्थ करने के लिए परंपरा का ज्ञान भी अत्यावश्यक है, आवश्यक नहीं कि शब्दों के जो अर्थ अभी प्रचलित हैं, वही शास्त्रकारों का भी मन्तव्य रहा हो, वह भिन्न हो सकता है, क्योंकि आज यूरोपीय प्रभाव में संस्कृत शब्दों के अंग्रेजी अर्थ ही प्रचलित हैं, उसके शास्त्रशुद्ध अर्थ नहीं।

मंगलवार, 7 नवंबर 2023

गर्भावस्था के दौरान ऐसी कौनसी गलती की वजह से बच्चा किन्नर पैदा हो सकता है?

 

कैसे गर्भ में शिशु बन जाते हैं किन्नर, इन बातों का रखें ध्यान वरना आपके घर भी हो सकता है किन्नर का जन्म ..

स्त्री और पुरूष के अलावा मनुष्य योनि में…..

एक तीसरा वर्ग भी होता है जिसे आम भाषा में लोग किन्नर या हिजड़ा कहते हैं। आज के समय में इन्हें थर्ड जेंडर की संज्ञा मिली है.. वैसे प्राचीन काल से इनका अस्तित्व रहा है.. पुराने ग्रन्थों जैसे महाभारत में ऐसे कई पात्रों का वर्णन है वहीं उसके बाद के मध्यकालीन इतिहास में भी इनका जिक्र हुआ है.. मुगलकाल में इनकी राजदरबार तक में उपस्थिति रही है.. हालांकि आज इनकी पहचान सिर्फ नाचने गाने वाले समुदाय के रूप में ही है। वैसे ये तो सभी जानते हैं किन्नर या हिजड़ा माता पिता नहीं बन सकते हैं लेकिन सवाल उठता है कि किन्नर कैसे पैदा हो जाते हैं ? आज हम आपको इसका वैज्ञानिक कारण बताने जा रहे हैं जिस वजह से गर्भ में पल रहा बच्चा किन्नर का रूप ले लेता है..

किन्नरों का जन्म भी आम घरों में ही होता है

और फिर किन्नर के रूप में जन्मे बच्चे को उसके माता पिता खुद ही किन्नरों के हवाले कर देते हैं या किन्नर खुद उसे ले जाते हैं और उसका पालन-पोषण करते हैं। दरअसल कुछ वजहों से गर्भ में पल रहा बच्चा लड़का या लड़की का रूप ना लेकर किन्नर का रूप ले लेता है। दरअसल गर्भावस्था के पहले तीन महीने के दौरान बच्चे का लिंग निर्धारित होता है और ऐसे में इस दौरान ही किसी तरह के चोट, विषाक्त खान-पान या फिर हॉर्मोनल प्रॉब्लम की वजह से बच्चे में स्त्री या पुरूष के बजाय दोनों ही लिंगों के ऑर्गन्स और गुण आ जाते हैं.. इसलिये गर्भावस्था के शुरुआत के 3 महीने बहुत ही ध्यान देने वाले होते हैं।

चलिए पहले ये जानते हैं कि लिंग निर्धारण कैसे होता है

असल में मानव जाति में क्रोमोसोम की संख्या 46 होती है जिसमें 44 आटोजोम होते हैं जबकि शेष दो सेक्स क्रोमोजोम होते हैं ! यही दो सेक्स क्रोमोसोम लिंग निर्धारित करते हैं। पुरूष में XY और स्त्री में XX क्रोमोसोम होते हैं.. ऐसे में इन दोनो समागम से जब गर्भ में बच्चा आता है तो उसमें अगर यही दो सेक्स क्रोमोसोम XY हो तो वह लड़का पैदा होता है जबकि, XX होने पर लड़की पैदा होती है ! पर XY और XX क्रोमोसोम के अलावा कभी-कभी XXX, YY, OX क्रोमोसोमल डिसऑर्डर वाले बच्चें भी हो जाते हैं जो कि किन्नर पैदा होते हैं ! इनमें स्त्री और पुरूष दोनों के गुण आ जाते हैँ।

दरअसल गर्भावस्था के शुरुआत के 3 महीने में बच्चा मां के गर्भ में पल रहा होता है तो कुछ कारणों से क्रोमोजोम नंबर में या क्रोमोसोम की आकृतियों में परिवर्तन हो जाता है जिसके कारण किन्नर पैदा हो जाते है।इसके लिए निम्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं..

अगर गर्भावस्था के शुरूआती 3 महीने में गर्भवती महिला को बुखार आए और उसने गलती से कोई हेवी डोज़ मेडिसिन ले ली हो। गर्भवती महिला ने कोई ऐसी दवा या चीज का सेवन किया हो जिससे शिशु को नुकसान हो सकता हो. या फिर गर्भावस्था में महिला ने विषाक्त खाद्य पदार्थ जैसे कोई केमिकली ट्रीटेड या पेस्टिसाइड्स वाले फ्रूट-वेजिटेबल्स खाएं लिए हों। या फिर प्रेग्नेंसी के 3 महीने के दौरान किसी एक्सीडेंट या चोट से शिशु के ऑर्गन्स को नुकसान पहुंचा हो

इनके अलावा 10-15% मामलों में जेनेटिक डिसऑर्डर के कारण भी शिशु के लिंग निर्धारण पर असर पड़ जाता है। इसलिए जरूरी है कि प्रेग्नेंसी के शुरूआती 3 महीनों में बुखार या कोई दूसरी तकलीफ होने पर बिना डॉक्टर को दिखाए कोई दवा ना लें .. साथ ही इस दौरान हेल्थी डाइट लें और बाहर के खाने से बचें। इसके आलावा अगर आपको थाइरॉइड,डायबिटीज़, मिर्गी की दिक्क्त है तो फिर ऐसे में डॉक्टर की सलाह के बाद ही प्रेग्नेंसी प्लान करें।

ज्यादातर दंपतियों में पुरुषों की मौत पहले क्यों होती है?

 

ज्यादातर दंपतियों में पुरुषों की मौत पहले होती है इसका चित्र सहित आप उदाहरण व कारण समझिये, कुछ तरह की जानलेवा हरकतें केवल पुरुष ही करते हैं जैसे…

भगवान विष्णु के सुदर्शन चक्र में कितनी तीलियां हैं?


इस विषय मे हमें धार्मिक ग्रंथों में अलग अलग जानकारी मिलती है। कई जगह ये कहा गया है कि सुदर्शन चक्र में कुल 1000 आरे थे। ऐसा इसीलिए है कि भगवान विष्णु ने इसे प्राप्त करने के लिए 1000 वर्षों तक, 1000 नील कमल के पुष्पों द्वारा भगवान शिव के 1000 नामों से स्तुति की थी। तब प्रसन्न होकर महादेव ने अपने तीसरे नेत्र से उस महान अस्त्र को उत्पन्न किया था।

शिव पुराण में वीरभद्र और श्रीहरि के युद्ध के संदर्भ में कहा गया है -

1000 आरों वाला वो महान अस्त्र (सुदर्शन चक्र) भयंकर प्रलयाग्नि निकालता है वीरभद्र की ओर बढ़ा किन्तु उस रुद्रावतार ने, जो बल में स्वयं रुद्र के समान ही था, उस महान अस्त्र को इस प्रकार मुख में रख लिया जैसे कोई जल को पी जाता है।

हरिवंश पुराण के अनुसार सुदर्शन चक्र में 108 आरे थे और इसे भगवान परशुराम ने श्रीकृष्ण को प्रदान किया था। 108 आरों का विवरण तब भी मिलता है जब महावीर हनुमान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र को पकड़ कर अपने मुख में रख लेते हैं।

हालांकि इस चक्र का सबसे प्रासंगिक विवरण विष्णु पुराण में मिलता है। विष्णु पुराण के अनुसार सुदर्शन चक्र में कुल 12 आरे थे। भगवान विष्णु की तपस्या से प्रसन्न हो महादेव उन्हें सुदर्शन चक्र देते हुए कहते है -

"हे नारायण! सुदर्शन नाम का ये महान आयुध 12 आरों, 6 नाभियों एवं 2 युगों ये युक्त है। इनके 12 आरों में 12 आदित्यों का तथा 6 नाभियों में 6 ऋतुओं का वास है। अतः आप इसे लेकर निर्भय रूप से दुष्टों का संहार करें।"

जय श्रीहरि। 🚩

शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

धैर्य खोने की ज़रूरत नहीं एक गहरी सोच वाली पोस्ट - अपने धर्मग्रंथों को पढ़िए , ये सारे राक्षसों के वध से भरे पड़े हैं.राक्षस भी ऐसे-२ वरदानों से प्रोटेक्टेड थे कि दिमाग घूम जाए...

धैर्य खोने की ज़रूरत नहीं

एक गहरी सोच वाली पोस्ट किसी मित्र ने भेजी है

अपने धर्मग्रंथों को पढ़िए , ये सारे राक्षसों के वध से भरे पड़े हैं.

राक्षस भी ऐसे-२ वरदानों से प्रोटेक्टेड थे कि दिमाग घूम जाए...

एक को वरदान प्राप्त था कि वो न दिन में मरे, न रात में, न आदमी से मर , न जानवर से, न घर में मरे, न बाहर, न आकाश में मरे, न धरती पर...

तो दूसरे को वरदान था कि वे भगवान भोलेनाथ और विष्णु के संयोग से उत्पन्न पुत्र से ही मरे.

तो, किसी को वरदान था कि... उसके शरीर से खून की जितनी बूंदे जमीन पर गिरें ,उसके उतने प्रतिरूप पैदा हो जाएं.

तो, कोई अपने नाभि में अमृत कलश छुपाए बैठा था.

लेकिन... हर राक्षस का वध हुआ.

हालाँकि... सभी राक्षसों का वध अलग अलग देवताओं ने अलग अलग कालखंड एवं भिन्न भिन्न जगह किया...

लेकिन... सभी वध में एक  बात कॉमन रही और वो यह कि... किसी भी राक्षस का वध उसका वरदान विशेष  निरस्त कर अर्थात उसके वरदान को कैंसिल कर के नहीं किया गया...

ये नहीं किया गया कि, तुम इतना उत्पात मचा रहे हो इसीलिए तुम्हारा वरदान कैंसिल कर रहे हैं...और फिर उसका वध कर दिया.

बल्कि... हुआ ये कि... देवताओं को उन राक्षसों को निपटाने के लिए उसी वरदान में से रास्ता निकालना पड़ा कि इस वरदान के मौजूद रहते हम इनको कैसे निपटा सकते हैं.

और अंततः कोशिश करने पर वो रास्ता निकला भी... 
सब राक्षस निपटाए भी गए.

तात्पर्य यह है कि... परिस्थिति कभी भी अनुकूल होती नहीं है,   अनुकूल बनाई जाती हैं.

आप किसी भी एक राक्षस के बारे में सिर्फ कल्पना कर के देखें कि अगर उसके संदर्भ में अनुकूल परिस्थिति का इंतजार किया जाता तो क्या वो अनुकूल परिस्थिति कभी आती ??

उदाहरण के लिए चर्चित राक्षस रावण को ही ले लेते हैं.

रावण के बारे में ये विवशता   कही जा सकती थी कि... 
भला रावण को कैसे मार पाएंगे?

 पचासों तीर मारे और बीसों भुजाओं व दसों सिर भी काट दिए.. लेकिन, उसकी भुजाएँ व सिर फिर जुड़ जाते हैं तो इसमें हम क्या करें ???

इसके बाद अपनी असफलता का सारा ठीकरा ऐसा वरदान देने वाले ब्रह्मा पर फोड़ दिया जाता कि... उन्होंने ही रावण को ऐसा वरदान दे रखा है कि अब उसे मारना असंभव हो चुका है.

और फिर.. ब्रह्मा पर ये भी आरोप डाल दिया जाता कि जब स्वयं ब्रह्मा रावण को ऐसा अमरत्व का वरदान देकर धरती पर राक्षस-राज लाने में लगे हैं तो भला हम कर भी क्या सकते हैं? 

लेकिन... ऐसा हुआ नहीं ... 

बल्कि, भगवान राम ने उन वरदानों के मौजूद रहते हुए ही रावण का वध किया.

*क्योंकि, यही "सिस्टम" है.*

तो... पुरातन काल में हम जिसे वरदान कहते हैं... आधुनिक काल में हम उसे संविधान द्वारा प्रदत्त स्पेशल स्टेटस कह सकते हैं...

जैसे कि... अल्पसंख्यक स्टेटस, पर्सनल बोर्ड आदि आदि.

इसीलिए... आज भी हमें राक्षसों को इन वरदानों (स्पेशल स्टेटस) के मौजूद रहते ही निपटाना होगा.. 

जिसके लिए इन्हीं स्पेशल स्टेटस में से लूपहोल खोजकर रास्ता निकालना होगा.

और, आपको क्या लगता है कि... इनके वरदानों (स्पेशल स्टेटस) को हटाया जाएगा...

क्योंकि, हमारे पौराणिक धर्मग्रंथों में ऐसा एक भी साक्ष्य नहीं मिलता कि किसी राक्षस के स्पेशल स्टेटस (वरदान) को हटा कर पहले परिस्थिति अनुकूल की गई हो तदुपरांत उसका वध किया गया हो.

और, जो हजारों लाखों साल के इतिहास में कभी नहीं हुआ... अब उसके हो जाने में संदेह लगता है.

*परंतु... हर युग में एक चीज अवश्य हुई है...*

*और, वो है राक्षसों का विनाश.*
*एवं, सनातन धर्म की पुनर्स्थापना*.

इसीलिए... इस बारे में जरा भी भ्रमित न हों कि ऐसा नहीं हो पायेगा.

लेकिन, घूम फिर कर बात वहीं आकर खड़ी हो जाती है कि.... भले ही त्रेतायुग के भगवान राम हों अथवा द्वापर के भगवान श्रीकृष्ण..

राक्षसों के विनाश के लिए हर किसी को जनसहयोग की आवश्यकता पड़ी थी.

और, जहाँ तक धर्मग्रंथों के सार की बात है तो वो भी यही है कि हर युग में राक्षसों के विनाश में सिर्फ जनसहयोग की आवश्यकता पड़ती है...

ये इसीलिए भी पड़ती है ताकि... राक्षसों के विनाश के बाद जो एक नई दुनिया बनेगी... 

उस नई दुनिया को उनके बाद के लोग संभाल सके, संचालित कर सकें.

नहीं तो इतिहास गवाह है कि.... बनाने वालों ने तो भारत में आकाश छूती इमारतें और स्वर्ग को भी मात देते हुए मंदिर बनवाए थे... 

लेकिन, उसका हश्र क्या हुआ ये हम सब जानते हैं.

इसीलिए... राक्षसों का विनाश जितना जरूरी है...
उतना ही जरूरी उसके बाद उस धरोहर को संभाल के रखने का भी है.

और... अभी शायद उसी की तैयारी हो रही है.

*अर्थात... सभी समाज को गले लगाया जा रहा है.. और, माता शबरी को उचित सम्मान दिया जा रहा है.*

वरना, सोचने वाली बात है कि जो रावण ... पंचवटी में लक्ष्मण के तीर से खींची हुई एक रेखा तक को पार नहीं कर पाया था...

भला उसे पंचवटी से ही एक तीर मारकर निपटा देना क्या मुश्किल था? 

अथवा... जिस महाभारत को श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र के प्रयोग से महज 5 मिनट में निपटा सकते थे भला उसके लिए 18 दिन तक युद्ध लड़ने की क्या जरूरत थी? 

लेकिन... रणनीति में हर चीज का एक महत्व होता है... जिसके काफी दूरगामी परिणाम होते हैं.

*इसीलिए...  कभी भी* *उतावलापन नहीं होना चाहिए. और फिर वैसे भी कहा जाता है कि जल्द काम शैतान का*

*क्योंकि,  ये बात अच्छी तरह मालूम है कि.... रावण, कंस, दुर्योधन, रक्तबीज और हिरणकश्यपु आदि का विनाश तो निश्चित है तथा यही उनकी नियति है..!!*

*लंका जल रही है,*
*अयोध्या सज रही है और शबरी राष्ट्रपति बन रही है इतिहास से सीख लेकर कार्य जारी है!*

*जय महाकाल,* *जय सनातन जय मौलिक* *भारत...!!!*

*नोट : धर्मग्रंथ रोज सुबह नहा धो कर सिर्फ पुण्य कमाने के उद्देश्य से पढ़ने के लिए ही नहीं होते ..*

*बल्कि, हमारे धर्मग्रंथों के रूप में हमारे पूर्वज/देवताओं ने अपने अनुभव हमें ये बताने के लिए लिपिबद्ध किया ताकि आगामी पीढ़ी ये जान सके कि अगर फिर कभी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो तो उससे कसे निपटा जाए.*

🙏🙏🙏🌷
सत्य सनातन धर्म की जय 🙏🙏🙏🌷

गुरुवार, 2 नवंबर 2023

कैसे करें घर की सफाई

कैसे करें घर की सफाई  
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कहते हैं जिस घर में साफ-सफाई होती है वहां माता लक्ष्मी का वास होता है। क्योंकि धन की देवी मां लक्ष्मी को सफाई अत्यंत प्रिय है। परंतु वास्तु शास्त्र में सफाई को लेकर कुछ नियम बताए गए हैं, जिनके अनुसार घर की सफाई की जाए तो घर में सुख-समृद्धि के सारे रास्ते खुल जाते हैं।

अपने घर को साफ रखना किसको पसंद नहीं होता। घर की साफ सफाई से घर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार तो बढ़ता ही है साथ की घर में बीमारियां भी कम फैलती हैं। वास्तु शास्त्र के अनुसार घर में रखी हर वस्तु का प्रभाव घर के सदस्यों की तरक्की, सेहत और मानसिक स्थिति पर पड़ता है। वास्तु शास्त्र में बताया गया है कि यदि आप वास्तु के कुछ नियमों का पालन कर घर की साफ-सफाई करें तो आपके घर में सदैव सुख-समृद्धि बनी रहेगी।

साफ-सफाई का समय
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वास्तु शास्त्र में बताया गया है कि कभी भी सूर्यास्त के बाद या फिर सुबह-सुबह ब्रह्म मुहूर्त में घर में झाड़ू नहीं लगाई जानी चाहिए। ऐसा माना जाता है कि यह समय माता लक्ष्मी के घर में प्रवेश करने का होता है, लेकिन यदि किन्हीं कारणों से आपको इस समय झाड़ू लगाना पड़ जाए तो इसमें निकले कचरे को सुबह सूर्य उदय के बाद ही घर से बाहर फेंकें।

घर के कोनों का रखें ध्यान
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वास्तु शास्त्र के अनुसार घर की उत्तर दिशा, ईशान कोण और वायव्य कोण का साफ सुथरा और खाली होना बहुत जरूरी है। ऐसा माना जाता है कि घर की इन दिशाओं में धन के देवता कुबेर का वास होता है। इसीलिए घर के सभी कोनों की साफ-सफाई रखना बहुत जरूरी है।

बाथरूम की साफ सफाई
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ऐसा देखा गया है कि बहुत से लोग अपने घर को तो साफ सुथरा रखते हैं, लेकिन बाथरूम की साफ सफाई की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देते। आपको बता दें कि घर के साथ-साथ अपने टॉयलेट, बाथरूम को साफ रखना भी बहुत जरूरी होता है। इसके अलावा घर के बाथरूम और टॉयलेट में कभी भी मकड़ी के जाले लगने ना दें। ऐसा होने से घर में वास्तु दोष उत्पन्न होता है।

छत पर कबाड़
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वास्तु शास्त्र में कहा गया है कि घर की बालकनी या छत पर टूटी फूटी चीजें या कबाड़ इकट्ठा नहीं होने देना चाहिए। ऐसा माना जाता है कि ऐसा होने से घर में दरिद्रता का प्रवेश होता है। साथ ही टूटी फूटी चीजों में पानी जमा होने के कारण मलेरिया जैसी घातक बीमारियां भी पनपती हैं।


रविवार, 29 अक्तूबर 2023

कार्तिक मास आज से आरम्भ

कार्तिक मास आज से आरम्भ
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हिंदू धर्म में कार्तिक मास का विशेष महत्व है। यह माह भगवान विष्णु के सबसे प्रिय मास में से एक है। इस पूरे महीने भगवान विष्णु और उनके अवतारों की पूजा करने का विधान है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार, आठवां माह कार्तिक मास होता है, जो आश्विन मास के बाद आता है। शास्त्रों के अनुसार माना जाता है कि कार्तिक मास के दौरान भगवान विष्णु जल में निवास करते हैं। इस कारण इस पूरे मास स्नान-दान करने से विशेष फलों की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही इस पूरे महीने में तुलसी के पौधे की पूजा करने से भी मां लक्ष्मी के साथ श्री हरि की असीम कृपा प्राप्त होती है।

कब से शुरू हो रहा कार्तिक मास?
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भगवान विष्णु का प्रिय माह कार्तिक मास 29 अक्टूबर से आरंभ हो रहा है, जो 27 नवंबर 2023 को समाप्त हो रहा है।

कार्तिक मास का महत्व-
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कार्तिक मास में तुलसी की पूजा का भी बहुत खास महत्व बताया गया है। शास्त्रों के अनुसार तुलसी का पौधा भगवान विष्णु को बहुत ही प्रिय है। इस महीने में नियमित रूप से तुलसी की पूजा करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं। कार्तिक मास में पूजा पाठ और उपवास करने से मनुष्य को वैभव की प्राप्ति होती है। इसके अलावा जो भी मनुष्य इस महीने में नियमित रूप से पूजा पाठ करता है और भगवान् विष्णु को तुलसी के पत्ते अर्पित करता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। कार्तिक मास में श्रद्धा पूर्वक पूजा करने से भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं और मनुष्य के सभी रोग दूर हो जाते हैं और उनके जीवन में कभी भी धन की कमी नहीं होती है।

कार्तिक मास से जुडी विशेष बातें
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हिंदू धर्म में कार्तिक मास को बहुत ही खास महत्व दिया गया है। कार्तिक मास का आरंभ शरद पूर्णिमा के दिन से होता है और कार्तिक पूर्णिमा के दिन कार्तिक मास का अंत होता है। हमारे शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास में दान पुण्य, पूजा पाठ और गंगा स्नान का बहुत ही महत्व बताया गया है। हमारे शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु 4 महीने की निद्रा के बाद कार्तिक मास में देव उठनी एकादशी के दिन जागते हैं,  इसलिए इस महीने में भगवान विष्णु की पूजा का भी बहुत महत्व माना जाता है। धर्म पुराणों के अनुसार कार्तिक के महीने में श्रीमद् भागवत और गीता का पाठ करने से मनुष्य के सभी पाप दूर हो जाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। 

कार्तिक मास में तुलसी के पौधे में राधा कृष्ण और भगवान् विष्णु के नाम का कलावा बांधकर विधिवत पूजा-अर्चना करें। ऐसा करने से आपकी सभी इच्छाएं पूर्ण हो जाएँगी और आपके घर में कभी भी धन की कमी नहीं होगी।

कार्तिक मास में हरी बोधनी एकादशी को भी बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन भगवान विष्णु के सामने घी कपूर का दीपक जलाने से अकाल मृत्यु की संभावना खत्म हो जाती है। 

हमारे शास्त्रों में बताया गया है की दीपावली के 4 दिन पहले मां लक्ष्मी तेल में निवास करती हैं। इस दिन को नरक चौदस के रूप में मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि नरक चौदस के दिन शरीर में सरसों का तेल लगाने से मनुष्य के जीवन में धन की कमी दूर हो जाती है। इसके अलावा नरक चौदस के दिन स्नान करने के बाद दीपदान करना शुभ माना जाता है।

कार्तिक मास में दीपदान का भी बहुत खास विधान है। आप चाहे तो मंदिर या नदी में दीप दान कर सकते हैं। इसके अलावा इस महीने में ब्राह्मणों को भोजन कराना, क्षमता अनुसार दान करना, तुलसी के पत्तों का दान करना, आंवले का दान करना और अन्न का दान करना भी बहुत शुभ माना जाता है।


मंगलवार, 24 अक्तूबर 2023

रावण द्वारा माता सीता का हरण करके श्रीलंका जाते समय पुष्पक विमान का मार्ग क्या था..??

रावण द्वारा माता सीता का हरण करके श्रीलंका जाते समय पुष्पक विमान का मार्ग क्या था..??
उस मार्ग में कौन सा वैज्ञानिक रहस्य छुपा हुआ है 
उस मार्ग के बारे में हज़ारों साल पहले कैसे जानकारी थी पढ़िए इन प्रश्नों के उत्तर जो वामपंथी इतिहारकारों के लिए मृत्यु समान हैं...रावण ने माँ सीताजी का अपहरण पंचवटी (नासिक, महाराष्ट्र) से किया और पुष्पक विमान द्वारा हम्पी (कर्नाटक), लेपक्षी (आँध्रप्रदेश) होते हुए श्रीलंका पहुंचा...आश्चर्य होता है जब हम आधुनिक तकनीक से देखते हैं कि नासिक, हम्पी, लेपक्षी और श्रीलंका बिलकुल एक सीधी लाइन में हैं. अर्थात ये पंचवटी से श्रीलंका जाने का सबसे छोटा रास्ता है...अब आप ये सोचिये कि उस समय Google Map नहीं था जो Shortest Way बता देता. फिर कैसे उस समय ये पता किया गया कि सबसे छोटा और सीधा मार्ग कौन सा है?? या अगर भारत विरोधियों के अहम् संतुष्टि के लिए मान भी लें कि चलो रामायण केवल एक महाकाव्य है जो वाल्मीकि ने लिखा तो फिर ये बताओ कि उस ज़माने में भी गूगल मैप नहीं था तो रामायण लिखने वाले वाल्मीकि को कैसे पता लगा कि पंचवटी से श्रीलंका का सीधा छोटा रास्ता कौन सा है?? महाकाव्य में तो किन्ही भी स्थानों का ज़िक्र घटनाओं को बताने के लिए आ जाता। लेकिन क्यों वाल्मीकि जी ने सीता हरण के लिए केवल उन्हीं स्थानों का ज़िक्र किया जो पुष्पक विमान का सबसे छोटा और बिलकुल सीधा रास्ता था? ये ठीक वैसे ही है कि आज से 500 साल पहले गोस्वामी तुलसीदास जी को कैसे पता कि पृथ्वी से सूर्य की दूरी क्या है? (जुग सहस्त्र जोजन पर भानु = 152 मिलियन किमी - हनुमानचालीसा), जबकि नासा ने हाल ही के कुछ वर्षों में इस दूरी का पता लगाया है...अब आगे देखिये...पंचवटी वो स्थान है जहां प्रभु श्री राम, माता जानकी और भ्राता लक्ष्मण वनवास के समय रह रहे थे..यहीं शूर्पणखा आई और लक्ष्मण से विवाह करने के लिए उपद्रव करने लगी। विवश होकर लक्ष्मण ने शूपर्णखा की नाक यानी नासिका काट दी. और आज इस स्थान को हम नासिक (महाराष्ट्र) के नाम से जानते हैं। आगे चलिए...पुष्पक विमान में जाते हुए सीताजी ने नीचे देखा कि एक पर्वत के शिखर पर बैठे हुए कुछ वानर ऊपर की ओर कौतुहल से देख रहे हैं तो सीता ने अपने वस्त्र की कोर फाड़कर उसमें अपने कंगन बांधकर नीचे फ़ेंक दिए, ताकि राम को उन्हें ढूढ़ने में सहायता प्राप्त हो सके...जिस स्थान पर सीताजी ने उन वानरों को ये आभूषण फेंके वो स्थान था 'ऋष्यमूक पर्वत' जो आज के हम्पी (कर्नाटक) में स्थित है...इसके बाद... वृद्ध गिद्धराज जटायु ने रोती हुई सीताजी को देखा, देखा कि कोई राक्षस किसी स्त्री को बलात अपने विमान में लेके जा रहा है। जटायु ने सीताजी को छुड़ाने के लिए रावण से युद्ध किया. रावण ने तलवार से जटायु के पंख काट दिए...इसके बाद जब राम और लक्ष्मण सीताजी को ढूंढते हुए पहुंचे तो उन्होंने दूर से ही जटायु को सबसे पहला सम्बोधन 'हे पक्षी' कहते हुए किया. और उस जगह का नाम दक्षिण भाषा में 'लेपक्षी' (आंधप्रदेश) है। अब क्या समझ आया आपको? पंचवटी---हम्पी---लेपक्षी---श्रीलंका. सीधा रास्ता.सबसे छोटा रास्ता. हवाई रास्ता, यानि हमारे जमाने में विमान होने के सबूत गूगल मैप का निकाला गया फोटो नीचे है...अपने ज्ञान-विज्ञान, संस्कृति को भूल चुके भारतबन्धुओं रामायण कोई मायथोलोजी नहीं है...ये महर्षि वाल्मीकि द्वारा लिखा गया सत्य इतिहास है. जिसके समस्त वैज्ञानिक प्रमाण आज उपलब्ध हैं...इसलिए जब भी कोई वामपंथी हमारे इतिहास, संस्कृति, साहित्य को मायथोलोजी कहकर लोगों को भ्रमित करने का या खुद को विद्वान दिखाने का प्रयास करे तो उसको पकड़कर बिठा लेना और उससे इन सवालों के जवाब पूछना एक का भी जवाब नहीं दे पायेगा..

सत्य सनातन धर्म की जय,जय श्रीराम, जय गोविंदा

अगर रामचरितमानस, भगवद्गीता, दुर्गा सप्तशती, सौन्दर्यलहरी जैसा कोई भी हिन्दुओं का ग्रन्थ कभी पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक पूरा न पढ़ा हो, तो एक बार इन्हें पूरा पढ़ डालने का संकल्प भी लिया जा सकता है। ये सभी नौ दिन में एक बार तो पूरे पढ़े ही जा सकते हैं।

भारत ने सन 1998 की शुरुआत में जब पोखरण में पांच परमाणु विस्फोट किये तो कई अख़बारों ने पोखरण का जिक्र “शक्ति पीठ” के रूप में किया। विश्व के लिए ये कई कारणों से घबराने वाली घटना थी। एक तो उनके अनुसार जिसके पास परमाणु शोध की क्षमता ही नहीं होनी चाहिए थी, उसके पास भला परमाणु बम क्यों थे? दूसरा कि शक्ति के इस रूप में उपासना की कोई पद्दति होगी, ऐसा वो सोच ही नहीं पाए थे। उनकी ओर जो व्यवस्था संस्कृति या मजहबी तौर पर चलती थी, उसमें “स्त्री” उपास्य नहीं थी। देवी तो क्या, उनके पास कोई देवदूत भी स्त्री नहीं थी!

शाक्त परम्पराओं के लिए देवी की शक्ति के रूप में उपासना एक आम पद्दति थी। शक्ति का अर्थ किसी का बल हो सकता है, किसी कार्य को करने की क्षमता भी हो सकती है। ये प्रकृति की सृजन और विनाश के रूप में स्वयं को जब दर्शाती है, तब ये शक्ति केवल शब्द नहीं देवी है। सामान्यतः दक्षिण भारत में ये श्री (लक्ष्मी) के रूप में और उत्तर भारत में चंडी (काली) के रूप में पूजित हैं। अपने अपने क्षेत्र की परम्पराओं के अनुसार इनकी उपासना के दो मुख्य ग्रन्थ भी प्रचलित हैं। ललिता सहस्त्रनाम जहाँ दक्षिण में अधिक पाया जाता है, उतर में दुर्गा सप्तशती (या चंडी पाठ) ज्यादा दिखता है।

शाक्त परम्पराएं वर्ष के 360 दिनों को नौ-नौ रात्रियों के चालीस हिस्सों में बाँट देती हैं। फिर करीब हर ऋतुसन्धी पर एक नवरात्र ज्यादा महत्व का हो जाता है। जैसे अश्विन या शारदीय नवरात्री की ही तरह कई लोग चैत्र में चैती दुर्गा पूजा (नवरात्रि) मनाते भी दिख जायेंगे। चैत्र ठीक फसल काटने के बाद का समय भी होता है इसलिए कृषि प्रधान भारत के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। असाढ़ यानि बरसात के समय पड़ने वाली नवरात्रि का त्यौहार हिमाचल के नैना देवी और चिंतपूर्णी मंदिरों में काफी धूम-धाम से मनाया जाता है। माघ नवरात्री का पांचवा दिन हम सरस्वती पूजा के रूप में मनाते हैं।

सरस्वती के रूप में उपासना के लिए दक्षिण में कई जगहों पर अष्टमी-नवमी तिथियों को किताबों की भी पूजा होती है। शस्त्र पूजा में भी उनका आह्वान होता है। बच्चों को लिखना-पढ़ना शुरू करवाने के लिए विजयदशमी का दिन शुभ माना जाता है और हमारी पीढ़ी तक के कई लोगों का इसी तिथि को विद्यारम्भ करवाया गया होगा। देवी जितनी वैदिक परम्पराओं की हैं, उतनी ही तांत्रिक पद्दतियों की भी हैं। डामर तंत्र में इस विषय में कहा गया है कि जैसे यज्ञों में अश्वमेघ है और देवों में हरी, वैसे ही स्तोत्रों में सप्तशती है।

तीन रूपों में सरस्वती, काली और लक्ष्मी देवियों की ही तरह सप्तशती भी तीन भागों में विभक्त है। प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र और उत्तम चरित्र इसके तीन हिस्से हैं। मार्कंडेय पुराण के 81 वें से 93 वें अध्याय में दुर्गा सप्तशती होती है। इसके प्रथम चरित्र में मधु-कैटभ, मध्यम में महिषासुर और उत्तम में शुम्भ-निशुम्भ नाम के राक्षसों से संसार की मुक्ति का वर्णन है  (ललिता सहस्त्रनाम में भंडासुर नाम के राक्षस से मुक्ति का वर्णन है)। तांत्रिक प्रक्रियाओं से जुड़े होने के कारण इसकी प्रक्रियाएं गुप्त भी रखी जाती थीं। श्री भास्कराचार्य ने तो सप्तशती पर अपनी टीका का नाम ही ‘गुप्तवती’ रखा था।

पुराणों को जहाँ वेदों का केवल एक उपअंग माना जाता है वहीँ सप्तशती को सीधा श्रुति का स्थान मिला हुआ है। जैसे वेदमंत्रों के ऋषि, छंद, देवता और विनियोग होते हैं वैसे ही प्रथम, मध्यम और उत्तम तीनों चरित्रों में ऋषि, छंद, देवता और विनियोग मिल जायेंगे। इस पूरे ग्रन्थ में 537 पूर्ण श्लोक, 38 अर्ध श्लोक, 66 खंड श्लोक, 57 उवाच और 2 पुनरुक्त यानी कुल 700 मन्त्र होते हैं। अफ़सोस की बात है कि इनके पीछे के दर्शन पर लिखे गए अधिकांश संस्कृत ग्रन्थ लुप्त हो रहे हैं। अंग्रेजी में अभी भी कुछ उपलब्ध हो जाता है, लेकिन भारतीय भाषाओँ में कुछ भी ढूंढ निकालना मुश्किल होगा।

ये एक मुख्य कारण है कि इसे पढ़कर, खुद ही समझना पड़ता है। तांत्रिक सिद्धांतों के शिव और शक्ति, सांख्य के पुरुष-प्रकृति या फिर अद्वैत के ब्रह्म और माया में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। जैसा कि पहले लिखा है, इसमें 700 ही मन्त्र हैं (सिर्फ पूरे श्लोक गिनें तो 513) यानी बहुत ज्यादा नहीं होता। पाठ कर के देखिये। आखिर आपके ग्रन्थ आपकी संस्कृति, आपकी ही तो जिम्मेदारी हैं!
#नवरात्रि

कभी कभी पशुओं के चोर की कहानियां पढ़ने में आती हैं जिनमें पशु चोर को काफी चतुर बताया जाता है। कहा जाता है कि वो पशु को एक तरफ ले जाते हैं और उसकी घंटी उल्टी दिशा में लेकर भागने के बाद कहीं फेंक देते हैं। घंटी की आवाज का पीछा करते ग्रामीणों को अक्सर सिर्फ घंटी मिलती है और चोर सुरक्षित पशु को लेकर निकल जाते हैं। बाद में तो उसका कीमा ही बन जाता है तो पशु तो मिलने से रहा! इस किस्से के साथ बताया जाता है कि पशु तो शिक्षा, रोजगार, महिला सुरक्षा जैसे मुद्दे हैं और घंटी है शमशान-कब्रिस्तान, मंदिर-मस्जिद जैसे मुद्दे।

अब कहानी का चोर चतुर है तो उसने यहाँ चतुराई की होगी या नहीं? ये सोचने लायक बात है। थोड़े समय पहले एक परिचित जब कोई जलमहल देखने गए तो उन्होंने टापू पर बने महल की तरफ जाते हुए रास्ते में मल्लाह से बातचीत शुरू कर दी। इधर उधर की दूसरी बातों के अलावा उन्होंने मल्लाह से पूछा राजा ने यहाँ महल क्यों बनवा दिया था? मल्लाह ने जवाब दिया, नाच-रंग होता था और क्या? मल्लाह कम पढ़ा लिखा है इसलिए सिर्फ स्थूल पर ध्यान देता है। आप उतने कम शिक्षित नहीं, इसलिए त्वरित फैसले के बदले आपको अपनी समझ इस्तेमाल करनी चाहिए।

जंगल में कहीं एक महल बनाने में वहां तक का रास्ता बनवाना पड़ा होगा जिसमें लोगों ने काम किया होगा। वहां ईट-पत्थर, गारा, रंग-रोगन हुआ होगा जो कहीं से लाया गया होगा। कारीगरों को भी उसमें काम मिला होगा। महल बनवाकर वैसे ही तो छोड़ा नहीं जाता न? उसकी देखभाल के लिए स्थानीय लोगों को रोजगार मिला होगा। महल बनने और राज-पाट ख़त्म होने के करीब सात दशक बाद भी वो जलमहल वहां जाते सैलानियों के रूप में रोजगार पैदा कर ही रहा है। जो अशिक्षित रह गए हैं वो भी मल्लाह के रूप में, गाइड-छोटे दुकानदारों के रूप में काम पाते हैं।

पटना में इसका नमूना देखना हो तो हाल में ही यहाँ कुछ फ्लाईओवर और पार्क बने हैं, वहां ये नजर आ जाएगा। ऐसे पार्क और फ्लाईओवर के आस पास कई ई-रिक्शा (बैटरी वाली रिक्शा) के चालकों को रोजगार मिलता है। पार्क के आस पास जो दर्जनों चाट-गोलगप्पे, आइसक्रीम-गुब्बारे वाले दिखते हैं, उन सबको एक पार्क बनने से रोजगार मिलता है। मंदिरों के लिए प्रसाद चाहिए और वो कई हलवाइयों को रोजगार देता है। वहां फूल चढ़ते हैं जो फूल उगाने वालों, कई मालियों को रोजगार देते हैं। दुर्गा पूजा का एक मेला ही देख लें तो अंदाजा हो जाएगा कि ये कितना रोजगार पैदा करता है।

अभी से लेकर छठ तक में बांस के बने सूप-टोकरी का केवल पटना में साढ़े चार करोड़ का व्यवसाय होता है। इसे डोम समुदाय बनाता है। मंदिरों में जाना वाला हर चढ़ावा सरकारी होता है, इसलिए सरकार को भी आय होती है, जिससे शायद सड़क-बिजली-पानी का इंतजाम होता होगा। दिए बनाने वाले कुम्हार, बद्धी (गले में पहनने की माला) बनाने वाले, रूई की बत्ती, सिन्दूर जैसी छोटी मोटी चीज़ों का व्यवसाय भी सबसे पिछले तबकों में से एक को रोजगार देता है। हाँ आयातित विचारधारा पर चलने वाले आक्रमणकारी जरूर चाहते हैं कि इन व्यवसायों से आने वाली आमदनी को हथियाया जाए।

मोची से जूते-चप्पल का व्यवसाय छीनकर किसी “मोची” नाम के ब्रांड का फायदा तो हुआ ही है। विशेष अवसरों पर न्योता लाने-ले जाने वाले नाई का व्यवसाय किसी जावेद हबीब को अमीर बनने का मौका तो देगा ही। फल जो कुछ ही दिन पहले किसी एक समुदाय के उपवास के दौरान सस्ते होते हैं, वो किसी ने कब्जाए नहीं होंगे तो वो नवरात्र में महंगे करके कैसे बेचे जाते? हमलावरों के लिए ये बहुत जरूरी था कि उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर किया जाए ताकि उन्हें कुचलना आसान हो। लगातार वर्ष भर चलने वाले पर्व-त्योहारों की भारतीय परम्पराएं शोषितों को फिर से आर्थिक सामर्थ्य दे देती है।

कोई आश्चर्य नहीं कि हमलावर लगातार मुंह की खाते रहने के बाद भी हर वर्ष हमारे त्योहारों पर आक्रमण करते ही हैं। सबरीमाला में या किसी शनि मंदिर में श्रद्धालु कम आएं तो वो एक ही झटके में कई लोगों का रोजगार छीनकर उन्हें असंतुष्टों में शामिल कर सकेंगे। किले में बंद रहकर सिर्फ रक्षात्मक नीतियों से लड़ाई लम्बे समय तक जारी नहीं रखी जा सकती। इस शक्ति पूजन के पर्व में कमसे कम किले की दिवार से पत्थर फेंकना तो शुरू करना ही चाहिए न? अपने पक्ष वाला कम से कम कोई दूषित सामग्री पूजा में देने के लिए तो नहीं भेजेगा। 

हवन-पूजन की सामग्री, फूल-प्रसाद जैसी चीज़ें जहाँ से लेने की सोच रहे हैं, उसका नाम तो पूछ लिया है न?

करण-अर्जुन एक प्रसिद्ध सी फिल्म भी थी, लेकिन आम तौर पर ये दोनों महाभारत के पात्रों के रूप में जाने जाते हैं। दोनों करीब करीब एक ही स्तर के धनुर्धर थे। कौशल के अलावा दोनों के पास अस्त्र-शस्त्रों के अलावा दिव्य धनुष भी थे, अर्जुन के पास गांडीव तो कर्ण के पास विजया नाम का धनुष था। इस सब के बाद भी अपने काल के ये सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर जब भी आपस में टकराए तो जीत अर्जुन की होती है, कर्ण हार जाता है। कर्ण के साथ समस्या ये थी कि उसे गुरु से झूठ बोलने के कारण शाप मिला था कि जब सबसे जरूरी होगा, तभी वो सारा सीखा हुआ भूल जाएगा!

क्या किसी के बोल भर देने से कोई सारे दिव्यास्त्रों का ज्ञान भूल गया होगा? अगर मिथकीय के बदले इसे साधारण मनुष्यों के स्तर पर देखें तो इसे समझना थोड़ा आसान हो जाता है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद अर्जुन लगातार अभ्यास में जुटा रहा। खाण्डव-वन के लिए वो इंद्र से लड़ता है, किरातार्जुनीय जिसपर आधारित है, उस कथा में अर्जुन शिव से लड़ रहा होता है। बाद में वो इंद्र के पास शिक्षा भी लेता है और अपने अहंकार में हनुमान जी को चुनौती देता भी दिखता है। ऐसे इंद्र, शिव या हनुमान जी जैसे प्रतिद्वंदियों के लिए वो क्या साधारण अस्त्रों का प्रयोग कर रहा होगा?

शायद नहीं। इनसे लड़ने के प्रयास में उसने अपने पास मौजूद सबसे भारी भरकम हथियार निकाले होंगे। उसे ऐसे दिव्यास्त्रों के प्रयोग का अभ्यास रहा। उसकी तुलना में कर्ण ने ऐसे प्रतिद्वंदी नहीं (या कम) चुने थे। नागों-गन्धर्वों से लड़ते अर्जुन दिखते हैं, पांडवों के वनवास के समय गन्धर्वों से लड़ने में कर्ण का बुरा हाल हुआ था। बाद में अर्जुन को ही दुर्योधन को गन्धर्वों की कैद से छुड़ाना पड़ा था। आम आदमी की तरह सोचें तो संभवतः अभ्यास के कारण अर्जुन को तो अपने दिव्यास्त्र अच्छी तरह याद थे, लेकिन कर्ण उनमें से कई का प्रयोग सिर्फ जानता होगा, कैसे किया जाता है, ये उसने करके नहीं देखा होगा। कोई आश्चर्य नहीं कि वो जरूरत के समय उन्हें इस्तेमाल ही नहीं कर पाया।

ऐसा ही पढ़ाई के समय भी अक्सर कहा जाता है। लिखकर अपने नोट्स बनाने की सलाह (दूसरों को) इसलिए दी जाती है ताकि वो याद रहें (अपनी बारी में लोग कर्ण हो जाते हैं – यानी सलाह भूलते हैं)। महाभारत के एक लाख के लगभग श्लोकों का भी ऐसा ही हुआ होगा। हो सकता है कि ऋषि व्यास को भी लगा हो कि लोग इसे भूल न जाएँ इसलिए उन्होंने गणेश जी से इसे लिखवा लेने की सोची। उस दौर में शायद इसे “लिख” पाने की क्षमता वाले गणेश जी ही इकलौते थे। लिखने के मामले में भी गणेश जी और ऋषि व्यास आपस में स्पर्धा करते दिखते हैं। एक का कहना था मैं रुक गया तो आगे नहीं लिखूंगा, दूसरे हर थोड़ी देर में ऐसा श्लोक कहते जिसका अर्थ सोचना पड़े, और बिना समझे न लिखने की शर्त साथ लगा देते हैं!

जिस गणेश जी को लिखने के फायदे इतनी अच्छी तरह पता हों, उनके लिखने-पढ़ने के दूसरे किस्से भी आते हैं। जैसे उत्तर भारत में नवरात्रि के समय (कई बार ऐसे भी) लोग “दुर्गा सप्तशती” का पाठ करते दिखते हैं, वैसे ही दक्षिण भारत में “सौन्दर्यलहरी” का प्रचलन है। इस ग्रन्थ में सौ के लगभग श्लोक होते हैं (कुछ अन्य श्लोक शायद बाद के ऋषियों ने जोड़े हैं)। सौन्दर्यलहरी की ये कहानी आदिशंकराचार्य के वाराणसी (काशी) प्रवास के समय से जुड़ी होती है। इसके मुताबिक एक दिन आदिशंकराचार्य भगवान शिव से मिलने उनके निवास कैलाश पर चले। जब वो वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि एक शिला की दिवार सी है, जिसपर काफी कुछ लिखा हुआ है।

आदिशंकराचार्य रूककर पढ़ने लगे कि आखिर ये लिखा क्या है? उन्हें पढ़ते हुए गणेश जी ने देख लिया। गणेश जी को लगा कि विशेष प्रयासों के बाद मिलने वाला ये ज्ञान अगर आदिशंकराचार्य को मिल गया तो ये तो उन्हें सभी आम लोगों में बाँट आयेंगे! बस फिर क्या था, ऊपर की तरफ से आदिशंकराचार्य ने पढ़ना शुरू किया था कि गणेश जी नीचे से श्लोक मिटाने लगे! जब तक आदिशंकराचार्य शुरुआत के 41 श्लोक पढ़ पाते बाकी के 59 श्लोक गणेश जी मिटा चुके थे। आदिशंकराचार्य जब शिव जी के पास पहुंचे तो उन्होंने ये बात बताई और शिव जी ने कहा कि तुम्हारी क्षमता इतनी है कि बाकी के श्लोक तुम स्वयं ही रच लो।

ऐसा माना जाता है कि सौन्दर्यलहरी का शुरूआती 41 श्लोकों का हिस्सा (आनंदलहरी) सीधा भगवान शिव की रचना है और बाद के 59 श्लोक आदिशंकराचार्य ने (उसी शिखरिणी छंद में) जोड़े हैं। दोनों भागों में स्पष्ट अंतर भी है। शुरूआती 41 श्लोकों में मन्त्र, यंत्र और कर्म-काण्ड इत्यादि से जुड़ी बातें हैं और बाद के 59 में अलंकारयुक्त भाषा में देवी की प्रशंसा है। नवरात्रि आज से शुरू होती है और बीच में कुछ छुट्टियाँ भी होंगी। अगर रामचरितमानस, भगवद्गीता, दुर्गा सप्तशती, सौन्दर्यलहरी जैसा कोई भी हिन्दुओं का ग्रन्थ कभी पहले पन्ने से आखरी पन्ने तक पूरा न पढ़ा हो, तो एक बार इन्हें पूरा पढ़ डालने का संकल्प भी लिया जा सकता है। ये सभी नौ दिन में एक बार तो पूरे पढ़े ही जा सकते हैं।

बाकी कुछ ने नवरात्रि पर उपवास किया होगा और कुछ ने नहीं, विविधताओं का सम्मान करने वाले देश में सभी अपने अपने तरीके से बलिहोमप्रिया देवी तारा, छगबलीतुष्टा महाशक्ति कामख्या की उपासना में जुटे होंगे। सभी को #शारदीय_नवरात्रि की बधाई!
✍🏻 आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहित

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