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मंगलवार, 24 मई 2011

ढाई अक्षर प्रेम का

ढाई अक्षर प्रेम का......
एक बार चैतन्य महाप्रभु को विद्वानों ने घेर लिया। पूछने लगेः
"आप न्यायशास्त्र के बड़े विद्वान हो, वेदान्त के अच्छे ज्ञाता हो। हम समझ नहीं पाते कि इतने बड़े भारी विद्वान होने पर भी आप 'हरि बोल.... हरि बोल....' करके सड़कों पर नाचते हो, बालकों जैसी चेष्टा करते हो, हँसते हो, खेलते हो, कूदते हो !"
चैतन्य महाप्रभु ने जवाब दियाः "बड़ा भारी विद्वान होकर मुझे बड़ा भारी अहं हो गया था। बड़ा धनवान होने का भी अहं है और बड़ा विद्वान होने का भी अहं है। यह अहं ईश्वर से दूर रखता है। इस अहं को मिटाने के लिए मैं सोचता हूँ कि मैं कुछ नहीं हूँ......मेरा कुछ नहीं है। जो कुछ है सो तू है और तेरा है। ऐसा स्मरण करते-करते, हरि को प्यार करते-करते मैं जब नाचता हूँ, कीर्तन करता हूँ तो मेरा 'मैं' खो जाता है और उसका मैं हो जाता है।
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ईशकृपा बिन गुरु नहीं, गुरु बिना नहीं ज्ञान।
ज्ञान बिना आत्मा नहीं, गावहिं वेद पुरान।।

मौन का असर

 मौन का असर है।
एक गांव में सास और बहू रहती थी। उन दोनों के बीच अक्सर लडाई-झगडा होता रहता था। सास बहू को खूब खरी-खोटी सुनाती थी। पलटकर बहू भी सास को एक सवाल के सात जवाब देती थी।
एक दिन गांव में एक संत आए। बहू ने संत से निवेदन किया-गुरूदेव, मुझे ऐसा मंत्र दीजिए या ऐसा उपाय बताइए कि मेरी सास की बोलती बंद हो जाए। जवाब में संत ने कहा बेटी, यह मंत्र ले जाओ। जब तुम्हारी सास तुमसे गाली-गलौज करे, तो इस मंत्र को एक कागज पर लिखना और दांतो के बीच कसकर भींच लेना।
दूसरे दिन जब सास ने बहू के साथ गाली-गलौज किया, तो बहू ने संत के कहे अनुसार मंत्र लिखे कागज को दांतों के बीच भींच लिया। ऐसी स्थिति में बहू ने सास की बात को कोई जवाब नहीं दिया। यह सिलसिला दो-तीन दिन चलता रहा।
एक दिन सास के बडे प्रेमपूर्वक बहू से कहा-अब मैं तुमसे कभी नहीं लडूंगी
क्योंकि अब तुमने मेरी गाली के बदले गाली देना बंद कर दिया।
बहू ने सोचा- मंत्र का असर हो गया है और सासूजी ने हथियार डाल दिए है।
दूसरी दिन बहू ने जाकर संत से निवेदन किया-गुरूजी आपका मंत्र काम कर गया।
संत ने कहा यह मंत्र का असर नही, मौन का असर है।

भगवान की पूजा में महत्व सोने-चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है।

भगवान श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा के मन में एक दिन एक विचित्र विचार
आया। उन्होंने तय किया कि वह भगवान श्रीकृष्ण को अपने गहनों से तौलेंगी।
श्रीकृष्ण ने जब यह बात सुनी तो बस मुस्कुराए, बोले कुछ नहीं। सत्यभामा
ने भगवान को तराजू के पलडे़ पर बिठा दिया। दूसरे पलड़े पर वह अपने गहने रखने लगीं।
भला सत्यभामा के पास गहनों की क्या कमी थी। लेकिन श्रीकृष्ण का पलड़ा
लगातार भारी ही रहा। अपने सारे गहने रखने के बाद भी भगवान का पलड़ा नहीं उठा तो वह हारकर बैठ गईं। तभी रुक्मिणी आ गईं। सत्यभामा ने उन्हें सारी बात बताई। रुक्मिणी तुरंत पूजा का सामान उठा लाईं। उन्होंने भगवान की पूजा की। जिस पात्र में भगवान का चरणोदक था, उसे उठाकर उन्होंने गहनों वाले पलड़ों पर रख दिया।
देखते ही देखते भगवान का पलड़ा हल्का पड़ गया। ढेर सारे गहनों से जो बात नहीं बनी, वह चरणोदक के छोटे-से पात्र से बन गई। सत्यभामा यह सब आश्चर्य से देखती रहीं। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हुआ। तभी वहां नारद मुनि आ पहुंचे। उन्होंने समझाया, 'भगवान की पूजा में महत्व सोने-चांदी के गहनों का नहीं, भावना का होता है। रुक्मिणी की भक्ति और प्रेम की भावना भगवान के चरणोदक में समा गई। भक्ति और प्रेम से भारी दुनिया में कोई वस्तु नहीं है। भगवान की पूजा भक्ति-भाव से की जाती है, सोने-चांदी से नहीं। पूजा करने का ठीक ढंग भगवान से मिला देता है।' सत्यभामा उनकी बात समझ गईं।

संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना श्रेष्ठ कार्य है। (श्रेष्ठता के 3 सवाल)

एक राजा जिस साधु-संत से मिलता, उनसे तीन प्रश्न पूछता। पहला- कौन व्यक्ति श्रेष्ठ है? दूसरा- कौन सा समय श्रेष्ठ है? और तीसरा- कौन सा कार्य श्रेष्ठ है? सब लोग उन प्रश्नों के अलग-अलग उत्तर देते, किंतु राजा को उनके जवाब से संतुष्टि नहीं होती थी। एक दिन वह शिकार करने जंगल में गया। इस दौरान वह थक गया, उसे भूख-प्यास सताने लगी। भटकते हुए वह एक आश्रम में पहुंचा। उस समय आश्रम में रहने वाले संत आश्रम के फूल-पौधों को पानी दे रहे थे। राजा को देख उन्होंने अपना काम फौरन रोक दिया। वह राजा को आदर के साथ अंदर ले आए। फिर उन्होंने राजा को खाने के लिए मीठे फल दिए। तभी एक व्यक्ति अपने साथ एक घायल युवक को लेकर आश्रम में आया। उसके घावों से खून बह रहा था। संत तुरंत उसकी सेवा में जुट गए। संत की सेवा से युवक को बहुत आराम मिला। राजा ने जाने से पहले उस संत से भी वही प्रश्न पूछे। संत ने कहा, 'आप के तीनों प्रश्नों का उत्तर तो मैंने अपने व्यवहार से अभी-अभी दे दिया है।'राजा कुछ समझ नहीं पाया। उसने निवेदन किया, 'महाराज, मैं कुछ समझा नहीं। स्पष्ट रूप से बताने की कृपा करें।' संत ने राजा को समझाते हुए कहा, 'राजन्, जिस समय आप आश्रम में आए मैं पौधों को पानी दे रहा था। वह मेरा धर्म है। लेकिन आश्रम में अतिथि के रूप में आने पर आपका आदर सत्कार करना मेरा प्रधान कर्त्तव्य था। आप अतिथि के रूप में मेरे लिए श्रेष्ठ व्यक्ति थे। पर इसी बीच आश्रम में घायल व्यक्ति आ गया। उस समय उस संकटग्रस्त व्यक्ति की पीड़ा का निवारण करना भी मेरा कर्त्तव्य था, मैंने उसकी सेवा की और उसे राहत पहुंचाई। संकटग्रस्त व्यक्ति की सहायता करना श्रेष्ठ कार्य है। इसी तरह हमारे पास आने वालों के आदर सत्कार करने का, उनकी सेवा-सहायता करने का समय ही श्रेष्ठ है।' राजा संतुष्ट हो गया।

जीने का अधिकार (सुवचन) एवं कुछ महत्वपूर्ण बातें

एक बार राजा अजातशत्रु एक साथ कई मुसीबतों से घिर गए। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि इन आपदाओं को कैसे दूर किया जाए। वह दिन-रात इसी चिंता में डूबे रहते। तभी एक दिन उनकी मुलाकात एक वाममार्गी तांत्रिक से हुई। उन्होंने उस तांत्रिक को अपनी आपदाओं के बारे में बताया।

तांत्रिक ने राजा से कहा कि उन्हें संकट से मुक्ति तभी मिल सकती है जब वह पशुओं की बलि चढ़ाएं। अजातशत्रु ने उस तांत्रिक की बात पर विश्वास कर लिया और बलि देने की योजना बना ली। एक विशेष अनुष्ठान का आयोजन किया गया। बलि के लिए एक भैंसे को मैदान में बांधकर खड़ा कर दिया गया।

वधिक हाथ में तलवार थामे संकेत की प्रतीक्षा कर रहा था। तभी संयोगवश गौतम बुद्ध वहां से गुजरे। उन्होंने मूक पशु को मृत्यु की प्रतीक्षा करते देखा
तो उनका हृदय करुणा से भर गया। उन्होंने राजा अजातशत्रु को एक तिनका देते हुए कहा, 'राजन्, इस तिनके को तोड़कर दिखाइए।' बुद्ध के ऐसा कहते ही राजा ने तिनके के दो टुकड़े कर दिए। तिनके के टुकड़े होने पर बुद्ध राजा से बोले, 'अब इन टुकड़ों को जोड़ दीजिए।'

बुद्ध का यह आदेश सुनकर अजातशत्रु हैरान होकर उनसे बोले, 'भगवन् टूटे
तिनके कैसे जोड़े जा सकते हैं?' अजातशत्रु का जवाब सुनकर बुद्ध ने कहा,
'राजन् जिस प्रकार आप तिनका तोड़ तो सकते हैं जोड़ नहीं सकते, उसी प्रकार निरीह प्राणी का जीवन लेने के बाद आप उसे जीवित नहीं कर सकते। निरीह प्राणी की हत्या से आपदाएं कम होने के बजाय बढ़ती ही हैं। आपकी तरह इस पशु को भी तो जीने का अधिकार है। समस्याएं कम करने के लिए अपनी बुद्धि और साहस का प्रयोग कीजिए, निरीह प्राणियों का वध मत कीजिए।'

बुद्ध की बात सुनकर अजातशत्रु लज्जित हो गए। उन्होंने उसी समय पशु-बलि बंद करने का आदेश जारी कर दिया।

आत्मसंयम से शक्ति विकास

15 वर्ष का एक नटखट किशोर था। वह बड़ा ही शैतान था। बात-बात पर गुस्सा हो जाना, झगड़ पड़ना यह उसकी आदत ही थी। एक बार वह अपने मित्रों के साथ एक बारात में गया। वहाँ भोजन बनाने में कुछ देर हो गयी उसे सख्त भूख लग रही थी। जी मसोलकर वह बैठा हुआ था पर अंदर तो गुस्से का गुबार उठ रहा था। वह भूख से तिलमिलाया और स्वागत कर्ताओं पर बरस पड़ाः "इतनी देर हो गयी, अभी तक तुम्हारा भोजन ही तैयार नहीं हुआ है !" उस ओर भी था कोई सवा सेर, बोलाः "भीख माँगना तो तुम्हारा काम है ही, गाँव में से माँगकर खा लो। यहाँ ज्यादा धाँस मत दिखाओ।" उस किशोर को और गुस्सा आया। बात कहा सुनी से हाथापाई तक पहुँची और किशोर की अच्छी मरम्मत हुई। पिट-पिटकर वह अपने गाँव लौट आया। उसके कपड़ों की हालत और रूआँसा चेहरा देखकर उसके पिताजी सारी बात समझ गये, बाकी की जानकारी साथ गये लोगों ने दे दी।
पिता जी ने उसे सांत्वना देकर भोजन कराया और आराम करने भेज दिया। वह दो घंटे बाद सोकर उठा तो शांत था। पिता जी ने प्यार से बुलाकर कहाः "बेटा ! तुम अपने अंदर झाँककर देखो कि अपराध किसका है ? तुम हरेक से लड़ते झगड़ते रहते हो। कोई भी व्यक्ति तुमसे प्रसन्न नहीं है। बात-बात में तुम उत्तेजित हो जाते हो। अपनी प्रकृति के अनुसार अवश्य तुम्हारी वहाँ भी किसी छोटी सी बात पर अनबन हो गयी होगी।"
वह किशोर बुद्धिमान तो था। वह उद्विग्न नहीं हुआ। उसे अपनी गलती पर
ग्लानि हो रही थी। वह नम्रतापूर्वक प्रार्थना करते हुए बोलाः
"पिता जी ! कृपा करके इसका कोई उपाय बताइये ताकि मैं भी आपकी तरह शांत हो जाऊँ।" पिता जी ने कहाः "बेटा ! तुम चैतन्यस्वरूप हो। शांति तो तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य जब अपने आत्मस्वरूप को भूल जाता है तो बाह्य व आंतरिक कारणों के वशीभूत होकर अपना संतुलन खो बैठता है। बुद्धिमान मनुष्य कैसी भी परिस्थिति में सम रहता है। छोटे व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर खिन्न हो जाते हैं, चिढ़ जाते हैं और आवेश में आकर गलत कदम उठा लेते हैं।
ध्यायतो विषयन्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।
विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है,
आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है।
इसलिए तुम अपनी इच्छाओं को नियंत्रण में रखो। इच्छा की पूर्ति न होने पर क्रोध आता है। यदि तुम न पूरी होने वाली कामनाओं से बच सकते हो तो तुम शांत रहोगे।
गीता का यह श्लोक उस बालक के हृदय पर मानो हमेशा हमेशा के लिए अंकित हो गया। उसने इसका गहन चिंतन-मनन किया। उसे जीवन का अनमोल सूत्र हाथ लग गया था। उसने उसे अपने जीवन में उतारा और अभ्यास किया। अब उसका क्रोधी स्वभाव शांत हो गया था। वह एक अच्छा बालक बन चुका था। एक-एक करके वह अपनी कमियों को खोज-खोज कर निकालता गया। भगवदध्यान और जप से उसकी दैवी शक्तियों का
विकास हुआ और वही बालक आगे चलकर अवंतिका क्षेत्र में महात्मा शांतिगिरी नाम से प्रसिद्ध हुआ।
(श्रीमद् भगवद गीताः 2.62)
स्रोतः लोक कल्याण सेतु, अप्रैल 2010, पृष्ठ 6,13, अंक 145

धोखे से भी जिसके मुख से भगवान का नाम निकलता है

धोखे से भी जिसके मुख से भगवान का नाम निकलता है वह आदमी भी आदर के योग्य है। जो प्रेम से भगवान का चिन्तन, ध्यान करता है, भगवतत्त्व का विचार करता है उसके आदर का तो कहना ही क्या ? उसके साधन-भजन को अगर सत्संग का संपुट मिल जाय तो वह जरूर हरिद्वार पहुँच सकता है। हरिद्वार यानी हरि का द्वार। वह गंगा किनारे वाला हरि द्वार नहीं, जहाँ से तुम चलते हो वहीं हरि का द्वार हो। संसार में घूम फिरकर जब ठीक से अपने आप में गोता लगाओगे, आत्म-स्वरूप में गति करोगे तब पता चलोगे कि हरिद्वार तुमसे दूर नहीं, हरि तुमसे दूर नहीं और तुम हरि से दूर नहीं।

वो थे न मुझसे दूर न मैं उनसे दूर था।

आता न था नजर तो नजर का कसूर था।।

अज्ञान की नजर हटती है। ज्ञान की नजर निखरते निखरते जीव ब्रह्ममय हो जाता है। जीवो ब्रह्मैव नापरः। यह अनुभव हो जाता है।

मंगलवार, 3 मई 2011

आज भगवान का कोई भक्त परेशान है

  कहते है जब रामजी के राज्यअभिषेक का कार्य निबट गया तब सभी अतिथिविदा हो गये पर हनुमानजी ने कहा मेरा जन्म तो राम सेवा को हुआ है मै यही प्रभु चरणों मै रहूँगा और वो रुक गये.राजा बन जाने के बाद उनके सभी भाइयो ने अपने लिये कोई न कोई सेवा लेली.तब हनुमानजी भी कहने लगे मुझे भी कोई सेवा दो.तो माता सीता कहने लगी प्रभु की सेवा भार तो सबने ले लिया अब तो कुछ भी सेवा शेष नहीं बची तब हनुमान जी जिद करने लगे तो सीताजी ने कहा तुम चुटकी बजाने की सेवा लेलो जब राम जी को जंभाई आये तब तुम चुटकी बजाना.तो हनुमान जी ने कहा ठीक है माता जी.और रामजी के पीछे पीछे डोलने लगे रात हुई तब माता कहने लगी बेटा अब तुम भी आराम करो पर वो कहने लगे यदि रात मै उन्हें जंभाई आये तो मै तो यही कमरे मै रहता हू तब माताजी रामजी से कहा आपही अपने पुत्र को समझाओ रामजी क्या कहते वो चुप लगा गये पर सीताजी ने हनुमान से कहा आप ऐसा करो
कमरे के बाहर जाओ और वहाँ चुटकी बजाते रहना 
हनुमानजी कमरे से बाहर आ गये और सोचने लगे प्रभु को पता नही कभी जंभाई आ जाये तो वे सारी
रात कीर्तन करते हुए चुटकी बजाने लगे अब वहाँ रामजी की नींद उड़ गयी उनके भक्त को उनकी पत्नी ने बाहर निकाल दिया वो जाग रहा तो वो सोये कैसे अब तो रामजी जंभाई पे जंभाई लेने लगे ये सब देखकर सीताजी घबरा गयी और वो माताओ से जाकर कहने लगी आज तो आप के पुत्र को किसी की नजर लग गयी है वो तो जंभाई लिये ही जा रहे है तब गुरु वसिष्ठ को बुलाया गया वो समझ गये की आज भगवान का कोई भक्त परेशान है तबही ये हो रहा है तब वो सीताजी से कहने लगे आज दिन मै क्याहुआ हमें बताओ उन्होंने सब बात बता दी और अब तो सभी जने हनुमान के कक्ष मै गये वो वहाँ चुटकी बजा कर प्रभु कीर्तन मै मस्त थे तब गुरूजी ने कहा हनुमान तुम कीर्तन करो चुटकी मत बजाओ हनुमानजी मान गये तब कही जाकर प्रभु को नीद आयी 

मां की सेवा करने वाला ही यशस्वी


मां की सेवा करने वाला ही यशस्वी


संत कहते हैं कि मां के चरणों में स्वर्ग होता है। भगवान राम ने भी माता को स्वर्ग से महान बताया है। ऋग्वेद में ऋषि माताओं से आग्रह करते हैं कि जल के समान वे हमें शुद्ध करें। वे हमें तेजवान और पवित्र बनाएं।

भागवत पुराण के अनुसार, माताओं की सेवा से मिला आशीष सात जन्मों के दोषों को दूर करता है। उसकी भावनात्मक शक्ति संतान के लिए सुरक्षा कवच का कार्य करती है। ऋग्वेद के एक मंत्र में मां की प्रशंसा करते हुए कहा गया है कि हे उषा के समान प्राणदायिनीमां! हमें महान सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करो। तुम हमें नियम-परायण बनाओ। हमें यश और अद्भुत ऐश्वर्य प्रदान करो। 

इस मंत्र के माध्यम से ऋषि यह सिद्ध करना चाहते हैं कि मां की शक्ति अपार होती है, लेकिन इसका लाभ श्रद्धावान और सेवा भाव से भरपूर संतान को ही मिलता है। यदि वे मां के हृदय को ठेस पहुंचाते हैं, तो निश्चित तौर पर आशीष तरंगें निष्क्रिय हो जाती हैं। ऋग्वेद के एक दूसरे मंत्र में ऋषि स्पष्ट कहते हैं कि माता-पिता का पवित्र धीर, विनम्र और अग्नितुल्यतेजस्वी पुत्र अपनी शक्ति से संसार को पवित्र करता है। 

वह सभी जगह ज्ञान और सदाचार का प्रचार करे। वेदों में माता को अंबा, देवी, सरस्वती, शक्ति, ज्योति, उषा, पृथ्वी आदि से संबोधित किया गया है। महाभारत के अनुशासन पर्व में पितामह भीष्म कहते हैं कि भूमि के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गुरु नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं, दान के समान कोई पुण्य नहीं।

चाणक्यनीति में कौटिल्य कहते हैं कि माता के समान कोई देवता नहीं है। माता-परम देव होती है। माता की सेवा के साथ-साथ पिता, गुरुओं और वृद्धजनोंकी सेवा करने वाला, दीन हीन की सहायता करने वाला, संसार में यश प्राप्त करता है।

उसकी आलोचना करने का साहस उसके शत्रु भी नहीं कर सकते हैं। यजुर्वेद में एक प्रेरणादायक मंत्र है, जिसमें कहा गया है कि जिज्ञासु पुत्र तू माता की आज्ञा का पालन कर। अपनी दुराचरण से माता को कष्ट मत दे। अपनी माता को अपने समीप रख। मन को शुद्ध कर और आचरण की ज्योति को प्रकाशित कर। वास्तव में, माता स्वयं में एक पवित्रतमशक्ति है। उसकी सेवा करें। साथ ही, जो मातातुल्यहैं और वृद्ध, असहाय और वंचित हैं, वे भी हमारी सेवा के अधिकारी हैं।

तिरूपति बालाजी एक ऐसा मंदिर है

आंध्र प्रदेश के चित्तुर जिले में धन
और वैभव के भगवान श्री तिरूपति बालाजी मंदिर स्थित है। ऐसा माना जाता है
यहां साक्षात् भगवान व्यंकटेश विराजमान हैं। यहां बालाजी की करीब 7 फीट
ऊंची श्यामवर्ण की प्रतिमा स्थापित है।

तिरूपति बालाजी एक ऐसा मंदिर है
जहां भगवान को सबसे अधिक धन, सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात अर्पित किए जाते
हैं। यहां दान करने की कोई सीमा नहीं है। भक्त यहां नि:स्वार्थ भाव से अपनी
श्रद्धा के अनुसार धन अर्पित करते हैं। यह धन चढ़ाने के संबंध में एक कथा
बहुप्रचलित है।

कथा के अनुसार एक बार सभी ऋषियों में यह बहस शुरू हुई कि
ब्रह्मा, विष्णु और महेश में सबसे बड़ा देवता कौन हैं? त्रिदेव की परिक्षा
के लिए ऋषि भृगु को नियुक्त किया गया। इस कार्य के लिए भृगु ऋषि भी तैयार
हो गए। ऋषि सबसे पहले ब्रह्मा के समक्ष पहुंचे और उन्होंने परमपिता को
प्रणाम तक नहीं करा, इस पर ब्रह्माजी भृगु ऋषि पर क्रोधित हो गए।
अब ऋषि शिवजी की परिक्षा लेने पहुंचे। कैलाश पहुंचकर भृगु बिना महादेव की आज्ञा
के उनके सामने उपस्थित हो गए और शिव-पार्वती का अनादर कर दिया। इससे शिवजी
अतिक्रोधित हो गए और भृगु ऋषि का अपमान कर दिया। अंत में ऋषि भुगु भगवान
विष्णु के सामने क्रोधित अवस्था में पहुंचे और श्रीहरि की छाती पर लात मार
दी। इस भगवान विष्णु ने विनम्रता से पूर्वक पूछा कि मेरी छाती व्रज की तरह
कठोर है अत: आपके पैर को चोट तो नहीं लगी? यह सुनकर भृगु ऋषि समझ गए कि
श्रीहरि ही सबसे बड़े देवता यही है। यह सब माता लक्ष्मी देख रही थीं और वे अपने पति का अपमान सहन नहीं कर सकी और विष्णु को छोड़कर दूर चले गईं और तपस्या में बैठ गई। लंबे समय के बाद देवी लक्ष्मी ने शरीर त्याग दिया और पुन: एक दरिद्र ब्राह्मण के यहां जन्म लिया। जब विष्णु को यह ज्ञात हुआ तो वे माता लक्ष्मी से विवाह करने पहुंचे परंतु देवी लक्ष्मी के गरीब पिता ने विवाह के लिए विष्णु से काफी धन मांगा। लक्ष्मी के जाने के बाद विष्णु के
पास इतना धन नहीं था। तब देवी लक्ष्मी से विवाह के लिए उन्होंने देवताओं के
कोषाध्यक्ष कुबेरदेव से धन उधार लिया। इस उधार लिए धन की वजह से विष्णु-लक्ष्मी का पुन: विवाह हो सका। कुबेर देव धन चुकाने के संबंध में यहशर्त रख दी कि जब तक मेरा कर्ज नहीं उतर जाता आप माता लक्ष्मी के साथ केरल में रहेंगे। बस तभी से तिरूपति अर्थात् भगवान विष्णु वहां विराजित हैं। कुबेर से लिए गए उधार धन को उतारने के लिए भगवान के भक्तों द्वारा तिरूपति में
धन चढ़ाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि यह कुबेर देव को प्राप्त होता है और भगवान विष्णु का कर्ज कम होता है।



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