यह ब्लॉग खोजें

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

भारतीय संस्कृति और तिलक लगाने का रिवाज

टीका
 
- भारतीय संस्कृति में स्त्री हो या पुरुष आज्ञा चक्र पर तिलक लगाने का रिवाज रहा है .
- इस सत्य घटना से हम टीके का महत्व जान सकते है . काशी के प्रसिद्ध वैद्य त्रयम्बक शास्त्री एक बार छत पर किसी के साथ बैठे हुए थे. नीचे सड़क पर एक आदमी जा रहा था. त्रयम्बक शास्त्री ने कहा-
" घर जाकर वह मर जाएगा."
कौतूहल के कारण उनके साथ के व्यक्ति ने उस आदमी का पीछा किया. कुछ दूर एक झोपड़े में वह रहता था. वह अन्दर गया. थोड़ी देर बाद ही अन्दर से रोने की आवाजें आने लगीं. वह आदमी मृत्यु को प्राप्त हो गया था.
व्यक्ति ने लौटकर त्रयम्बक शास्त्री से पूछा: " आपने कैसे समझ लिया था ?"
त्रयम्बक शास्त्री बोले: " उस आदमी को देखने से स्पष्ट था कि उसकी प्राण शक्ति ख़त्म हो चुकी है. पर वह नंगे पैर चल रहा था एवं चन्दन का तिलक लगाए हुए था जिसे उसे पृथ्वी से ऊर्जा मिल रही थी. उसे ऊर्जा के सहारे उसकी ज़िंदगी खिची चल रही थी. मुझे पता था कि घर जाकर वह चारपाई ( लकड़ी की होती है) पर बैठेगा और पैर उठाकर ऊपर रखेगा.. उसी क्षण वह ऊर्जा मिलनी बंद हो जायेगी और उसका देहांत हो जाएगा."
- टीका कुमकुम , केसर , चन्दन, हल्दी या भभूत का हो सकता है .
- आजकल महिलाएं हल्दी कुमकुम के स्थान पर नकली टीका यानी प्लास्टिक वाली बिंदी लगाती है और सिन्दूर की जगह लिपस्टिक से काम चलाती है . इससे कोई आध्यात्मिक या शारीरिक लाभ नहीं मिलेगा . इसलिए एक गीली तीली से रोजाना कुमकुम लगाएं .
- चन्दन का टीका लगाने से ठंडक मिलती है .
- तिलक में अंगूठे के प्रयोग से शक्ति , मध्यमा के प्रयोग से दीर्घायु ,अनामिका से समृद्धि और तर्जनी से मुक्ति प्राप्त होती है .
- केसर तिलक भी बहुत शुभ और एकाग्रता बढाने वाला होता है .केसर व गोरोचन ज्ञान-वैराग्य का प्रतीक माना जाता है अतः ज्ञानी तत्वचिन्तक इसका प्रयोग करते है।
- परम अवस्था प्राप्त योगी लोग कस्तुरी का प्रयोग करते हैं यह ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, प्रेम, सौन्दर्य, ऐश्वर्य सभी का प्रतीक है ।
- असली कंकू हल्दी पावडर में चूना और जड़ी बूटियाँ मिला कर बनाया जाता है . इसे धोने पर इसका रंग नहीं रह जाता .
- नकली कंकू को अगर धोया जाए तो भी उसका रंग रह जाता है .
- हल्दी से बेहतर दूसरा एंटी-औक्सिडेंट है ही नहीं; यह कई बीमारियाँ रोकता है। किसी वैज्ञानिक ने कहा था कि हमारे भौहों के नीचे, आँखों के बीच और माथे में ऊपर की ओर इन तीन स्थानों पर तीन अलग-अलग तरह के जीवाणु रहते हैं। जब पुरुष भस्म का और महिलायें सिन्दूर का प्रयोग करते हैं तो इन जीवाणुओं के कुप्रभाव से पीनियल ग्रंथि बची रहती है।
- सिन्दूर सुपारी की राख और हल्दी या फिर हल्दी में फिटकरी मिलाकर बनाया जाता है . सिर के उस स्थान पर जहां मांग भरी जाने की परंपरा है, मस्तिष्क की एक महत्वपूर्ण ग्रंथी होती है, जिसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। यह अत्यंत संवेदनशील भी होती है। यह मांग के स्थान यानी कपाल के अंत से लेकर सिर के मध्य तक होती है। सिंदूर इसलिए लगाया जाता है क्योंकि इसमें पारा नाम की धातु होती है। पारा ब्रह्मरंध्र के लिए औषधि का काम करता है। महिलाओं को तनाव से दूर रखता है और मस्तिष्क हमेशा चैतन्य अवस्था में रखता है। विवाह के बाद ही मांग इसलिए भरी जाती है क्योंकि विवाहके बाद जब गृहस्थी का दबाव महिला पर आता है तो उसे तनाव, चिंता और अनिद्रा जैसी बीमारिया आमतौर पर घेर लेती हैं।पारा एकमात्र ऐसी धातु है जो तरल रूप में रहती है। यह मष्तिष्क के लिए लाभकारी है, इस कारण सिंदूर मांग में भरा जाता है।
- सिंदूर में पारा जैसी धातु अधिक होनेके कारण चेहरे पर जल्दी झुर्रियां नहीं पडती। साथ ही इससे स्त्री के शरीर में स्थित विद्युतीय उत्तेजना नियंत्रित होती है।
- पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार में सिन्दूर का रंग चटक केसरिया होता है, इसे कच्चा सिन्दूर कहते हैं।

मूर्ति पूजा:- पं श्री राम शर्मा “आचार्य”

मूर्ति पूजा:-


भारतीय संस्कृति में प्रतीकवाद का महत्वपूर्ण स्थान है । सबके लिए सरल सीधी पूजा-पद्धति को आविष्कार करने का श्रेय भारत को ही प्राप्त है । पूजा-पद्धति की उपयोगिता और सरलता की दृष्टि से हिन्दू धर्म की तुलना अन्य सम्प्रदायों से नहीं हो सकती । हिन्दू धर्म में ऐसे वैज्ञानिक मूलभूत सिद्धांत दिखाई पउ़ते हैं, जिनसे हिन्दुओं का कुशाग्र बुद्धि विवेक और मनोविज्ञान की अपूर्व जानकारी का पता चलता है । मूर्ति-पूजा ऐसी ही प्रतीक पद्धति है ।

मूर्ति-पूजा क्या है? पत्थर, मिट्टी, धातु या चित्र इत्यादि की प्रतिमा को माध्यस्थ बनाकर हम सर्वव्यापी अनन्त शक्तियों और गुणों से सम्पन्न परमात्मा को अपने सम्मुख उपस्थित देखते हैं । निराकार ब्रह्म का मानस चित्र निर्माण करना कष्टसाध्य है । बड़े योगी, विचारक, तत्ववेत्ता सम्भव है यह कठिन कार्य कर दिखायें,किन्तु साधारण जन के जिए तो वह नितांत असम्भव सा है । भावुक भक्तों, विशेषतः नारी उपासको ं के लिए किसी प्रकार की मूर्ति का आधार रहने से उपासना में बड़ी सहायता मिलती है । मानस चिन्तन और एकताग्रता की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रतीक रूप में मूर्ति-पूजा की योजना बनी है । साधक अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान की कोई भी मूर्ति चुन लेता है और साधना अन्तःचेतना ऐसा अनुभव करती है मानो साक्षात् भगवान से हमारा मिलन हो रहा है ।



मनीषियों का यह कथन सत्य हे कि इस प्रकार की मूर्ति-पूजा में भावना प्रधान और प्रतिमा गौण है, तो भी प्रतिमा को ही यह श्रेय देना पड़ेगा कि वह भगवान की भावनाओं का उदे्रक और संचार विशेष रूप से हमारे अन्तःकरण में करती है । यों कोई चाहे, तो चाहे जब जहाँ भगवान को स्मरण कर सकता है, पर मन्दिर में जाकर प्रभु-प्रतिमा के सम्मुख अनायास ही जो आनंद प्राप्त होता है, वह बिना मन्दिर में जाये, चाहे, जब कठिनता से ही प्राप्त होगा । गंगा-तट पर बैठकर ईश्वरीय शक्तियों का जो चमत्कार मन में उत्पन्न होता है, वह अन्यत्र मुश्किल से ही हो सकता है ।

मूर्ति-पूजा के साथ-साथ धर्म मार्ग में सिद्धांतमय प्रगति करने के लिए हमारे यहाँ त्याग और संयम पर बड़ा जोर दिया गया है । सोलह संस्कार, नाना प्रकार के धार्मिक कर्मकाण्ड, व्रत, जप, तप, पूजा, अनुष्ठान,तीर्थ यात्राएँ, दान, पुण्य, स्वाध्याय, सत्संग ऐसे ही दिव्य प्रयोजन हैं, जिनसे मनुष्य में संयम ऐसे ही दिव्य प्रयोजन हैं, जिनसे मनुष्य में संयम और व्यवस्था आती है । मन दृढ़ बनकर दिव्यत्व की ओर बढ़ता है । आध्यात्मिक नियंत्रण में रहने का अभ्यस्त बनता है ।

मूर्ति-पूजा के पक्ष में प. दीनानाथ शर्मा के विचार बहुमूल्य हैं । शर्मा जी लिखते हैः-

”जड़ (मूल)ही सबका आधार हुआ करती है । जड़ सेवा के बिना किसी का भी कार्य नहीं चलता । दूसरे की आत्मा की प्रसन्नतार्थ उसके आधारभूत जड़ शरीर एवं उसके अंगों की सेवा करनी पड़ती है । परमात्मा की उपासना के लिए भी उसके आश्र्ाय स्वरूप जड़ प्रकृति की पूजा करनी पड़ती है । हम वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, प्रकाश आदि की उपासना में प्रचुर लाभ उठाते हैं, तब मूर्ति-पूजा से क्यों घबराना चाहिए? उसके द्वारा तो आप अणु-अणु में व्यापक चेतन (सच्चिदानंद) की पूजा कर रहे होते हैं । आप जिस बुद्धि को या मन को आधारीभूत करके परमात्मा का अध्ययन कर रहे होते हैं क्यों वे जड़ नहीं हैं? परमात्मा भी जड़ प्रकृति के बिना कुछ नहीं कर सकता, सृष्टि भी नहीं रच सकता । तब सिद्ध हुआ कि जड़ और चेतन का परस्पर संबंध है । तब परमात्मा भी किसी मूर्ति के बिना उपास्य कैसे हो सकता है? “

” हमारे यहाँ मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हैं, जिनमें भावुक जिज्ञासु पूजन, वन्दन अर्चन के लिए जाते हैं और ईश्वर की मूर्तियों पर चित्त एकाग्र करते हैं । घर में परिवार की नाना चिन्ताओं से भरे रहने के कारण पूजा, अर्चन, ध्यान इत्यादि इतनी तरह नहीं हो पाता, जितना मन्दिर के प्रशान्त स्वच्छ वातावरण में हो सकता है । अच्छे वातावरण का प्रभाव हमारी उत्तम वृत्तियों को शक्तिवान् बनाने वाला है । मन्दिर के सात्विक वातावरण में कुप्रवृत्तियाँ स्वयं फीकी पड़ जाती हैं । इसलिए हिन्दू संस्कृति में मन्दिर की स्थापना को बड़ा महत्व दिया गया है ।”

कुछ व्यक्ति कहते हैं कि मन्दिरों में अनाचार होते हैं । उनकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती रही है । उन पर बहुत व्यय हो रहा है । अतः उन्हें समाप्त कर देना चाहिए । सम्भव है इनमें से कुछ आक्षेप सत्य हों, किन्तु मन्दिरों को समाप्त कर देने या सरकार द्वारा जब्त कर लेने मात्र से क्या अनाचार दूर हो जायेंगे? यदि किसी अंग में कोई विकार आ जाय, तो क्या उसे जड़मूल से नष्ट कर देना उचित है? कदापि नहीं । उसमें उचित परिष्कार और सुधार करना चाहिए । इसी बात की आवश्यकता आज हमारे मन्दिरों में है । मन्दिर स्वेच्छ नैतिक शिक्षण के केन्द्र रहें । उनमें पढ़े- लिखे निस्पृह पुजारी रखे जायं, जो मूर्ति-पूजा कराने के साथ-साथ जनता को धर्म-ग्रन्थों, आचार शास्त्रों, नीति,ज्ञान का शिक्षण भी दें और जिनका चरित्र जनता के लिए आदर्श रूप हो ।



- पं श्री राम शर्मा “आचार्य”


अनन्नास के औषधीय प्रयोग :


अनन्नास के औषधीय प्रयोग :
"1 अजीर्ण (अपच) होने पर:-*पके अनन्नास के बारीक टुकड़े को सेंधानमक और कालीमिर्च मिलाकर खाने से अजीर्ण दूर होता है।
*पके अनन्नास के 100 ग्राम रस में 1-2 पीस अंगूर और लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग सेंधानमक मिलाकर खाने से अजीर्ण दूर होता है।
*भोजन के बाद यदि पेट फूल जाये, बैचेनी हो तो अनन्नास के 20-50 ग्राम रस के सेवन से लाभ होता है।
*अनन्नास और खजूर के टुकड़े बराबर-बराबर लेकर उसमें घी और शहद मिलाकर कांच के बरतन में भरकर रखें। इसे नित्य 6 या 12 ग्राम की मात्रा में खाने से बहुमूत्र रोग दूर होता है और शक्ति बढ़ती है।"

2 पेट में बाल चला जाने पर:-*पका हुआ अनन्नास खाने से पेट में बाल चले जाने से उत्पन्न हुई पीड़ा खत्म हो जाती है।
*पके अनन्नास के छिले हुए टुकड़ों पर कालीमिर्च और सेंधानमक डालकर खाने से खाया हुआ बाल कांटा या कांच पेट में गल जाता है।"

3 बहुमूत्र (पेशाब का बार-बार आना) का रोग:-*पके हुए अनन्नास को काटकर उसमें कालीमिर्च का चूर्ण और चीनी मिलाकर खाना चाहिए।
*अनन्नास के छोटे-छोटे टुकड़ों पर पीपर का चूर्ण छिड़कर खाने से बहुमूत्र का रोग दूर हो जाता है। पके अनन्नास का छिलका और उसके भीतर का अंश निकालकर शेष भाग का रस निकाल लें फिर इसमें जीरा, जायफल, पीपर कालानमक और थोड़ा-सा अम्बर डालकर पीने से भी बहुमूत्र का रोग मिटता है।
*अनन्नास के टुकड़ों पर पीपर का चूर्ण डालकर खाने से बहुमूत्र के विकार में बहुत लाभ होता "

4 अनन्नास का मुरब्बा:-पके अनन्नास के ऊपर का छिलका और बीच का सख्त हिस्सा निकाल लें, उसके बाद फल के छोटे-छोटे टुकड़े करके उन्हें एक दिन चूने के पानी में रखें। दूसरे दिन उन्हें चूने के पानी में से बाहर निकालकर सुखा दें। उसके बाद चीनी की चाशनी बनाकर अनन्नास के टुकड़ों को उसमें डाल दें। इसके बाद नीचे उतार लें और ठंडा होने पर उसमें थोड़ी-सी इलायची पीसकर, थोड़ा गुलाब जल को डालकर मुरब्बा बनाकर सुरक्षित रख लें। यह मुरब्बा पित्त का शमन करता है और मन को प्रसन्न करता है।

5 शरीर की गर्मी को शांत करने वाला:-पके अनन्नास के छोटे-छोटे टुकड़े करके उनको कुचलकर रस निकालें उसके बाद इस रस से दुगुनी चीनी लेकर उसकी चासनी बनाएं। इस चाशनी में अनन्नास का रस डालकर शर्बत बनाएं। यह योग गर्मी को नष्ट करता है, हृदय को बल प्रदान करता है और पित्त को प्रसन्न करता है।

6 रोहिणी या कण्ठ रोहिणी:-अनन्नास का रस रोहिणी की झिल्ली को काट देता है, गले को साफ रखता है। इसकी यह प्रमुख प्राकृतिक औषधि है। ताजे अनन्नास में पेप्सिन पित्त का एक प्रधान अंश होता है जिसमें गले की खराश में लाभ होता है।

7 सूजन:-*शरीर की सूजन के साथ पेशाब कम आता हो, एल्बब्युमिन मूत्र के साथ जाता हो, मंदाग्नि हो, आंखों के आस-पास और चेहरे पर विशेष रूप से सूजन हो तो ऐसी दशा में नित्यप्रति अनन्नास खायें और खाने में सिर्फ दूध पर रहें। तीन सप्ताह में लाभ हो जाएगा।
*100 ग्राम की मात्रा में रोजाना अनन्नास का जूस (रस) पीने से यकृत वृद्धि के कारण होने वाली सूजन खत्म हो जाती है।
*रोजाना पका हुआ अनन्नास खाने और भोजन में केवल दूध का प्रयोग करने से पेशाब के कम आने के कारण, यकृत बढ़ने के कारण, भोजन के अपच आदि कारणों से आने वाली सूजन दूर हो जाती है। ऐसा लगभग 21 दिनों तक करने से सूजन पूरी तरह से खत्म हो जाती है।
*अनन्नास के पत्तों पर एरंड तेल चुपड़कर कुछ गर्म करें और सूजन पर बांध दें। इससे सूजन विशेषकर पैरों की सूजन तुरंत दूर हो जाती है।
*अनन्नास का रस पीने से 7 दिनों में ही शारीरिक सूजन नष्ट होती है।"

8 शक्तिवर्द्धक:-अनन्नास घबराहट को दूर करता है। प्यास कम करता है, शरीर को पुष्ट करता है और तरावट देता है। खांसी-जुकाम नहीं करता। दिल और दिमाग को ताकत देता है। अनन्नास का रस पीने से शरीर के अस्वस्थ अंग स्वस्थ हो जाते हैं। गर्मियों में अनन्नास का शर्बत पीने से तरी, ताजगी और ठंडक मिलती है, प्यास बुझती है, पेट की गर्मी शांत होती है, पेशाब खुलकर आता है पथरी में इसीलिए यह लाभकारी है।

9 फुन्सियां:-अनन्नास का गूदा फुन्सियों पर लगाने से लाभ होता है।

10 मोटापा होने पर:-प्रतिदिन अनन्नास खाने से स्थूलता नष्ट होती है, क्योंकि अनन्नास वसा (चर्बी) को नष्ट करता है।

11 अम्लपित्त की विकृति:-अनन्नास को छीलकर बारीक-बारीक टुकड़े करके, उनपर कालीमिर्च का चूर्ण डालकर खाने से अम्लपित्त की विकृति नष्ट होती है।

12 खून की कमी (रक्ताल्पता):-यदि शरीर में खून की कमी हो तो अनन्नास खाने व रस पीने से बहुत लाभ होता है। अनन्नास से रक्तवृद्धि होती है और पाचन क्रिया तीव्र होने से अधिक भूख लगती है।

13 बच्चों के पेट में कीडे़ होने पर:-कुछ दिनों तक सुबह-शाम अनन्नास का रस पिलाएं। इससे कीडे़ शीघ्र नष्ट होते हैं

14 गुर्दे की पथरी:-अनन्नास खाने व रस पीने से बहुत लाभ होता है।

15 आंतों से अम्लता का निष्कासन:-अनन्नास के रस में अदरक का रस और शहद मिलाकर सेवन करने से आंतों से अम्लता का निष्कासन होता है।

16 स्मरणशक्ति:-अनन्नास के रस के सेवन से स्मरणशक्ति विकसित होती है।

17 खांसी एवं श्वास रोग:-*श्वास रोग में अनन्नास फल के रस में छोटी कटेरी की जड़, आंवला और जीरा का समभाग चूर्ण बनाकर शहद के साथ सेवन करें।
*पके अनन्नास के 10 ग्राम रस में पीपल मूल, सोंठ और बहेड़े का चूर्ण 2-2 ग्राम तथा भुना हुआ सुहागा व शहद मिलाकर सेवन करने से खांसी एवं श्वास रोग में लाभ होता है।
*अनन्नास के रस में मुलेठी, बहेड़ा और मिश्री मिलाकर सेवन करने से लाभ होता है।"

18 मधुमेह (शूगर):-अनन्नास मधुमेह में बहुत लाभकारी है। अनन्नास के 100 ग्राम रस में तिल, हरड़, बहेड़ा, आंवला, गोखरू और जामुन के बीजों का चूर्ण 10-10 ग्राम मिला दें। सूखने पर पाउडर बनाकर रखें। इस चूर्ण को सुबह-शाम तीन ग्राम की मात्रा में सेवन करने से बहुमूत्ररोग तथा मधुमेह ठीक हो जाता है। भोजन में दूध व चावल लेना चाहिए तथा लालमिर्च, खटाई और नमक से परहेज रखना चाहिए।

19 उदर (पेट) रोग में:-*पके अनन्नास के 10 ग्राम रस में भुनी हुई हींग लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग, सेंधानमक और अदरक का रस लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग मिलाकर सुबह-शाम सेवन करने से उदर शूल और गुल्म रोग में लाभ होता है।
*अनन्नास के रस में यवक्षार, पीपल और हल्दी का चूर्ण लगभग 1 ग्राम का चौथा भाग मिलाकर सेवन करने से प्लीहा, पेट के रोग और वायुगोला 7 दिनों में नष्ट हो जाता है।
*अनन्नास के रस में, रस से आधी मात्रा में गुड़ मिलाकर सेवन करने से पेट एवं बस्तिप्रदेश (नाभि के नीचे के भाग) में स्थित वातरोग नष्ट होता है। पेट में यदि बाल चला गया हो तो, अनन्नास के खाने से वह गल जाता है।"

20 जलोदर (पेट में पानी की अधिकता) होना:-अनन्नास के पत्तों के काढ़े में बहेड़ा और छोटी हरड़ का चूर्ण मिलाकर देने से दस्त और मूत्र साफ होकर, जलोदर में आराम होता है।

रविवार, 26 अगस्त 2012

क्यों वितरित करते हैं प्रसाद

क्यों वितरित करते हैं प्रसाद
============================

नित्य पूजा के समय मिश्री या दूध-शक्कर का अर्पित नैवेद्य वहां उपस्थित लोगों को दें एवं खुद भी ग्रहण करें। यह प्रसाद अकेले भी ले सकते हैं। महानैवेद्य का प्रसाद घर के सभी लोग बांटकर ग्रहण करें। पूजा के समय सूजी का मीठा पदार्थ, पेडे तथा मोदक आदि का प्रसाद निमंत्रित लोगों में वितरित करें। वैयक्तिक नित्य पूजा के प्रसाद के अतिरिक्त अन्य नैमित्तिक पूजा का प्रसद अपने आप न लें। जब कोई दूसरा व्यक्ति प्रसाद दे तभी ग्रहण करें। नैमित्तिक पूजा का प्रसाद गुरूजी को दें। गुरूजी प्रसाद ग्रहण करके हाथ धो-पोंछकर सबको प्रसाद दें। प्रसाद सेवन करते समय निम्नवत मंत्र पढें- बहुजन्मार्जित यन्मे देहेùस्ति दुरितंहितत्। प्रसाद भक्षणात्सर्वलयं याति जगत्पते (देवता का नाम) प्रसादं गृहीत्वा भक्तिभावत:। सर्वान्कामान वाप्नोति प्रेत्य सायुज्यमाप्नुयात्।। प्रसाद ग्रहण करने के बाद हाथ को जल से धोएं। नैवेद्य अर्पण की विधि क्या हैक् षोडशोपचार पूजा में शुरू के नौ उपचारों के बाद गंध, फूल, धूप, दीप और नैवेद्य की उपचारमालिका होती है। नैवेद्य अर्पण करने की शास्त्रोक्त विधि का ज्ञान न होने से कुछ लोग नैवेद्य की थाली भगवान के सामने रखकर दोनों हाथों से अपनी आंखें बंद कर लेते हैं जबकि कुछ लोग नाक दबाते हैं। कुछ व्यक्ति तुलसीपत्र से बार-बार सिंचन करके और कुछ लोग अक्षत चढ़ाकर भोग लगाते हैं। इसी प्रकार कुछ मनुष्य तथा पुजारी आदि भगवान को नैवेद्य का ग्रास दिखाकर थोडा-बहुत औचित्य दिखाते हैं। नैवेद्य अपैण करने की शास्त्रीय विधि यह है कि उसे थाली में परोसकर उस अन्न पर घी परोसें। एक-दो तुलसीपत्र छोडें। नैवेद्य की परोसी हुई थाली पर दूसरी थाली ढक दें। भगवान के सामने जल से एक चौकोर दायरा बनाएं। उस पर नैवेद्य की थाली रखें। बाएं हाथ से दो चम्मच जल लेकर प्रदक्षिणाकार सींचें। जल सींचते हुए सत्यं त्वर्तेन परिसिंचामि मंत्र बोलें। फिर एक चम्मच जल थाली में छो़डें तथा अमृतोपस्तरणमसि बोलेें। उसके बाद बाएं हाथ से नैवेद्य की थाली का ढक्कन हटाएं और दाएं हाथ से नैवेद्य परोसें। अन्न पदार्थ के ग्राम मनोमन से दिखाएं। दुग्धपान के समय जिस तरह की ममता मां अपने बच्चो को देती है, उसी तरह की भावना उस समय मन में होनी चाहिए। ग्रास दिखाते समय प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा, समानाय स्वाहा, ब्रrाणे स्वाहा मंत्र बोलें। यदि हो सके तो नीचे दी गई ग्रास मुद्राएं दिखाएं- प्राणमुद्रा-तर्जनी, मध्यमा, अंगुष्ठ द्वारा। अपानमुद्रा-मध्यमा, अनामिका, अंगुष्ठ द्वारा। व्यानमुद्रा-अनामिका, कनिष्ठिका, अंगुष्ठ द्वारा। उदानमुद्रा-मध्यमा, कनिष्ठिका, अंगुष्ठ द्वारा। समानमुद्रा-तर्जनी, अनामिका, अंगुष्ठ द्वारा ब्रrामुद्रा-सभी पांचों उंगलियों द्वारा। नैवेद्य अर्पण करने के बाद प्राशनार्थे पानीयं समर्पयामि मंत्र बोलकर एक चम्मच जल भगवान को दिखाकर थाली में छोडें। ऎसे समय एक गिलास पानी में इलायची पाउडर डालकर भगवान के सम्मुख रखने की भी परंपरा कई स्थानों पर है। फिर उपर्युक्ततानुसार छह ग्रास दिखाएं। आखिर में चार चम्मच पानी थाली में छोडें। जल को छोडते वक्त अमृतापिधानमसि, हस्तप्रक्षालनं समर्पयामि, मुखप्रक्षालनं समर्पयामि तथा आचमनीयं समर्पयामि-ये चार मंत्र बोलें। फूलों को इत्र लगाकर करोद्वर्तनं समर्पयामि बोलकर भगवान को चढाएं। यदि इत्र न हो तो करोर्द्वर्तनार्थे चंदनं समर्पयामि कहकर फूल को गंधलेपन करके अर्पण करें। नैवेद्य अर्पण करने के बाद वह थाली लेकर रसाईघर में जाएं। बाद में फल, पान का बीडा एवं दक्षिणा रखकर महानीरांजन यानी महार्तिक्य करें। कितने प्रकार के होते हैं क् देवता की नित्य पूजा का समय सामान्यत: प्रात:कालीन प्रथम प्रहर होता है। यदि इस वक्त रसोई हो गई हो तो दाल, चावल एवं तरकारी आदि अन्न पदार्थो का "महानैवेद्य" अर्पण करने में कोई हर्ज नहीं है। किन्तु यदि पूरी रसोई पूजा के समय तैयार न हो तो चावल में घी-शक्कर मिलाकर या केवल चावल, घी-शक्कर चपाती, परांठा, तरकारी तथा पेडे का नैवेद्य दिखाएं। यह नैवेद्य अकेला पूजा करने वाला स्वयं भक्षण करे। यदि संभव हो तो प्रसाद के रूप में सबको बांटे। नैमित्तिक व्रज पूजा के समय अर्पित किया जाने वाला नैवेद्य "प्रसाद नैवेद्य" कहलाता है। यह नैवेद्य सूजी एवं मोदक आदि पदार्थो का बनता है। नैमित्तिक महापूजा के समय संजीवक नैवेद्य के छोटे-छोटे ग्रास बनाकर उपस्थित मित्रों तथा परिजनों को प्रसाद के रूप में वितरित करें। अन्न पदार्थो का महानैवेद्य भी थोडा-थोडा प्रसाद के रूप में ग्रहण करें। कुछ वैष्णव सभी अन्न पदार्थो का नैवेद्य अर्पण करते हैं परन्तु यह केवल श्रद्धा का विषय है। वैसे तो भगवान को भी एक थाली में नैवेद्य परोसकर अर्पण करना उचित होता है। कुछ क्षेत्रों में घर के अलग-अलग स्थानों पर स्थित देवी-देवताओं को पृथक-पृथक नैवेद्य परोसकर अर्पण किया जाता है। यदि घर के पूजा स्थान में स्थापित देवी-देवता-गणपति, गौरी एवं जिवंतिका आदि सभी एक जगह हों तो एक ही थाली से नैवेद्य अर्पण करना सुविधाजनक होता है। परन्तु यदि नित्य के देवी-देवताओं के अलावा गौरी-गणपति आदि नैमित्तिक देव और यज्ञादि कर्म के प्रासंगिक देवी-देवता पृथक स्थानों पर स्थापित हों तो उनको अलग-अलग नैवेद्य अर्पण करने की प्रथा है। यदि एक थाली में परोसे गए खाद्य पदार्थो का भोग अलग-अलग देवी-देवताओं को चढाया जाए तो भी आपत्ति की कोई बात नहीं है। ऎसे में नैवेद्य अर्पण करते समय अंशत: का उच्चाारण करें। घर में अलग-अलग स्थानों पर स्थापित देवी-देवता एक ही परमात्मा के विभिन्न रूप हैं। इस कारण एक ही महानैवेद्य कई बार अंशत: चढाया जाना शास्त्र सम्मत है। इस विधान के अनुसार बडे-बडे मंदिरों में एक ही थाली में महानैवेद्य परोसकर अंशत: सभी देवी-देवताओं, उपदेवता, गौण देवता एवं मुख्य देवता को अर्पण किया जाता है। कई परिवारों में वाडी भरने की प्रथा है। वाडी का मतलब है-सभी देवताओं को उद्देश्य करके नैवेद्य निकालकर रखना तथा उनके नामों का उच्चाारण करके संकल्प करना। संकल्प के उपरांत वाडी के नैवेद्य संबंधित देवी-देवताओं को स्वयं चढाए जाते हैं। कई बार संबंधित देवताओं के पुजारी, गोंधली, भोपे या गुरव आदि घर आकर नैवेद्य ले जाते हैं। भगवान भैरव का नैवेद्य विशिष्ट पात्र में दिया जाता है। इसे पत्तल भरना भी कहा जाता है। वाडी में कुलदेवता, ग्रामदेवता, स्थान देवता, मुंजा मूलपुरूष, महाुपरूष, देवचार, ब्राrाण, सती, नागोबा, वेतोबा, पुरवत तथा गाय आदि अनेक देवताओं का समावेश होता है। नैवेद्य को ढंकना सही या गलतक् कुछ मंदिरों में चढाया गया नैवेद्य वैसे ही ढककर रख दिया जाता है और दोपहर के बाद निकाल लिया जाता है। इसी प्रकार घर में ज्येष्ठा गौरी के समय नैवेद्य दिखाई थालियां ढककर रख दी जाती हैं तथा दूसरे दिन उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। ये बातें पूर्णरूपेण शास्त्र के विरूद्ध हैं। व्यवहार में भी भोजन के बाद थालियां हटाकर वह जगह साफ की जाती है। भगवान को भोग लगाने के बाद उसे वैसे ही ढककर रखना अज्ञानमूलक श्रद्धा का द्योतक है। कई बडे क्षेत्रों या तीर्थ स्थानों में पत्थर की मूर्ति के मुंह में पेडा या गुड आदि पदार्थ चिपकाएं जाते हैं। यह भी शास्त्र के विरूद्ध है। ये चीजें नैवेद्य नहीं हो सकती। नैवेद्य को अपैण करना होता है। इस रूढि के कारण पत्थर की मूर्ति को नुकसान पहुंचता है। अनेक लोगों के बाहु स्पर्श से ये चीजें त्याज्य हो जाती हैं। उनका भक्षण करने से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचने की संभावना रहती है। घर के नयिमित देवी-देवताओं के अलावा नैथ्मत्तिक व्रत प्रसंगों के अवसर पर अन्य देवी-देवताओं की स्थापना अलग-अलग की जाती है। उदाहरण के लिए सत्यनारायण, गणपति, जिवंतिका, चैत्रा गौरी, ज्येष्ठा गौरी तथा गुढी आदि देवी-देवताओं को पूजा स्थान में दूसरी जगह स्थापित किया जाता है। सभी देवी-देवताओं को महानैवेद्य अर्पण करने के पश्चात कुछ लोग महारती (महार्तिक्य) करते समय अलग-अलग आरतियां बोलते हैं परन्तु ऎसी आवश्यकता नहीं होती। महानैवेद्य चढाने के बाद पूजा स्थान में रखे देवी-देवताओं के अलावा अन्य देवताओं की एक साथ आरती करें, यह शास्त्र सम्मत नियम है। प्रत्येक देवता के लिए अलग-अलग आरती बोलना शास्त्र के विरूद्ध है।

भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी

वीरा रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी ...(२)
ए भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
भई रे एक माता रे पुत्तर चार, चारों री करणी न्यारी न्यारी
भई रे पहलों राजा रे दरबार दुजोडो हीरा पारखी
भई रे ए ए तीजो बंजारा रा री हाट, चोथोडो फेरे पुळिया ... (२)
भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
भई रे एक माटी रा बर्तन चार, चारों री करणी न्यारी न्यारी ... (२)
भई रे पहला में दहिडो विलोय, दुजो जल जमना गयो... (२)
भई रे तीजो पनिहार्याँ री शीष, चोथोडो बीजम पाणियों ... (२)
भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
भई रे एक गौ रे बछडा चार, चारों री करणी न्यारी न्यारी ... (२)
भई रे पहलों सूरज जी रो सांड, दुजोडो शिव रो नंदियो ... (२)
भई रे तीजो घाणी वाळो बेल, चोथो बिणजारे नादियों ... (२)
भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
भई रे एक वेल रे तुम्बा चार, चारों री करणी न्यारी न्यारी ... (२)
भई रे पहलों सतगुरु जी रे हाथ, दुजो जळ जमना में बह्यो ... (२)
भई रे तीजो तम्बूरा री बिन, चोथोडो भिक्षा मांग रह्यो ... (२)
भई रे कह गया दास कबीर कर्मों रा भरा न्यारा न्यारा ... (२)
भई रे मत दईजो मावलडी ने दोष कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी
कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी, कर्मों री रेखा न्यारी न्यारी

function disabled

Old Post from Sanwariya