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शनिवार, 21 अगस्त 2021

आजकल माताये बहने फैशन के चलते कैसा अनर्थ कर रही है पुरा पढें


 🕉️ स्त्रियों के बाल सुंदरता और सौभाग्य का प्रतीक वही खुले बाल , शोक और अशुद्दि की निशानी

यत्र नार्येषु पूजतः रमन्ते तत्र देवताः

आजकल माताये बहने फैशन के चलते कैसा अनर्थ कर रही है पुरा पढें
     
रामायण में बताया गया है, जब देवी सीता का श्रीराम से विवाह होने वाला था, उस समय उनकी माता सुनयना ने उनके बाल बांधते हुए उनसे कहा था, विवाह उपरांत सदा अपने केश बांध कर रखना।

बंधे हुए लंबे बाल आभूषण सिंगार होने के साथ साथ संस्कार व मर्यादा में रहना सिखाते हैं।

ये सौभाग्य की निशानी है ,  
एकांत में केवळ अपने पति के लिए इन्हें खोलना।

हजारो लाखो वर्ष पूर्व हमारे ऋषि मुनियो ने शोध कर यह अनुभव किया कि सिर के काले बाल को पिरामिड नुमा बनाकर सिर के उपरी ओर या शिखा के उपर रखने से वह सूर्य से निकली किरणो को अवशोषित  करके शरीर को ऊर्जा प्रदान करते है। जिससे चेहरे की आभा चमकदार , शरीर सुडौल व बलवान होता है।

यही कारण है कि गुरुनानक देव व अन्य सिक्ख गुरूओ ने बाल रक्षा के असाधारण महत्त्व को समझकर धर्म का एक अंग ही बना लिया। लेकिन वे कभी भी बाल को खोलकर नही रखे ,

ऋषी मुनियो व साध्वीयो ने हमेशा बाल को बांध कर ही रखा। भारतीय आचार्यो ने बाल रक्षा का प्रयोग , साधना काल में ही किया इसलिय आज भी किसी लंबे अनुष्ठान , नवरात्री पर्व , श्रावण मास , तथा श्राद्ध पर्व आदि में नियम पूर्वक बाल रक्षा कर शक्ति अर्जन किया जाता है।

महिलाओं के लिए केश सवांरना अत्यंत आवश्यक है उलझे एवं बिखरे हुए बाळ अमंगलकारी कहे गए है। -  कैकेई का कोपभवन में बिखरे बालों में रुदन करना और अयोध्या का अमंगल होना।

पति से वियुक्त तथा शोक में डुबी हुई स्त्री ही बाल खुले रखती है --- जैसे अशोक वाटिका में सीता

रजस्वला स्त्री , खुले बाल रखती है ,जैसे ---
चीर हरण से पूर्व द्रोपदी , उस वक्त द्रोपदी रजस्वला थी ,जब दुःशासन खींचकर लाया
तब द्रोपदी ने प्रतीज्ञा की थी कि-- मैं अपने बाल तब बाँधुंगी जब दुःसासन के रक्त से धोऊँगी ---

जब रावण देवी सीता का हरण करता है तो उन्हें केशों से पकड़ कर अपने पुष्पक विमान में ले जाता है।  अत: उसका और उसके वंश का नाश हो गया।

महाभारत युद्ध से पूर्व कौरवों ने द्रौपदी के बालों पर हाथ डाला था, उनका कोई भी अंश जीवित न रहा।

कंस ने देवकी की आठवीं संतान को जब बालों से पटक कर मारना चाहा तो वह उसके हाथों से निकल कर महामाया के रूप में अवतरित हुई।

कंस ने भी अबला के बालों पर हाथ डाला तो उसके भी संपूर्ण राज-कुल का नाश हो गया।।

सौभाग्यवती स्त्री के बालों  को सम्मान की निशानी कही गयी है।
दक्षिण भारतीय की कुछ महिलाएं मनन्त - संकल्प आदि के चलते बाळा जी  में केश मुंडन करवा लेती हैं ।

लेकिन भारत के अन्य क्षेत्रो में ऐसी कोई प्रथा नहीं है । कोई महिला जब विधवा हो जाती हैं तभी उनके बाल छोटे करवा दिए जाते हैं। या जो विधवा महिलाये  अपने पति के अस्थि विसर्जन को तीर्थ जाती है। वे ही बाल मुंडन करवाती है अर्थात विधवा ही मुण्डन करवाती हैं , सौभाग्यवती नहीं।

गरुड पुराण के अनुसार बालों में काम का वास रहता है |  बालों का बार बार स्पर्श करना दोष कारक बताया गया है। क्योकि बालों को अशुध्दी माना गया है इसलिय कोई भी जप अनुष्ठान ,चूड़ाकरण , यज्ञोपवीत, आदि-२ शुभाशुभ कृत्यों में क्षौर कर्म कराया जाता है  तथा शिखाबन्धन कर पश्चात हस्त प्रक्षालन कर शुद्ध किया जाता है।

दैनिक दिनचर्या में भी स्नान पश्चात बालों में तेल लगाने के बाद उसी हाथ से शरीर के किसी भी अंग में तेल न लगाएं हाथों को धो लें।

भोजन आदि में बाल आ जाय तो उस भोजन को ही हटा दिया जाता है।

 मुण्डन या बाळ कटाने के बाद शुद्ध स्नान आवश्यक बताया गया है। बडे यज्ञ अनुष्ठान आदि में मुंडन तथा हर शुद्धिकर्म में सभी बालो (शिरस्, मुख और कक्ष) के मुण्डन का विधान हैं ।

बालों के द्वारा बहुत सा तन्त्र क्रिया होती है जैसे वशीकरण यदि कोई स्त्री खुले बाल करके निर्जन स्थान या... ऐसा स्थान जहाँ पर किसी की अकाल मृत्यु हुई है.. ऐसे स्थान से गुजरती है तो अवश्य ही प्रेत बाधा का योग बन जायेगा.।।

वर्तमान समय में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से महिलाये खुले बाल करके रहना चाहते हैं, और जब बाल खुले होगें तो आचरण भी स्वछंद ही होगा।भारतीय महिलाओ में भी इस फैशन रुपी कुप्रथा का प्रवाह शुरु हो चुका है।

अनेक वैज्ञानिको  जैसे इंग्लैंड के डॉ स्टैनले हैल , अमेरिका के स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ गिलार्ड थॉमस आदि ने पश्चिम देश के महिलाओ  की बडी संख्या पर निरीक्षण के आधार पर लिखा कि केवल 4 प्रतिशत महिलाय ही शारीरिक रूप से पत्नी व माँ बनने के योग्य है शेष 96 प्रतिशत स्त्रिया , बाल कटाने के कारण पुरुष भाव को ग्रहण कर लेने के कारण माँ बनने के लिये अयोग्य है  

हिन्दू ऋषियों द्वारा किये वैज्ञानिक आविष्कार


 हिन्दू ऋषियों द्वारा किये वैज्ञानिक आविष्कार

हिन्दू धर्म कितना पुराना हैं ये तो किसी को भी ज्ञात नहीं पर यह ज़रूर कहा जाता हैं कि सबसे सनातन धर्म हैं और कई सदियों से चले आ रहे इस धर्म को मानने वाले कई ऐसे व्यकित भी हुए जिन्हें हम ऋषि-मुनि कहते हैं ।
आज की ज़ुबान में इन ऋषि-मुनियों को वैज्ञानिक कहा जाता हैं ।

इन ऋषियों के द्वारा पुरातन काल में कई ऐसे अविष्कार हुए जो दुनिया में पहले किसी ने नहीं किये ।

आज हम ऐसे ही हिन्दू ऋषियों द्वारा किये वैज्ञानिक अविष्कार के बारे में बात करेंगे ।

1. ऋषि पतंजलि-

हम सब ने पतंजलि का नाम ज़रूर सुना हैं । बाबा रामदेव द्वारा चलाई जाने वाली एक योग संस्था जो कि हरिद्वार में स्थित हैं । लेकिन ये पतंजलि वह संस्था नही बल्कि ऋषि पतंजलि हैं जिन्होंने ने “योगशास्त्र” लिखा था । आज पुरे विश्व में जिस योग की क्रांति हुई है, वह ऋषि पतंजलि का ही अविष्कार हैं ।

2. आचार्य चरक-

आचार्य चरक के द्वारा ही “चरकसंहिता” लिखी गयी थी । चरक संहिता को “आयुर्वेदग्रन्थ” के नाम से भी जाना जाता हैं ।

3. महर्षि सुश्रुत-

महर्षि सुश्रुत को शल्यचिकित्सा का आविष्कारक माना जाता हैं । शल्य चिकित्सा को सर्जरी भी कहा जाता हैं । महर्षि सुश्रुत द्वारा लिखे गए “सुश्रुतसंहिता” में उन्होंने करीब 300 तरह की शल्य क्रिया का उल्लेख किया हैं । उनके द्वारा ही सर्जरी में इस्तेमाल होने वाले उपकरण और उन के उपयोग की विधि महर्षि सुश्रुत द्वारा ही लिखी गयी थी ।

4. आचार्य कणाद-

आचार्य कणाद को “परमाणुशास्त्र” का रचयिता माना जाता हैं । इनके द्वारा ये पता लगाया गया था कि द्रव्य यानि लिक्विड के भी परमाणु होते हैं ।

5. आचार्य विश्वामित्र-

वैसे तो आचार्य विश्वामित्र अपने मेनका प्रसंग के लिय बहुचर्चित हैं पर इनके द्वारा प्रक्षेपात्र यानि मिसाइल का अविष्कार किया गया था । आचार्य विश्वामित्र ने यह विद्या भगवान् शिव से प्राप्त की थी ।

6. आचार्य भारद्वाज-

हवाई जहाज के अविष्कार की बात जब भी हो तो राईट बंधू का नाम लिया जाता हैं । लेकिन विमान निर्माण के पीछे के पूरी खोज आचार्य भारद्वाज द्वारा लिखे गए “विमानशास्त्र” में कई सदी पहले ही कर दी गयी थी ।

7. गर्ग मुनि-

जब ग्रह-नक्षत्रों की बात आती हैं तो हम ज्योतिषियों के पास जाते हैं पर इस पूरी विद्या के पीछे गर्ग मुनि द्वारा लिखे गए नक्क्षत्र विद्या का शास्त्र हैं । जिसे स्वयं गर्ग मुनि ने लिखा था ।

8. भास्कराचार्य-

आप ने “सिद्धांत शिरोमणि” सुना हैं? शायद ही सुना होगा । लेकिन गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत ज़रूर सुना होगा जिसे न्यूटन के सिद्धांत के नाम से ज्यादा जाना जाता हैं । लेकिन “सिद्धांत शिरोमणि” में भास्कराचार्य ने पहले ही इस सिद्धांत की व्याख्या कर दी थी जिसमें कहा गया था कि “आकाश से प्रथ्वी की ओर आने वाली कोई भी वस्तु गुरुत्वाकर्षण के कारण नीचे ही आएगी” इस सिद्धांत को स्वयं आचार्य ने लिखा था ।

9. बौद्ध्यन ऋषि-

बौद्ध्यन ऋषि ने त्रिकोणमिति का सिद्धांत का अविष्कार किया था । जिसे आज पईथागोरस प्रमेय के नाम से ज्यादा जाना जाता हैं ।

10. आचार्य चाणक्य-

चाणक्य को हम सभी अखंड भारत के रचियता के रूप में पहले से जानते हैं लेकिन आज हम जिस ‘अर्थशास्त्र” को पढ़ते हैं उसकी रचना स्वयं आचार्य चाणक्य ने की ।

हम WhatsApp पर बिना किसी का नंबर सेव कर के भी मैसेज कर सकते हैं

 

हम WhatsApp पर बिना किसी का नंबर सेव कर के भी मैसेज कर सकते हैं

हां बिल्कुल कर सकते हैं मैं जो लिंक दे रहा हूं इस लिंक में मेरा मोबाइल नंबर हटाके उसका नंबर डाल दो जिससे चैट करनी है। बिना सेव किए ही ये नंबर तुम्हें उस व्हाट्सएप पर ले जायेगा:

https://wa.me/message/MGAXBXAZ7MHOG1

कैसे पता करें कि मोबाइल सर्विलांस पर लगा है?

आज के युग में सर्विलांस की इतनी नई नई तकनीक आ गई है के पता करना मुश्किल हो जाता है लेकिन फिर भी कुछ सामान्य से लक्षण है जो सर्विलांस को बता देते है।

1 मोबाइल की बैटरी : सर्विलांस करने वाली अप्लिकेशन को बहुत मेहनत करनी पड़ती है और इस वजह से वो बैटरी भी बहुत प्रयोग करती है। अगर आपको ऐसा लगे के अचानक आपका मोबाइल जल्दी डिस्चार्ज होने लगा है तो समझ जाइए के कोई अप्लिकेशन अपना काम अंजाम दे रही है।

2 मोबाइल डाटा : जैसा की मोबाइल की बैटरी के साथ होता है वैसा ही डाटा के साथ होता है और सर्विलांस वाली एप्लीकेशन डाटा का प्रयोग बहुत ज्यादा करती है इसलिए अपने मोबाइल में डाटा मीटर इंस्टाल करे जो आपकी खपत के बारे में जानकारी देगा।

3 फोन का अजीब व्यवहार करना : जब भी ऐसी कोई अप्लिकेशन चलेगी तो उसकी वजह से बाकी अपलिकेधन को चलने में समस्या होगी इसलिए फोन अजीब तरह से काम करने लगेगा और हल्का हल्का से लेग मिलेगा जिससे समझ जाना चाहिए के कुछ गडबड है।

क्या ब्लूटूथ इयरफ़ोन हमारी जान ले सकते हैं?

जी हाँ|

ब्लूटूथ हेडफोन के कान में फटने से जयपुर के व्यक्ति की मौत: पुलिस

ब्लूटूथ हेडफ़ोन विस्फोट: जयपुर जिले के निवासी राकेश कुमार नागर "अपने ब्लूटूथ हेडफ़ोन डिवाइस का उपयोग कर रहे थे, जबकि इसे एक विद्युत आउटलेट में प्लग किया गया था,"। अस्पताल में उसकी चोटों से मौत हो गई|

चार्ज होने के दौरान उसके कानों में ब्लूटूथ हेडफोन फटने से एक व्यक्ति की मौत हो गई (प्रतिनिधि)

जयपुर: जयपुर पुलिस ने आज कहा कि एक 28 वर्षीय व्यक्ति की मौत हो गई, जब उसका ब्लूटूथ हेडफोन डिवाइस उसके कानों में विस्फोट हो गया, जब वह अपनी पढ़ाई के लिए उनका इस्तेमाल कर रहा था, जयपुर पुलिस ने आज कहा।

पुलिस ने बताया कि घटना जयपुर जिले के चोमू कस्बे के उदयपुरिया गांव में शुक्रवार को हुई जब राकेश कुमार नागर अपने आवास पर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे।

पुलिस ने समाचार एजेंसी प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया को बताया, "वह अपने ब्लूटूथ हेडफ़ोन डिवाइस का उपयोग कर रहा था, जबकि इसे बिजली के आउटलेट में प्लग किया गया था।"

अचानक उसके कान में उपकरण फट गया जिससे वह बेहोश हो गया। उन्हें एक निजी अस्पताल ले जाया गया जहां इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई, उन्होंने कहा कि उनके दोनों कानों में गंभीर चोटें आई हैं।

सिद्धिविनायक अस्पताल के डॉक्टर एलएन रुंडला ने कहा कि व्यक्ति को बेहोशी की हालत में अस्पताल लाया गया था। अस्पताल में इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई, डॉ रुंडला ने पुष्टि की।

शनि की कष्टकारी साढ़े साती का अचूक उपाय

शनि की कष्टकारी साढ़े साती का अचूक उपाय क्या है?

जब शनि साढ़ेसाती या ढैय्या शारीरिक मानसिक कष्टदायक हो रही हो तो निम्नवत अचूक उपायो से तत्काल राहत मिलेगी जो कि अपनाने मे अत्यन्त सरल है -


● शनि की शाडेसाती के कष्ट शान्ति हेतु अचूक उपाय शनिवार को शनि के होरा मे पंचामृत( दूध, दही , घी , शहद , मीठा ) मे काले तिल मिलाकर भोलेनाथ को अर्पित करे और उनसे कष्ट मुक्ति की प्रार्थना करे निश्चित लाभ मिलेगा ।

● शनिवार को किसी बूढे व्यक्ति को तली हुई ( तैल युक्त) खाद्य पदार्थ भोजन दान करे शनिदेव की अवश्य कृपा प्राप्त होगी ।

● शनिदेव अत्याधिक कष्टदायी हो रहे हो तो सरसो के तेल मे अपना चेहरा देखकर ( छाया दान) किसी जरूरतमंद को दान करने से शनिदेव की विशेष अनुकम्पा प्राप्त होती है सिद्ध प्रयोग है ।

● किसी विकलांग विशेष रूप से ( लंगड़े ) किसी सज्जन को काले रंग के वस्त्र , काला कम्बल, काले रंग के ऊनी कपडे दान शनिवार को करने से शनिदेव अति प्रसन्न होकर दया द्रष्टि प्रदान करते है ।

● शनिवार को किसी गरीब बूढे व्यक्ति को चरण पादुका ( जूता ,चप्पल ) प्रदान करने से शनिदेव की विशेष कृपा प्राप्त होती है ।

● किसी जरूरतमंद को काले उडद , काले तिल, सरसो का तेल, काले फल , काले रंग की वस्तुऐ प्रदान करने से शनि पीड़ा से तत्काल राहत मिलती है ।

शनिदेव के निमित्त दान शनिवार को , शनि के होरा मे , शनि के नक्षत्र मे , मध्यान्ह काल मे करने से शीघ्रता से विशेष प्रभावी लाभ की प्राप्ति होती है ।


इमेज स्रोत गूगल

हनुमानजी को धतूरे की माला क्यों पहनाते हैं?

 हनुमानजी को धतूरे की माला क्यों पहनाते हैं?


जय श्री राम 🙏

हनुमान जी को धतूरा नही चढ़ाते , मदार का पत्ता और फूल अर्पण किया जाता है।

देवता को जो वस्तु भाती है, वही उन्हें पूजा में अर्पण की जाती है । उदाहरण के रूप में गणपति को लाल फूल, शिवजी को बेल, विष्णु को तुलसी इत्यादि । वास्तव में उच्च देवताओं की रुचि-अरुचि नहीं होती । विशिष्ट वस्तु अर्पण करने के पीछे अध्यात्मशास्त्रीय कारण होता है । पूजा का उद्देश्य है, मूर्ति में चैतन्य निर्माण होकर पूजक को उसका लाभ हो । यह चैतन्य निर्माण होने के लिए विशिष्ट देवता को विशिष्ट वस्तु अर्पित की जाती है, जैसे हनुमानजी को तेल, सिंदूर एवं मदार के फूल तथा पत्ते । इन वस्तुओं में हनुमानजी के महालोकतक के देवता के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण, जिन्हें पवित्रक कहते हैं, उन्हें आकृष्ट करने की क्षमता होती है । अन्य वस्तुओं में ये पवित्रक आकृष्ट करने की क्षमता अल्प होती है । इसी कारण हनुमानजी को तेल, सिंदूर एवं मदार के पुष्प-पत्र इत्यादि अर्पण करते हैं ।

इसके संबंधित एक कथा बहुत प्रचलित है। एक दिन मां सीता अपनी मांग में सिंदूर भर रही थीं । यह देखकर हनुमानजी ने उनसे पूछा, ‘सीतामैय्या, आप प्रतिदिन यह सिंदूर क्यों लगाती हैं ? तब सीताजी ने बताया, ‘इससे आपके स्वामी श्रीरामजी की आयु बढती है । इसलिए मैं यह सिंदूर लगाती हूं ।’ यह सुनने के बाद हनुमानजी को लगा कि, केवल मांग में सिंदूर भरने से श्रीरामजी की आयु बढती हैं, तो मैं अपने पूर्ण शरीरपर सिंदूर लगाऊंगा । फिर हनुमानजी ने अपने संपूर्ण शरीरपर सिंदूर लगा लिया । उसी समय से हनुमानजी का रंग सिंदूरी हो गया ।

२. हनुमानजी की पूजा में प्रयुक्त मदार के पत्ते का सूक्ष्म-चित्र


ब्रह्मांड-मंडल से चैतन्य का प्रवाह पत्ते की ओर आकृष्ट होता है । इस के कारण मदार के पत्ते में चैतन्य का वलय निर्माण होता है । इस चैतन्य के वलयद्वारा पत्ते में चैतन्य के प्रवाह प्रक्षेपित होते हैं । मदार के पत्ते में हनुमानतत्त्व आकृष्ट करने की क्षमता अधिक होती है, इसलिए हनुमानतत्त्व-स्वरूप शक्ति का प्रवाह ब्रह्मांड-मंडल से मदार के पत्ते में आकृष्ट होता है । इसके कारण पत्ते में हनुमानतत्त्व-स्वरूप शक्ति का वलय निर्माण होता है । इस वलय से कार्यरत शक्ति के वलय निर्माण होते हैं । शक्ति के वलय से पत्ते के हरितद्रव्य अर्थात chlorophyll में शक्ति के कण संग्रहित होते हैं । पत्ते के डंठल के निकट भाग में डंठल से प्रवाहित शक्ति का वलय निर्माण होता है । पत्ते की शिराओं में शक्ति तरंगें प्रवाहित होती हैं । मदार के पत्ते में तारक शक्ति के वलय कार्यरत रूप में घूमते रहते हैं । मदार के पत्ते के चारों ओर हनुमानतत्त्व का कवच निर्माण होता है । इस सूक्ष्म-चित्रद्वारा आपको यह स्पष्ट हुआ होगा कि, मदार के पत्ते की ओर हनुमानजी की तत्त्वतरंगें किस प्रकार आकृष्ट होती हैं, एवं किस प्रकार मदारपत्र के माध्यम से उनका प्रक्षेपण होता है । मदार के पत्तोंद्वारा आकृष्ट चैतन्य, शक्ति आदी का प्रक्षेपण सूक्ष्म स्तरपर अर्थात आध्यात्मिक स्तर की प्रक्रिया है । इसका परिणाम विविध प्रकार से होता है । इनमें से एक है, वातावरण में विद्यमान रज-तम प्रधान तत्त्वों का प्रभाव अल्प होना । मदार के पत्तोंद्वारा प्रक्षेपित पवित्रकों के कारण वातावरण में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों को कष्ट होता है । उनकी तमप्रधान काली शक्ति कम होती है, या नष्ट होती है । संक्षेप में कहा जाए, तो मदार के पत्ते हनुमानजी की तत्त्वतरंगों को प्रक्षेपित कर वातावरण में विद्यमान अनिष्ट शक्तियों के साथ एक प्रकार से युद्ध ही करते हैं । जब अनिष्ट शक्तियों से पीडित व्यक्ति का मदार के पत्तों से संपर्क होता है, तो उसे कष्ट होने लगता है ।

३. अनिष्ट शक्तियों से पीडित साधिका पर मदार के पत्ते का परिणाम

पत्ते में हनुमानतत्त्व से आकृष्ट चैतन्य का वलय निर्माण होता है । इस वलय से व्यक्ति की ओर चैतन्य का प्रवाह प्रक्षेपित होता है एवं उसके देह में चैतन्य का वलय निर्माण होता है । पत्ते में हनुमानतत्त्व से आकृष्ट शक्ति का वलय निर्माण होता है । वातावरण में इस शक्ति के वलयों का प्रक्षेपण होता है । शक्ति के वलय से शक्ति का प्रवाह पीडित व्यक्ति की दिशा में प्रक्षेपित होता है । बडी अनिष्टशक्ती नेत्रों के माध्यम से काली शक्ति प्रक्षेपित करता है एवं वह पत्ते से प्रक्षेपित हनुमानतत्त्व की शक्ति के प्रवाह से लडता रहता है । हनुमानतत्त्व की शक्ति के प्रवाह से व्यक्ति के देह में इसके अनेक प्रवाह प्रक्षेपित होते हैं । इस मारक शक्ति का वलय व्यक्ति के देह में कार्यरत रूप में घूमता रहता है एवं उनका अनिष्टशक्तीद्वारा सप्तचक्रों पर निर्माण किए गए काले शक्ति के स्थान से युद्ध होता है । सप्तचक्रों पर हनुमानतत्त्व की शक्ति के वलय निर्माण होते हैं । अनिष्ट शक्तियों की पीडा के कारण व्यक्ति के देह के चारों ओर काली शक्ति का घना आवरण रहता है । काले आवरण में शक्ति के कण संचारित होते हैं एवं शक्ति के कणों का काले आवरण के साथ युद्ध होता है । व्यक्ति के देहपर बने काला आवरणका विघटन होता है ।

४. हनुमानजीको चढाए जानेवाले मदारके फूल

हनुमानजी की पूजा में मदार के फूलों का प्रयोग किया जाता है । फूल चढाते समय फूलों के डंठल हनुमानजी की प्रतिमा के ओर होते हैं । कहते हैं, हनुमानजी को मदारके फूल अच्छे लगते हैं; परंतु यह मानसिक स्तर का विश्लेषण हुआ । इसका अध्यात्मशास्त्रीय कारण यह है कि, मदार के फूलों में हनुमानजी की तत्त्वतरंगें अधिक मात्रा में आकृष्ट होती हैं तथा फूलों से पवित्रकों के रूप में प्रक्षेपित भी होती हैं ।

चित्र गूगल से प्राप्त।

विश्वास और श्रद्धा में अंतर





।।भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।।

कुछ ऐसे ही रामचरितमानस के आरंभ में कहा गया है। इसी में आगे कहागया है कि इस श्रद्धा विश्वास के बिना अपने ही अंतर्मन में छिपे परम तत्व का बोध नहीं किया जा सकता।

★★★★★★★★★★★

प्रस्तुत आलेख में आपको इस विमर्श के साथ विज्ञान जगत में भी ले जाना चाहता हूँ जो आपको किंचित नवीन लगेगा और रोचक भी।
श्रद्धा उसी पर जिस पर विश्वास।
विश्वास उसी पर जिस पर श्रद्धा।
दोनो में अनोखा सम्बन्ध है।एक के बिना दूजा सम्भव नहीं


★विश्वास के पीछे गहरा मनोबल हो तो हिमालय भी जीता जा सकता है, तपस्वी परम तत्व से इसी विश्वास के बल पर साक्षात्कार करता है।

असंभव को सम्भव बनाता है विश्वास । इसी विश्वास से कई मनोभाव सृजित होते हैं, मनोबल,आत्मबल, सकारात्मक सोच ,श्रद्धा आदि।

पर इस विश्वास में तीव्रता, गहराई, संकल्प की ढृढ़ता- आस्था होना चाहिए। यदि केवल सुनी सुनाई बात पर भरोसा कर लिया और बस ऐसे ही मानलिया तो वह अंध विश्वास बन जाता है ; ऐसे ही श्रद्धा भीअन्ध श्रद्धा बन जाती है।
◆श्रद्धा के लिए पहले चाहिए होता है विश्वास। यह सकते हैं कि विश्वास से संपुष्ट सम्मान भाव ही श्रद्धा कहा जाता है।यद्यपि मनीषियों ने श्रद्धा विश्वास को अनेकानेक ढंग से व्यक्त किया है ।

◆◆टिप्पणी:वैसे तो श्रध्दा और विश्वास में अंतर से जुड़ा प्रश्न-उत्तर यहीं पूरा होगया है।पर इसे और प्रासंगिक व सामयिक बनाने के लिए थोड़ी चर्चा और कर ली जाए ।

★ तो आइए अब बात करें विज्ञान की—

विज्ञान में विश्वास की क्या स्थिति है?

विज्ञान में भी विश्वास होता है और अंध विश्वास भी।बस एक अच्छी बात विज्ञान में है कि यह अपने अन्ध हो चले विश्वास के परीक्षण के प्रति खुले विचार का होता है।

● तथ्य तो यह है कि विज्ञान हो या समाज की सभी मान्यताएं आरम्भ में विश्वास होती हैं । इस पर जरा गंभीरता से ध्यान दीजिएगा।

●जिन मान्यताओं का सत्यापन परीक्षण न हो अथवा ●जो मान्यताएं व जो विश्वास, वर्तमान वास्तविकता के विपरीत दिख रही हों पर फिर भी उन्हें जबरदस्ती केवल परम्परा के नाम पर माना जा रहा हो वे अन्धविश्वास बन जातीं हैं-

◆ऐसा अन्ध विश्वास धर्म, नीति, राजनीति व समाज में तो होता ही है ऐसा अंध विश्वास विज्ञान में भी होता है । आइए देखते हैं—

★★विज्ञान की कुछ मान्यताएं जो विश्वास से अन्ध विश्वास बनीं पर एक अच्छी बात यह हुई कि इन्हें जाँच पड़ताल के बाद अमान्य कर दिया गया। पर फिर भी कुछ अंध मान्यताएं अभी भी बनी हुई हैं

१◆ऐटम:डाल्टन ने पदार्थ की सूक्षतम इकाई को एटम कहा जिसका प्राचीन ग्रीक अर्थ था कि अविभाज्य इकाई। अर्थात एटम या परमअणु या परमाणु के बाद अब सब जानते हैं परमाणु के भीतर अब असंख्य फंडामेंटल पार्टिकल खोजे जा रहे हैं और नई फिजिक्स का जन्म हो गया है।

२◆ ईथर :यह मान्यता थी कि एक ऐसा सर्व व्यापी अदृश्य तत्व है जो सर्वत्र व्याप्त है और यह भी कि प्रकाश इसी अदृश्य तत्व के माध्यम से गतिमान होता है । बाद में ईथर विज्ञान का अन्ध विश्वास साबित हुआ।इसे अमान्य कर दिया गया।


३◆ अदृश्य X ग्रह: खगोल में नेपच्यून ग्रह की गति स्थित में विचलन को उचित ठहराने के लिए एक अदृश्य ग्रह एक्स की कल्पना की गई जिसे कई बार वाकई में "खोज "लिया गया पर बाद में इसे अस्वीकार कर दिया गया।

४◆बिग बैंग सिद्धान्त: लगभग एक सदी से यह सिद्धांत पूरे जोर पर है कि इस सृष्टि की शुरूआत महाविस्फोट से, बिग बैंग big bang से हुई। पर मूलतः यह है क्या? पादरी लैमैत्रे के primordial element अज्ञात तत्व से यह सिद्धांत शुरू हुआ। यह अब गणितीय मॉडल भी बनगया है। यह सृष्टि के आरम्भ की भौतिक घटना तो है पर इसका भौतिक रूप से सत्यापन परीक्षण असम्भव है।इसलिए इसके कई गणितीय मॉडल्स हैं।

कुछ प्रमाण कॉस्मिक बैक ग्राउंड रेडिएशन के अभी इसके पक्ष में मिले जो अभी तो मान्य हैं ।पर इन्हें कुछ ऐसे ही समझिए जैसे कि अतीत में कुछ प्रमाण प्लेनेट x के पक्ष में मिलते रहते थे पर आखिर में प्लेनेट x ही काल्पनिक निकला !

★ फिलहाल बिग बैंग थ्योरी के पक्ष में जितने तर्क हैं उतने ही इसके विपक्ष में भी हैं। अर्थात विश्वास और अविश्वास दोनों ही साथ साथ चल रहे हैं !!

चूंकि इस पर और विस्तार में जाने से श्रद्धा विश्वास पर चर्चा के स्थान पर विषय परिवर्तन ही हो जाएगा, इसलिए यहाँ इस बिग बैंग थ्योरी पर केवल विज्ञान के एकशीर्ष पुरुष के ही विचार लिखे जा रहे हैं


◆स्टीफेन हाकिंग ने ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम में माना है कि इस बिग बैंग को मानने में कठिनाई ये है कि विज्ञान के आधुनिक सभी सिद्धान्त इस बिग बैंग के आरंभ की गणना करने पर ध्वस्त हो जाते हैं इसलिए बिगबैंग को कभी नहीं जाना जा सकता।विज्ञान के वर्तमान नियम सृष्टि के बहुत बाद में बने इनसे सृष्टि के आरंभ को नहीं जान सकते।

तो तो इस वक्तव्य को पढ़ने से यह बात तो स्पष्ट हो गई कि विज्ञान का बहु चर्चित सिद्धान्त यह "बिग बैंग" अभी विश्वास ही तो है क्योंकि यह पूरी तरह प्रमाणित नहीं है । इसलिए इसे न मानने वाले भौतिकविदों की नजर में यह फिलहाल अंधविश्वास जैसा ही तो है।

★और भी देखिए न्यूटन ने अपने लैटिन भाषा में लिखे Principia ग्रन्थ में विश्व को absolute निरपेक्ष विश्व माना है इसमें समय नहीं जुड़ा है।जबकि आइंस्टीन का विश्व सापेक्ष विश्व है यह relative universe, समय से जुड़ा चार आयामों का space time continuum का विश्व है ।

★इस प्रकार न्यूटन की नजर में जो विश्व है वैसा आइंस्टीन की नजर में नहीं है।

★अब विश्व तो एक है पर दो वैज्ञानिक इसे दो भिन्न नजर से देखते हैं दोनों के सिद्धांतो में अंतर तो है।
★★★यहाँ पर विज्ञान में विश्वास और अंध विश्वास की बात आ जाती है—
★न्यूटन ने absute space निरपेक्ष विश्व के संदर्भ में अपने गति सिद्धान्त रखे थे,पर आज आइंस्टीन के सापेक्ष विश्व को reativistic universe को ही मान्यता है तो क्या न्यूटन की थ्योरी अन्ध विश्वास है? नहीं ।क्योंकि मनुष्य सदैव एक विश्वास से दूसरे विश्वास की ओर चलता आया है। इस क्रम में पिछला विश्वास अन्ध विश्वास कहा जाने लगता है।जब कि ऐसा नहीं कहना चाहिए। प्रत्येक विश्वास को या कि अंधविश्वास को, उस के एक विशेष समय संदर्भ में time frame में ही देखना चाहिए ।और इसी प्रकार श्रद्धा को भी।

★ अब धर्म व अध्यात्म से अलग विज्ञान व अन्य चिन्तन क्षेत्रों में श्रद्धा की स्थिति देखते हैं:

★श्रद्धा भी केवल मन्दिर में हाथ जोड़ना मात्र नहीं। श्रद्धा के अनेकरूप हैं।

श्रद्धा, जिज्ञासा की अटूट धारा भी है, श्रद्धा, चिन्तन की ऊर्जा भी है जो जिस क्षेत्र की तरफ मोड़ दीजिए,अद्भुत कार्य कर दिखती है।

इसीलिए तो कहा गया है,— श्रद्धावान लभते ज्ञानम।

यदि प्रकृति के प्रति श्रद्धावान हो कर ही चिन्तन किया जाए तो प्रकृति परक यह श्रद्धा- देखिए किस को क्या देती है:

१◆वैज्ञानिक को— प्रकृति के नियम बनाने की क्षमता देती है। आइंस्टीन के सम्बंध में यही विज्ञान इतिहास लेखकों ने माना है कि उन्होंने ईश्वर को विज्ञान के नियमों में देखा है, परंपरागत रूप से किसी सर्व शक्तिशाली व्यक्तित्व के रूप में नहीं देखा है।

२◆भक्त को—मातृ रूप में सृष्टि का स्रोत्र मानने की भावना देती है।

३◆दार्शनिक को—प्रकृति वादी वैज्ञानिक अवधारणाएं , प्रकृति पुरुष मूलक सांख्य द्वैत इत्यादि विविध दर्शन की अनुभूति मूलक तर्क शक्ति देती है।

४◆कवि को— चित्रकार को —अनोखा सौंदर्य बोध sense of aesthetics देती है यही प्रकृति।


कृपया ध्यान दें कि आजकल विज्ञान के नाम से समस्त मानवीय मूल्यों पर अंधविश्वास का लेबिल लगाने की बात कुछ विद्वान झट पट कह देते हैं, दरअसल उन्हें अपने स्कूली या विश्व विद्यालयीन पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रहते हुए कम से कम अबतो विज्ञान के इतिहास और विज्ञान के दर्शन को भी पढ़ना समझना चाहिए। ताकि वह चिन्तन की धारा में सदैव विद्यमान श्रद्धा और विश्वास की भूमिका को उंसके स्वरूप को ठीक से समझ सकें।

निष्कर्ष: श्रद्धा और विश्वास में बाहरी तौर पर अंतर होते हुए भी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं; धर्म व नीति के अलावा विज्ञान में भी विश्वास अन्ध विश्वास होते हैं विज्ञान में भी श्रद्धा वान को उसी तरह ज्ञान प्राप्त होता जिस तरह कि धर्म अध्यात्म व दर्शन के क्षेत्र में प्राप्त होता है।

तो अब इस विषय को विराम देते हैं।

मेरी समझ में तो ऐसा ही आया। मुझसे बेहतर समझ वालों के बेहतर उत्तर हो सकते हैं।सभी तर्कशील विचारों का स्वागत है।

आभार चित्र के लिए :अर्धनारीश्वर शिव पार्वती रूप के संयुक्त रूप में हिन्दू कॉस्मॉस गूगल से साभार सधन्यवाद।

महामृत्युंजय मंत्र का अर्थ और महत्व

"महामृत्युंजय मंत्र" एक प्राणशक्ति मंत्र

महामृत्युंजय मंत्र ("जो मृत्यु को जीतने वाला एक महान मंत्र है ") जिसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है।

यह यजुर्वेद के रूद्र अध्याय में, भगवान शिव की स्तुति करने के लिए की गयी एक वन्दना है। इस मन्त्र में देवाधिदेव शिव को 'मृत्यु को जीतने वाला' बताया गया है।

यह गायत्री मन्त्र

के समान ही हिंदू धर्म का सबसे अधिक व्यापक रूप से जाना जाने वाला मंत्र है। इस मंत्र के कई नाम और रूप हैं। इसे भगवान शिव के उग्र रूप की ओर संकेत करते हुए सबसे शक्तिशाली रुद्र मंत्र कहा जाता है।

शिव के तीन नेत्रों की ओर इशारा करते हुए इसे त्रयंबकम मंत्र भी कहा जाता है

और कभी कभी इसे मृत-संजीवनी मंत्र के रूप में भी प्रयोग किया जाता है। इसका निरंतर पाठ करने से कोई भी वयक्ति बड़े से बड़े संकट से भी छूट जाता है। यह मंत्र अकाल मृत्यु के भय को समाप्त करने वाला है।

ॐ हौं जूं स: ॐ भूर्भुव: स्व: ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्

उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्व: भुव: भू: ॐ स: जूं हौं ॐ !!

महा मृत्युंजय मंत्र का अक्षरशः अर्थ

त्र्यंबकम् - तीन नेत्रों वाला (कर्म का कारक), तीनों कालों में हमारी रक्षा करने वाले भगवान को

यजामहे - हम पूजते हैं, समर्पित करते हैं, हमारे श्रद्देय

सुगंधिम - मीठी सी महक वाला, सुगंधित (कर्म का कारक)

पुष्टिः - एक पूर्ण सुपोषित स्थिति, फलने और फूलने वाली, समृद्ध जीवन की परिपूर्णता

वर्धनम् - वह जो सबका पोषण करता है, शक्ति देता है, (स्वास्थ्य, धन और सुख में) वृद्धि का कारक; जो हर्षित करता है, आनन्दित करता है और स्वास्थ्य को प्रदान करता है, एक अच्छा माली

उर्वारुकम् - ककड़ी (कर्म का कारक)

इव - जैसे, इस तरह

बन्धनात् - तना (ककड़ी का); ("तने से" पंचम विभक्ति - वास्तव में समाप्ति -द से अधिक लंबी है जो संधि के माध्यम से न/अनुस्वार में परिवर्तित हो जाती है)

मृत्योः - मृत्यु से

मुक्षीय - हमें स्वतंत्र करें, मुक्ति दें

मा - नहीं वंचित होएं

अमृतात् - अमरता, मोक्ष के आनन्द से

सरल अनुवाद

हम त्रि-नेत्रीय वास्तविकता का चिंतन करते हैं जो जीवन की मधुर परिपूर्णता को पोषित करता है और वृद्धि करता है। ककड़ी की तरह हम इसके तने से अलग ("मुक्त") हों, अमरत्व से नहीं बल्कि मृत्यु से हों।

महाभारत युद्ध में दैनिक व्यूह रचना

१. कौरव सेना ने भीष्म के नेतृत्व में सर्वतोमुखी दण्डव्यूह की रचना की। यह किसी स्तंभ (या दण्ड) पर स्थापित चक्र की तरह दिखता है। इस व्यूह में सेना के दो हिस्से होते हैं। एक आक्रमण करता है जबकि दूसरा हिस्सा आक्रमणकारी सेना की सहायता करता है।

पांडव सेना ने अर्जुन की सलाह पर भीमसेन के नेतृत्व में वज्र व्यूह का निर्माण किया। इस व्यूह का पहला प्रयोग स्वयं इन्द्र ने किया था।

२. दूसरे दिन पांडवों ने क्रौंच व्यूह की रचना की थी। क्रौंच अर्थात बगुले के आकार का यह व्यूह अत्यंत आक्रामक होता है जिसका निर्माण शत्रु सेना को भयाक्रांत करने के लिये किया जाता है। इसका नेतृत्व राजा द्रुपद कर रहे थे। बगुले के नेत्र की जगह कुंतिभोज थे, गले के स्थान पर सात्यकी की सेना थी और भीमसेन और धृष्टद्युम्न दोनों अपनी अपनी सेना सहित बगुले के पंखों का निर्माण कर रहे थे। द्रौपदी पुत्र इन पंखों की रक्षा के लिये नियुक्त थे।

कौरवों की ओर से भीष्म ने इसके उत्तर में गरुड़ व्यूह का निर्माण किया था। इसे क्रौंच व्यूह का प्राकृतिक शत्रु माना जाता था। भीष्म स्वयं गरुड़ की चोंच के स्थान पर खड़े होकर नेतृत्व कर रहे थे। कृपाचार्य और अश्वत्थामा उनकी रक्षा कर रहे थे। द्रोण और कृतवर्मा नेत्रों की जगह थे। त्रिगर्त और जयद्रथ अपनी अपनी सेना सहित गरुड़ के गले की जगह थे। दुर्योधन और उसके भाई गरुड़ के शरीर में सुरक्षित थे जबकि राजा बह्तबाला गरुड़ की पूंछ कै स्थान पर खड़े होकर पीछे से रक्षा कर रहे थे।

३. कौरवों के लिये भीष्म ने पुनः गरुड़ व्यूह बनाया था।

पांडवों ने अर्जुन के नेतृत्व में अर्धचंद्र व्यूह की रचना की थी। अर्धचंद्र के दक्षिणी छोर पर भीमसेन जबकि बांयी छोर पर अभिमन्यु नेतृत्व कर रहे थे। सेना की अग्र पंक्ति में युधिष्ठिर मौजूद थे जिनकी रक्षा में सेना सहित राजा द्रुपद और राजा विराट लगे हुए थे। इस व्यूह के शिखर पर स्वयं अर्जुन अपने सारथी भगवान् कृष्ण के साथ स्थित थे।

४. कौरवों ने मंडल व्यूह का निर्माण किया था। यह व्यूह अत्यंत रक्षात्मक होता है और इसे भेदना अत्यंत कठिन होता है। इस निर्माण के मध्य में सेनानायक होते हैं और सेना कई छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटी होती है जो अलग-अलग महारथियों के नेतृत्व में सेनानायक को घेर कर खड़ी होती है।

पांडवों ने शृंगाटक व्यूह द्वारा उत्तर दिया। शृंग (अर्थात पशुओं के सींग) के कारण इसका यह नाम पड़ा।

५. कौरवों ने मकर व्यूह की रचना की। यह निर्माण शार्क की तरह दिखता है।

पांडवों ने अर्जुन, युधिष्ठिर और धृष्टद्युम्न की सलाह पर श्येन व्यूह की रचना की। यह गरुड़ व्यूह का एक प्रकार था जो गरुड़ की जगह श्येन (अर्थात बाज) से प्रेरित था।

६. छठे दिन पांडवों ने मकर व्यूह चुना।

कौरवों ने क्रौंच व्यूह का निर्माण किया। पंखों की रक्षा भूरिश्रवा और राजा शल्य कर रहे थे।

७. कौरवों ने पुनः मंडल व्यूह बनाया जबकि पांडवों ने पुनः वज्र व्यूह का चुनाव किया।

८. कौरवों ने कूर्म व्यूह का निर्माण किया था जो कछुए से प्रेरणा लेता है। उत्तर में पांडवों ने त्रिशूल व्यूह बनाया था।

९. नौंवे दिन कौरवों ने सर्वतोभद्र व्यूह की रचना की। सर्वतोभद्र का अर्थ है 'सभी दिशाओं से सुरक्षित'। इसके अग्र में स्वयं भीष्म थे और उनके अलावा कृपाचार्य, कृतवर्मा, शकुनी, जयद्रथ, इत्यादि भी रक्षा में प्रयुक्त थे।

पांडवों ने नक्षत्रमंडल व्यूह की रचना की थी। पांचों पांडव सेना के अग्र भाग में नेतृत्व कर रहे थे। अभिमन्यु, कैकय बंधु, और राजा द्रुपद सेना के पीछे से रक्षा कर रहे थे।

१०. कौरवों ने असुर व्यूह की रचना की थी।

इसके उत्तर में पांडवों ने देव व्यूह बनाया था। पांडव सेना का नेतृत्व शिखंडी कर रहे थे जिनकी रक्षा के लिये उनके दोनों ओर अर्जुन और भीम स्थित थे। उनके पीछे अभिमन्यु और द्रौपदी पुत्र (उप-पांडव) थे। साथ में धृष्टद्युम्न और सात्यकि भी मौजूद थे। महारथियों से सजी इस टुकड़ी का काम था भीष्म को घेरकर मारना, जिसमें वे सफल रहे। बाकि पांडव सेना राजा द्रुपद और राजा विराट के नेतृत्व में रखी गयी थी, जिनकी सहायता के लिये कैकय बंधु, धृष्टकेतु और घटोत्कच को नियुक्त किया गया था।

११. भीष्म के अवसान के बाद कौरव-सेनापति पद संभालने वाले आचार्य द्रोण ने शकट व्यूह का निर्माण किया था। शकट का अर्थ होता है ट्रक। यदि आपने बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी देखी है तो बस उससे बैल/घोड़े को अलग कर दें, जो बचेगा उसे शकट कहते हैं। इस व्यूह के अग्र भाग में शकट के जुआ/काँवर की तरह सैनिकों की पतली, घनी रेखाकार रचना होती है जिसके पीछे बाकि सेना लंबे दंडों में खड़ी होती है।

पांडवों ने भीष्म पर को पराजित करने के बाद अपनी विजय का पूरा लाभ लेने के लिये पुनः भयप्रद क्रौंच व्यूह का निर्माण किया था।

१२. कौरवों ने गरुड़ व्यूह का निर्माण किया था जबकि पांडवों ने अर्धचंद्र व्यूह की रचना की थी।

१३. इस दिन कौरवों ने द्रोण के नेतृत्व में चक्र व्यूह का निर्माण किया था। कौरव सेना को छः स्तरों में सजाया गया था जो चक्र की तरह लगातार घूम रहे थे। इन छः स्तरों की रक्षा छः महारथी - कर्ण, द्रोण, अश्वत्थामा, दुःशासन, शल्य और कृपाचार्य कर रहे थे। इसके केंद्र में दुर्योधन और मुख पर जयद्रथ स्थित थे।

कौरवों की रणनीति यह थी कि पांडवों में चक्रव्यूह के ज्ञाता अर्जुन (और कृष्ण) को युद्ध से दूर ले जाकर युधिष्ठिर को बंदी बनाया जाये जिससे उन्हें विजय मिले। वे अर्जुन को युद्धभूमि से दूर ले जाने में सफल रहे जिससे पांडव चक्र व्यूह का कोई उत्तर नहीं दे सके। किंतु अभिमन्यु ने असीम पराक्रम दिखाते हुए अकेले ही चक्रव्यूह भेद कर उसके सभी महारथियों को अकेले ही परास्त कर दिया। इस भीषण वीरता से जब अभीमन्यु व्यूह के केंद्र में पहुँचे तो कौरव महारथियों ने उन्हें घेर कर मार डाला। अपने पुत्र की ऐसी मृत्यु का समाचार जानकर अर्जुन ने अगले दिन के युद्ध में जयद्रथ की हत्या का प्रण किया।

१४. युधिष्ठिर को बंदी बनाने में असफल रहने पर कौरवों के सेनापति द्रोण ने अर्जुन के प्रण को असफल कर उन्हें स्वदाह की ओर प्रेरित करने के लिये और जयद्रथ को बचाने के लिये एक विशेष व्यूह की रचना की। चक्रशकट व्यूह नामक यह रचना तीन भिन्न व्यूहों (शकट व्यूह, चक्र वयूह, और शुची व्यूह) का मिश्रण थी। अग्र भाग में शकट व्यूह की तरह एक लंबी, घनी सैन्य रेखा अपने पीछे चक्रव्यूह को छुपाये खड़ी थी, जिसके केंद्र में महारथियों से रक्षित शुची व्यूह बना कर उसके केंद्र में जयद्रथ को स्थान दिया गया था। शकटव्यूह की जिम्मेदारी दुर्योधन के भाई दुर्मर्षण को सौंपी गयी थी जबकि चक्रव्यूह की रक्षा स्वयं द्रोण कर रहे थे। शुची व्यूह (सुई जैसे व्यूह) में कर्ण, भूरिश्रवा, अश्वत्थामा, शल्य, वृषसेन और कृप को जयद्रथ की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया था।

अर्जुन के प्रण को पूरा करने के लिये पांडवों ने खड्ग सर्प व्यूह की रचना की, जिसके मुख पर स्वयं अर्जुन काल की स्थित थे। उनके पीछे, सर्प के फन पर धृष्टद्युम्न, उनके पीछे भीम, सात्यकि, द्रुपद, विराट, नकुल, सहदेव और युधिष्ठिर मौजूद थे। सर्प के गले पर उप-पांडव थे और उनके पीछे बाकी पांडव सेना। जैसे सर्प एक लक्ष्य को डँसने के लिये लपकता है, वैसे ही पांडव सेना और अर्जुन कौरवों की ओर लपके। दुर्मर्षण को हरा कर द्रोण से बचते हुए अर्जुन ने कौरवों को उस दिन अपने क्रोध का दर्शन कराया। फिर भी, जयद्रथ तक पहुँचने में लगभग शाम हो गयी। सूर्य को डूबा हुआ समझ जब अर्जुन की चिता सजायी जा रही थी और जिसे देखने जयद्रथ भी व्यूह के बाहर आ गया था, तब एकाएक बादलों के हटने से सूर्यदेव का दर्शन हुआ और जयद्रथ वध के साथ १४वां दिन समाप्त हुआ।

१५. कौरवों के लिये द्रोण ने इस दिन भी चक्रव्यूह जैसे दिखने वाले व्यूह - पद्म व्यूह का निर्माण किया। पद्म व्यूह एक खिलते हुए कमल जैसा दिखता था और चक्रव्यूह की तरह ही इसमें कई स्तर होते थे।

पांडवों ने पुनः वज्र व्यूह का निर्माण किया। लगातार दो लक्ष्यों में असफल रहने के बाद द्रोण ने इस दिन विराट और द्रुपद की हत्या करते हुए भीषण संहार किया। किंतु युधिष्ठिर के अर्ध-सत्य की सहायता से द्रोण को विचलित कर पांडवों ने द्रोण का अंत किया।

१६. द्रोण के बाद कौरवों के सेनापति बने कर्ण ने मकर व्यूह की रचना की। इसका नेतृत्व स्वयं कर्ण कर रहे थे। शकुनि और उलूक इसके नेत्र थे। अश्वत्थामा इसके सर पर जबकि दुर्योधन इसके केंद्र में सुरक्षित था। कृतवर्मा और शल्य इसके दोनों बाजू पर सेना की रक्षा कर रहे थे।

उत्तर में पांडवों ने पुनः अर्धचन्द्र व्यूह का निर्माण किया।

१७. पांडवों के महिष व्यूह का निर्माण किया जिसके उत्तर में कौरवों ने सूर्य व्यूह की रचना की।

अर्जुन के हाथों कर्ण की मृत्यु हुई।

१८. कर्ण की मृत्यु के बाद कौरव सेनापति बने राजा शल्य ने कौरव सेना की रक्षा के लिये सर्वतोभद्र व्यूह की रचना की। किंतु अपनी बढ़त को परिणाम तक पहुँचाने के उद्देश्य से पांडवों ने एक बार फिर भयप्रद क्रौंच व्यूह बनाया।

युधिष्ठिर के हाथों शल्य की मृत्यु हुई, जिसके बाद कौरव सेना में भगदड़ मच गयी। दुर्योधन ने सेना संचालन की कोशिश की किंतु अर्जुन और भीम ने कौरव सेना का नाश कर दिया। इस दिन के अंत में कौरवों की ओर से लड़ने वाली ११ अक्षौहिणी सेना से केवल चार लोग ही बच गये - दुर्योधन, अश्वत्थामा, कृतवर्मा और कृपाचार्य।

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