।।भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धा विश्वास रूपिणौ।।
कुछ ऐसे ही रामचरितमानस के आरंभ में कहा गया है। इसी में आगे कहागया है कि इस श्रद्धा विश्वास के बिना अपने ही अंतर्मन में छिपे परम तत्व का बोध नहीं किया जा सकता।
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प्रस्तुत आलेख में आपको इस विमर्श के साथ विज्ञान जगत में भी ले जाना चाहता हूँ जो आपको किंचित नवीन लगेगा और रोचक भी।
श्रद्धा उसी पर जिस पर विश्वास।
विश्वास उसी पर जिस पर श्रद्धा।
दोनो में अनोखा सम्बन्ध है।एक के बिना दूजा सम्भव नहीं
★विश्वास के पीछे गहरा मनोबल हो तो हिमालय भी जीता जा सकता है, तपस्वी परम तत्व से इसी विश्वास के बल पर साक्षात्कार करता है।
असंभव को सम्भव बनाता है विश्वास । इसी विश्वास से कई मनोभाव सृजित होते हैं, मनोबल,आत्मबल, सकारात्मक सोच ,श्रद्धा आदि।
पर इस विश्वास में तीव्रता, गहराई, संकल्प की ढृढ़ता- आस्था होना चाहिए। यदि केवल सुनी सुनाई बात पर भरोसा कर लिया और बस ऐसे ही मानलिया तो वह अंध विश्वास बन जाता है ; ऐसे ही श्रद्धा भीअन्ध श्रद्धा बन जाती है।
◆श्रद्धा के लिए पहले चाहिए होता है विश्वास। यह सकते हैं कि विश्वास से संपुष्ट सम्मान भाव ही श्रद्धा कहा जाता है।यद्यपि मनीषियों ने श्रद्धा विश्वास को अनेकानेक ढंग से व्यक्त किया है ।
◆◆टिप्पणी:वैसे तो श्रध्दा और विश्वास में अंतर से जुड़ा प्रश्न-उत्तर यहीं पूरा होगया है।पर इसे और प्रासंगिक व सामयिक बनाने के लिए थोड़ी चर्चा और कर ली जाए ।
★ तो आइए अब बात करें विज्ञान की—
विज्ञान में विश्वास की क्या स्थिति है?
विज्ञान में भी विश्वास होता है और अंध विश्वास भी।बस एक अच्छी बात विज्ञान में है कि यह अपने अन्ध हो चले विश्वास के परीक्षण के प्रति खुले विचार का होता है।
● तथ्य तो यह है कि विज्ञान हो या समाज की सभी मान्यताएं आरम्भ में विश्वास होती हैं । इस पर जरा गंभीरता से ध्यान दीजिएगा।
●जिन मान्यताओं का सत्यापन परीक्षण न हो अथवा ●जो मान्यताएं व जो विश्वास, वर्तमान वास्तविकता के विपरीत दिख रही हों पर फिर भी उन्हें जबरदस्ती केवल परम्परा के नाम पर माना जा रहा हो वे अन्धविश्वास बन जातीं हैं-
◆ऐसा अन्ध विश्वास धर्म, नीति, राजनीति व समाज में तो होता ही है ऐसा अंध विश्वास विज्ञान में भी होता है । आइए देखते हैं—
★★विज्ञान की कुछ मान्यताएं जो विश्वास से अन्ध विश्वास बनीं पर एक अच्छी बात यह हुई कि इन्हें जाँच पड़ताल के बाद अमान्य कर दिया गया। पर फिर भी कुछ अंध मान्यताएं अभी भी बनी हुई हैं
१◆ऐटम:डाल्टन ने पदार्थ की सूक्षतम इकाई को एटम कहा जिसका प्राचीन ग्रीक अर्थ था कि अविभाज्य इकाई। अर्थात एटम या परमअणु या परमाणु के बाद अब सब जानते हैं परमाणु के भीतर अब असंख्य फंडामेंटल पार्टिकल खोजे जा रहे हैं और नई फिजिक्स का जन्म हो गया है।
२◆ ईथर :यह मान्यता थी कि एक ऐसा सर्व व्यापी अदृश्य तत्व है जो सर्वत्र व्याप्त है और यह भी कि प्रकाश इसी अदृश्य तत्व के माध्यम से गतिमान होता है । बाद में ईथर विज्ञान का अन्ध विश्वास साबित हुआ।इसे अमान्य कर दिया गया।
३◆ अदृश्य X ग्रह: खगोल में नेपच्यून ग्रह की गति स्थित में विचलन को उचित ठहराने के लिए एक अदृश्य ग्रह एक्स की कल्पना की गई जिसे कई बार वाकई में "खोज "लिया गया पर बाद में इसे अस्वीकार कर दिया गया।
४◆बिग बैंग सिद्धान्त: लगभग एक सदी से यह सिद्धांत पूरे जोर पर है कि इस सृष्टि की शुरूआत महाविस्फोट से, बिग बैंग big bang से हुई। पर मूलतः यह है क्या? पादरी लैमैत्रे के primordial element अज्ञात तत्व से यह सिद्धांत शुरू हुआ। यह अब गणितीय मॉडल भी बनगया है। यह सृष्टि के आरम्भ की भौतिक घटना तो है पर इसका भौतिक रूप से सत्यापन परीक्षण असम्भव है।इसलिए इसके कई गणितीय मॉडल्स हैं।
कुछ प्रमाण कॉस्मिक बैक ग्राउंड रेडिएशन के अभी इसके पक्ष में मिले जो अभी तो मान्य हैं ।पर इन्हें कुछ ऐसे ही समझिए जैसे कि अतीत में कुछ प्रमाण प्लेनेट x के पक्ष में मिलते रहते थे पर आखिर में प्लेनेट x ही काल्पनिक निकला !
★ फिलहाल बिग बैंग थ्योरी के पक्ष में जितने तर्क हैं उतने ही इसके विपक्ष में भी हैं। अर्थात विश्वास और अविश्वास दोनों ही साथ साथ चल रहे हैं !!
चूंकि इस पर और विस्तार में जाने से श्रद्धा विश्वास पर चर्चा के स्थान पर विषय परिवर्तन ही हो जाएगा, इसलिए यहाँ इस बिग बैंग थ्योरी पर केवल विज्ञान के एकशीर्ष पुरुष के ही विचार लिखे जा रहे हैं
◆स्टीफेन हाकिंग ने ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम में माना है कि इस बिग बैंग को मानने में कठिनाई ये है कि विज्ञान के आधुनिक सभी सिद्धान्त इस बिग बैंग के आरंभ की गणना करने पर ध्वस्त हो जाते हैं इसलिए बिगबैंग को कभी नहीं जाना जा सकता।विज्ञान के वर्तमान नियम सृष्टि के बहुत बाद में बने इनसे सृष्टि के आरंभ को नहीं जान सकते।
तो तो इस वक्तव्य को पढ़ने से यह बात तो स्पष्ट हो गई कि विज्ञान का बहु चर्चित सिद्धान्त यह "बिग बैंग" अभी विश्वास ही तो है क्योंकि यह पूरी तरह प्रमाणित नहीं है । इसलिए इसे न मानने वाले भौतिकविदों की नजर में यह फिलहाल अंधविश्वास जैसा ही तो है।
★और भी देखिए न्यूटन ने अपने लैटिन भाषा में लिखे Principia ग्रन्थ में विश्व को absolute निरपेक्ष विश्व माना है इसमें समय नहीं जुड़ा है।जबकि आइंस्टीन का विश्व सापेक्ष विश्व है यह relative universe, समय से जुड़ा चार आयामों का space time continuum का विश्व है ।
★इस प्रकार न्यूटन की नजर में जो विश्व है वैसा आइंस्टीन की नजर में नहीं है।
★अब विश्व तो एक है पर दो वैज्ञानिक इसे दो भिन्न नजर से देखते हैं दोनों के सिद्धांतो में अंतर तो है।
★★★यहाँ पर विज्ञान में विश्वास और अंध विश्वास की बात आ जाती है—
★न्यूटन ने absute space निरपेक्ष विश्व के संदर्भ में अपने गति सिद्धान्त रखे थे,पर आज आइंस्टीन के सापेक्ष विश्व को reativistic universe को ही मान्यता है तो क्या न्यूटन की थ्योरी अन्ध विश्वास है? नहीं ।क्योंकि मनुष्य सदैव एक विश्वास से दूसरे विश्वास की ओर चलता आया है। इस क्रम में पिछला विश्वास अन्ध विश्वास कहा जाने लगता है।जब कि ऐसा नहीं कहना चाहिए। प्रत्येक विश्वास को या कि अंधविश्वास को, उस के एक विशेष समय संदर्भ में time frame में ही देखना चाहिए ।और इसी प्रकार श्रद्धा को भी।
★ अब धर्म व अध्यात्म से अलग विज्ञान व अन्य चिन्तन क्षेत्रों में श्रद्धा की स्थिति देखते हैं:
★श्रद्धा भी केवल मन्दिर में हाथ जोड़ना मात्र नहीं। श्रद्धा के अनेकरूप हैं।
श्रद्धा, जिज्ञासा की अटूट धारा भी है, श्रद्धा, चिन्तन की ऊर्जा भी है जो जिस क्षेत्र की तरफ मोड़ दीजिए,अद्भुत कार्य कर दिखती है।
इसीलिए तो कहा गया है,— श्रद्धावान लभते ज्ञानम।
यदि प्रकृति के प्रति श्रद्धावान हो कर ही चिन्तन किया जाए तो प्रकृति परक यह श्रद्धा- देखिए किस को क्या देती है:
१◆वैज्ञानिक को— प्रकृति के नियम बनाने की क्षमता देती है। आइंस्टीन के सम्बंध में यही विज्ञान इतिहास लेखकों ने माना है कि उन्होंने ईश्वर को विज्ञान के नियमों में देखा है, परंपरागत रूप से किसी सर्व शक्तिशाली व्यक्तित्व के रूप में नहीं देखा है।
२◆भक्त को—मातृ रूप में सृष्टि का स्रोत्र मानने की भावना देती है।
३◆दार्शनिक को—प्रकृति वादी वैज्ञानिक अवधारणाएं , प्रकृति पुरुष मूलक सांख्य द्वैत इत्यादि विविध दर्शन की अनुभूति मूलक तर्क शक्ति देती है।
४◆कवि को— चित्रकार को —अनोखा सौंदर्य बोध sense of aesthetics देती है यही प्रकृति।
कृपया ध्यान दें कि आजकल विज्ञान के नाम से समस्त मानवीय मूल्यों पर अंधविश्वास का लेबिल लगाने की बात कुछ विद्वान झट पट कह देते हैं, दरअसल उन्हें अपने स्कूली या विश्व विद्यालयीन पाठ्यक्रम तक सीमित नहीं रहते हुए कम से कम अबतो विज्ञान के इतिहास और विज्ञान के दर्शन को भी पढ़ना समझना चाहिए। ताकि वह चिन्तन की धारा में सदैव विद्यमान श्रद्धा और विश्वास की भूमिका को उंसके स्वरूप को ठीक से समझ सकें।
निष्कर्ष: श्रद्धा और विश्वास में बाहरी तौर पर अंतर होते हुए भी दोनों एक दूसरे के पूरक हैं; धर्म व नीति के अलावा विज्ञान में भी विश्वास अन्ध विश्वास होते हैं विज्ञान में भी श्रद्धा वान को उसी तरह ज्ञान प्राप्त होता जिस तरह कि धर्म अध्यात्म व दर्शन के क्षेत्र में प्राप्त होता है।
तो अब इस विषय को विराम देते हैं।
मेरी समझ में तो ऐसा ही आया। मुझसे बेहतर समझ वालों के बेहतर उत्तर हो सकते हैं।सभी तर्कशील विचारों का स्वागत है।
आभार चित्र के लिए :अर्धनारीश्वर शिव पार्वती रूप के संयुक्त रूप में हिन्दू कॉस्मॉस गूगल से साभार सधन्यवाद।
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