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मंगलवार, 28 अगस्त 2012

श्रीमद भागवद कथा आरम्भ करना :-

शुकदेव जी महाराज का पधारना और श्रीमद भागवद कथा आरम्भ करना :-

राजा परीक्षित के वचनों को सुन कर सभी अत्यन्त प्रसन्न हुये और यथायोग्य उनकी इच्छा को पूर्ण करने का निश्चय कर लिया। उसी समय वहाँ पर व्यास ऋषि के पुत्र, जन्म मृत्यु से रहित परमज्ञानी श्री शुकदेव जी पधारे। समस्त ऋषियों सहित राजा परीक्षित उनके सम्मान में उठ कर खड़े हो गये और उन्हें प्रणाम किया। उसके बाद अर्ध्य, पाद्य तथा माला आदि से सूर्य के समान प्रकाशमान श्री शुकदेव जी की पूजा की और बैठने के लिये उच्चासन प्रदान किया। उनके बैठने के बाद अन्य ऋषि भी अपने अपने आसन पर बैठ गये। सभी के आसन ग्रहण करने के पश्चात् राजा परीक्षित ने मधुर वाणी मे कहा - "हे ब्रह्मरूप योगेश्वर! हे महाभाग! भगवान नारायण के सम्मुख आने से जिस प्रकार दैत्य भाग जाते हैं उसी प्रकार आपके पधारने से महान पाप भी अविलंब भाग खड़े होते हैं। आप जैसे योगेश्वर के दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है पर आपने स्वयं मेरी मृत्यु के समय पधार कर मुझ पापी को दर्शन देकर मुझे मेरे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दिया है। आप योगियों के भी गुरु हैं, आपने परम सिद्धि प्राप्त की है। अतः कृपा करके यह बताइये कि मरणासन्न प्राणी के लिये क्या कर्तव्य है? उसे किस कथा का श्रवण, किस देवता का जप, अनुष्ठान, स्मरण तथा भजन करना चाहिये और किन किन बातों का त्याग कर देना चाहिये?

समस्त ऋषियों ने राजा परीक्षित के इन प्रश्नों के पूछने के लिये साधुवाद दिया और उनके प्रश्नों के उत्तर देने के लिये महायोगी श्री शुकदेव जी से आग्रह किया। समस्त धर्मों के ज्ञाता परमज्ञानी श्री शुकदेव जी जिन्होंने नाल छेदन के समय से ही इस संसार की माया को त्याग कर परमहंस व्रत से ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया है उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिये तैयार हो गये।

महायोगेश्वर श्री शुकदेव जी बोले - "हे राजा परीक्षित! एक राजा होने के नाते तुम अपने कल्याण के साथ ही साथ सभी के कल्याण की चिन्ता रहती है इसीलिये तुमने यह अति उत्तम प्रश्न किया है। इससे तुम्हारे कल्याण के साथ ही साथ दूसरों का भी कल्याण अवश्य ही होगा। मनुष्य जन्म लेने के पश्चात् संसार के मायाजाल में फँस जाता है और उसे मनुष्य योनि का वास्तविक लाभ प्राप्त नहीं हो पाता। उसका दिन काम धंधों में और रात नींद तथा स्त्री प्रसंग में बीत जाता है। अज्ञानी मनुष्य स्त्री, पुत्र, शरीर, धन, सम्पत्ति सम्बंधियों आदि को अपना सब कुछ समझ बैठता है। वह मूर्ख पागल की भाँति उनमें रम जाता है और उनके मोह में अपनी मृत्यु से भयभीत रहता है पर अन्त में मृत्यु का ग्रास हो कर चला जाता है।

मनुष्य को मृत्यु के आने पर भयभीत तथा व्याकुल नहीं होना चाहिये। उस समय अपने ज्ञान से वैराग्य लेकर सम्पूर्ण मोह को दूर कर लेना चाहिये। अपनी इन्द्रियों को वश में करके उन्हें सांसारिक विषय वासनाओं से हटाकर चंचल मन को दीपक की लौ के समान स्थिर कर लेना चाहिये। इस समस्त प्रक्रिया के मध्य ॐ का निरन्तर जाप करते रहना चाहिये जिससे कि मन इधर उधर न भटके। इस प्रकार ध्यान करते करते मन भगवत् प्रेम के आनन्द से भर जाता है। फिर चित्त वहाँ से हटने को नहीं करता है। यदि मूढ़ मन रजोगुण और तमोगुण के कारण स्थिर न रहे तो साधक को व्याकुल न हो कर धीरे धीरे धैर्य के साथ उसे अपने वश में करने का उपाय करना चाहिये। उसी योग धारणा से योगी को भगवान के दर्शन हृदय में हो जाते हैं और भक्ति की प्राप्ति होती है।"ॐ ॐ

भगवान शिव के १०८ नाम


भगवान शिव के १०८ नाम

शिव - कल्याण स्वरूपमहेश्वर - माया के अधीश्वरशम्भू - आनंद स्स्वरूप वालेपिनाकी - पिनाक धनुष धारण करने वालेशशिशेखर - सिर पर चंद्रमा धारण करने वालेवामदेव - अत्यंत सुंदर स्वरूप वालेविरूपाक्ष - भौंडी आँख वालेकपर्दी - जटाजूट धारण करने वालेनीललोहित - नीले और लाल रंग वालेशंकर - सबका कल्याण करने वालेशूलपाणी - हाथ में त्रिशूल धारण करने वालेखटवांगी - खटिया का एक पाया रखने वालेविष्णुवल्लभ - भगवान विष्णु के अतिप्रेमीशिपिविष्ट - सितुहा में प्रवेश करने वालेअंबिकानाथ - भगवति के पतिश्रीकण्ठ - सुंदर कण्ठ वालेभक्तवत्सल - भक्तों को अत्यंत स्नेह करने वालेभव - संसार के रूप में प्रकट होने वालेशर्व - कष्टों को नष्ट करने वालेत्रिलोकेश - तीनों लोकों के स्वामीशितिकण्ठ - सफेद कण्ठ वालेशिवाप्रिय - पार्वती के प्रियउग्र - अत्यंत उग्र रूप वालेकपाली - कपाल धारण करने वालेकामारी - कामदेव के शत्रुअंधकारसुरसूदन - अंधक दैत्य को मारने वालेगंगाधर - गंगा जी को धारण करने वालेललाटाक्ष - ललाट में आँख वालेकालकाल - काल के भी कालकृपानिधि - करूणा की खानभीम - भयंकर रूप वालेपरशुहस्त - हाथ में फरसा धारण करने वालेमृगपाणी - हाथ में हिरण धारण करने वालेजटाधर - जटा रखने वालेकैलाशवासी - कैलाश के निवासीकवची - कवच धारण करने वालेकठोर - अत्यन्त मजबूत देह वालेत्रिपुरांतक - त्रिपुरासुर को मारने वालेवृषांक - बैल के चिह्न वाली झंडा वालेवृषभारूढ़ - बैल की सवारी वालेभस्मोद्धूलितविग्रह - सारे शरीर में भस्म लगाने वालेसामप्रिय - सामगान से प्रेम करने वालेस्वरमयी - सातों स्वरों में निवास करने वालेत्रयीमूर्ति - वेदरूपी विग्रह करने वालेअनीश्वर - जिसका और कोई मालिक नहीं हैसर्वज्ञ - सब कुछ जानने वालेपरमात्मा - सबका अपना आपासोमसूर्याग्निलोचन - चंद्र, सूर्य और अग्निरूपी आँख वालेहवि - आहूति रूपी द्रव्य वालेयज्ञमय - यज्ञस्वरूप वालेसोम - उमा के सहित रूप वालेपंचवक्त्र - पांच मुख वालेसदाशिव - नित्य कल्याण रूप वालेविश्वेश्वर - सारे विश्व के ईश्वरवीरभद्र - बहादुर होते हुए भी शांत रूप वालेगणनाथ - गणों के स्वामीप्रजापति - प्रजाओं का पालन करने वालेहिरण्यरेता - स्वर्ण तेज वालेदुर्धुर्ष - किसी से नहीं दबने वालेगिरीश - पहाड़ों के मालिकगिरिश - कैलाश पर्वत पर सोने वालेअनघ - पापरहितभुजंगभूषण - साँप के आभूषण वालेभर्ग - पापों को भूंज देने वालेगिरिधन्वा - मेरू पर्वत को धनुष बनाने वालेगिरिप्रिय - पर्वत प्रेमीकृत्तिवासा - गजचर्म पहनने वालेपुराराति - पुरों का नाश करने वालेभगवान् - सर्वसमर्थ षड्ऐश्वर्य संपन्नप्रमथाधिप - प्रमथगणों के अधिपतिमृत्युंजय - मृत्यु को जीतने वालेसूक्ष्मतनु - सूक्ष्म शरीर वालेजगद्व्यापी - जगत् में व्याप्त होकर रहने वालेजगद्गुरू - जगत् के गुरूव्योमकेश - आकाश रूपी बाल वालेमहासेनजनक - कार्तिकेय के पिताचारुविक्रम - सुन्दर पराक्रम वालेरूद्र - भक्तों के दुख देखकर रोने वालेभूतपति - भूतप्रेत या पंचभूतों के स्वामीस्थाणु - स्पंदन रहित कूटस्थ रूप वालेअहिर्बुध्न्य - कुण्डलिनी को धारण करने वालेदिगम्बर - नग्न, आकाशरूपी वस्त्र वालेअष्टमूर्ति - आठ रूप वालेअनेकात्मा - अनेक रूप धारण करने वालेसात्त्विक - सत्व गुण वालेशुद्धविग्रह - शुद्धमूर्ति वालेशाश्वत - नित्य रहने वालेखण्डपरशु - टूटा हुआ फरसा धारण करने वालेअज - जन्म रहितपाशविमोचन - बंधन से छुड़ाने वालेमृड - सुखस्वरूप वालेपशुपति - पशुओं के मालिकदेव - स्वयं प्रकाश रूपमहादेव - देवों के भी देवअव्यय - खर्च होने पर भी न घटने वालेहरि - विष्णुस्वरूपपूषदन्तभित् - पूषा के दांत उखाड़ने वालेअव्यग्र - कभी भी व्यथित न होने वालेदक्षाध्वरहर - दक्ष के यज्ञ को नष्ट करने वालेहर - पापों व तापों को हरने वालेभगनेत्रभिद् - भग देवता की आंख फोड़ने वालेअव्यक्त - इंद्रियों के सामने प्रकट न होने वालेसहस्राक्ष - अनंत आँख वालेसहस्रपाद - अनंत पैर वालेअपवर्गप्रद - कैवल्य मोक्ष देने वालेअनंत - देशकालवस्तुरूपी परिछेद से रहिततारक - सबको तारने वालापरमेश्वर - सबसे परे ईश्वर

केरल का एक प्रमुख त्यौहार है -ओणम

ओणम

ओणम, केरल का एक प्रमुख त्यौहार है। जिस तरह उत्तरी भारत में दशहरे का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है, उसी प्रकार केरल में ओणम का त्योहार मनाया जाता है। अन्तर केवल इतना है कि दशहरे में दस दिन पहले राम लीलाओं का आयोजन होता है और ओणम से दस दिन पहले घरों को फूलों से सजाने का कार्यक्रम चलता है।

मनाने का समय

ओणम को मलयाली कैलेण्डर कोलावर्षम के पहले महीने 'छिंगम' यानी अगस्त-सितंबर के बीच मनाने की परंपरा चली आ रही है। ओणम के पहले दिन जिसे अथम कहते हैं, से ही घर-घर में ओणम की तैयारियां प्रारंभ हो जाती है और दस दिन के इस उत्सव का समापन अंतिम दिन जिसे 'थिरुओनम' या 'तिरुओणम' कहते हैं, को होता है।

ओणम का अर्थ

वास्तव में ओणम का अर्थ है "श्रावण"। श्रावण के महीने में मौसम बहुत खुशगवार हो जाता है, चारों तरफ़ हरियाली छा जाती है, रंग–बिरंगे फूलों की सुगन्ध से सारा चमन महक उठता है। केरल में चाय, अदरक, इलायची, काली मिर्च तथा धान की फ़सल पक कर तैयार हो जाती है। नारियल और ताड़ के वृक्षों से छाए हुए जल से भरे तालाब बहुत सुन्दर लगते हैं। लोगों में नयी–नयी आशाएँ और नयी–नयी उमंगें भर जाती हैं। लोग खुशी में भरकर श्रावण देवता और फूलों की देवी का पूजन करते हैं।

तैयारियाँ

ओणम के त्योहार से दस दिन पहले बच्चे प्रतिदिन बाग़ों में, जंगलों में तथा फुलवारियों में फूल चुनने जाते हैं और फूलों की गठिरयाँ बाँध–बाँधकर अपने घर लाते हैं। घर का एक कमरा फूल घर बनाया जाता है। फूलों की गठिरयाँ उसमें रखते हैं। उस कमरे के बाहर लीप–पोत कर एक चौंक तैयार किया जाता है और उसके चारों तरफ़ गोलाई में फूल सजाए जाते हैं। दरवाज़ों, खिड़कियों और सब कमरों को फूलों की मालाओं से सजाया जाता है। जैसे - जैसे ओणम का मुख्य त्योहार निकट आता है, वैसे - वैसे फूलों की सजावट बढ़ती जाती है।

मूर्ति की स्थापना

इस तरह से आठ दिन तक फूलों की सजावट का कार्यक्रम चलता है। नौवें दिन हर एक घर में विष्णु भगवान की मूर्ति स्थापित की जाती है। औरतें विष्णु भगवान की पूजा के गीत गाती हैं और ताली बजाकर गोलाई में नाचती हैं। इस नाच को 'थप्पतिकलि' कहते हैं। बच्चे वामन अवतार के पूजन के गीत गाते हैं। इन गीतों को 'ओणम लप्ण' कहते हैं। रात को हर घर में गणेश जी तथा श्रावण देव की मूर्ति स्थापित की जाती है और उनके सामने मंगलदीप जलाए जाते हैं। इस दिन एक विशेष प्रकार का पकवान बनाया जाता है, जिसे 'पूवड़' कहते हैं।

मुख्य त्योहार

दसवें दिन ओणम का मुख्य त्योहार मनाया जाता है। जो कि त्रयोदशी के दिन होता है। इस दिन घर के सभी सदस्य सुबह सवेरे उठ कर स्नान कर लेते हैं और घर का बुज़ुर्ग सबको नये–नये कपड़े पहनने के लिए देता है। लड़कियाँ एक विशेष प्रकार का पकवान, जिसे 'वाल्लसन' कहते हैं, बना कर श्रावण देवता, गणेश जी, विष्णु भगवान, वामन भगवान तथा फूलों की देवी पर चढ़ाती हैं और लड़के तीर चलाकर उस चढ़ाये हुए पकवान को वापस लौटा कर प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं।

तिरू ओणम

तिरू ओणम के दिन प्रातः नाश्ते में भूने हुए या भाप में पकाए हुए केले खाए जाते हैं। इस नाश्ते को 'नेन्द्रम' कहते हैं। यह एक ख़ास केले से तैयार होता है, जिसे 'नेन्द्रम काय' कहते हैं। यह केले केवल केरल में ही पैदा होते हैं। उस दिन का खाना चावल, दाल, पापड़ और केलों से बनाया जाता है और बहुत स्वादिष्ट भोजन बनाए जाते हैं और हर एक घर में पूजापाठ तथा धार्मिक कार्यक्रम होते हैं।

प्राचीन परम्परायें

यह हस्त नक्षत्र से शुरू होकर श्रवण नक्षत्र तक का दस दिवसीय त्योहार है। हर घर के आँगन में महाबलि की मिट्टी की त्रिकोणात्मक मूर्ति, जिस को 'तृक्काकारकरै अप्पन' कहते हैं, बनी रहती है। इसके चारों ओर विविध रंगों के फूलों के वृत्त चित्र बनाए जाते हैं। प्रथम दिन जितने वृत्त रचे जाते हैं, उसके दोगुने–तिगुने तथा अन्त में दसवें दिन दस गुने तक वृत्त रचे जाते हैं। केरल के लोगों के लिए यह उत्सव बंसतोत्सव से कम नहीं है। यह उत्सव केरल में मधुमास लेकर आता है। यह दिन सजने–धजने के साथ–साथ दुःख–दर्द भूलकर खुशियाँ मनाने का होता है। ऐसी मान्यता है कि तिरुवोणम के तीसरे दिन महाबलि पाताल लोक लौट जाते हैं। जितनी भी कलाकृतियाँ बनाई जाती हैं, वे महाबलि के चले के बाद ही हटाई जाती हैं। यह त्योहार केरलवासियों के साथ पुरानी परम्परा के रूप में जुड़ा है। ओणम वास्तविक रूप में फ़सल काटने का त्योहार है, पर अब इसकी व्यापक मान्यता है।

पौराणिक आख्यान

कहा जाता है कि जब परशुरामजी ने सारी पृथ्वी को क्षत्रियों से जीत कर ब्राह्मणों को दान कर दी थी, तब उनके पास रहने के लिए कोई भी स्थान नहीं रहा, तब उन्होंने सह्याद्रि पर्वत की गुफ़ा में बैठ कर जल देवता वरुण की तपस्या की। वरुण देवता ने तपस्या से खुश होकर परशुराम जी को दर्शन दिए और कहा कि तुम अपना फरसा समुद्र में फैंको। जहाँ तक तुम्हारा फरसा समुद्र में जाकर गिरेगा, वहीं तक समुद्र का जल सूखकर पृथ्वी बन जाएगी। वह सब पृथ्वी तुम्हारी ही होगी और उसका नाम परशु क्षेत्र होगा। परशुराम जी ने वैसा ही किया और जो भूमि उनको समुद्र में मिली, उसी को वर्तमान को 'केरल या मलयालम' कहते हैं। परशुराम जी ने समुद्र से भूमि प्राप्त करके वहाँ पर एक विष्णु भगवान का मन्दिर बनवाया था। वही मन्दिर अब भी 'तिरूक्ककर अप्पण' के नाम से प्रसिद्ध है और जिस दिन परशुराम जी ने मन्दिर में मूर्ति स्थापित की थी, उस दिन श्रावण शुक्ल की त्रियोदशी थी। इसलिए उस दिन 'ओणम' का त्योहार मनाया जाता है। हर एक घर में विष्णु भगवान की मूर्ति स्थापित करके उसकी पूजा की जाती है।

वामन कथा

राक्षस नरेश महाबली, विष्णु भगवान के भक्त प्रह्लाद का पौत्र था। वह उदार शासक और महापराक्रमी था। राक्षसी प्रवृत्ति के कारण महाबलि ने देवदाओं के राज्य को बलपूर्वक छीन लिया था। दुराग्रही व गर्व–दर्प से भरे राजा बलि ने देवताओं को कष्ट में डाल दिया। तब परेशान देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता की गुहार लगाई। प्रार्थना सुन भगवान श्री विष्णु ने वामन, अर्थात बौने के रूप में महर्षि कश्यप व उनकी पत्नी अदिति के घर जन्म लिया। एक दिन वामन महाबलि की सभी में पहुँचे। इस ओजस्वी, ब्रह्मचारी नवयुवक को देखकर एकाएक महाबलि उनकी ओर आकर्षित हो गया। महाबलि ने श्रद्धा से इस नवयुवक का स्वागत किया और जो चाहे माँगने को कहा।

श्री वामन ने शुद्धिकरण हेतु अपने लघु पैरों के तीन क़दम जितनी भूमि देने का आग्रह किया। उदार महाबलि ने यह स्वीकार कर लिया। किन्तु जैसे ही महाबलि ने यह भेंट श्रीवामन को दी, वामन का आकार एकाएक बढ़ता ही चला गया। वामन ने तब एक क़दम से पूरी पृथ्वी को ही नाप डाला तथा दूसरे क़दम से आकाश को। अब तीसरा क़दम तो रखने को स्थान बचा ही नहीं था। जब वामन ने बलि से तीसरा क़दम रखने के लिए स्थान माँगा, तब उसने नम्रता से अपना मस्तक ही प्रस्तुत कर दिया। वामन ने अपना तीसरा क़दम मस्तक पर रख महाबलि को पाताल लोक में पहुँचा दिया। बलि ने यह बड़ी उदारता और नम्रता से स्वीकार किया। चूँकि बलि की प्रजा उससे बहुत ही स्नेह रखती थी, इसीलिए श्रीविष्णु ने बलि को वरदान दिया कि वह अपनी प्रजा को वर्ष में एक बार अवश्य मिल सकेगा। अतः जिस दिन महाबलि केरल आते हैं, वही दिन ओणम के रूप में मनाया जाता है। इस त्योहार को केरल के सभी धर्मों के लोग मनाते हैं।

बलि की केरल यात्रा का महोत्सव

आज भी केरलवासी महाबलि की यात्रा को ओणम के रूप में मनाते हैं। पूरा प्रान्त महोत्सव के रंग में रंग जाता है। आम के पत्तों को एक डोरी में बाँधा जाता है तथा घर के द्वारों पर टाँग दिया जाता है। रंग–बिरंगे झाड़–फानुस व नारियल घरों की शोभा को बढ़ाते हैं। मिट्टी के बर्तन के कोन (शंकू) को बलि का प्रतीक मानकर घर के आगे रखा जाता है तथा इसे चन्दन व सिन्दूर से सजाया जाता है। आँगनों में रंग–बिरंगी रंगोली के विभिन्न आकार बनाए जाते हैं।

इस पर्व का एक और विशेष कार्यक्रम है, पुष्पों को गोलाकार रूप में सजाकर रखना। इसे ही 'अट्टम या ओणम' कहा जाता है। प्रतिदिन नाना प्रकार के पुष्प गोबर के सूखे कंडे पर लगाए जाते हैं तथा इन्हें घर के आगे रखा जाता है। अट्टम के सौन्दर्य व इसके विभिन्न आकारों की स्पर्धा भी होती है। स्त्रियाँ समवेत स्वर में 'काई, केत, कली' व 'कुम्मी' लयबद्ध होकर गाती हैं। घर का मुखिया परिवार के सदस्यों में नववस्त्र बाँटता है। इस वेशभूषा को ओणप्पणं कहते हैं। पुराने समय में केरल की स्त्रियाँ श्वेत साड़ियाँ पहनती थीं। इन साड़ियों के चारों ओर स्वर्णिम बूटे लगाए जाते थे। कमर से ऊपर का शरीर एक ओर छोटी धोती 'मेलमुड़' से ढका होता था। आधुनिक समय में केरल की स्त्रियाँ भी अन्य क्षेत्रों भाँति साड़ियाँ या सलवार कमीज़ पहनती हैं।

मनभावन व्यंजन

तिरुओणम के दिन प्रातः ही स्नान आदि करके सब लोग नये–नये कपड़े पहनते हैं। बड़े लोग छोटों को आणप्पुड़वा अर्थात्–ओणम के कपड़े प्रदान करते हैं। गाँव के युवक गेंद खेलते हैं। स्त्रियाँ इकट्ठी होकर तालियाँ बजाकर गाती हैं। घरों में केले के पकवान जिसे 'पलनुरनकु' कहते हैं, बनाए जाते हैं। तिरुओणम के पहले ही नयी फ़सल के अनाजों से खलिहान भर जाते हैं। सुख—समृद्धि के इस अवसर पर ओणम का त्योहार पूरी खुशी के साथ मनाया जाता है।

ओनसदया नामक भोज इस समारोह का सबसे आकर्षक कार्यक्रम है। नाना प्रकार के व्यंजनों में विभिन्न प्रकार की शाक–सब्जियों का प्रयोग किया जाता है। भोजन को कदली के पत्तों में परोसा जाता है। नाना प्रकार के भोज्य पदार्थों तथा तरकारियाँ जिन्हें 'पचड़ी–पचड़ी काल्लम, ओल्लम, दाव, घी, सांभर' इत्यादि कहा जाता है। पापड़ व केले के चिप्स भी बनाए जाते हैं। दूध की खीर जिसे 'पायसम' कहते हैं, ओणम का विशेष भोजन है।

ये सभी पाक व्यंजन 'निम्बूदरी' ब्राह्मणों की पाक–कला की श्रेष्ठता को दर्शाते हैं तथा उनकी संस्कृति के विस्तार में अह्म भूमिका निभाते हैं। कहते हैं कि केरल में अठारह प्रकार के दुग्ध पकवान हैं। इन्हें ऋतु फलों जैसे केला, आम आदि से बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त कई प्रकार की दालें जैसे मूंग व चना के आटे का प्रयोग भी विभिन्न व्यंजनों में किया जाता है।

नौका दौड़

ओणम के अवसर पर यहाँ सर्पनौका दौड़ प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। इसे सर्प नौका दौड़ इसलिए कहा जाता है कि ये नौकाएँ सर्पाकार पतली होती हैं। इनकी लम्बाई 50 फीट तक होती है और बीच का भाग बहुत पतला होता है। काली लकड़ी की बनी यह नौकाएँ पानी पर इस तरह से तैरती हैं, मानों कोई बड़ा साँप रेंग रहा हो।

इसके अतिरिक्त नौका दौड़ भी होती है। नौका चलाने वाले एक ख़ास क़िस्म का गीत गाते हैं। जिसे 'वांची पट्टक्कल' यानी की 'नाव का गीत' कहते हैं। नौका की दौड़ को 'वल्लमुकली' कहते हैं। इस तरह से ओणम का त्योहार मनाकर संध्या के समय विष्णु भगवान, गणेश जी, श्रावण देव तथा वामन देव और फूलों की देवी की मूर्तियों को एक तख्ते पर रखकर उनका पूजन किया जाता है और फिर आदर सहित किसी तालाब या नदी में ले जाकर उन्हें जल में प्रवाहित कर दिया जाता है।

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