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शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

कोई भी साथ नहीं आने वाला है। अकेले ही जाना है।

महामूर्ख कौन ?
"ज्ञानचंद नामक एक जिज्ञासु भक्त था। वह सदैव  प्रभुभक्ति में लीन रहता था। रोज सुबह उठकर पूजा- पाठ, ध्यान-भजन करने का उसका नियम था। उसके बाद वह दुकान में काम करने जाता। दोपहर के भोजन के समय वह दुकान बंद कर देता और फिर दुकान  नहीं खोलता था। बाकी के समय में वह साधु- संतों को भोजन करवाता, गरीबों की सेवा करता, साधु- संग एवं दान-पुण्य करता। व्यापार में जो भी मिलता उसी में संतोष रखकर प्रभुप्रीति के लिए  जीवन बिता  था। उसके ऐसे व्यवहार से लोगों को आश्चर्य होता और लोग उसे पागल समझते। लोग कहतेः  'यह तो महामूर्ख है। कमाये हुए सभी पैसों को दान में  लुटा देता है। फिर दुकान भी थोड़ी देर के लिए ही खोलता है। सुबह का कमाई करने का समय भी पूजा- पाठ में गँवा देता है। यह तो पागल ही है।'
एक बार गाँव के नगरसेठ ने उसे अपने पास बुलाया।  उसने एक लाल टोपी बनायी थी। नगरसेठ ने वह टोपी ज्ञानचंद को देते हुए कहाः  'यह टोपी मूर्खों के लिए है। तेरे जैसा महान् मूर्ख मैंने अभी तक नहीं देखा, इसलिए यह टोपी तुझे पहनने के लिए देता हूँ। इसके बाद यदि कोई तेरे से भी ज्यादा बड़ा मूर्ख दिखे तो तू उसे पहनने के लिए दे  देना।'
ज्ञानचंद शांति से वह टोपी लेकर घर वापस आ गया। एक दिन वह नगर सेठ खूब बीमार पड़ा। ज्ञानचंद उससे मिलने गया और उसकी तबीयत के हालचाल पूछे। नगरसेठ ने कहाः  'भाई ! अब तो जाने की तैयारी कर रहा हूँ।' ज्ञानचंद ने पूछाः 'कहाँ जाने की तैयारी कर रहे हो?
वहाँ आपसे पहले किसी व्यक्ति को सब तैयारी करने के  लिए भेजा कि नहीं? आपके साथ आपकी स्त्री, पुत्र, धन, गाड़ी, बंगला वगैरह आयेगा कि नहीं?' 'भाई ! वहाँ कौन साथ आयेगा? कोई भी साथ नहीं आने
वाला है। अकेले ही जाना है। कुटुंब-परिवार, धन-दौलत,  महल-गाड़ियाँ सब छोड़कर यहाँ से जाना है। आत्मा- परमात्मा के सिवाय किसी का साथ नहीं रहने वाला है।' सेठ के इन शब्दों को सुनकर ज्ञानचंद ने खुद को दी गयी वह लाल टोपी नगरसेठ को वापस देते हुए कहाः 'आप ही इसे पहनो।'
नगरसेठः 'क्यों?' 
ज्ञानचंदः 'मुझसे ज्यादा मूर्ख तो आप हैं। जब  आपको पता था कि पूरी संपत्ति, मकान, परिवार वगैरह सब यहीं रह जायेगा, आपका कोई भी साथी आपके साथ नहीं आयेगा, भगवान के सिवाय कोई भी सच्चा सहारा नहीं है, फिर भी आपने  पूरी जिंदगी इन्हीं सबके पीछे क्यों बरबाद कर दी?
सुख में आन बहुत मिल बैठत रहत चौदिस घेरे। विपत पड़े सभी संग छोड़त कोउ न आवे नेरे।।

जब कोई धनवान एवं शक्तिवान होता है तब सभी 'सेठ... सेठ.... साहब... साहब...' करते रहते हैं और अपने स्वार्थ के लिए आपके आसपास घूमते रहते हैं। परंतु जब कोई मुसीबत आती है तब कोई भी मदद के लिए पास नहीं आता। ऐसा जानने के बाद भी आपने  क्षणभंगुर वस्तुओं एवं संबंधों के साथ प्रीति की, भगवान से दूर रहे एवं अपने भविष्य का सामान इकट्ठा न किया तो ऐसी अवस्था में आपसे महान् मूर्ख दूसरा कौन हो सकता है?
गुरु तेगबहादुर जी ने कहा हैः
करणो हुतो सु ना कीओ परिओ लोभ के फंध।
नानक समिओ रमि गइओ अब किउ रोवत अंध।।

सेठ जी ! अब तो आप कुछ भी नहीं कर सकते। आप  भी देख रहे हो कि कोई भी आपकी सहायता करने वाला नहीं है।'  क्या वे लोग महामूर्ख नहीं हैं जो जानते हुए भी मोह- माया में फँसकर ईश्वर से विमुख रहते हैं? संसार की चीजों में, संबंधों का संग एवं दान-पुण्य करते हुए  जिंदगी व्यतीत करते तो इस प्रकार दुःखी होने एवं पछताने का समय न आता।" — जय महाकाल

जानिए, शिव भक्ति और सेवा के ये खास तरीके -

शास्त्रो में भगवान शिव को वेद या ज्ञान स्वरूप माना गया है। इसलिए शिव भक्ति मन की चंचलता को रोक व्यक्ति को दुःख व दुर्गति से बचाने वाली मानी जाती है। भगवान शिव की प्रसन्नता के लिए ही धर्म व लोक परंपराओं में अभिषेक, पूजा व मंत्र जप आदि किए जाते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि तन, मन और वचन के स्तर पर सच्ची शिव भक्ति, उपासना, साधना और सेवा के सही तरीके या विधान क्या हैं? इसका जवाब शिवपुराण में मिलता है, जिसमें शिव सेवा को 'शिव धर्म' भी बताया गया है। जानिए, शिव भक्ति और सेवा के ये खास तरीके -

शिवपुराण के मुताबिक भक्ति के तीन रूप हैं। यह है मानसिक या मन से, वाचिक या बोल से और शारीरिक यानी शरीर से। सरल शब्दों में कहें तो तन, मन और वचन से देव भक्ति।

इनमें भगवान शिव के स्वरूप का चिन्तन मन से, मंत्र और जप वचन से और पूजा परंपरा शरीर से सेवा मानी गई है। इन तीनों तरीकों से की जाने वाली सेवा ही शिव धर्म कहलाती है। इस शिव धर्म या शिव की सेवा के भी पांच रूप हैं, जो शिव भक्ति के 5 सबसे अच्छे उपाय भी माने जाते हैं।
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ध्यान - शिव के रूप में लीन होना या चिन्तन करना ध्यान कहलाता है।

कर्म - लिंगपूजा सहित अन्य शिव पूजन परंपरा कर्म कहलाते हैं।

तप - चान्द्रायण व्रत सहित अन्य शिव व्रत विधान तप कहलाते हैं।

जप - शब्द, मन आदि द्वारा शिव मंत्र का अभ्यास या दोहराव जप कहलाता है।

ज्ञान - भगवान शिव की स्तुति, महिमा और शक्ति बताने वाले शास्त्रों की शिक्षा ज्ञान कही जाती है।

इस तरह शिव धर्म का पालन या शिव की सेवा हर शिव भक्त को बुरे कर्मों, विचारों व इच्छाओं से दूर कर शांति और सुख की ओर ले जाती है।

" समर्पण " :- असीमित पुण्य

प्रणाम !!!
आप सभी का अभिनंदन हैं ||

" समर्पण " :-

एक बार गुजरात की एक रियासत की राजमाता मीलण देवी ने सोमनाथ जी का विधिवत अभिषेक किया | उन्होंने सोने का तुलादान कर उसे सोमनाथ जी को अपित् कर दिया | सोने का तुलादान कर उनके मन में अहंकार भर गया और वह सोचने लगी कि आज तक किसी ने भी इस तरह भगवान का तुलादान नहीं किया होगा | इसके बाद वह अपने महल मे आज गई |
रात में उन्हें सोमनाथ जी के दर्शन हुए | भगवान ने उनसे कहा, मेरे मंदिर मे एक गरीब महिला दर्शन के लिए आई हैं | उसके संचित पुण्य असीमित हैं | उसमें से कुछ पुण्य तुम उसे सोने की मुद्राएं लेकर खरीद लो |परलोक मे काम आएंगे | नींद टूटते ही राजमाता बेचैन हो गई | उन्होंने अपने सैनिकों को मंदिर से उस महिला को राजभवन लाने के लिए कहा |

सैनिक मंदिर पहुँचे और वहाँ से पकड़कर ले आए| गरीब महिला थर- थर कांप रही थी | राजमाता ने उस गरीब महिला से कहा,मुझे अपने संचित पुण्य दे दो,बदले मे मैं तम्हे सोने की मुद्राएं दूंगी| राजमाता की बात सुनकर वह बोली, महारानी जी, मुझ गरीब से भला पुण्य कार्य कैसे हो सकते हैं |

मैं तो खुद दर-दर भीख मागंती हूँ | भीख मे मिले चने चबाते-चबाते मैं तीर्थयात्रा को निकली थी |कल मंदिर मे दर्शन करने से पहले एक मुट्ठी सत्तू मुझे किसी ने दिए थे | उसमें से आधे सत्तू से भगवान सोमनाथ को भोग लगाया तथा बाकी सत्तू एक भूखे भिखारी को खिला दिया | जब मैं भगवान को ठीक ढंग से प्रसाद ही नही चढ़ा पाई तो मुझे पुण्य कहाँ से मिलेगा ? गरीब महिला की बात सुनकर राजमाता का अंहकार नष्ट हो गया | वह समझ गई कि नि:स्वार्थ समर्पण की भावना से प्रसन्न होकर ही भगवान सोमनाथ ने उस महिला को असीमित पुण्य प्रदान किए हैं | इसके बाद राजमाता ने अहंकार त्याग दिया और मानव सेवा को ही अपना सवोर्परि धर्म बना लिया |

विशेष :
प्रभु को वह भक्त अति प्रिय होते है जो बिना किसी स्वार्थ से उन्हें पुजते है | सच्ची श्रद्धा-भाव और अटूट विश्वास-आस्था ही सही मायने मे भक्ति कह लगती है | क्योंकि जहाँ भाव है वही देव हैं |

ऊँ सोमेश्वराय: नमः !!!


:- रीना शिगांणे  " भक्ति-सागर"

प्रभु के नाम का जयकारा जरूर लगाए |  और जीवन को आनन्दमय बनाए |
आप सभी पर शिवाजी की कृपा बनी रहे और आप सभी का दिन मंगलमय हो |

यही हमारी प्रथना है |

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