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गुरुवार, 28 जनवरी 2021

इसलिए कि इन सबके पीछे अन्नदाता का नाम जुड़ा हुवा है।

 बहुत शर्मनाक स्थिति !!
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव गणतंत्र दिवस के अवसर पर पूरे विश्व के सम्मुख देश की जो छवि अन्नदाता किसान बने गुंडो ने जिन्होंने पुलिस पर तलवारें उठायी, पत्थर फेंके, ट्रेक्टर तक चढ़ाने का प्रयास किया, तय रूट्स को तोड़कर उपद्रव फैलाया यह भारतीय इतिहास का काला पन्ना है। क्या सरकार इतनी कमजोर होती है, क्या पुलिस इतनी कमजोर होती है ?
नहीं, यह सब इसलिए जो रहा है कि सरकार चाहती है कि कुछ देशभक्त लोग जो इसे किसान आंदोलन समझ रहे है उन्हें इनकी हकीकत नजर आए, उनकी भी आंखे खुल जाए। इतनी लाठियां, इतने पत्थर, तलवारें अचानक तो नही आ गयी। सब कुछ पहले से तय था। सरकार पर दबाव बनाने के लिए जानबूझ कर इसे इवेंट के रूप में अंजाम दिया गया। यदि किसानों को वास्तव में सरकार पर दबाव बनाना ही था तो अधिक बेहतर होता कि शांतिपूर्ण तरीके से कानून के दायरे में रहकर अभूतपूर्व रैली सम्पन्न होती। लेकिन इस कांड का अंदेशा तो उसी दिन से हो गया था जब पूरा विपक्ष इन आंदोलनकारियों के साथ खड़ा नजर आया था। यह तो होना ही था।
लेकिन, अब एक बात और बात देना चाहूंगा, अब तक तो सरकार किसानों से बात करने का, समाधान देने का हर प्रयास कर रही थी, कोर्ट ने कानूनों पर रोक भी लगा दी थी, लेकिन यह भी देशभक्तो की सरकार है। जो सरकार चीन या पाकिस्तान के सामने कभी नही झुकी, आज किसानों के बीच छुपे गुंडो के सामने तो कतई नही झुकेगी, अब तक मोदीजी ने योगीजी का स्वरूप नही दिखाया, लेकिन अब जरूर देखने को मिलेगा। इतने बड़े लोकतंत्र को चंद गुंडो के सामने गिरवी नही रखा जा सकता।
जिस देश की इतनी लंबी सरहद पर विगत 6 वर्षों में दुश्मन को 1 इंच अंदर नही घुसने दिया गया है उसी देश की उस प्राचीर पर जहाँ तिरंगा फहराया जाता है उस पर आज उपद्रवियों ने दूसरा झंडा फहरा दिया । देश के लिए इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है । आज देश झुक गया है और सिर्फ इसलिए कि इन सबके पीछे अन्नदाता का नाम जुड़ा हुवा है। कसम से, यदि इस आंदोलन में वास्तविक किसान जो नहीं जुड़ा होता तो मोदीजी अब तक निपटा भी देते। खैर, मोदीजी छोड़ने वाले भी नही है। बस एक काम अच्छा हो गया कि आज उन लोगों की भी आंखे खुल गयी होगी जो अब तक इसे किसान आंदोलन मान रहे थे।
प्रभु सबको सद्बुद्धि दे। 🙏🙏

अभी कई दुष्टों का पर्दा उठना बाकी है |


 आज एक बार पुनः महाभारत के उस प्रसंग की यादे ताजा हो गयी
जब भगवन श्री कृष्ण महाभारत युद्ध से पूर्व सेनाये सज जाने के बाद भी
अंतिम प्रयास के रूप में धृतराष्ट्र की सभा में संधि प्रस्ताव लेकर जाते है सब कुछ जानते हुवे भी की दुर्योधन पांड्वो को आधा राज्य देना तो दूर पांच गाँव तक देने को तैयार नहीं होगा |
हकीकत में वे सिर्फ समाज को यह बतलाने के लिए ऐसा करते है की भविष्य में कोई विद्वान या चिन्तक यह ना कह दे की युद्ध टाला जा सकता था |
आज एक बार फिर अक्षरश: वही हुवा है, मोदी सरकार सब जानती थी की यह आन्दोलन किसान कानूनों के लिए कभी था ही नहीं, यह तो मोदी सरकार की बढ़ती लोकप्रियता को धवस्त करने की देश विरोधियो की कुटिल चाले है | लेकिन अभिव्यक्ति हेतु स्वतंत्र भारतीय लोकतान्त्रिक समाज भविष्य में कभी यह ना कह दे की समाधान हेतु हरसंभव प्रयास ही नहीं किये गये | सरकार के बड़े से बड़े मंत्री ने किसान वार्ता के माध्यम से हर संभव समाधान दिए, लेकिन सबको पता था की सामने जो लोग थे उनमे से कोई भी समाधान चाहता ही नहीं था और अंतत: यह तो होना ही था, सब तैयारी इसी के लिए तो थी, शाहीन बाग़ फेल हुवा, विश्वविद्यालय काण्ड फेल हुवा, असंभव सी धारा 370 हटा दी गयी, 500 वर्षो की लडाई राम मंदिर निर्माण की जीत ली गयी | आखिर देश विरोधियो को इतने बड़े बड़े घाव, मवाद तो निकलनी ही थी |
घबराइयेगा बिलकुल मत ! अभी आगे आगे देखिये !
इस महाभारत के कृष्ण भी मोदी है और अर्जुन भी | अभी कई दुष्टों का पर्दा उठना बाकी है |
ये कृष्ण और अर्जुन बख्शेंगे किसी को भी नहीं |
हर दुष्ट को सामने लाकर, उसके गुनाहों से पूरा पर्दा उठाकर
स्वच्छ भारत अभियान को सफल बनायेंगे |
जय हिन्द !!

चिदानन्दमय देह तुम्हारी । विगत विकार जान अधिकारी


 रामचरितमानस के अयोध्याकाण्ड में तुलसीदास जी ने भगवान् राम की स्तुति करते हुए कहा है ---

"चिदानन्दमय  देह  तुम्हारी ।
विगत विकार जान अधिकारी ।।"

आपका यह शरीर पंच-महाभूतों का विकार नहीं है , किन्तु सच्चिदानन्द-स्वरूप है ।

अर्थात् आपका स्थूल शरीर सत् , सूक्ष्म शरीर चित्  तथा कारण शरीर आनन्द तत्त्व से बना है ।

जिसका आपकी अन्तरङ्ग लीला में प्रवेश हो चुका है , वह अधिकारी पुरुष ही आपके सच्चिदानन्द-स्वरूप विकार रहित शरीर के सम्बन्ध में जान सकता है ।

भागवत के दशम स्कन्ध के चौदहवें अध्याय में ब्रह्मा जी भी भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति कहते हैं --

"आपका यह शरीर पंच-भौतिक नहीं है , किन्तु दिव्यातिदिव्य है , चिन्मय-अविनाशी है।"

वैशेषिक-दर्शन में कणाद जी ने छः प्रकार के स्थूल शरीरों का वर्णन किया है ---

१ . सर्वसाधारण प्राणियों के पार्थिव शरीर।

२.  वरुण लोक के जल तत्त्व प्रधान जलीय शरीर ।

३. इन्द्र तथा ब्रह्मादि लोकों के अग्नि तत्त्व प्रधान दिव्य शरीर ।

४. वायु तत्त्व की प्रधानता वाले भूत-प्रेत-बेताल-कूष्माण्ड-ब्रह्मराक्षस आदिकों के स्थूल नेत्रों से न दिखाई देने वाले वायु तत्त्व प्रधान वायवीय शरीर ।

५.  युक्त-योगियों की सत्य-संकल्पता से युक्त यौगिक शरीर अर्थात् योगी जब अपने प्रतिबिम्ब में धारणा-ध्यान-समाधि का संयम करते हैं , तब अनेक रूप धारण कर लेते हैं ।

जैसे भगवान् कृष्ण ने रास-क्रीड़ा में अनेक रूप धारण किये ।

भगवान् राम ने दण्डक वन में खर-दूषण-त्रिशिरा से युद्ध करते समय सबको राम रूप दे दिया ।

६. दिव्यातिदिव्य शरीर --    महाविष्णु , परम शिव, परम स्वरूपा दुर्गा , महागणपति एवं राम-कृषणादि अवतारों के शरीर दिव्यातिदिव्य कहलाते हैं ।

देवताओं के शरीर दिव्य है , उनके शरीरों से पसीना नहीं निकलता , बुढापा नहीं आता ।

परन्तु देवता आंख से देखते व कान से सुनते हैं अर्थात् उनकी प्रत्येक इन्द्रिय एक प्रकार का कर्म तथा ज्ञानेन्द्रिय द्वारा एक प्रकार का ज्ञान होता है ।

किन्तु दिव्यातिदिव्य राम-कृषणादि के शरीरों में यह विशेषता है कि उनकी प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय में पांचों प्रकार की ज्ञान शक्तियां रहती हैं , यह विशेषता देवताओं में नहीं होता ।

अतः मनुष्य तो क्या ब्रह्मवेत्ता महर्षि तथा देवता भी उनका नित्य वैकुण्ठ तथा गोलोक धाम और भगवान् का श्रीविग्रह अविनाशी-अमृत रूप कैसे है , नहीं समझ सकते ।

किन्तु भगवान् की विशेष कृपा तथा सद्गुरुओं की महती कृपा से प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं ।

यतिधर्म में कहा है --

दुर्लभो विषयत्यागो दुर्लभं तत्त्वदर्शनम् ।
दुर्लभा सहजावस्था सद्गुरो: करुणां विना ।।

कालनेमि की रोचक कथा


 ‼️कालनेमि की रोचक कथा‼️

एक ऐसा दैत्य जिसने कलियुग तक भगवान विष्णु का पीछा नहीं छोड़ा...

सतयुग में दो महाशक्तिशाली दैत्य हुए - हिरण्यकशिपु एवं हिरण्याक्ष। ये इतने शक्तिशाली थे कि इनका वध करने को स्वयं भगवान विष्णु को अवतार लेना पड़ा। हिरण्याक्ष ने अपनी शक्ति से पृथ्वी को सागर में डुबो दिया। तब नारायण ने वाराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष का वध किया। उसके दो पुत्र थे - अंधक एवं कालनेमि जो उसके ही समान शक्तिशली थे।

जब तक उनके चाचा हिरण्यकशिपु जीवित रहे, उन्होंने उनके संरक्षण में जीवन बिताया किन्तु जब नारायण ने हिरण्यकशिपु को नृसिंह अवतार लेकर मारा तब दोनों भाई ने प्रतिशोध लेने की ठानी। अंधक अपनी महान शक्ति के मद में आकर देवी पार्वती से धृष्टता कर बैठा और महारुद्र के हाथों मारा गया। तब कालनेमि ने महादेव से प्रतिशोध लेने हेतु अपनी पुत्री वृंदा, जिसे ये वरदान प्राप्त था कि उसके होते उसके पति की मृत्यु नहीं हो सकती, उसका विवाह जालंधर नमक दैत्य से कर दिया जो महादेव का घोर शत्रु था।

 हालाँकि वृंदा का सतीत्व भी जालंधर को बचा नहीं सका और वो नारायण के छल के कारण भगवान शिव के हाथों मारा गया। जब कालनेमि को विष्णु के छल और अपनी पुत्री और दामाद के मृत्यु का समाचार मिला तो उसने नारायण से प्रतिशोध लेने की प्रतिज्ञा की।

परमपिता ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीचि, जो प्रजापति होने के साथ-साथ सप्तर्षिओं में भी एक थे, उनके छः पुत्र हुए। एक दिन महर्षि मारीचि अपने पुत्रों के साथ अपने पिता ब्रह्मदेव से मिलने गए। वहाँ देवी सरस्वती भी उपस्थित थी। जब वे वहाँ पहुँचे तो उनके सभी पुत्रों ने अपने पितामह ब्रह्मा से परिहास में ही कहा कि - "हे पितामह! सुना है कि आपने अपनी ही पुत्री देवी सरस्वती से विवाह कर लिया था। ये कैसे संभव है?" ऐसा कह कर सारे हँसने लगे।

तब ब्रह्माजी ने उन सभी को श्राप दिया कि अगले जन्म में वो एक दैत्य के रूप में जन्मेंगे। उनके क्षमा माँगने पर उन्होंने कहा कि उसके भी अगले जन्म में उन्हें नारायण के बड़े भाई के रूप में जन्म लेने का सौभाग्य मिलेगा और उन्हें अधिक समय तक पृथ्वीलोक पर ना रहना पड़े इसी कारण जन्मते ही उन्हें मुक्ति मिल जाएगी।

 उधर कालनेमि अपने पिता हिरण्याक्ष के वध का प्रतिशोध लेने के लिए ब्रह्माजी की तपस्या कर रहा था। जब ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तो उसने वरदान माँगा कि उसे छः ऐसे पुत्र मिलें जो अजेय हों। तब ब्रह्मदेव के वरदान स्वरूप महर्षि मरीचि के श्रापग्रसित छः पुत्र अगले जन्म में कालनेमि के छः पुत्रों के रूप में जन्मे। उनके अतिरिक्त उसकी एक और कन्या थी वृंदा, जिसे तुलसी के नाम से भी जानते हैं।

 जब कालनेमि के छः पुत्रों ने उत्पात मचाना शुरू किया तो कालनेमि के चाचा हिरण्यकशिपु ने उन्हें पाताल जाने की आज्ञा दे दी। कालनेमि के रोकने पर भी उन सभी ने हिरण्यकशिपु की आज्ञा मानी और पाताल जाकर बस गए। इससे कालनेमि स्वयं अपने पुत्रों का शत्रु हो गया और निश्चय किया कि वो अगले जन्म में अपने ही पुत्रों का अपने हाथों से वध करेगा।

इसके बाद अपने चाचा हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात, अपने भाई प्रह्लाद के लाख समझाने के बाद भी कालनेमि ने भगवान विष्णु पर आक्रमण कर दिया। उस युद्ध में उसने देवी दुर्गा की भांति सिंह को अपना वाहन बनाया। दोनों में घनघोर युद्ध हुआ और कहा जाता है कि उस युद्ध में कालनेमि ने भगवान विष्णु पर ब्रह्मास्त्र से प्रहार किया किन्तु उससे नारायण को कोई हानि नहीं हुई। फिर कालनेमि ने नारायण पर एक अमोघ त्रिशूल से प्रहार किया किन्तु नारायण ने उसे बीच में ही पकड़ कर नष्ट कर दया।

फिर उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से कालनेमि का अंत कर दिया। मरते हुए उसने प्रतिज्ञा की कि वो फिर जन्म लेगा और नारायण से प्रतिशोध लेगा। अपने भाई की मृत्यु पर प्रह्लाद अत्यंत दुखी हो गया। अंततः प्रह्लाद की प्राथना पर भगवान विष्णु ने उसे आश्वासन दिलाया कि अगले जन्म में भी वही उसका वध करके उसे जीवन मरण के चक्र से मुक्त करेंगे।

मथुरा के राजा उग्रसेन अपनी पत्नी पद्मावती के साथ सुख से राज कर रहे थे। विवाह के तुरंत बाद पद्मावती अपने पिता सत्यकेतु के घर गयी। एक बार कुबेर का एक संदेशवाहक गन्धर्व द्रुमिला (गोभिला) सत्यकेतु से मिलने आया। जब उसने पद्मावती को देखा तो उसके सौंदर्य पर मोहित हो गया। उसने छल से उग्रसेन का वेश बनाया और पद्मावती से मिलने आया। पद्मावती उसे अपना पति समझ कर उसके साथ उसी प्रकार का व्यहवार करने लगी।

 थोड़े दिनों के पश्चात उसके पुत्र के रूप में कालनेमि ने नारायण से प्रतिशोध लेने के लिए जन्म लिया। उसका नाम कंस रखा गया। उसके जन्म के पश्चात देवर्षि नारद ने पद्मावती को गन्धर्व के छल के बारे में बता दिया जिससे उसे अपने पुत्र से घृणा हो गयी। उसने अपने पति उग्रसेन को तो कुछ नहीं बतया किन्तु वो मन ही मन उसकी मृत्यु की कामना करने लगी।

आगे चल कर कंस ने अपने पिता को कैद कर लिया और ये जानकर कि देवकी उस संतान को जन्म देगी जो उसके वध का कारण बनेगा, उसे भी कारावास में डाल दिया। बाद में उसे पता चला कि देवकी की आठवीं संतान के रूप में भगवान विष्णु जन्म लेंगे तो उसने उसे मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने की ठानी। देवकी के पहले छः पुत्रों के रूप में कालनेमि के छः पुत्र जन्मे जिन्हे मारकर कंस रुपी कालनेमि ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण की।

 देवकी की सातवीं संतान संकर्षित हो वासुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के गर्भ में चली गयी जिससे बलराम का जन्म हुआ। देवकी के गर्भ से उनकी जगह महामाया ने जन्म लिया जिसने बताया कि देवकी की आठवीं संतान का भी जन्म हो गया है। अपना प्रतिशोध लेने के लिए कंसरुपी कालनेमि ने कृष्ण के कारण गोकुल के सभी बच्चों के वध का आदेश दिया। सैकड़ों बच्चे मारे गए किन्तु कृष्ण को कुछ नहीं हुआ। १६ वर्ष की आयु में कृष्ण ने अपने भाई बलराम के साथ कंस का वध कर संसार को उसके अत्याचार से मुक्त किया।

इस प्रकार कालनेमि ने सतयुग से द्वापर तक नारायण का पीछा किया किन्तु प्रभु को कौन मार सका है? हर बार उसे अपने प्राण गवाने पड़े। कहते है कि कालनेमि ही द्वापर के अंत समय प्रत्येक रात्रि के रूप में उसे कलियुग के और निकट ले जाता है। यहाँ तक कि कलियुग को भी कालनेमि का अवतार माना जाता है। ये भी मान्यता है कि अपना प्रतिशोध लेने के लिए ही कालनेमि कलियुग के रूप में जन्मा ताकि इस युग में भी वो नारायण के कल्कि अवतार से प्रतिशोध ले सके। हालाँकि अगर ये सत्य है तो हम जानते हैं कि इसका परिणाम क्या होगा।

‼️ जय श्रीहरि विष्णु।‼️

श्री कृष्ण के बारे में रोचक जानकारीया


 श्री कृष्ण के बारे में रोचक जानकारीया
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कृष्ण को पूर्णावतार कहा गया है। कृष्ण के जीवन में वह सबकुछ है जिसकी मानव को आवश्यकता होती है। कृष्ण गुरु हैं, तो शिष्य भी। आदर्श पति हैं तो प्रेमी भी। आदर्श मित्र हैं, तो शत्रु भी। वे आदर्श पुत्र हैं, तो पिता भी। युद्ध में कुशल हैं तो बुद्ध भी। कृष्ण के जीवन में हर वह रंग है, जो धरती पर पाए जाते हैं इसीलिए तो उन्हें पूर्णावतार कहा गया है। मूढ़ हैं वे लोग, जो उन्हें छोड़कर अन्य को भजते हैं… ‘भज गोविन्दं मुढ़मते।

आठ का अंक
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 कृष्ण के जीवन में आठ अंक का अजब संयोग है। उनका जन्म आठवें मनु के काल में अष्टमी के दिन वसुदेव के आठवें पुत्र के रूप में जन्म हुआ था। उनकी आठ सखियां, आठ पत्नियां, आठमित्र और आठ शत्रु थे। इस तरह उनके जीवन में आठ अंक का बहुत संयोग है।
 
कृष्ण के नाम
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 नंदलाल, गोपाल, बांके बिहारी, कन्हैया, केशव, श्याम, रणछोड़दास, द्वारिकाधीश और वासुदेव। बाकी बाद में भक्तों ने रखे जैसे ‍मुरलीधर, माधव, गिरधारी, घनश्याम, माखनचोर, मुरारी, मनोहर, हरि, रासबिहारी आदि।

कृष्ण के माता-पिता
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 कृष्ण की माता का नाम देवकी और पिता का नाम वसुदेव था। उनको जिन्होंने पाला था उनका नाम यशोदा और धर्मपिता का नाम नंद था। बलराम की माता रोहिणी ने भी उन्हें माता के समान दुलार दिया। रोहिणी वसुदेव की प‍त्नी थीं।

कृष्ण के गुरु
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 गुरु संदीपनि ने कृष्ण को वेद शास्त्रों सहित 14 विद्या और 64 कलाओं का ज्ञान दिया था। गुरु घोरंगिरस ने सांगोपांग ब्रह्म ‍ज्ञान की शिक्षा दी थी। माना यह भी जाता है कि श्रीकृष्ण अपने चचेरे भाई और जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर नेमिनाथ के प्रवचन सुना करते थे।

कृष्ण के भाई
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कृष्ण के भाइयों में नेमिनाथ, बलराम और गद थे। शौरपुरी (मथुरा) के यादववंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे नेमिनाथ। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वसुदेव से उत्पन्न हुए भगवान श्रीकृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। इसके बाद बलराम और गद भी कृष्ण के भाई थे।

कृष्ण की बहनें
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कृष्ण की 3 बहनें थी :

1. एकानंगा (यह यशोदा की पुत्री थीं)।

2. सुभद्रा : वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी से बलराम और सुभद्र का जन्म हुआ। वसुदेव देवकी के साथ जिस समय कारागृह में बंदी थे, उस समय ये नंद के यहां रहती थीं। सुभद्रा का विवाह कृष्ण ने अपनी बुआ कुंती के पुत्र अर्जुन से किया था। जबकि बलराम दुर्योधन से करना चाहते थे।

3. द्रौपदी : पांडवों की पत्नी द्रौपदी हालांकि कृष्ण की बहन नहीं थी, लेकिन श्रीकृष्‍ण इसे अपनी मानस ‍भगिनी मानते थे।

4.देवकी के गर्भ से सती ने महामाया के रूप में इनके घर जन्म लिया, जो कंस के पटकने पर हाथ से छूट गई थी। कहते हैं, विन्ध्याचल में इसी देवी का निवास है। यह भी कृष्ण की बहन थीं।

कृष्ण की पत्नियां
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 रुक्मिणी, जाम्बवंती, सत्यभामा, मित्रवंदा, सत्या, लक्ष्मणा, भद्रा और कालिंदी।

कृष्ण के पुत्र
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रुक्मणी से प्रद्युम्न, चारुदेष्ण, जम्बवंती से साम्ब, मित्रवंदा से वृक, सत्या से वीर, सत्यभामा से भानु, लक्ष्मणा से…, भद्रा से… और कालिंदी से…।

कृष्ण की पुत्रियां
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रुक्मणी से कृष्ण की एक पुत्री थीं जिसका नाम चारू था।

कृष्ण के पौत्र
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प्रद्युम्न से अनिरुद्ध। अनिरुद्ध का विवाह वाणासुर की पुत्री उषा के साथ हुआ था।

कृष्ण की 8 सखियां
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 राधा, ललिता आदि सहित कृष्ण की 8 सखियां थीं। सखियों के नाम निम्न हैं-

 ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार इनके नाम इस तरह हैं- चन्द्रावली, श्यामा, शैव्या, पद्या, राधा, ललिता, विशाखा तथा भद्रा।

कुछ जगह ये नाम इस प्रकार हैं- चित्रा, सुदेवी, ललिता, विशाखा, चम्पकलता, तुंगविद्या, इन्दुलेखा, रग्डदेवी और सुदेवी।
 इसके अलावा भौमासुर से मुक्त कराई गई सभी महिलाएं कृष्ण की सखियां थीं। कुछ जगह पर- ललिता, विशाखा, चम्पकलता, चित्रादेवी, तुङ्गविद्या, इन्दुलेखा, रंगदेवी और कृत्रिमा (मनेली)। इनमें से कुछ नामों में अंतर है।

कृष्ण के 8 मित्र
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 श्रीदामा, सुदामा, सुबल, स्तोक कृष्ण, अर्जुन, वृषबन्धु, मन:सौख्य, सुभग, बली और प्राणभानु।
इनमें से आठ उनके साथ मित्र थे। ये नाम आदिपुराण में मिलते हैं। हालांकि इसके अलावा भी कृष्ण के हजारों मित्र थे जिसनें दुर्योधन का नाम भी लिया जाता है।

कृष्ण के शत्रु
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कंस, जरासंध, शिशुपाल, कालयवन, पौंड्रक। कंस तो मामा था। कंस का श्वसुर जरासंध था। शिशुपाल कृष्ण की बुआ का लड़का था। कालयवन यवन जाति का मलेच्छ जा था जो जरासंध का मित्र था। पौंड्रक काशी नरेश था जो खुद को विष्णु का अवतार मानता था।

कृष्ण के शिष्य
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कृष्ण ने किया जिनका वध : ताड़का, पूतना, चाणूड़, शकटासुर, कालिया, धेनुक, प्रलंब, अरिष्टासुर, बकासुर, तृणावर्त अघासुर, मुष्टिक, यमलार्जुन, द्विविद, केशी, व्योमासुर, कंस, प्रौंड्रक और नरकासुर आदि।

कृष्ण चिन्ह
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 सुदर्शन चक्र, मोर मुकुट, बंसी, पितांभर वस्त्र, पांचजन्य शंख, गाय, कमल का फूल और माखन मिश्री।

कृष्ण लोक
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 वैकुंठ, गोलोक, विष्णु लोक।
कृष्ण ग्रंथ : महाभारत और गीता

कृष्ण का कुल
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यदुकुल। कृष्ण के समय उनके कुल के कुल 18 कुल थे। अर्थात उनके कुल की कुल 18 शाखाएं थीं। यह अंधक-वृष्णियों का कुल था। वृष्णि होने के कारण ये वैष्णव कहलाए। अन्धक, वृष्णि, कुकर, दाशार्ह भोजक आदि यादवों की समस्त शाखाएं मथुरा में कुकरपुरी (घाटी ककोरन) नामक स्थान में यमुना के तट पर मथुरा के उग्रसेन महाराज के संरक्षण में निवास करती थीं।

शाप के चलते सिर्फ यदु‍ओं का नाश होने के बाद अर्जुन द्वारा श्रीकृष्ण के पौत्र वज्रनाभ को द्वारिका से मथुरा लाकर उन्हें मथुरा जनपद का शासक बनाया गया। इसी समय परीक्षित भी हस्तिनापुर की गद्दी पर बैठाए गए। वज्र के नाम पर बाद में यह संपूर्ण क्षेत्र ब्रज कहलाने लगा। जरासंध के वंशज सृतजय ने वज्रनाभ वंशज शतसेन से 2781 वि.पू. में मथुरा का राज्य छीन लिया था। बाद में मागधों के राजाओं की गद्दी प्रद्योत, शिशुनाग वंशधरों पर होती हुई नंद ओर मौर्यवंश पर आई। मथुराकेमथुर नंदगाव, वृंदावन, गोवर्धन, बरसाना, मधुवन और द्वारिका।

कृष्ण पर्व
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 श्री कृष्ण ने ही होली और अन्नकूट महोत्सव की शुरुआत की थी। जन्माष्टमी के दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता है।

मथुरा मंडल के ये 41 स्थान कृष्ण से जुड़े हैं
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मधुवन, तालवन, कुमुदवन, शांतनु कुण्ड, सतोहा, बहुलावन, राधा-कृष्ण कुण्ड, गोवर्धन, काम्यक वन, संच्दर सरोवर, जतीपुरा, डीग का लक्ष्मण मंदिर, साक्षी गोपाल मंदिर, जल महल, कमोद वन, चरन पहाड़ी कुण्ड, काम्यवन, बरसाना, नंदगांव, जावट, कोकिलावन, कोसी, शेरगढ, चीर घाट, नौहझील, श्री भद्रवन, भांडीरवन, बेलवन, राया वन, गोपाल कुण्ड, कबीर कुण्ड, भोयी कुण्ड, ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर, दाऊजी, महावन, ब्रह्मांड घाट, चिंताहरण महादेव, गोकुल, संकेत तीर्थ, लोहवन और वृन्दावन। इसके बाद द्वारिका, तिरुपति बालाजी, श्रीनाथद्वारा और खाटू श्याम प्रमुख कृष्ण स्थान है।

भक्तिकाल के कृष्ण भक्त:
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 सूरदास, ध्रुवदास, रसखान, व्यासजी, स्वामी हरिदास, मीराबाई, गदाधर भट्ट, हितहरिवंश, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास, कुंभनदास, परमानंद, कृष्णदास, श्रीभट्ट, सूरदास मदनमोहन, नंददास, चैतन्य महाप्रभु आदि।         

कृष्णा जिनका नाम है
गोकुल जिनका धाम है
ऐसे श्री कृष्ण को मेरा
बारम्बार प्रणाम है।                             

जय श्रीराधे कृष्णा

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