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रविवार, 16 जनवरी 2022

अंग्रेजों ने कब और कैसे गौहत्या शुरू की थी और ये आज तक क्यों बंद नहीं हुई?

*🚩अंग्रेजों ने कब और कैसे गौहत्या शुरू की थी और ये आज तक क्यों बंद नहीं हुई?*

*🚩भारत में गौहत्या को बढ़ावा देने में अंग्रेज़ों ने अहम भूमिका निभाई। जब 1700 ई. में अंग्रेज़ भारत आए थे उस वक़्त यहां गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था। हिंदू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते थे। अंग्रेजों ने मुसलमानों को भड़काया कि क़ुरान में कहीं भी नहीं लिखा है कि गाय की क़ुर्बानी हराम है इसलिए उन्हें गाय की क़ुर्बानी करनी चाहिए। उन्होंने मुसलमानों को लालच भी दिया और कुछ लोग उनके झांसे में आ गए। इसी तरह उन्होंने दलित हिंदुओं को सुअर के मांस की बिक्री कर मोटी रकम कमाने का झांसा दिया। नतीजतन 18वीं सदी के आख़िर तक बड़े पैमाने पर गौ हत्या होने लगी। अंग्रेज़ों की बंगाल, मद्रास और बंबई प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों ने देशभर में कसाईखाने बनवाए।  जैसे-जैसे यहां अंग्रेज़ी सेना और अधिकारियों की तादाद बढ़ती गई वैसे-वैसे गौहत्या में भी बढ़ोत्तरी होती गई।*

*🚩गौहत्या और सुअर हत्या की आड़ में अंग्रेज़ों को हिंदू और मुसलमानों में फूट डालने का भी मौक़ा मिल गया। इस दौरान हिंदू संगठनों ने गौहत्या के ख़िला़फ मुहिम छेड़ दी। नामधारी सिखों के कूका आंदोलन की नींव गौरक्षा के विचार से ही जुड़ी थी।*

*🚩यह आंदोलन भी एक ऐसा इतिहास है जो समय के पन्नों के नीचे जानबूझ कर दबाया गया। एक गहरी व सोची समझी साजिश थी इसके पीछे क्योंकि यहां संबंध गाय से था और गाय शब्द आते ही स्वघोषित इतिहासकारों की भृकुटियां तन जाती है क्योंकि उसमें से तो कुछ गाय खाते हुए सेल्फी तक डालते हैं।*

*🚩गाय शब्द आते ही बुद्धिजीवियों के एक बड़े वर्ग में बेचैनी आ जाती है क्योंकि गाय की रक्षा को उन्होंने एक बेहद नए व आयातित शब्द से जोड़ रखा है जिसका नाम मॉब लिंचिंग है। गाय शब्द आते ही सत्ता में भी हलचल मचती है क्योंकि संसद में गौ-रक्षकों को सज़ा दिलाने के लिए कुछ लोग अपनी सीट तक छोड़ देते हैं और संसद तक नहीं चलने देते हैं। उसी गौमाता की रक्षा हेतु उनके रक्षकों का 17 जनवरी को बलिदान दिवस है जो परम् गौभक्त रामसिंह कूका के नेतृत्व में थे।*

*🚩17 जनवरी, 1872 की प्रातः ग्राम जमालपुर (मालेरकोटला, पंजाब) के मैदान में भारी भीड़ एकत्र थी। एक-एक कर 50 गौभक्त सिख वीर वहाँ लाये गये। उनके हाथ पीछे बँधे थे। इन्हें मृत्युदण्ड दिया जाना था। ये सब सद्गुरु रामसिंह कूका के शिष्य थे। अंग्रेज जिलाधीश कोवन ने इनके मुह पर काला कपड़ा बाँधकर पीठ पर गोली मारने का आदेश दिया पर इन वीरों ने साफ कह दिया कि वे न तो कपड़ा बँधवाएंगे और न ही पीठ पर गोली खायेंगे। तब मैदान में एक बड़ी तोप लायी गयी।  अनेक समूहों में इन वीरों को तोप के सामने खड़ा कर गोला दाग दिया जाता। गोले के दगते ही गरम मानव खून के छींटे और मांस के लोथड़े हवा में उड़ते। जनता में अंग्रेज शासन की दहशत बैठ रही थी। कोवन का उद्देश्य पूरा हो रहा था। उसकी पत्नी भी इस दृश्य का आनन्द उठा रही थी।*

*🚩इस प्रकार 49 वीरों ने मृत्यु का वरण किया पर 50वें को देखकर जनता चीख पड़ी। वह तो केवल 12 वर्ष का एक छोटा बालक बिशनसिंह था। अभी तो उसके चेहरे पर मूँछें भी नहीं आयी थीं । उसे देखकर कोवन की पत्नी का दिल भी पसीज गया। उसने अपने पति से उसे माफ कर देने को कहा। कोवन ने बिशनसिंह के सामने रामसिंह को गाली देते हुए कहा कि यदि तुम उस धूर्त का साथ छोड़ दो, तो तुम्हें माफ किया जा सकता है। यह सुनकर बिशनसिंह क्रोध से जल उठा। उसने उछलकर कोवन की दाढ़ी को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे बुरी तरह खींचने लगा। कोवन ने बहुत प्रयत्न किया; पर वह उस तेजस्वी बालक की पकड़ से अपनी दाढ़ी नहीं छुड़ा सका। इसके बाद बालक ने उसे धरती पर गिरा दिया और उसका गला दबाने लगा। यह देखकर सैनिक दौड़े और उन्होंने तलवार से उसके दोनों हाथ काट दिये। इसके बाद उसे वहीं गोली मार दी गयी। इस प्रकार 50 कूका वीर उस दिन बलिपथ पर चल दिये।*

*🚩गुरु रामसिंह कूका का जन्म 1816 ई0 की वसन्त पंचमी को लुधियाना के भैणी ग्राम में जस्सासिंह बढ़ई के घर में हुआ था। वे शुरू से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। कुछ वर्ष वे महाराजा रणजीत सिंह की सेना में रहे। फिर अपने गाँव में खेती करने लगे। वे सबसे अंग्रेजों का विरोध करने तथा समाज की कुरीतियों को मिटाने को कहते थे। उन्होंने सामूहिक, अन्तरजातीय और विधवा विवाह की प्रथा चलाई। उनके शिष्य ही ‘कूका’ कहलाते थे।  कूका आन्दोलन का प्रारम्भ 1857 में पंजाब के विख्यात बैसाखी पर्व (13 अप्रैल) पर भैणी साहब में हुआ। गुरु रामसिंहजी गोसंरक्षण, स्वदेशी के उपयोग पर बहुत बल देते थे। उन्होंने ही सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतन्त्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी।*

*🚩मकर संक्रान्ति मेले में मलेरकोटला से भैणी आ रहे गुरुमुख सिंह नामक एक कूका के सामने मुसलमानों ने जानबूझ कर गौहत्या की।  यह जानकर कूका वीर बदला लेने को चल पड़े।  उन्होंने उन गौहत्यारों पर हमला बोल दिया; पर उनकी शक्ति बहुत कम थी। दूसरी ओर से अंग्रेज पुलिस एवं फौज भी आ गयी। अनेक कूका मारे गये और 68 पकड़े गये। इनमें से 50 को 17 जनवरी को तथा शेष को अगले दिन मृत्युदण्ड दिया गया।*

*🚩अंग्रेज जानते थे कि इन सबके पीछे गुरु रामसिंह कूका की ही प्रेरणा है। अतः उन्हें भी गिरफ्तार कर बर्मा की जेल में भेज दिया। 14 साल तक वहाँ काल कोठरी में कठोर अत्याचार सहकर 1885 में सदगुरु रामसिंह कूका ने अपना शरीर त्याग दिया।  उन सभी गौभक्तों को उनके बलिदान पर नमन 🙏*

*🚩भारतीय इतिहास में गौहत्या को लेकर कई आंदोलन हुए हैं और कई आज भी जारी हैं। लेकिन अभी तक गौहत्या पर प्रतिबन्ध नहीं लग सका है। इसका सबसे बड़ा कारण राजनैतिक इच्छाशक्ति की कमी होना है। आप कल्पना कीजिये- हर रोज जब आप सोकर उठते हैं तब तक हज़ारों गायों के गलों पर छूरी चल चुकी होती है। गौहत्या से सबसे बड़ा फ़ायदा तस्करों एवं गाय के चमड़े का कारोबार करने वालों को होता है। इनके दबाव के कारण ही सरकार गौहत्या पर प्रतिबन्ध लगाने से पीछे हट रही है। वरना जिस देश में गाय को माता के रूप में पूजा जाता हो वहां सरकार गौहत्या रोकने में नाकाम है। आज हमारे देश की जनता ने नरेन्द्र मोदीजी की सरकार चुनी है। सेक्युलरवाद और अल्पसंख्यकवाद के नाम पर पिछले अनेक दशकों से बहुसंख्यक हिन्दुओं के अधिकारों का दमन होता आया है। उसीके प्रतिरोध में हिन्दू प्रजा ने संगठित होकर जात-पात से ऊपर उठकर एक सशक्त सरकार को चुना है। इसलिए यह इस सरकार का कर्त्तव्य बनता है कि वह बदले में हिन्दुओं की शताब्दियों से चली आ रही गौरक्षा की मांग को पूरा करे और गौहत्या पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगाए।*

जिहाले मस्ती माकुंबरंजिश बहारे हिजरा बेचारा दिल हैं - इस वाक्य का क्या अर्थ हैं

 

"जिहाले मस्ती माकुंबरंजिश बहारे हिजरा बेचारा दिल हैं" इस वाक्य का क्या अर्थ हैं और यह किस भाषा में हैं?


पंक्तियां मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म गुलामी के एक गाने की शुरुआत में कहीं गई हैं। दरअसल ये फारसी भाषा के शब्द हैं। ये पूरी लाइन इस प्रकार है

जिहाल-ए -मिस्कीन मकुन बा रंजिश,
बहाल-ए -हिजरा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन,
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है।

इसका अर्थ है मुझ गरीब(मिस्कीन) को रंजिश से भरी इन निगाहों से ना देखो, क्योंकि मेरा बेचारा दिल जुदाई(हिजरा) के मारे यूँ ही बेहाल है। जिस दिल कि धड़कन तुम सुन रहे हो वो तुम्हारा या मेरा ही दिल है।

इस गीत की पंक्तियों को अमीर खुसरो की शायरी से लिया गया है जो इस प्रकार है

ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल,
दुराये नैना बनाये बतियां।
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऎ जान,
न लेहो काहे लगाये छतियां। ।

यह शायरी फारसी और ब्रज के अनोखे सम्मेलन से बनाई गई है। इसमें खुसरो ने दो भाषाओं की विविधता द्वारा यह शायरी तैयार की थी इसका अर्थ है

मुझ गरीब को यूं आंखे इधर उधर दौड़ाकर और बातें बनाकर नजरअंदाज(तगाफुल) ना करो। मैं अब और जुदाई नहीं सह सकता तुमसे अय जान तुम क्यों नहीं आके मुझे सीने से लगा लेती हो।

आज उप्र की विकास दर चीन की विकास दर से ज़्यादा है

जो सोने की चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुए.... वह एक बार फिर पिछड़े के रूप में सत्ता हथियाने के इच्छुक हैं.... अंतहीन षड्यंत्र रच रहे हैं... हिंदुओं का विखंडन करने के लिए कोई कुचेष्ठा छोड़ नहीं रहे हैं....
                नीचे बालक रूप में... योगी आदित्यनाथ का बड़ा प्रसिद्ध चित्र है... ज़रा फटी पैंट देखिये... अपने पैरों से छोटी किसी और की पहनी चप्पलें देखिये... बचपन की गरीबी और मुफलिसी देखिये.... यही बच्चा आगे चलकर Bsc में प्रथम श्रेणी में पास होता है, गणित और भौतिकी में विशेष योग्यता पाता है.... 
           पिता की मृत्यु होती है,योगी आदित्यनाथ सन्यास की शपथ में बंधे थे, पिता के अंतिम दर्शन तक नहीं करते ! भाई ,भारतीय सेना में मामूली सैनिक हैं,कश्मीर मोर्चे पर तैनात हैं... कर्तव्यबोध , शपथ की प्रतिष्ठा में भाइयों से कभी सांकेतिक भेंट तक नहीं की !.... बहन और बहनोई... चाय की दुकान लगाते हैं... योगी भगवा पहनते हैं,बड़ा सस्ता और अक्सर बदरंग भी !... ज़मीन पर सोना... कोई AC... कूलर...हीटर नहीं... कड़कड़ाते जाड़े में सिर्फ एक मामूली चादर तन पर... नंगा सिर ! सुबह सुबह गौसेवा और पूजा !
            कोई और देश होता तो ऐसे राज्यसेवक पर गर्व करता... उस जमीन के चुम्बन करता, जिस पर इस योगी के चरण पड़े.... 
              इस योगी को एक चरित्रहीन लम्पट शख्स अपमानजनक तरीके से 'बाबा मुख्यमंत्री' कहकर अपमान करता है... आज उप्र की विकास दर... चीन की विकास दर से ज़्यादा है... उप्र बीमारू प्रदेश नहीं रहा... भारत के सभी प्रदेशों में उप्र दूसरे नम्बर की अर्थव्यवस्था बन चुका है... प्रदेश सुरक्षित है... 24 घण्टे बिजली !... ला एंड ऑर्डर चाक चौबंद ! मग़र जातिवादी भेड़िए... फिर से UP को नरक प्रदेश बनाना चाहते हैं...
           हे राम... हे कृष्ण.... हे शंकर ... तुम्हारा यह भक्त... कभी फटी पैंट... आज भी सस्ता-बदरंग भगवा पहनने वाला यह योगी.... एक खुशबू की तरह हम लोगों की ज़िंदगी मे आया था, हमें पहली बार ऐसा शासक मिला था जो रंक था,मग़र उसने हमारे अंदर.... सनातन-हिंदू होने का अभिमान जगाया था ! ईश्वर हमे वरदान दो कि योगी की छाया हम यूपी के हिंदुओं पर बनी रहे....

श्रीराम जयराम जयजय राम....🙏

शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

Statue of Equality - आचार्य रामनुजाचार्य की सबसे बड़ी प्रतिमा

'Statue of Equality' समानता को समर्पित मिशन



100 करोड़ में तैयार हुई आचार्य रामनुजाचार्य की सबसे बड़ी प्रतिमा , पूरे प्रोजेक्ट की लागत 1400 करोड़ ।

हैदराबाद में स्थापित की गई आचार्य रामानुजाचार्य की यह प्रतिमा दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी बैठी हुई प्रतिमा है , जिसे बनाने में 9 महीने का वक़्त लग गया ।
स्वामी रामनुजाचार्य की विशालकाय प्रतिमा का लोकार्पण देश के पीएम नरेंद्र मोदी इसी साल फरवरी में करेंगे , इस स्टैचू के साथ 108 मंदिर का निर्माण किया गया है , इसी के साथ आचार्य रामनुजाचार्य की एक छोटी प्रतिमा भी बनाई गई है जिसमे 120 किलो सोने का इस्तेमाल किया गया है । इस जगह को स्टैच्यू ऑफ इक्वालिटी ( Statue of Equality ) नाम दिया गया है . इस प्रोजेक्ट को पूरा करने में 1400 करोड़ रुपए खर्च हुए हैं ।

स्टैच्यू ऑफ इक्वालिटी को शास्त्रों के तहत बनाया गया है स्टैच्यू ऑफ इक्वालिटी को बनाने में 18 महीने का समय लगा है , इसके लिए मूर्तिकारों ने कई डिज़ाइन तैयार किए और उनकी स्कैनिंग करने के बाद सबसे बेस्ट मूर्ति को विशाल रूप दिया गया ।
 
इस प्रतिमा की ऊंचाई 108 फ़ीट है , जबकि प्रतिमा में लगे त्रिदण्डम की उंचाई 138 फ़ीट है । टोटल प्रतिमा की हाइट 216 फ़ीट है । आचार्य रामानुजाचार्य की प्रतिमा में 5 कमल पंखुडिया , 27 पद्म पीठम , 36 हाथी , और प्रतिमा तक पहुंचने के लिए 108 सीढिया बनाई गई हैं ।


जेनेरिक और ब्रांडेड दवाइयों में ऐसा क्या अंतर हैं कि डॉक्टर हमें जेनेरिक दवाई नही लिखते?

जेनेरिक और ब्रांडेड दवाइयों में ऐसा क्या अंतर हैं कि डॉक्टर हमें जेनेरिक दवाई नही लिखते?

एक बात  वह है दवा निर्माण में उपयुक्त कच्चे माल की गुणवत्ता
एक ही साल्ट 10 हजार रु से लेकर 1 लाख रु तक की थोक कीमत में मिल सकता है अर्थात दवाइयों के साल्ट के थोक मूल्य में बहुत अंतर पाया जाता है जिसमें कहीं न कहीं गुणवत्ता जरूर मायने रखती है।
उदाहरण के लिए इस समय
पैरासिटामोल पाउडर का थोक मूल्य रु200-1200 के बीच है.

सहज सामान्य सिद्धांत (बेसिक थंब रूल) से समझा जा सकता है कि कौन मंहगा और उच्च गुणवत्ता वाला साल्ट प्रयोग करते होंगे और क्यों - जबकि दूसरे लोग क्यों सस्ता साल्ट यूज करते होंगे। पहले को अपनी साख बचाए रखना मुख्य उद्देश्य है भले उत्पाद महंगा क्यों न हो जाए जबकि दूसरे को बाजार में अपनी जगह बनानी है जिसके कारण लागत को घटाया जाता है कि खुदरा व्यापारियों को ज्यादा कमीशन और उपभोक्ता को कम कीमत से लुभाया जा सके।

बाजार से आप कैसे उम्मीद करते हैं कि वो बाजार की तरह व्यवहार न करके मानवीयता और ईमानदारी का पालन करे?
हर जगह उद्यमी और निवेशक तो एक आम इंसान ही है जिनकी औरों की तरह ही जरूरतें और ख्वाहिशें हैं।
सबसे पहले यह समझना होगा कि पेटेंटेड मेडिसिन व नॉन-पेटेंटेड (जेनेरिक) मेडिसिन और ब्रांडेड मेडिसिन व नॉन-ब्रांडेड मेडिसिन ये दो नहीं बल्कि तीन चीजें हैं। राजनीति ने इन्हें गोलमाल कर रखा है।

पेटेंटेड मेडिसिन बिना लाइसेंस के कोई अन्य कंपनी नहीं बना सकती लेकिन पेटेंट अवधि खत्म होने के बाद उसे (जेनेरिक) कोई भी बना सकता है मतलब ब्रांड या नॉन-ब्रांड सब। तो मुद्दा ही नहीं क्योंकि जब पेटेंटेड मेडिसिन बिना पेटेंटधारी की अनुमति के कोई अन्य बना ही नही सकता तो सस्ता या महंगा कैसे होगा? मुद्दा है ब्रांडेड और नॉन-ब्रांडेड का जिसमे गुणवत्ता मायने रखती है।

सॉल्ट के थोक मूल्य के अलावा अन्य कारक जैसे श्रम, संयंत्र और मशीनरी, पैकिंग मेटेरियल, हाइजीन, दवा निर्माण में प्रयुक्त अन्य सामग्री (बॉन्डिंग, थिकनिंग, कोटिंग एजेंट आदि), छपाई, अनुकूल भंडारण और सुरक्षित परिवहन आदि में भी खर्च को घटाया बढ़ाया जा सकता है।

बाकी बचा औषधियों की गुणवत्ता के ऊपर सरकारी नियंत्रण, तो उस पर लिखने की क्या जरूरत? सबको पता है कि सरकारी तंत्र कैसे काम करता है।

बाकी ये मैने नहीं लिखा कि नॉन-ब्रांडेड दवा असर नहीं करेगी। मेरा कहने का मतलब है कि राजनीति और बाजार के दांव-पेंचों में फंसे बगैर अपनी हैसियत के अनुसार अच्छे डॉक्टर की सलाह माने क्योंकि कोई भी डाक्टर आपका दुश्मन नहीं है, हां थोड़ा बहुत लालच सबमें होता है; बाकी जमीन जायदाद बेच कर कुछ हासिल नहीं होता।

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