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शनिवार, 11 फ़रवरी 2023
श्रीराममंदिर_रक्षक_पण्डित_देवीदीन_पाण्डे
मंगलवार, 7 फ़रवरी 2023
फिल्म इंडस्ट्री में सबसे बेशर्म इंसान कौन है? और क्यों?
वैसे तो दिमाग में अनेक नाम थे, लेकिन इस खूबसूरत महिला ने सबको पीछे छोड़ दिया है |
अभी कल तक वो कह रही थी, कि हिन्दू धर्म सब धर्मों से अधिक हिंसक हो चूका है, (और इसके लिए भाजपा ज़िम्मेदार है) इसलिए कांग्रेस में आयी हूँ |
सारा विश्व जानता है कि हिन्दू धर्म से अधिक सहनशील धर्म कोई नहीं है, लेकिन इन्हें सबसे अधिक हिंसक नज़र आता है | और इसीलिए ये उस पार्टी को ज्वाइन करती है, जिसने हिन्दू आतंकवाद जैसे शब्दों को जन्म दिया है |
पिछले ५ वर्षों में ही भाजपा राज होने के बाद भी भारत में कितने ही हिन्दू सक्रीय कार्यकर्ताओं को मार दिया गया, लेकिन नहीं इन्हें फिर भी हिन्दू ही हिंसक होते दिखते हैं |
अख़लाक़ याद रहते हैं, अंकित नहीं |
और एक कश्मीरी मुसलमान से शादी करने के बाद उर्मिला से मरियम मीर बनने के बाद उन्हें अचानक ही ब्रह्मज्ञान हो गया कि बरसों से जिस धर्म का वे पालन कर रही थी, वो तो सभी धर्मों से अधिक हिंसक हो चूका है |
इस्लाम कुबूल करने के बाद भी लोगों के सामने उर्मिला बन कर ही आती हैं | हिन्दू धर्म को सबसे अधिक हिंसक बताने के बाद अगले ही दिन गुढीपाडवा मनाने के लिए हिन्दू रीति रिवाज़ से सबके सामने हिन्दू परिधान में आ कर इस्लामिक मान्यता के विरुद्ध एक तस्वीर के सामने हाथ जोड़ रही है |
क्या लोगों को बेवक़ूफ़ बनाने के लिए आप कुछ भी कर सकते हैं?
पूरी कांग्रेस और उसके कपिल सिब्बल, कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे दिग्गज नेता बालाकोट हमले को ही नकारते रहे, उसी पार्टी की ये नयी सदस्य अगले दिन एक मुसलमान होने के बावजूद, केवल लोगों को भ्रमित करने के लिए हिन्दू साडी में अभिनन्दन की तस्वीर के साथ लोगों से वोट माँगने निकल पड़ीं |
चित्र स्त्रोत: Abhijit Majumder on Twitter
ये वही कांग्रेसी नेता है जो कल तक मोदी जी को सेना का इस्तेमाल अपने चुनावी फायदे के लिए करने का आरोप लगा रहे थे, आज स्वयं अभिनन्दन के नाम पर वोट मांग रहे हैं |
परदे पर कल की उर्मिला मार्तोंडकर और आज की मरियम मीर ने भले ही कितने अच्छे किरदार निभाए हों, लेकिन असल जीवन में ऐसे किरदार खेलते हुए इन्हें बिलकुल शर्म नहीं आयी, इसलिए मैं इन्हें ही फिल्म इंडस्ट्री का सबसे अधिक बेशर्म इंसान मानता हूँ |
Note : मोहसिन अख्तर मीर से २०१६ में शादी करने के समय इन्होने इस्लाम क़ुबूल कर लिया था और इनका नाम भी मरियम अख्तर मीर हो गया था | अभी हाल ही में इन्होने अपने विकिपीडिया पेज से अपना नाम हटा दिया है |
यूएसबी कंडोम (USB Condom) क्या होता हैं? इसके क्या फायदे हैं?
चलते-फिरते, आते-जाते, सोते-जागते हम मोबाइल का लगातार इस्तेमाल करने लगे हैं. आज मोबाइल से हमारा जीवन चल रहा है और मोबाइल बैटरी से.
जब कभी भी मोबाइल की बैटरी ख़त्म होती है, तो लगता है कि मानो ज़िंदगी ठहर गई.
आज हम पान, बीड़ी और सिगरेट तक खरीदने के लिए डिजिटल पेमेंट करने लगे हैं.
लिहाज़ा एयरपोर्ट, स्टेशनों, होटल, पब्लिक टॉयलेट, शॉपिंग सेंटर और अन्य जगहों पर मोबाइल चार्जिंग की सुविधा के लिए यूएसबी पोर्ट लगे होते हैं.
आप इससे अपना मोबाइल जोड़ते हैं और बैटरी चार्ज करने लगते हैं, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ऐसा करना कितना सुरक्षित है?
जूस जैकिंग
लेकिन क्या आपने सोचा है कि मोबाइल चार्जर ना ले जाने के झंझट से मुक्ति और फायदेमंद लगने वाले ये यूएसबी पोर्ट हमारी निजता के लिए कितना बड़ा ख़तरा हैं.
सार्वजनिक जगहों पर बड़े पैमाने में उपलब्ध इन यूएसबी पोर्ट का इस्तेमाल साइबर अपराधी हमारे सबसे संवेदनशील डेटा को चुराने के लिए कर सकते हैं.
इससे बचने के लिए बाज़ार में कथित यूएसबी डेटा ब्लॉकर्स लाए गए हैं, जिन्हें "यूएसबी कंडोम" का नाम दिया गया है.
ये "कंडोम" वास्तविक कंडोम की तरह लेटेक्स नहीं होते हैं, लेकिन यह आपको सामान रूप से सुरक्षा प्रदान करते हैं. यह आपको 'जूस जैकिंग' से बचाते हैं.
'जूस जैकिंग' एक तरह का साइबर अटैक है, जिसमें सार्वजनिक यूएसबी पोर्ट के ज़रिए आपके मोबाइल को संक्रमित किया जाता है और आपके मोबाइल में मालवेयर इंस्टॉल कर दिया जाता है, जो आपकी निजी जानकारी को साइबर अपराधी तक पहुंचाने में सक्षम होते हैं.
इस बारे में नवंबर के शुरुआती सप्ताह में ल्यूक सिसक ने चेतावनी दी थी. ल्यूक अमरीक में लॉस एंजिल्स काउंटी के अभियोजक के कार्यालाय में सहायक हैं.
'यूएसबी कंडोम' छोटे यूएसबी एडॉप्टर की तरह होते हैं, जिनमें इनपुट और आउटपुट पोर्ट होते हैं. यह एडॉप्टर मोबाइल को पावर सप्लाई तो करता है लेकिन डेटा एक्सचेंज को पूरी तरह रोक देता है.
कितनी है कीमत
'यूएसबी कंडोम' अमरीकी बाज़ारों में 10 डॉलर में उपलब्ध हैं और यह इतना छोटा होता है कि आप इसे कहीं भी ले जा सकते हैं.
भारत में यह 500 से 1000 रुपए में ऑनलाइन उपलब्ध है.
ल्यूक के अनुसार इस तरह के साइबर हमले के परिणाण "विनाशकारी" हो सकते हैं.
वो चेतावनी देते हुए कहते हैं, "एक फ्री बैटरी चार्जिंग आपके बैंक खाते को खाली कर सकता है. अगर साइबर क्रिमिनल मालवेयर इंस्टॉल कर देते हैं तो ये आपके फोन ब्लॉक कर सकते हैं और पासपोर्ट और घर के पते जैसी संवेदनशील जानकारियां चुरा सकते हैं."
आईबीएम की साइबर सिक्योरिटी रिपोर्ट के अनुसार "मालवेयर कंप्यूटिंग पावर को हाईजैक कर सकते हैं और आपका मोबाइल धीमा काम करने लगेगा."
रिपोर्ट में संवेदनशील डेटा चोरी होने के ख़तरों पर भी बात की गई है. साइबर विशेषज्ञ भी लोगों को 'यूएसबी कंडोम' का इस्तेमाल की सलाह देते हैं.
सर्वे में देश ने लव जिहाद को माना सच : 53% लोगों ने कहा- मुस्लिम पुरुष इसमें लिप्त हैं
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06 February 2023
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बाबा तुलसीदास एक बार फिर संकट में हैं।
🚩 श्री राम जय राम जय जय राम 🚩
🚩 जय जय विघ्न हरण हनुमान 🚩
तुलसी को बख्शिए
बाबा तुलसीदास एक बार फिर संकट में हैं। उन पर जातिवादी, दलित और स्त्री विरोधी बताते हुए चौतरफा हमला हो रहा है। उनके ‘रामचरितमानस’ को नफरत फैलाने वाला ग्रन्थ बता पाबंदी की मांग की जा रही है। इस दफा तुलसी पर हमला ‘कुपढ़ों’ ने बोला है। अनपढ़ से कुपढ़ लोग समाज के लिए ज्यादा खतरनाक होते हैं। तुलसी अभिशप्त हैं ऐसे संकट बार-बार झेलने के लिए।
ऐसा संकट तुलसी पर पहली बार नहीं आया है। तुलसीदास जन्मे बांदा में और मरे बनारस में। पहला संकट उनके जन्म लेते ही आया था। जब एक बुरे नक्षत्र में जन्म लेने मात्र से अपशकुन मान उनके माता-पिता ने उन्हें त्याग दिया। सेविका चुनिया ने ही उन्हें पाला पोसा। अपने घर ले गयी। लेकिन पांच साल की उम्र में धर्ममाता चुनिया भी चल बसी। अब रामबोला दूबे पूरी तरह अनाथ थे। उनका नाम रामबोला इसलिए पड़ा की जन्मते उनके मुंह से ‘राम’निकला, इसलिए भी माता-पिता डर गए। अब तुलसी बनने की प्रक्रिया में वे दर-दर ठोकर खाने लगे।
उनके जीवन का सबसे बड़ा संकट आया। जब पत्नी रत्नावली ने तुलसी को दुत्कार, हाड-मांस की अपनी देहयष्टि से ध्यान हटा भगवान में ध्यान लगाने का फरमान सुना, भगा दिया। पत्नी के इस आघात से तुलसी बिखर गए। बेचारे तुलसी हनुमान की शरण में गए और रामचरित लिखने का संकल्प लिया। संवत1631 में हनुमान जी के आशीर्वाद से उन्होंने रामचरितमानस लिखना शुरू किया। बनारस में संकटमोचन मंदिर की स्थापना करने के बाद। पर संकट ने यहां भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। उन्होंने लोक के बीच रामचरित को ले जाने के लिए अपना यह महाकाव्य ‘अवधी’ में लिखना शुरू किया। अब वो काशी के पंडितों के निशाने पर आ गए। क्योंकि भगवत गाथा देवभाषा यानी 'संस्कृत' में ही लिखी जानी चाहिए। वह गंवारों की बोली में कैसे लिखी जा सकती है। सो तुलसी जितना लिखते थे। फौरन उनका लिखा बनारस के संस्कृतनिष्ठ पंडित गंगा में फेंक देते थे। उन्हें मारते-पीटते और अपमानित अलग करते थे। इसीलिए तुलसी ने अस्सी मुहल्ले के पास के इलाके को ‘भयदायिनी’ कहा जो आज ‘भदैनी’ के नाम से जाना जाता है।
तुलसी के रामचरितमानस की गिनती विश्व साहित्य की महान कृतियों में होती है। अफसोस की मानस को लिखे जाने के कोई पांच सौ बरस बाद उसे इक्कीसवीं सदी के विमर्शों और सामाजिक आधारों की कसौटी पर कसा जा रहा है। जबकि यह कोई धार्मिक कृति न होकर शुद्ध साहित्य है, प्रबंध काव्य है। गांधी जी ने मानस को "भक्ति साहित्य की श्रेष्ठ कृति" कहा। रामचरितमानस पर अकादमिक बहस हो सकती है। ढोल-गंवार प्रसंग हो या धोखे से बालिबध या फिर सीता की अग्निपरीक्षा, उन सब पर बौद्धिक बहस होती रही है। होनी भी चाहिए। पर किसी महाकाव्य से सिर्फ दो लाईने उठा समूचे ग्रन्थ के प्रति दुर्भावना फैलाना यह अक्षम्य अपराध है।
‘रामचरितमानस’ तुलसी की शुरुआती कृति है। उन्हें समझने के लिए हमें मानस से लेकर ‘विनय पत्रिका’तक की पूरी यात्रा करनी पड़ेगी। उनके युग के निर्मम यर्थाथ का ग्रन्थ ‘कवितावली’ है। और भक्ति का चरम ‘विनय पत्रिका’। अगर इस पूरे रचना संसार को देखें तो तुलसी एक सजग और जागरूक युग नेता,लोकमंगल, युग के निस्पृह यर्थाथ का विवेचन करने वाले कवि हैं।
कोई भी रचनाकार अपने कालखण्ड से निरपेक्ष नहीं हो सकता है। तुलसी भी अपने कालखण्ड की उत्पत्ति थे। उस वक्त वे जो देख रहे थे वही लिख रहे थे। उनकी रचनाओं में वही भाषा है जो उस वक्त का समाज बोलता था। उन्होंने ऐसा क्यों लिखा इसे समझने के लिए हमें उस वक्त की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक व्यवस्था की पड़ताल करनी होगी। तुलसी पूरी संवेदना के साथ अपने समाज के यथार्थ से टकराते हैं। सिर्फ टकराते ही नहीं वे रामराज्य का विकल्प भी देते हैं। आज भी आदर्श राज्य व्यवस्था के लिए रामराज्य को ही नजीर माना जाता है। चाहे वे महात्मा गांधी हों या नरेन्द्र मोदी। गोर्की कहते थे, “सबसे सुंदर बात है अच्छी बातों की कल्पना करना। यह कल्पना किसी रचनाकार की उदात्तता का प्रमाण होती है।” तुलसी किसी भी युग के रचनाकारों से इसलिए भिन्न हैं कि वे सबसे कठिन समय में ‘आदर्श युग’ की कल्पना करते हैं। ‘रामराज्य’ उनका आदर्श युग है। रामराज्य की कल्पना से वे ऐसे युग का सपना रोपते हैं जहां- “बयरु न कर काहू सन कोई। राम प्रताप विषमता खोई॥ सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥”
इस कल्पना का सबसे मनोरम दृश्य यह है कि ‘उत्तरकाण्ड’ में राम को सिंहासन पर बिठाकर अपनी कथा समाप्त नहीं करते। वे राम के राजकाज संभालने के बाद उन्हें अमराई में ले जाते हैं। भरत का उत्तरीय बिछा धरती पर बिठाते हैं। और फिर ज्ञान की दिशा में बढ़ जाते हैं। यानी तुलसी को वही राम भाते हैं जो लोगों के बीच अमराई में धरती पर बैठते हैं। इसलिए तुलसी बनवासी राम पर जितने शब्द लिखते हैं। ‘राक्षसहंता’ राम और ‘सम्राट’ राम पर उसका आधा भी नहीं। यह राम का जनपक्ष है।
ताजा विवाद में गड़बड़ दोनों तरफ है। तुलसी के पक्ष और विरोध दोनों तरफ खड़े लोग अति कर रहे हैं। न उन्हें परम्परा का ज्ञान है न इतिहास का। तुलसी का रचना संसार उन्हे भगवान मानने और कुछ न मानने वालों के बीच में फंस गया है। एक तरफ वे मूढ हैं जिन्हें मानस में हर तरफ घृणा और नफरत दिखती है। उन्हें यह भी नहीं मालूम की जब तुलसीदास लिख रहे थे। उस वक्त न मण्डल कमीशन आया था न सिमोन द बुआ का नारी विमर्श आया था। पांच सौ बरस पुराने साहित्य को आज के सन्दर्भो में खरे उतरने की मांग कैसे की जा सकती है? इसे समझने के लिए हमें रामचरितमानस को धर्मग्रन्थ की पीठिका से उतार एक सजग, जागरूक, युगचेता महाकाव्य के तौर पर देखना होगा।
दूसरी तरफ वे लोग हैं जो मानस को धार्मिक और पूजा भाव से पढ़ते हैं। जिनकी धार्मिक भावनाएं इतनी कमजोर हैं कि खांसने और वायुमुक्त करने से भी खतरे में पड़ जाती है। उन्हें यह पता ही नहीं कि रामचरितमानस धार्मिक ग्रन्थ नहीं है। असल समस्या ही तब शुरू होती है जब मानस को हम धार्मिक ग्रंथ मानने लगते हैं। हमें यह समझना पडेगा की मानस किसी भी महाकाव्य की तरह आलोचना के दायरे में है। रामचरितमानस वैसा ही प्रबंधकाव्य है, जैसा उनके समकालीन जायसी का 'पद्मावत', केशव की'रामचंद्रिका', नाभादास का 'भक्तमाल', सूर का‘सूरसागर' या कबीर की ‘रमैनी', 'सबद' और 'साखी'। सब अपने-अपने समय के समाज की आवाज को अभिव्यक्त कर रहे थे। फिर जब यह धार्मिक ग्रंथ नहीं है, 'साहित्य' है, तो इस पर बहस क्यों नहीं हो सकती? क्यों मानस पर सवाल उठते ही हमारी धार्मिक भावनाएं बार-बार आहत होती हैं।
अगर किसी ने मानस पर सवाल खड़ा ही कर दिया तो उससे हमारा धर्म खतरे में कैसे पड़ जाता है? हमारी परम्परा और धर्म में तो आप राम को न मानें तब भी हिन्दू हैं। शिव को न मानें तो भी हिन्दू हैं। शक्ति को माने न माने तो भी हिन्दू हैं। मूर्ति की पूजा करें तो भी हिन्दू है। मूर्ति का विरोध करें तो भी हिन्दू हैं। इतना सहिष्णु धर्म है हमारा। सातवीं शताब्दी में एक ऋषि हुए 'चार्वाक'। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती दे दी। वेदों पर सवाल खड़े कर दिए। 'नास्तिकवाद' और 'भौतिकवाद' के वे जनक थे। फिर भी हमने उन्हें ऋषि परम्परा में जगह दी। उन्हे ईश निंदा का दोषी नहीं ठहराया। ऐसी मजबूत और उदार है हमारी धार्मिक विरासत।
बिहार के (अ)शिक्षामंत्री प्रोफेसर चंद्रशेखर ने रामचरितमानस को नफरत फैलाने वाला ग्रंथ बता दिया। अपने नाम के आगे सिर्फ प्रोफेसर लगा देने से कोई विद्वान नहीं हो जाता। फिर उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने मानस पर प्रलाप करते हुए उस पर पाबंदी की मांग कर दी। कुछ ऐसा ही दलित नेता उदितराज ने कहा। उसके बाद तो बेचारे तुलसी को जाति और स्त्री विमर्श की अदालत में खड़ा कर दिया गया। उन्हें दलित विरोधी करार दिया गया। ये कुपढ़ इतिहास और साहित्य के बुनियादी सिद्धांत मानने को तैयार नहीं हैं।
जब तुलसी मानस रच रहे थे तब न तो 'नारी विमर्श' के चौखटे थे, न 'दलित विमर्श' के निकष ही बने थे। न ही 'स्त्रीवादी विमर्श' के आयाम बने थे। तुलसी सिर्फ और सिर्फ मध्यकाल के समाज उसके व्यवहार और लोकाचार के आधार पर मानस की रचना कर रहे थे। वे अपना युग लिख रहे थे। जो किसी भी रचनाकार का युगधर्म होता है। इसलिए उसे संपूर्णता और उस वक्त के समाज व्यवस्था की ही रौशनी में ही देखा जाना चाहिए। तुलसी का समाज कुरीतियो और विद्रूपताओं से भरा था। इस मुश्किल वक्त में भी तुलसी ने वही किया जो कोई भी समकालीन साहित्यकार करता है। हर साहित्यकार के पास अपना एक 'यूटोपियन' समाज होता है। तुलसी के पास भी था। मार्क्स के पास भी था। तुलसी उसे रामराज्य कहते है। तुलसी अगर अपने वक्त की अचछाईयों का बखान कर रहे थे। तो जातिवाद का क्यों न करते? अगर वह अपने युग सत्य को छोड़ते तो उनकी लेखकीय ईमानदारी का क्या होता?
काव्य का अपना अनुशासन होता है। कथ्य और रचना के मूल्य और उद्देश्य हैं। रामचरितमानस बहुचरित्र महाकाव्य है। जो विराट कथानक और धीरोदात्त नायकत्व के मूल्यों पर केंद्रित है। जिसका नायक संघर्षों से तप कर आता है। वह योद्धा नायक नहीं है। न ही चमत्कारिक आलोक है। तुलसी के राम पराजित, दुखी, आदर्शों और संकल्पों के सामने जीवन का सब कुछ गंवा देने वाले नायक हैं। सामान्य भारतीय का संघर्ष यही है। इसलिए वह राम से सीधा जुड़ जाता है। राज्य से बेदखली, पत्नी का अपहरण इन दुखों में तपे राम सामान्य व्यक्ति हैं। इस राम में वीरता से ज्यादा धीरता है। चमत्कार की जगह उदात्तता है। आम मनुष्य के दायरे में जो सर्वश्रेष्ठ है, वह राम में है। उनके पास कोल, भील, आदिवासी, बनवासी, दलित सब हैं। तो ऐसा कैसे होगा कि तुलसी और उनके राम जाति प्रथा को बढ़ावा दें या नारी विरोधी हों।
तुलसी अपने समाज के साहित्य में एक लोक रचते हैं। रामचरितमानस उसी एक पूरे बनते-बिगड़ते समाज की कथा है। आज रावण या समुद्र जैसे खलनायकों के संवाद भी तुलसी के खाते में जा रहे हैं। अपने समय के साथ तुलसी ने वही किया जो हर प्रगतिशील साहित्यकार करता है। आधुनिकता और प्रगतिशीलता को अपने देश और काल के संदर्भ में ही देखा जाएगा। अगर ऐसा नहीं हुआ तो प्रेमचंद की प्रगतिशीलता भी आज के संदर्भो में प्रगतिशीलता की कसौटी पर खरी नहीं उतरेगी।
यह बहस बेमानी है कि तुलसी स्त्री विरोधी थे। डॉ. लोहिया कहते हैं "नारी की पीड़ा को तुलसी जिस ढंग से व्यक्त करते हैं, उसकी मिसाल भारत में ही नहीं दुनिया के किसी साहित्य में नहीं है।" “कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं॥” सीताराम, भवानीशंकर, वाणीविनायको, श्रद्धाविश्वासरूपिणौ, सियाराम मय सब जग जानी वाले तुलसी स्त्री की शक्ति, सम्पन्नता और पीड़ा के गायक हैं। मानस की शुरूआत ही स्त्री की जिज्ञासा से होती है। पार्वती शिव से पूछती हैं। शिव स्वयं आधे स्त्री हैं। उस वक्त समाज में वेद, स्त्री के लिए नहीं थे। योग और संन्यास स्त्री के लिए वर्जित थे। इसलिए पार्वती शंकर से डरती-डरती पूछती है। भक्ति मार्ग में पहली बार स्त्री को अधिकार मिला था। तुलसी के जरिए।
तुलसी जातिवादी नहीं हो सकते। क्योंकि वे भक्त है। भक्ति सर्वहारा का आंदोलन है। वह चाहे किसी जाति सम्प्रदाय का हो। उसके पास अपना कुछ नहीं है, सब भगवान का है। दास भाव से रहता है। दास कहलाने में गौरव है। इसलिए भक्तों के आगे 'दास' है। तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास, नन्ददास, कृष्णदास, सुन्दरदास यहां जाति कुल गोत्र का विचार नहीं है। केवल साधना उसकी कसौटी है। क्योंकि जाति, कुल, गोत्र वर्ग, रंग आदि में अंहकार है। इनकी सीमाओं में बंद व्यक्ति ईश्वर को नहीं पा सकता। भक्ति में हर प्रकार का भेदभाव वर्जित है। तुलसी कहते है -
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता।।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई।।
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा।।
जाति तुलसी के समाज की सच्चाई थी। तुलसी युग की सच्चाई लिख रहे थे। शेक्सपियर भी तो ‘एलिजाबेथियन’ और ‘जैकोबियन’ युग को लिखते हैं। उनका समाज चरम जातिवादी था। ब्राह्मणवाद में भी ‘संस्कृतनिष्ठ’ ब्राह्मणवाद का युग था। तुलसी ने वह जीया और सहा था। उसे लिखे बिना आदर्श चरित की कल्पना कैसे हो सकती थी? अगर हम जाति और समाज विभाजन के युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में रामचरितमानस को पढ़ें तो समझ आएगा कि तुलसी ने जानबूझकर समाज के वे सारे चरित्र चुने जो मुख्यधारा में नहीं थे। मसलन निषाद, वनवासी, शबरी, वानर, पक्षियों में त्याज कौवा यानी परमज्ञानी ‘काकभुशुण्डि’। अगर ये सब न भी होते तो राम को रावण से युद्ध करा विजेता दिखा नायक बनाया जा सकता था। पर तुलसी राम की जीत में देवत्व स्थापित नहीं कर रहे थे। इसलिए उन्होंने जातियों का सच लिखा।
शबरी दलित थी। राम ने उसके जूठे बेर खाए। जिस रामचरितमानस को दलित विरोधी कहा जा रहा है। वह रामचरित जिन काकभुशुण्डी के मुंह से सुनी गयी वे दलित थे। जो लोग "ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी सकल ताड़ना के अधिकारी" पर बहस करते है वे उत्तर काण्ड में काकभुशुण्डी को नहीं देख पाते, जिन्हें तुलसी रामभक्ती का सिरमौर बनाते हैं। भरत निषादराज को गले लगाने के लिए रथ से उतरते हैं। "राम सखा सुनि संदनु त्यागा। चले उचरि उमगत अनुरागा॥" रामभक्ति से कथित छोटी जातियां भुवन विख्यात हो जाती है। "स्वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल किरात। रामु कहत पावन परम होत भुवन बिख्यात॥"
बल्कि तुलसी तो जाति की जकड़न को तोड़ रहे थे। उन्हें लिखना पड़ा "मेरे ब्याह न बखेरी जाति पाति न तहत हौं।" जब उन पर लोग जाति के बंधन को तोडने का आरोप लगाने लगे तो खीज में वे अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं। "धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ॥ काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगार न सोऊ॥" "तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाके रूचे सौ कहै कछु कोऊ। माँगि के खैबो, मसीत को सोइबो, लैबो को एकु न दैबो को दोऊ।" (कवितावली) जाति के पचड़े से वे इस कदर उबे थे कि वे मांग कर खाने और मस्जिद में सोने को भी तैयार थे। ये लाईने प्रमाण है जाति के आधार पर तुलसीदास कितने प्रताड़ित हुए थे।
तुलसी पर हमला उस वक्त भी जातिवादी ब्राह्मणों ने किया। उन्हें षडयंत्रकारी, दग़ाबाज़ी करने वाला और अनेक कुसाजो को रचने वाला बता नकारा गया।
कोउ कहै, करत कुसाज, दगाबाज बड़ो,
कोऊ कहै राम को गुलामु खरो खूब है।
साधु जानैं महासाधु, खल जानैं महाखल,
बानी झूँठी-साँची कोटि उठत हबूब है।
चहत न काहूसों न कहत काहूकी कछू,
सबकी सहत, उर अंतर न ऊब है।
तुलसी ने भी पथभ्रष्ट ब्राह्मणों की निंदा की "सोचिअ बिप्र जो बेद बिहीना। तजि निज धरमु बिषय लयलीना।।" या "विप्र निरच्छर लोलुप कामी। निराचार सठ बृषली स्वामी।।" इसके बाद भी तुलसी को आप ‘ब्राह्मणवादी’ कह सकते हैं।
याद कीजिए वनगमन के फैसले के बाद चित्रकूट की रात्रिसभा। भरत के साथ पूरी अयोध्या राम को वापस लाने के लिए चित्रकूट पहुंचती है। भरत ग्लानि से भरे हैं। अयोध्या का बहुमत राम को वापस लाने के पक्ष में था। यानी जनमत राम की वापसी के पक्ष में था। लेकिन राम नहीं लौटते। तो फिर राम ने जनमत की उपेक्षा क्यों की? यह राम की राजनीति का स्वर्णिम पक्ष है। उन्हें पता है मोह व्यक्ति को नहीं पूरे समाज को ग्रस सकता है। तुलसी इसे स्नेह जड़ता कहते हैं। राम पूरे विनय के साथ जनमत को उसका दायित्व बताते हैं। वह सिखाते हैं, कि लोकतंत्र के निर्णय भी गलत हो सकते हैं। लेकिन अगर नेतृत्व सचेतन है तो वह समूह की भूल भी सुधार देता है। राम पहले भरत को दोषमुक्त करते हैं। फिर कैकेयी की ग्लानि समाप्त करते हैं। उसके बाद वे भरत के जरिए अयोध्या वासियों से कहते की राजा से वही कराएं जो उचित हो। यह राजनीति की राम परिभाषा हैं। राजनीति को कीर्तिमयी सद्भावमयी होना चाहिए।तुलसी का पूरा साहित्य इसी समाज और राजनीति की संकल्पना है। काश हम अपनी दृष्टि व्यापक कर पाते। तो हम रामचरितमानस में जातिवाद नहीं त्याग और लोकतंत्र देख रहे होते।
🌹🌷🚩 श्री राम जय राम जय जय राम🌹🌷🚩 जय जय विघ्न हरण हनुमान 🌹🌷🚩शुभ दिवस मंगलमय हो 🌹🌷🚩
सोमवार, 6 फ़रवरी 2023
कुछ देने के लिए आदमी की हैसियत नहीं , दिल बड़ा होना चाहिए, हमारे पास क्या है ? और कितना है ? यह कोई मायने नहीं रखता
ब्राह्मणों की आंख खोलने वाली जानकारी जो स्वयं केन्द्र मंत्री नितीन गडकरी जी ने ट्विटर पर पोस्ट की है पढ़े और महत्व को समझें*
रविवार, 5 फ़रवरी 2023
कौनसा शब्द शुद्ध है 'चिहन' या 'चिन्ह' ?
कौनसा शब्द शुद्ध है 'चिहन' या 'चिन्ह' ?
देखा जाए तो अधिकतर लोग चिन्ह को सही मानते हैं। गूगल पर ढूंढने पर भी कई जगह चिन्ह लिखा हुआ दिखाई देता है।
लेकिन आपने जो पूछा है, उनमें से कोई भी सही नहीं है।
सही लिखना है तो "चिह्न " लिखना सही होता है। जिसमें ह् और न दोनों मिलकर संयुक्ताक्षर बन जाते हैं।
च + ह्रस्व ई + ह् + न क्रमशः लिखने पर चिह्न लिखा जा सकता है।
इसलिए चिह्न लिखना सही है।
देखिए ऊपर अशोक चिह्न और विराम चिह्न कैसे लिखा हुआ है ? अत: चिह्न को ऐसे लिखना ही सही है।
चित्र - गूगल पर उपलब्ध, जिनका अधिकार इनके मालिकों के पास सुरक्षित हैं।
ऊद्धव शुद्ध होगा ।ब्रिज भाषा मे-ऊधौ इतनी कहियो जाय।
कौनसा शब्द शुद्ध है 'आशीर्वाद' या 'आर्शीवाद' ?
आशीर्वाद शब्द शुद्ध रूप हैं. क्योंकी "आशिष" शब्दके साथ "वाद" शब्द की संधी या जोड किया गया हैं. इसीलिये संधी पश्चात "ष"अक्षर रफार यानी "र" में परिवर्तित हो गया हैं.
>आशिष + वाद =आशीर्वाद
इन चारो में संगृहीत शुद्ध है।
हिंदी वर्तनी में शुद्ध और अशुद्ध शब्दों की सूची में 'संगृहीत' को ही शुद्ध मान कर लिखा गया है।
नीचे लिखे गए शब्द शुद्ध - अशुद्ध की तरह देखें, जिसका लिंक उत्तर के अंत में दिया गया है।
संग्रहीत, संगृहित, संग्रहित या संगृहीत इन चारो का मतलब एक ही है।
लेखन की दृष्टि से संगृहीत सही है।
'संगृहीत' का समानअर्थी शब्द 'संग्रहित' को कहा जाता है।
संगृहीत का मतलब:-
- संग्रह किया हुआ
- एकत्र किया हुआ
- जमा किया हुआ
- संचित किया हुआ
उदाहरण -
- प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथशोध विभाग के तत्वावधान में अब तक कई हजार प्राचीन पांडुलिपियाँ संगृहीत हुई हैं।
- संग्रहालय में पुरातन जमाने की कई वस्तुएँ संग्रहित करके रखी हुई हैं।
- हमारे कॉलेज के पुस्तकालय में अच्छे लेखकों की बहुत सारी रचनाएँ संग्रहित की गयी हैं।
- मेरे बेटे को विभिन्न देश की मुद्राओं को संग्रहित करने का शौक है।
उम्मीद है इस उत्तर से दुविधा दूर हो गयी होगी।
फुटनोट -हिन्दी व्याकरण : अशुद्ध वर्तनी,
यह संस्कृत का शब्द है।
हि धातु में तुन् प्रत्यय लगाकर इसकी व्युत्पत्ति सिद्ध होती है। इसका अर्थ होता है कारण, निमित्त, प्रयोजन,उद्देश्य।
संस्कृत में इसका रूप चलता है—हेतुः, हेतू, हेतवः अर्थात्
हेतुः =(एक)कारण,
हेतू =(दो)कारण,
हेतवः =(बहुत)कारण।
किन्तु संस्कृत की वाक्य रचना एवं अन्य भाषाओं की वाक्य रचना में बहुत अन्तर है। अतः यह स्पष्ट है कि हेतु ही सही है, हेतू नहीं।
शुद्ध शब्द में "वि" उपसर्ग लगाकर प्रयोग करने से विशुद्ध शब्द का निर्माण होता है। "वि" उपसर्ग का अर्थ है "विशेष" । इस प्रकार विशुद्ध शब्द का अर्थ है विशेष रूप से शुद्ध । अंग्रेजी भाषा में शुद्ध का अर्थ Pure और विशुद्ध का आशय Refined से है।
वाक्य प्रयोग :
- शुद्ध घी का उपयोग स्वास्थ्य के लिए उत्तम है।
- विशुद्ध काली गाय का घी सर्वोत्तम है।
- पं. रामचन्द्र शुक्ल ने अपने निबंधों में विशुद्ध हिंदी भाषा के शब्दों का प्रयोग किया है।
कुछ अन्य शब्दों के साथ उपसर्ग" वि " का प्रयोग देखिये :
नम्र : विनम्र (विशेष रूप से नम्र)
ज्ञान : विज्ञान (विशेष ज्ञान)
जय : विजय (विशेष रूप से जीतना )
इसके अतिरिक्त वि उपसर्ग लगाने से शब्दों के अर्थ में इस प्रकार का परिवर्तन भी हो जाता है।
वि + माता = विमाता : सौतेली माता
वि + फल = विफल : निष्फल, व्यर्थ, बेकार
वि + शिष्ट = विशिष्ट : विशेष, खास।
अनुल्लंघनीय और अनुलंघनीय में क्या शुद्ध ,क्या अर्थ और प्रयोग:—
________________________________________________
उत्तर—
पहले इस शब्द का संधि- विग्रह करके इसके मूल शब्द और उसके अर्थ को समझा जाए—
अनुल्लंघनीय——
अन्,+ उत् (उपसर्ग) +लंघन(मूल शब्द) +ईय
उपसर्गों, मूल शब्द एवं प्रत्यय का अलग-अलग अर्थ देखें—
अन्=नहीं
उत्=ऊपर
लंघन =लांघना, ऊपर से निकल जाना, आगे निकल जाना|
ईय =योग्य, होना चाहिए
अब इन सभी को पुनः संधि करके एक शब्द बनने की प्रक्रिया को समझते हैं—
अन् के न् में कोई स्वर नहीं है इसलिए उसके बाद आने वाले उत् का उ मात्रा के रूप में जुड़ गया|
उत् के त् के बाद लंघन के ल के आने से व्यंजन संधि का एक नियम लागू हुआ, जिसके अनुसार यदि त् के बाद ल आया हो तो, पहले आया हुआ त्, ल् में परिवर्तित हो जाता है|
उदाहरण= उत्+लेख =उल्लेख
उत् +लास =उल्लास आदि |
सूत्र-- तोर्लि (पाणिनीय अष्टाध्यायी) इस सूत्र द्वारा इस नियम का विधान होता है|
अब शब्द बना— अनुल्लंघन
पुनः अनुल्लंघन में ईय प्रत्यय जुड़कर बना—
अनुल्लंघनीय
अर्थ होगा— जिसे लांघ सकना असंभव हो/जो अवहेलना या उपेक्षा योग्य न हो/ जिसके आगे न जाया जा सके!
__________________________________________
• यहाँ यह बात ध्यान देने वाली है कि--
प्रत्यय के जुड़ने पर संधि का नियम नहीं लगता!
अन्यथा—
अ+ई =ए, जो कि गुण स्वर संधि का नियम है, लागू होता तो---
समाज+ इक=सामाजिक न हो कर सामाजेक आदि बनता.. पर ऐसा नहीं होता!
_______________________________________________
अब बात करते हैं— अनुलंघनीय की|
जैसा विश्लेषण ऊपर बताया गया है कि —
उत् के त् का ल् होता है… तो आधा ल् आना ही आना है!
क्योंकि उ अकेला उपसर्ग नहीं होता… तो उत् के त् का ल् ल के साथ आना ज़रूरी है!
अत: यह सिद्ध हुआ कि अनुलंघनीय शब्द व्याकरण की कसौटी पर शुद्ध नहीं , अतः यह अशुद्ध है|
________________________________________________
अब वाक्य-प्रयोग--
• गुरुओं की आज्ञा अनुल्लंघनीय होती है|
• कैलाश पर्वत-शिखर अनुल्लंघनीय है|
• सामने एक अनुल्लंघनीय नाला पड़ा|
सबसे पहले तो मैं यह बताना चाहूँगी कि 'वर्ना' और 'वरना' दोनों में कोई अंतर नहीं है।
हिंदी वर्तनी के अनुसार क्या लिखना सही है; पहले यह देखिए।
वरना = सही वर्तनी
वर्ना = ग़लत वर्तनी
हिंदी भाषा में वरना का मतलब 'नहीं तो'(else) होता है।
वरना का दूसरा मतलब अन्यथा (otherwise) होता है।
यह एक फारसी शब्द है। वाक्य के रूप में वरना का उदाहरण इस प्रकार होगा।
- आप खाना खा लीजिए वरना (नहीं तो) मैं भी खाना नहीं खाऊँगी।
- अपने टेनिस खेल प्रतियोगिता की तैयारी अच्छे से करो वरना (अन्यथा) जीत नहीं पाओगे।
- वरना का एक मतलब यह भी होता है किसी को वरण करना( स्वीकार या अंगीकार करना)। जैसे- माता सीता ने श्री राम को अपने पति के रूप में वरण(स्वीकार या अंगीकार) किया।
मेरी जानकारी यही कहती है।
क्या प्रश्नकर्ता उस हिंदी शब्दकोष का स्क्रीन शॉट साझा कर सकते हैं, जहाँ दोनों शब्द वरना और वर्ना हों, क्योंकि शब्दकोष में तो मतलब भी लिखा रहता है।
भाषा में शब्दों की शुद्धता एक जटिल विषय है। एक वर्तनी जो इस समय गलत भविष्य में शुद्ध हो सकती है यदि उसका प्रयोग भाषा के जानकारों , समाचार पत्रों प्रत्रिकाओं और पुस्तकों में व्यापक हो जाए और और लम्बे समय तक प्रचलित रहे।
वर्तनी की शुद्धता अंतत: शिक्षित समाज तय करता है . अंग्रेजी के Colour शब्द का उदाहरण लेते हैं जिसको अमरीका में color लिखा जाता है। इंग्लैंड के लोग अमरीका वालो से ये नही कह सकते कि color को colour लिखो क्योंकि colour शुद्ध है . कहा भी तो माना नही जाएगा . सब जानते हैं कि color अमेरिकन अपभ्रंश वर्तनी है और colour ही मूल रूप है। लेकिन लम्बे समय के प्रयोग से और शिक्षित समाज के अपनाने के बाद अमरीकी शब्दकोशों ने भी इसको स्थान दे दिया है , अंततः color मान्य वर्तनी है। संस्कृत के अतिरिक्त अन्य सभी भाषाओँ का चलन व्यवहार ही निर्धारित करता है। संस्कृत में भी उदाहरण है जहाँ व्यवहार व्याकरण से भिन्न हो गया है , कमल शब्द का पुलिंग के रूप में प्रयोग होना इसका उदाहरण है। यहाँ पर अन्य प्रश्न भी है यदि मूल पर जाने लगे तो मूल का मूल क्या होगा ? अर्थात यदि color का मूल colour है तो colour का मूल क्या है ? क्या उसी मूल को नहीं अपनाया जाना चाहिए ? ये तो अंतहीन प्रक्रिया हो जायेगी। इतने मूल ढूँढ पाना असंभव है।
फिर भी भाषा में ये बदलाव इतने अनियंत्रित ना हों की समझ पाना मुश्किल हो जाए इसलिए समाज को सही वर्तनियों की सूची शब्दकोशों के माध्यम से रखनी चाहिए , जिसके समय समय पर नए संस्करण प्रकाशित होते रहने चाहिए। ( प्रकाशन से बाहर शब्दकोशों को विदेशी विश्वविद्यालय ऑनलाइन प्रकाशित करा रहें हैं ये सुखद बात है। पुराने शब्दकोश बजार में फिर से उपलब्ध हो रहे हैं. )
अभिप्राय ये है कि शब्दकोश ही वर्तनी शुद्धता प्रथम आधार है , यद्यपि कुछ भी तर्क से परे नहीं है और टंकण त्रुटि इत्यादि को भी देखना होता है।
"अथवा" और "या" में क्या अंतर है?
"अथवा" और "या" दोनों ही शब्द एक से अधिक विकल्पों में चयन करने के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। किन्तु सामान्य परिस्थितियों में "अथवा" से आरम्भ कर चयन करने के तात्पर्य में वाक्य रचना नहीं की जा सकती है, जो कि "या" के प्रयोग से हो सकती है। यथा निर्भय हाथरसी की यह कविता :
"या तो मुझसे भजन करा ले या कमरा खाली करवा दे!"
इसमें पहली बार जो "या" शब्द प्रयुक्त है उसका "अथवा" में परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। अंग्रेजी भाषा में यह वाक्य रचना "Either… or…" वाली है, जिसके समरूप वाक्य रचना में "either" के स्थान पर "या" का प्रयोग हो सकता है, किन्तु "अथवा" का नहीं।
"या" हिन्दी भाषा में फ़ारसी भाषा के इसी शब्द (یا) के समरूप में आयातित है। वहीं "अथवा" संस्कृत भाषा से हिन्दी में तत्सम रूप में लिया गया है।
हम हिन्दी में कहते हैं कि "या आज या कल" इसे फ़ारसी में "یا امروز یا فردا" (या इमरोज़ या फर्दा) कहेंगे। इस रूप में यह भारोपीय मूल का शब्द है।
"या" शब्द का सम्बोधनवाचक रूप में प्रयोग भी प्रयोग किया जाता है, यथा "या! अल्ला!"। इस रूप में यह अरबी भाषा से (फ़ारसी के माध्यम से) आयातित शब्द है।
"या" का चयन के अर्थ में पार्थियन भाषा के 𐫀𐫃𐫀𐫖 (आग़ाम्) से फ़ारसी भाषा में "या" के रूप में परिवर्तित होकर हिन्दी में आना हुआ है। इस शब्द का मूल अर्थ "(अथवा) इस विधि से" प्रतीत होता है। इसकी तुलना वैदिक भाषा के शब्द "अया" से की जा सकती है।
धियं वो अप्सु दधिषे स्वर्षां ययातरन्दश मासो नवग्वाः ।
अया धिया स्याम देवगोपा अया धिया तुतुर्यामात्यंहः ॥
— ऋग्वेदः ५.४५.११॥
संस्कृत में "वा" का भी प्रयोग भी "या" के अर्थ में होता है, तथा "अथवा" शब्द की व्याख्या इस प्रकार है :
अथवा¦ अव्य॰ अथेति वायते अथ + वा--का। पक्षान्तरे
“अथवा कृतवाग्द्वारे इति”
“अथवा मृदु वस्तु हिंसितु-मिति” च रघुः।
“अथ वा हेतुमान्निष्ठविरहाप्रतियोगि-नेति” भाषा॰।
— वाचस्पत्यम्
"अथवा" (वा) का प्रयोग विकल्प, सदृश्यता तथा समुच्चय ("भी", "एवं"), पुष्टिकरण में वाक्य रचना के लिए हो सकता है। तथा "वा" का एक वाक्य में "या" के समान ही दोहराव कर "Either… or…" के समरूप वाक्य रचे जा सकते हैं। यथा :
सर्वपापहरां देवि! सौभाग्यारोग्यवर्धिनीम्।
न चैनां वित्तशाठ्येन कदाचिदपि लङ्घयेत्॥
नरो वा यदि वा नारी वित्तशाठ्यात् पतत्यधः॥
— मत्स्यपुराणम् ६२.३४ ॥
प्राण कुल दस होते हैं; जिन्हें सम्मिलित रूप से संक्षेप में भी प्राण कह देते हैं। इसलिए प्राण शब्द बहुवचन है।
मुख्य प्राण ५ हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
१. प्राण,
२. अपान,
३. समान,
४. उदान, और
५. व्यान
और उपप्राण भी पाँच हैं:
१. नाग,
२. कुर्म,
३. कृकल,
४. देवदत,
५. धनञ्जय
मुख्य प्राण :-
१. प्राण :- इसका स्थान नासिका से ह्रदय तक है। नेत्र, श्रोत्र, मुख आदि अवयव इसी के सहयोग से कार्य करते हैं. यह सभी प्राणों का राजा है। जैसे राजा अपने अधिकारियों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है, वैसे ही यह भी अन्य अपान आदि प्राणों को विभिन्न स्थानों पर विभिन्न कार्यों के लिये नियुक्त करता है।
२. अपान :- इसका स्थान नाभि से पाँव तक है। यह गुदा इन्द्रिय द्वारा मल व वायु, उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय) द्वारा मूत्र व वीर्य तथा योनी द्वारा रज व गर्भ का कार्य करता है।
३. समान :- इसका स्थान ह्रदय से नाभि तक बताया गया है। यह खाए हुए अन्न को पचाने तथा पचे हुए अन्न से रस, रक्त आदि धातुओं को बनाने का कार्य करता है।
४. उदान :- यह कण्ठ से सिर (मस्तिष्क) तक के अवयवों में रहता है। शब्दों का उच्चारण, वमन (उल्टी) को निकालना आदि कार्यों के अतिरिक्त यह अच्छे कर्म करने वाली जीवात्मा को अच्छे लोक (उत्तम योनि) में, बुरे कर्म करने वाली जीवात्मा को बुरे लोक (अर्थात सूअर, कुत्ते आदि की योनि) में तथा जिस आत्मा ने पाप – पुण्य बराबर किए हों, उसे मनुष्य लोक (मानव योनि) में ले जाता है।
५. व्यान :- यह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। ह्रदय से मुख्य १०१ नाड़ीयाँ निकलती है, प्रत्येक नाड़ी की १००-१०० शाखाएँ हैं तथा प्रत्येक शाखा की भी ७२००० उपशाखाएँ है । इस प्रकार कुल ७२७२१०२०१ नाड़ी शाखा- उपशाखाओं में यह रहता है। समस्त शरीर में रक्त-संचार, ,प्राण-संचार का कार्य यही करता है तथा अन्य प्राणों को उनके कार्यों में सहयोग भी देता है ।
उपप्राण :-
१. नाग :- यह कण्ठ से मुख तक रहता है। उदगार (डकार), हिचकी आदि कर्म इसी के द्वारा होते हैं।
२. कूर्म :- इसका स्थान मुख्य रूप से नेत्र गोलक है। यह नेत्र गोलकों में रहता हुआ उन्हे दाएँ -बाएँ, ऊपर-नीचे घुमाने की तथा पलकों को खोलने बंद करने की किया करता है। आँसू भी इसी के सहयोग से निकलते है।
३. कूकल :- यह मुख से ह्रदय तक के स्थान में रहता है तथा जृम्भा (जंभाई=उबासी), भूख, प्यास आदि को उत्पन्न करने का कार्य करता है।
४. देवदत्त :- यह नासिका से कण्ठ तक के स्थान में रहता है। इसका कार्य छींक, आलस्य, तन्द्रा, निद्रा आदि को लाने का है ।
५. धनज्जय :- यह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक रहता है। इसका कार्य शरीर के अवयवों को खींचे रखना, माँसपेशियों को सुंदर बनाना आदि है। शरीर में से जीवात्मा के निकल जाने पर यह भी बाहर निकल जाता है, फलतः इस प्राण के अभाव में शरीर फूल जाता है ।
अधिक जानकारी के लिए देखें:
प्राण क्या है?
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