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शनिवार, 20 जनवरी 2024

पौष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पौष पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाता है

पौष पुत्रदा एकादशी आज
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संतान सुख व बच्चे के उज्ज्वल भविष्य के लिए पौष पुत्रदा एकादशी प्रभावशाली मानी गई है
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पौष माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को पौष पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाता है। पुराणों में एकादशी व्रत की महीमा का वर्णन करते हुए कहा गया है कि इसके प्रताप से दुखों, त्रिविध तापों से मुक्ति और हजारों यज्ञों को करने के समान फल देता है।

मान्यता है कि अपने नाम स्वरूप पुत्रदा एकादशी का व्रत रखने से भगवान विष्णु स्वंय संकटों में संतान की रक्षा करते हैं। वंश वृद्धि के लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत बहुत महत्वपूर्ण होता है।

पौष पुत्रदा एकादशी की तिथि
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पौष पुत्रदा एकादशी व्रत 21 जनवरी 2024, रविवार को है। पुत्रदा एकादशी का व्रत साल में दो बार रखा जाता है एक पौष माह में और दूसरा सावन महीने में। ये दोनों ही व्रत संतान प्राप्ति की कामना के लिए बहुत प्रभावशाली माने जाते हैं।

पौष पुत्रदा एकादशी का मुहूर्त 
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पंचांग के अनुसार पौष माह के शुक्ल पक्ष एकादशी तिथि 20 जनवरी 2024 को रात 06 बजकर 26 मिनट पर शुरू होगी और अगले दिन 21 जनवरी 2023 को रात 07 बजकर 26 मिनट पर खत्म होगी। उदयातिथि के अनुसार एकादशी व्रत 21 जनवरी को मान्य होगा।

पौष पुत्रदा एकादशी व्रत का पारण समय 
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पौष पुत्रदा एकादशी का व्रत पारण 22 जनवरी 2024 को सुबह 07.14 से सुबह 09.21 के बीच किया जाएगा। ये दिन बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दिन श्रीहरि के मनुष्य अवतार श्रीराम लला की 22 जनवरी को अयोध्या राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा होगी।

पारण तिथि के दिन द्वादशी समाप्त होने का समय - रात 07.51

पौष पुत्रदा एकादशी व्रत कैसे करें 
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पौष पुत्रदा एकादशी का व्रत रखने वाले श्रद्धालुओं को व्रत से पूर्व दशमी के दिन एक समय सात्विक भोजन ग्रहण करना चाहिए।
व्रती को संयमित और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।
एकादशी के दिन व्रत का संकल्प लेकर गंगा जल, तुलसी दल, तिल, फूल पंचामृत से श्रीहरि की पूजा करें।
संध्याकाल में दीपदान करें। तुलसी में दीपक लगाएं।
व्रत के अगले दिन द्वादशी पर किसी जरुरतमंद व्यक्ति या ब्राह्मण को भोजन कराकर, दान-दक्षिणा देकर व्रत का पारण करें।

प्राण प्रतिष्ठा के पूर्व देव की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है। ऐसा क्यों?

*मूर्तिकार की कल्पना, उंगलियों की जादूगरी, छेनी की हजारों चोट और रेती की घिसाई। और इस तरह महीनों की तपस्या के बाद वह मूर्ति उभरती है, जिसमें देवता निवास करते हैं। पर मूर्ति से देवता होने की प्रक्रिया भी इतनी सहज कहाँ...*

आदौ रामतपोवनादिगमनं हत्वा मृगं कांचनं
वैदेहीहरणं जटायुमरणं सुग्रीवसम्भाषणम्।
बालीनिग्रहणं समुद्रतरणं लंकापुरीदाहनं
पश्चाद्रावणकुंभर्णहननमेतद्धि रामायणम्।।

।।एकश्लोकि रामायणं संपूर्णम्।।

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    सोच कर देखिये, पूरा संसार बड़े बड़े पत्थरों, पहाड़ों से भरा हुआ है। बड़े बड़े पहाड़ तोड़ कर सड़क के नीचे डाल दिये जाते हैं। घर की दीवालों में जोड़ दिए जाते हैं, फर्श में लगा दिए जाते हैं। पर उन्ही में किसी पत्थर का भाग्य उसे देवता बना देता है न? सौभाग्य-दुर्भाग्य का भेद केवल मनुष्य के लिए ही नहीं, हर जीव जन्तु, नदी तालाब, माटी पत्थर के लिए भी होता है।
     *प्राण प्रतिष्ठा के पूर्व देव की आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है। ऐसा क्यों? इसका शास्त्रीय उत्तर तो विद्वान जानें, मुझे जो लौकिक उत्तर समझ में आता है, वह सुनिये।*
     जब तक प्राण प्रतिष्ठा नहीं होती तब तक वह केवल मूर्ति होती है, पर प्रतिष्ठा होते ही वे देव हो जाते हैं। तो देव की पहली दृष्टि किसपर पड़े? कौन सहन कर पायेगा वह तेज? क्या कोई सामान्य जन? कभी नहीं। तो इसका सबसे सहज उपाय ढूंढा गया कि देव की पहली दृष्टि सीधे देव पर ही पड़े। इसीलिए आंखों की पट्टी खोलते समय उनके सामने आईना लगा दिया जाता है। इस भाव से कि आपन तेज सम्हारो आपै... इस तरह देव की पहली दृष्टि उन्ही पर पड़ती है, वे अपना तेज स्वयं ही सम्हारते हैं। कितना सुंदर विधान है न?
      *प्राणप्रतिष्ठा के पूर्व विग्रह को जलाधिवास, अन्नाधिवास, फलाधिवास, घृताधिवास और फिर शय्याधिवास में रखा जाता है। एक रात जल में निवास होता है, फिर अन्न से ढक कर रखा जाता है, फिर पुष्पादि से.... घी और फिर शय्या... जहाँ जहाँ जीवन है, जीवन के लिए आवश्यक तत्व हैं, वहाँ वहाँ से तेज प्राप्त करती है मूर्ति! उसके बाद होता है देव का आवाहन, और फिर वे विराजते हैं विग्रह में... इसके बाद खुलता है पट। लम्बी चरणबद्ध प्रक्रिया है... देवत्व यूँ ही नहीं आता।*
      कल कहीं एक मूर्खतापूर्ण प्रश्न पढ़ा। किसी ने लिखा था कि मनुष्य ईश्वर की प्राणप्रतिष्ठा कैसे कर सकता है? बकवास प्रश्न है यह। मनुष्य मूर्ति में ही नहीं, सृष्टि के कण कण में देवता को देख सकता है, पर इसके लिए हृदय में श्रद्धा होनी चाहिये। जैसे बिना आंखों के आप संसार को नहीं देख सकते, वैसे हीं बिना श्रद्धा के आप ईश्वर को नहीं देख सकते। हम देख लेते हैं देवत्व गङ्गा में, वृक्षों में, पहाड़ों में, अग्नि में, आकाश में... यह हमारी श्रद्धा की शक्ति है, हमारी संस्कृति की शक्ति है, हमारे धर्म की शक्ति है।
      *बाकी एक बात और! इस बार केवल एक मन्दिर में देव की प्राणप्रतिष्ठा ही नहीं हो रही। यह युगपरिवर्तन का उद्घोष है, यह भारतीय स्वाभिमान की पुनर्प्रतिष्ठा है।*
      आइये, देव के पट खुलने की प्रतीक्षा करें... वह क्षण धर्म के जयघोष का होगा, सनातन के विजय का होगा, असंख्य योद्धाओं की तृप्ति का होगा... जय जय श्रीराम।
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गुरुवार, 18 जनवरी 2024

मेरे प्रभु श्री राम आ रहे हैं

मेरे प्रभु श्री राम आ रहे हैं
 
पुनि मन्दिर महँ बात जनाई, आवत नगर कुशल रघुराई । ( श्रीरामचरितमानस )

शत्रुघ्न आज जल्दी से जल्दी महल में पहुँचना चाहते हैं… सुमन्त्र जी ! आप आज की रात सब व्यवस्था सम्भाल दीजिये ! मैं अकेले रहना चाहता हूँ… मैं एकान्त में बैठना चाहता हूँ । शत्रुघ्न कुमार ने अपने हृदय की बात कही… । बात सही भी तो है… जब अपने दुःख को इन शत्रुघ्न कुमार ने जग जाहिर नहीं किया… तो ख़ुशी का प्रदर्शन भी क्यों करें ।

कुमार ! आप विश्राम करें… और वैसे भी चौदह वर्ष का आपका “तप” कौन देख सका है… ये महामन्त्री सुमन्त्र ही जानता है कि आपकी तपस्या अप्रकट थी… हे कुमार ! दीवार पर चित्रकारी हो सकती है… पर नींव पर कोई कैसे चित्रकारी करे ! आप कुमार ! इस रघुकुल के नींव हैं… ये कहते हुए महामन्त्री के नेत्र बह चले थे । नहीं ! नहीं ! महामन्त्री जी !… तप तो मेरे प्रभु ने किया है… तप तो मेरे अग्रज लक्ष्मण ने किया है… पूज्या भाभी माँ सीता जी ने किया है… और मेरे आर्य मेरे हृदय में जिनके प्रति अगाध श्रद्धा है… उन श्री भरत भैया ने किया है… ।

प्रणाम किया सुमन्त्र जी ने… पता नहीं किस मिट्टी से बनें हैं आप रघुकुल के लोग… तप त्याग सेवा तो आपके खून में ही है । किसको बड़ा तपस्वी कहें, किसको छोटा ? ….कुमार शत्रुघ्न ! महल में जाकर देखा था मैंने… तप तो वहाँ भी चल रहा है… बहू रानी उर्मिला का तप, छोटी बहू श्रुतकीर्ति का तप, ओह ! । पर रूक गए बोलते बोलते सुमन्त्र जी ! उस दिन महल में मुझे जाना था, मैं ही लेकर आया था भरत जी का वह उच्छिष्ट ..जौ को पकाया गया गौ मूत्र में ।… भरत जी की पत्नी वही तो खाती रहीं हैं… मुझे उस दिन पता चला था… ।… तब मैंने देखा… कुशा के आसन में बैठीं थीं श्री भरत की पत्नी… माण्डवी । दूर से देखने में ऐसा लगा कोई सन्यासिनी तप करके बैठी है… वो तेज़ था मुख मण्डल में… । ये कहते हुए वाणी अवरुद्ध हो गयी थी महामन्त्री की । बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाये… आप जाएँ कुमार ! आज की रात्रि विश्राम करें… कल प्रातः मिलेंगे ।

इतना कहकर रथ चल पड़ा था महामन्त्री का… और इधर कुमार शत्रुघ्न का । महल में आते ही… अपने कक्ष का दरवाजा लगा लिया था शत्रुघ्न ने भीतर से… और नाच उठे थे । प्रभु आरहे हैं ! नेत्र ऐसे बरस रहे थे आज जैसे सावन की झरी हो । पर ये आनन्द का अश्रु प्रवाह था… ख़ुशी इतनी हो रही थी कुमार को… कि रुक नहीं रहा था उनका आनन्द । दरवाजा किसी ने खटखटाया । शान्त हो गए शत्रुघ्न कुमार… धीरे से द्वार खोला था… माता ! आइये… माँ सुमित्रा आयीं थीं ।

तुम क्या कर रहे हो कुमार ? माँ सुमित्रा ने पूछा । कुछ देर बोले ही नहीं… फिर थोड़ी ही देर में… माँ के गले लग गए… और माँ के अंक का स्पर्श पाते ही… शिशुवत् चपलता प्रकट हो गयी शत्रुघ्न कुमार की । माँ ! प्रभु आरहे हैं ? अपने गर्दन को ऊपर उठाकर सुमित्रा माँ की ओर देखते हुए शत्रुघ्न ने कहा । क्या ! सुमित्रा चौंक गयीं… कब आरहे हैं ? ….माँ ! कल मध्यान्ह में… माँ ! प्रयाग में आज रात्रि रुके हैं प्रभु । तूने सबको बता दिया ? जीजी कौशल्या को ?……नही… माँ ! मैंने किसी को नहीं बताया… मैं तो अकेले में इस आनन्द को अनुभव कर रहा था… माँ ! इस शत्रुघ्न के महल ने… शत्रुघ्न का दुःख बहुत देखा है… रुदन देखा है… जब बोल रहे थे शत्रुघ्न तब सुमित्रा महल के चारों ओर देख रही थीं…

फिर आगे बढ़ीं… दीवार में… लाल लाल धब्बे थे… जो सूख गए थे… पुत्र ! ये क्या है ? सुमित्रा ने पूछा । कुछ नही माँ !… ये रोते रहते थे… रात भर माँ ! और कभी कभी तो रोते रोते अपना सिर इस दीवार पर पटकते थे… मुझ से कहते थे… श्रुतकीर्ति ! मैं क्या करूँ ? मैं कहाँ जाऊँ ? …..भरत भैया का सहारा था… पर वो भी नन्दी ग्राम में बैठ गए… लक्ष्मण भैया भी प्रभु के साथ निकल गए….अब बचा है ये अभागी शत्रुघ्न… ये कहाँ जाए .?….. माँ ! ऐसा कहते हुए ये रोज रोते थे… लोगों के सामने इन्होंने कभी अपना दुःख प्रकट नही किया… दिन भर राज काज करते रहना… और रात में… अकेले में… रोना… । श्रुतकीर्ति ने आकर शत्रुघ्न कुमार की सारी बातें बता दी थी माँ सुमित्रा को । माँ ! ये भी बाबरी ही है… अब उन बातों को क्यों याद करना… अब तो माँ ! बस आज की रात है… कल तो जो सूर्योदय होगा अयोध्या में… वो आनन्द का सूर्योदय होगा… उत्सव का सूर्योदय होगा… सुख की किरणें फूटेंगीं ।

माँ सुमित्रा का हाथ पकड़ कर नाच उठे थे कुमार शत्रुघ्न । अरे ! तू ये बालक जैसी क्या हरकत कर रहा है शत्रुघ्न ?….हँसते हुए माँ सुमित्रा ने कहा । माँ ! मैं बालक ही तो हूँ… सबसे छोटा शत्रुघ्न कुमार… अब तो मेरे प्रभु आरहे हैं… आह ! । माँ ! सब सो रहे हैं महल में ? ….हाँ हाँ… पुत्र सब सो रहे हैं ! क्यों सो रहे हैं !… अरे ! आज की रात तो आनन्द की रात है… कल आरहे हैं ना… मेरे प्रभु !

इतना कहते हुए शत्रुघ्न भागे… अरे कहाँ जा रहा है तू ? ….सुमित्रा ने आवाज लगाई… पर शत्रुघ्न आज किसी की सुनेंगे ? ….अपने गले लगाकर श्रुतकीर्ति को… खूब हँसी सुमित्रा । पागल हो गया तेरा पति श्रुतकीर्ति !… आज चौदह वर्ष बाद किलकारियाँ गूँजी थीं इस महल में । सबका दरवाजा खटखटा कर चिल्ला रहे हैं… कुमार शत्रुघ्न ।

शत्रुघ्न को इतना भी नहीं पता कि द्वार खटखटाते हुए… कुमार ने मन्थरा का द्वार भी खटखटा दिया था… अरे ! उठो ! सोओ मत ! “प्रभु आ रहे हैं “… कल “मेरे प्रभु आ रहे हैं” । उठी है मन्थरा ! शत्रुघ्न की आवाज कान में गयी मन्थरा के… “प्रभु आरहे हैं” ? श्री राम आरहे हैं ? …..

चौदह वर्ष से ये दासी मन्थरा अपने कक्ष से बाहर ही नहीं आई थी । बाहर निकल जाती… तो नगर वासी इसे जीवित छोड़ देते ?….पर आज जब सुना… कि “प्रभु आरहे हैं” । ओह ! आनन्द के अश्रु इसके भी बहने लगे थे । अर्ध रात्रि हो गयी है… चौदह वर्ष बाद ये मन्थरा बाहर आई । कुमार ! क्या कहा फिर कहना ? …..लडखड़ाती आवाज, लाठी टेककर बाहर आई…

डरते हुए पूछा शत्रुघ्न से… कुमार ! क्या कहा फिर कहना ?…..प्रभु आरहे हैं ! ओह !… देह में अब हिम्मत नहीं रही मन्थरा के… कुबड़ी वैसे ही है… फिर भी लाठी टेककर धीरे धीरे चली… कैकेयी के महल की ओर ।

महारानी ! ओ महारानी ! ये आवाज लगाई… और द्वार खटखटाया मन्थरा ने, कैकेयी का । द्वार खोला… तू ! इतनी रात को क्यों आई है यहाँ ?…..कैकेयी को दया आती है इस बूढ़ी मन्थरा पर… तेरी तबियत तो ठीक है ना ?….हाँ… महारानी ! तबियत बिलकुल ठीक है… मैं तेरा दूसरा कूबड़ भी निकाल दूंगी… खबरदार जो मुझे “महारानी” कहा तो ! कैकेयी मन्थरा के महारानी कहने से नाराज हो गयी थी । अच्छा ! गुस्सा छोड़ दो… अभ्यास है ना… महारानी कहने का इसलिए ये शब्द निकल गए । बता क्यों आई है इतनी रात गए ?…..

प्रभु आरहे हैं ! श्री राम आरहे हैं ! क्या !… उछल पड़ी कैकेयी… और मन्थरा का हाथ पकड़ कर बोली… मंथरे ! तू सच कह रही है… मेरा राम आरहा है ! हाँ… हाँ… महारानी… महारानी कहते हुए कान पकड़ लिए मन्थरा ने… गलती होगयी… हाँ… बोलना है तो मुझे “राजमाता” बोल ! अपनी ठसक में आगयी थी कैकेयी… बोल राजमाता ! क्या !… ना !… मैं नही बोलती राजमाता… मन्थरा ने कहा… मेरी जीभ काली है… एक बार मैंने तुम्हें राजमाता क्या बनने के लिए कहा… सब कुछ बर्बाद हो गया… मेरे कारण ही… अब नहीं बोलूंगी ।

अरी ! मंथरी ! बोल… मैं राजमाता ही हूँ । अब राम ही तो मेरा पुत्र है… भरत ने तो मेरा परित्याग ही कर दिया है… ये कहते हुए फिर गम्भीर हो गयी थीं कैकेयी । हाँ… बहन ! तुम राजमाता हो… सच कह रही हो… राम मुझ से ज्यादा तो तुम्हारे पास ही रहता था… अब भी तुम्हें ही मानता है ।

कौशल्या जी ने प्रवेश किया था कैकेयी के महल में । जीजी !… प्रणाम किया झुककर कैकेयी ने कौशल्या जी के चरणों में । देखो ना ! कैसे पागल सा हो गया है ये शत्रुघ्न कुमार । सब को जगा दिया… सब नाच रहे हैं । कैकेयी बहन ! चलो माण्डवी को ये सूचना दें । नहीं जीजी ! मैं नहीं जाऊँगी… माण्डवी के महल में । कैकेयी ने कहा । ….तुम भी ना… चलो ! अपनी तो बहु है… ऐसे दिल पे मत लिया करो बात… चौदह वर्ष बीत गए… सब उसमें बह गया… देखो… इस मन्थरा को… कौशल्या ने कहा ।

मैं तो जा रही हूँ… सजने धजने… चौदह वर्ष तक अपना श्रृंगार भी नही किया है मैंने… मन्थरा ये बोलती हुयी चली… जीजी ! इस मन्थरा के लिए कोई लड़का हो तो देख दो… कैकेयी ने कौशल्या से कहा… वो मन्थरा… शरमा कर…”हट्ट” कहती हुयी चली गयी ।

माण्डवी ! पुत्री माण्डवी ! ….कुशा के आसन में बैठी माण्डवी… भरत की पत्नी । नेत्रों से अश्रु बह चले थे कैकेयी के । केश जटा ही बन गए थे… चौदह वर्ष तक इस तपस्विनी ने तेल, फुलेल, उबटन… कहाँ लगाये थे ! शरीर कृष हो गया था… पुत्री ! माण्डवी उठो ! नेत्र खोले माण्डवी ने… अर्ध रात्रि को… माताएं… ?

चरण वन्दन किये… राम आरहे हैं ! कौशल्या जी ने कहा । क्या ! …मुख की गम्भीरता तुरन्त समाप्त हो गई… माण्डवी की । कब ? माँ ! कब आरहे हैं ?….पुत्री ! कल आरहे हैं मध्यान्ह में । ओह ! माण्डवी के नेत्रों अश्रु बह चले थे… आनन्द के । कैकेयी ने आगे बढ़कर अपनी पुत्रवधु को सम्भाला था ।”अयोध्यावासियों ! कल मध्यान्ह में प्रभु पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या आरहे हैं ” ये क्या पागल हो गया शत्रुघ्न… अर्ध रात्रि को कोई ऐसे ढिढ़ोरा पीटता है… ।

माताओं ने पहले गम्भीरता से कहा… फिर एक दूसरे के मुख में देख कर खूब हँसी… और सब गले लग गए । मेरे श्री राम आरहे हैं !

जय श्री राम

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मंगलवार, 16 जनवरी 2024

गुरु गोविंद सिंह जयंती बुधवार, 17 जनवरी 2024

गुरु गोविंद सिंह जयंती आज
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गुरु गोविंद सिंह जी सिखों के दसवें गुरु थे। उन्हें विद्वानों का संरक्षक माना जाता है । वे एक महान योद्धा तो थे ही, लेकिन साथ ही एक महान कवि-लेखक भी थे। उनके दरबार में 52 कवि और लेखक मौजूद हुआ करते थे। वह संस्कृत के अलावा कई भाषाओं की जानकारी रखते थे। कई सारे ग्रंथों की रचना गुरु गोविंद सिंह द्वारा की गई, जो समाज को काफी प्रभावित करती है। ‘खालसा पंथ’ की स्थापना जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है, इन्ही के द्वारा किया गया। गुरु गोविंद साहब ने सिखों के पवित्र ग्रंथ ‘गुरु ग्रंथ’ साहिब की स्थापना की थी ,वे मधुर आवाज के भी धनी थे। इसके साथ ही सहनशीलता और सादगी से भरे थे। गरीबों के लिये वे हमेशा लड़े और सबको बराबर का हक देने को कहा करते थे और भाईचारे से रहने का संदेश देते थे।

गुरु गोविंद सिंह जयंती की तिथि
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गुरु गोविंद सिंह की 357 वीं जन्म वर्षगांठ

गुरु गोविंद सिंह जयंती बुधवार, 17 जनवरी 2024

सप्तमी तिथि प्रारम्भ : 16 जनवरी 2024 को रात 11:57 बजे

सप्तमी तिथि समाप्त: 17 जनवरी 2024 को रात 10:06 बजे

गुरु गोविंद सिंह जी का जन्म और उनके जीवन से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातें
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गुरु गोविंद सिंह साहब का जन्म 22 दिसम्बर 1666 को बिहार के पटना शहर में श्री गुरु तेग बहादुर के यहां हुआ था, जो सिख समुदाय के नौवें गुरु थे। उनकी माता का नाम गुजरी देवी था। बचपन में वे गोविंदराय के नाम से जाने जाते थे। अपने जीवन के शुरुआती 4 वर्ष उन्होंने पटना के घर में ही बिताए, जहां उनका जन्म हुआ था।

बाद में 1670 में उनका परिवार पंजाब मे आनंदपुर साहब नामक स्थान पर रहने आ गया था। जो पहले चक्क नानकी नाम से जाना जाता था। यह हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों मे स्थित है। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा की शुरुआत चक्क नानकी से ही हुई थी। एक योद्धा बनने के लिये जिन कला की जरूरत पड़ती है, उन्होंने यही से सीखी। उसके  साथ ही संस्कृत, और फारसी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया था।

एक बार कश्मीरी पंडित अपनी फ़रियाद लेकर श्री गुरु तेग बहादुर के दरबार में आए। दरबार में पंडितों ने जबरदस्ती धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाए जाने की बात कही। साथ ही कहा कि हमारे सामने ये शर्त रखी गयी है, अगर धर्म परिवर्तन नहीं किया तो हमें प्राणों से हाथ धोने पड़ेंगे। ऐसा कोई महापुरुष हो, जो इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करे और अपना बलिदान दे सके, तो सबका भी धर्म परिवर्तन नहीं किया जाएगा। 

उस समय गुरु गोविंद सिंह जी नौ साल के थे। उन्होंने अपने पिता गुरु तेग बहादुर जी से कहा आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है! कश्मीरी पण्डितों की फरियाद सुनकर गुरु तेग बहादुर ने जबरदस्ती धर्म परिवर्तन के खिलाफ खुद का बलिदान दिया। लोगों को जबरदस्ती धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए स्वयं इस्लाम न स्वीकारने के कारण 11 नवम्बर 1675 को औरंगज़ेब ने दिल्ली के चांदनी चौक में आम लोगों के सामने उनके पिता गुरु तेग बहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद 29 मार्च 1676  में श्री गोविन्द सिंह जी को सिखों का दसवां गुरु घोषित किया गया।

गुरु गोविंद सिंह का विवाह
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गुरु गोविंद सिंह जी का पहला विवाह 10 साल की उम्र में ही हो गया था। 21 जून, 1677 के दिन माता जीतो के साथ आनन्दपुर से 10 किलोमीटर दूर बसंतगढ़ में विवाह सम्पन्न हुआ था। गुरु गोविंद सिंह और माता जीतो के 3 पुत्र हुए जिनके नाम जुझार सिंह, जोरावर सिंह, फ़तेह सिंह थे। 17 वर्ष की उम्र में दूसरा विवाह माता सुन्दरी के साथ 4 अप्रैल, 1684 को आनन्दपुर में ही हुआ। उनका एक बेटा हुआ, जिसका नाम अजित सिंह था। उसके बाद 33 वर्ष की आयु में तीसरा विवाह 15 अप्रैल, 1700 में माता साहिब देवन के साथ किया। वैसे तो उनकी कोई सन्तान नहीं थी, पर सिख पन्थ के पन्नों और गुरु गोविंद सिंह जी के जीवन में उनका भी बहुत प्रभावशाली स्थान था। इस तरह से गुरु गोविंद साहब की कुल 3 शादियां हुई थी। 

खालसा पंथ की स्थापना
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सन 1699 में बैसाखी के दिन गुरु गोविंद साहब ने खालसा पंथ की स्थापना की, जिसके अंतर्गत सिख धर्म के अनुयायी विधिवत् दीक्षा प्राप्त करते है। सिख समुदाय की एक सभा में उन्होंने सबके सामने पूछा – “कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है”? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोविंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पूछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया, पर वे तम्बू से जब बाहर निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी तरह पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोविंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे ,तो उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।

उसके बाद गुरु गोविंद जी ने एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दो-धारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया। पहले 5 खालसा बनने के बाद उन्हें छठवां खालसा का नाम दिया गया, जिसके बाद उनका नाम गुरु गोविंद राय से गुरु गोविंद सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच ककारों का महत्व खालसा के लिए समझाया और कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान, कछैरा।

तभी से सिख समुदाय अपने साथ कहा – केश, कंघा, कड़ा, किरपान (कृपाण), कछैरा (कच्छा) अपने साथ रखते है ।

बहादुर शाह जफ़र के साथ गुरु गोविंद सिंह के रिश्ते
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जब औरंगजेब की मृत्यु हुई, उसके के बाद बहादुरशाह को बादशाह बनाने में गुरु गोविंद सिंह  ने मदद की थी। गुरु गोविंद जी और बहादुर शाह के आपस मे रिश्ते बहुत ही सकारात्मक और मीठे थे। जिसे देखकर सरहिंद का नवाब वजीर खां डर गया। अपने डर को दूर करने के लिये उसने अपने दो आदमी गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन दो आदमियों ने ही गुरु साहब पर धोखे से वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 को गुरु गोविंद सिंह जी नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। 

उन्होंने अपने अंत समय में सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा और भी गुरु ग्रंथ साहिब के सामने नतमस्तक हुए। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहिंद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों के ईंट का जवाब पत्थर से दिया ।

गुरु गोविंद साहब द्वारा दिए गये उपदेश
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गुरु गोविंद सिंह के दिए उपदेश आज भी खालसा पंथ और सिखों के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। 
बचन करके पालना: अगर आपने किसी को वचन दिया है तो उसे हर कीमत में निभाना होगा। 
किसी दि निंदा, चुगली, अतै इर्खा नै करना : किसी की चुगली व निंदा करने से हमें हमेशा बचना चाहिए और किसी से ईर्ष्या करने के बजाय परिश्रम करने में फायदा है।
कम करन विच दरीदार नहीं करना : काम में खूब मेहनत करें और काम को लेकर कोताही न बरतें।
गुरुबानी कंठ करनी : गुरुबानी को कंठस्थ कर लें।
दसवंड देना : अपनी कमाई का दसवां हिस्सा दान में दे दें।
गुरु गोविंद सिंह जी की रचनाएं
गुरु गोविंद सिंह जी ने न सिर्फ अपने महान उपदेशों के द्वारा लोगों को सही मार्गदर्शन दिया, बल्कि उन्होंने समाज में हो रहे अत्याचारों और अपराधों के खिलाफ भी विरोध किया। उनके द्वारा लिखी कुछ रचनाएं इस प्रकार से हैं-
जाप साहिब
अकाल उत्सतत
बचित्र नाटक
चंडी चरित्र
जफर नामा
खालसा महिमा

ताज महल अगर प्रेम की निशानी है तो गढ़ चित्तोड़ एक शेर की कहानी है...

राजस्थानी लोगों को छोड़कर शेष दुनिया को लगता है कि राजस्थान में पानी नहीं है...
जबकि यहाँ सबसे शुद्धता वाला पानी जमीन में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।

राजस्थान के लोगों को पूरे विश्व में सबसे बड़े कंजूस समझा जाता है...

पूरे भारत के 95% बड़े उद्योगपति राजस्थान के हैं, राममंदिर के लिए सबसे ज्यादा धन राजस्थान से मिला है।
राममंदिर निर्माण में उपयोग होने वाला पत्थर भी राजस्थान का ही है!

राजस्थान के लोगों के बारे में दुनिया समझती है ये प्याज और मिर्च के साथ रोटी खाने वाले लोग हैं।

जबकि पूरे विश्व मे सर्वोत्तम और सबसे शुद्ध भोजन परम्परा राजस्थान की हैं... 

पूरे विश्व मे सबसे ज्यादा देशी घी की खपत राजस्थान में होती हैं, यहाँ का बाजरा विश्व के सबसे पौष्टिक अनाज का खिताब लिये हुए है।

दुनिया को लगता है कि राजस्थान के लोग छप्पर और झौपड़ियों में रहते हैं इन्हें पक्के मकानों की जानकारी कम हैं।

जबकि यहाँ के किले, इमारतें और उन पर अद्भुत नक्काशी विश्व में दूसरी जगह कहीं नही।

यहाँ अजेय किले और हवेलियाँ हजारों वर्ष पुरानी हैं...

मकराना का मार्बल, जोधपुर व जैसलमेर का पत्थर अपनी अनूठी खूबसूरती के कारण विश्व प्रसिद्ध हैं !

राजस्थान के कुम्भलगढ़ किले की 38 किलोमीटर लंबी दीवार, चीन की दीवार जैसी ही दूसरी उससे मजबूत दीवार भी है जिसे दुनिया में पहचान नहीं मिली!

दुनिया को लगता है कि राजस्थान में कुछ भी नहीं।

यहाँ पेट्रोलियम का अथाह भंडार है।

गैसों व कोयले का अथाह भंडार मिला है।

अकेले राजस्थान की औरतों के पास का सोना इक्ठ्ठा किया जाए तो शेष भारत की औरतों से ज्यादा सोना होगा।

सबसे ज्यादा सोने की बिक्री भी राजस्थान के जोधपुर में होती हैं।

राजस्थान के जलवायु के बारे में दुनिया समझती है यहाँ बंजर भूमि और रेतीले टीले हैं जहाँ आँधियाँ चलती रहती है...

जबकि राजस्थान में कई झीलें, झरने और अरावली पर्वतमाला के साथ रणथम्भौर पर्वतीय शिखर हैं जो विश्व के टॉप टूरिज्म पैलेस हैं।

राजस्थान में झीलों से निकला नमक शेष भारत में 80% नमक की आपूर्ति करता है जो 100% शुद्ध प्राकृतिक नमक है।

इसके अलावा भी बहुत सारी ऐसी बातें हैं जिन्हें दुनिया नहीं जानती।

राजस्थान का नकारात्मक चरित्र गढ़ा गया जिसे दुनियाभर में सच समझा गया!

राजस्थान में बहन को प्यार से बाईसा कहा जाता है।

यहाँ चार बाईसा हुई जिन्हें हर राजस्थानी बाईसा कहकर ही सम्बोधित करते हैं...

मीरां बाई, करमा बाई, सुगना बाई, नानी बाई।
और
मीरां ने ईश्वर को प्रेम भक्ति से ऐसा वशीभूत किया कि ईश्वर को आना पड़ा!

करमा बाई ने निष्ठा भक्ति से ईश्वर को ऐसा अभिभूत किया कि ईश्वर को करमा के हाथ से खाना पड़ा...

सुगना बाई ने राजस्थान की पीहर और ससुराल परम्परा का ऐसा अनूठा स्त्रीत्व भक्ति पालन किया कि ईश्वर को उनका उद्गार सुनना पड़ा।

और 
नानी बाई ने ईश्वर की ऐसी विश्वास भक्ति की की ईश्वर को उनके घर आना पड़ा...

ये सब इसी युग में वर्तमान में हुआ जिनकी भक्ति आस्था और निष्ठा को राजस्थान के हर मंच से गाया जाता है...
नारी भक्ति का ऐसा उदाहरण शेष विश्व में और कहीं नहीं।

यहाँ राजस्थान की बलुई मिट्टी पूनम की रात में कुंदन की तरह चमककर स्वर्ण का आभास कराती है...

इन्ही पहाड़ो की वजह से इसे मरुधरा कहा जाता है...

राजस्थान का इतिहास गर्व से लबरेज और यहाँ का जीवन सबसे शुद्ध हैं!

कण कण वंदनीय और गाँव- गाँव एक इतिहास में दर्ज कहानियों पर खड़ा है!

हमारा राजस्थान खास क्यों हैं❓

1.भारत के 100 सबसे अमीर व्यक्तियो में से 35 राजस्थानी व्यापारी हैं...

2.दंगो में हज़ारो लोग मारे गए हैं लेकिन राजस्थान में 1 भी नहीं...

3.राजस्थान अकेले इतने सैनिक देश को देता है जितना केरला, आन्ध्र-प्रदेश और गुजरात मिलकर भी नहीं दे पाते...

4.कर्नल सूबेदार सबसे ज्यादा राजस्थान से है... 
और अब तो सेना के जनरल भी राजस्थान उदयपुर से ही है...

5.उच्च शिक्षण संस्थानों में राजस्थानी इतने हैं कि महाराष्ट्र और गुजरात के मिलाने से भी बराबरी नहीं कर सकते...

6.राजस्थान अकेला ऐसा राज्य है जहाँ किसान कृषि कारणों से आत्म-हत्या नहीं करतें जैसा कि मीडिया अन्य राज्यों में दिखाता है, जबकि सबसे अधिक सूखा यहाँ पड़ता है, क्यूकि राजस्थान में बुज़दिल नहीं दिलेर पैदा होते है...

7.आज भी राजस्थान में सबसे ज्यादा संयुक्त परिवार बसते है...

8.यहां एक रिक्शा चलाने
वालों को भी भाई जी कह कर बुलाते हैं...

अतिथि को यहां आज भी देवता के समान दर्जा देते हैं और यहां पर अतिथियों की खातिरदारी में कोई कसर नहीं छोड़ते।

जय भारत.....
जय राजस्थान.....
म्हारो प्यारो राजस्थान
म्हारो रंगीलो राजस्थान
ताज महल अगर प्रेम की निशानी है तो गढ़ चित्तोड़ एक शेर की कहानी है...

कुछ लोग हार कर भी जीत जाते हैं !
कुछ लोग जीत के भी हार जाते हैं !!
नहीं दिखते है अकबर के निशान यहाँ कहीं पर भी, लेकिन
राणा के घोड़े हर चौराहे पर आज भी नज़र आते हैं।

*"जय जय राजस्थान"*
                              
  *पधारो म्हारे देश*        

*जय गणेश*

सोमवार, 15 जनवरी 2024

उत्तरायण होते सूर्य की कृतज्ञ वंदना के सनातन पर्व मकर संक्रान्ति की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ

*🔰उत्तरायण होते सूर्य की कृतज्ञ वंदना के सनातन पर्व मकर संक्रान्ति की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ।💐⤵️⤴️*
🔶भारत के प्रमुख पर्वों में से एक मकर सङ्क्रान्ति (मकर संक्रांति) उत्सव पूरे भारत और नेपाल में भिन्न रूपों में मनाया जाता है। पौष मास में जिस दिन सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है उस दिन इस पर्व को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में जाना जाता हैं जबकि कर्नाटक, केरल,तेलंगाना तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। बिहार के कुछ जिलों में यह पर्व 'तिला संक्रांत' नाम से भी प्रसिद्ध है। 14 जनवरी के बाद से सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर (जाता हुआ) होता है। इसी कारण इस पर्व को 'उतरायण' (सूर्य उत्तर की ओर) भी कहते है। 

*🔶मकर संक्रांति, उत्तरायण, उत्तरेणी, खिचड़ी, पोंगल, तिल संक्रांति, टुसू, माघ बिहु, सकट पर्व या कोई और नाम हो, उत्सवधर्मिता, प्रकृति की उपासना और सौहार्द का भाव इन सब में समान रूप से निहित है। आप सब में भी भगवान सूर्य की सात्विकता, ऊर्जा और तेज का संचार हो। 🙏🏻☀️*

रविवार, 14 जनवरी 2024

भारतीय मन हर स्थिति में "राम" को साक्षी बनाने का आदी है।

भारतीय मन हर स्थिति में "राम" को साक्षी बनाने का आदी है।
दुःख में --
"हे राम"

पीड़ा में --
"अरे राम"

लज्जा में --
"हाय राम"

अशुभ में --
"अरे राम राम"

अभिवादन में--
"राम राम"

शपथ में--
"राम दुहाई"

अज्ञानता में --
"राम जाने"

अनिश्चितता में --
"राम भरोसे"

अचूकता के लिए--
 "रामबाण"

सुशासन के लिए--
 "रामराज्य"

मृत्यु के लिए --
"राम नाम सत्य" 

जैसी अभिव्यक्तियां 
पग-पग पर "राम" को 
साथ खड़ा करतीं हैं।
"राम" भी इतने सरल हैं कि...
 हर जगह खड़े हो जाते हैं।
 जिसका कोई नहीं...
 उसके लिए "राम" हैं-
 "निर्बल" के बल "राम"।

🙏 _*जय जय श्री राम*_ 🙏

🚩 *राम काज किये बिना मोहें कहा विश्राम*
🙏🏻🚩 *जय श्रीराम* 🙏🏻🚩

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अंत में हम तो जाते अपने गांव... सबको राम राम राम

#जब_राम_गये_ससुराल

#जब_राम_गये_ससुराल
कहते हैं लंका से लौटने के बाद और राज्याभिषेक के बाद माता सुनयना ने जँवाई बेटा को मिथिला आने का सासू माँ का लाड़ भरा आग्रह भेजा। 

राम भला कैसे इनकार करते। 

लक्ष्मण, भरत व शत्रुघ्न को भी ससुराल जाने का चाव पूरा हुआ। 

हनुमान उन दिनों वहीं थे सो उनको भी आने का आग्रह हुआ। 

सुग्रीव, अंगद, नल, नील आदि ने प्रभु से शिकायत की कि ये तो सरासर पक्षपात है। 

मंद मंद मुस्कुराते हुए प्रभु ने सबको  स्वीकृति दे दी। 

वानरों से भलीभांति परिचित डिग्निटी पसंद लक्ष्मण की पेशानियों पर बल पड़ गए कि कहीं संभ्रांत आर्य नागर परंपरा से अनभिज्ञ सरल परंतु उजड्ड वानर ससुराल में भैया के साथ साथ पूरे रघुवंश को हमेशा के लिए हंसी का पात्र न बना दें। 

लक्ष्मण इस बात से भली भांति परिचित थे कि औपनिषदिक जनक परंपरा के गंभीर राजाओं की श्रृंखला के बावजूद  मिथिला वाले किसी की टांग खींचकर मजे लेने से कभी बाज नहीं आते हैं और बुरा मानने पर कवित्तों के माध्यम से सदियों तक ताना देने में समर्थ हैं।  

लेकिन भैया का आदेश टाल भी नहीं सकते थे इसलिए उन्होंने सुग्रीव, हनुमान, अंगद, नल नील आदि को नागर परंपराओं की ट्रेनिंग देना शुरू किया और बाकी वानरों से कहा कि वे ठीक वैसा ही करें जैसा उनके यूथपति करें। 

कैसे प्रणाम करना है,
कैसे प्रणाम का उत्तर देना है, 
कैसे बैठना है, उठना है, 

विशेषतः सामूहिक भोज के राजसी नियम कायदे क्या हैं। 

रास्ते भर ये ट्रेनिंग लेते हुए अयोध्या का यह अद्भुत सार्थ मिथिला पहुँचा। 

सुसंस्कृत कर्मकांडी वासिष्ठ आचार्य, अयोध्या के संभ्रांत श्रेष्ठि, पौरजन, श्रृंगवेरपुर के श्यामल निषाद, सौराष्ट्र से आये ऋक्ष और दक्षिण के वानर

शिव बारात का दृश्य पुनः उपस्थित हो गया। 

मिथिला में जवाईयों व उनके मित्रों, सहयोगियों का हार्दिक स्वागत हुआ। 

खाना पीना, नृत्य संगीत उत्सव के बीच श्रीराम के लौटने के आग्रहों को ठुकराते और मैथिलों के मनुहारों के बीच एक महीना कब बीत गया, पता ही नहीं चला।  

अंततः अनासक्त राजर्षि सीरध्वज को भी भाव भरे भारी मन से लौटने की अनुमति देनी पड़ी। 

विदाई पूर्व संध्या पर भव्य सामूहिक भोज का आयोजन हुआ। 

लक्ष्मण बहुत संतुष्ट थे। 
सबकुछ उनकी ट्रेनिंग व प्लान के हिसाब से ही हुआ व सबकुछ ठीक हुआ। 

संध्या को भोज में सब पंक्तियों में विराजे। 

अपनी अपनी रुचि के अनुसार सामिष निरामिष व्यंजनों की लंबी तालिका थी और विशिष्ट व्यंजन के रूप में था- कटहल  

हनुमान जी को कटहल बहुत भाया विशेषतः अलोने स्वाद की उसकी गुठली। 

हनुमान जी ने कटहल की गुठली निकालने को उंगलियों से दवाब डाला और गुठली हवा में उछल गई। 

हनुमान जी के दिमाग में कौंधा,"हो गई बेइज्जती।" 

और इज्जत बचाने की खातिर वे उस गुठली को पकड़ने उछल पड़े। 

अंगद भी उधर देख रहे थे। 

सीनियर की उछाल को इशारा माना और उन्होंने भी कटहल की गुठली उछाली और उछल पड़े। 

फिर क्या था। 

कटहल की गुठलियां हवा में उछलने लगीं और उनके साथ ही वानर भी। 

धीर गंभीर राम हंस पड़े। 

राम को हंसता देख उत्साहित हनुमान ने दूसरी गुठली उचकायी और फिर उछल पड़े।

फिर क्या था! घमासान धमाचौकड़ी मच गई। 

अयोध्या वाले झेंपे जा रहे थे और मिथिला वाले हंस हंस कर मजे लिए जा रहे थे। 

लक्ष्मण सिर पकड़कर बैठ गए और हनुमान जी ने  पूरी मासूमियत से आकर पूछा, "लक्ष्मण भैया, हम सब ठीक -ठाक कर रहे  है न?" 

इस भोले से प्रश्न को सुनकर रोकते रोकते भी लक्ष्मण की हंसी छूट पड़ी। 

इधर  कभी न देखी गई राम की उन्मुक्त हँसी जारी थी। 
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#मेरे_राम_आ_रहे_हैं!

🚩 *राम काज किये बिना मोहें कहा विश्राम*
🙏🏻🚩 *जय श्रीराम* 🙏🏻🚩

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इस समय ना केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व राममय हो चला है, लोगों की कॉलर ट्यून से लेकर रिंगटोन तक, डीपी से लेकर स्टेटस तक सब राममय हो गए हैं, क्या बच्चे, क्या बड़े, गाँव गाँव, शहर शहर प्रभात फेरियाँ निकल रही हैं, लोगों ने अब नमस्कार, हैलो की बजाय 'जय श्रीराम' बोलना आरंभ कर दिया है।

*अगले सोमवार यानि 22 जनवरी 2024 को ना केवल देश बल्कि संपूर्ण विश्व एक ऐसी अद्भुत घटना का साक्षी बनने जा रहा है जिसके लिये हिन्दुओं ने कई शताब्दी संघर्ष किया, बलिदान दिया, अपना तन मन धन सब न्यौछावर कर दिया, अपने ही देश में अपने ही आराध्य के मंदिर के लिये हिन्दुओं को   क्या क्या दुःख, अपमान नहीं झेलना पड़े।*
इस समय ना केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व राममय हो चला है, लोगों की कॉलर ट्यून से लेकर रिंगटोन तक, डीपी से लेकर स्टेटस तक सब राममय हो गए हैं, क्या बच्चे, क्या बड़े, गाँव गाँव, शहर शहर प्रभात फेरियाँ निकल रही हैं, लोगों ने अब नमस्कार, हैलो की बजाय 'जय श्रीराम' बोलना आरंभ कर दिया है।

*दुकानों पर भगवा पताकाएँ सज गई हैं, लोगों में 22 जनवरी को लेकर अभूतपूर्व उत्साह है, हर कोई बस प्रभु आगमन के दिन गिन रहा है और स्वयं को इस अद्भुत दिन को,क्षणों को अपने नेत्रों में सदैव के सजाने को आतुर है।*

कोई अयोध्याजी से आई अक्षत पाकर ही भावुक हुआ जा रहा है, स्वयं को भाग्यशाली मान रहा है, कोई गायों का शुद्ध देसी घी लेकर जा रहा है, तो कोई विशालकाय ताला बनाकर भेज रहा है, तो कोई विशालकाय अगरबत्ती बनाकर भेज रहा है, तो कोई अकेला ही हज़ारों किलोमीटर पैदल चल पड़ा है अर्थात् जिससे जो बन पा रहा है वो अपना योगदान देने में लगा है।

*राम मंदिर न्यास ने देश विदेश की अनेक हस्तियों को निमंत्रण दिया है, अधिकांश लोग इस निमंत्रण को पाकर स्वयं को धन्य समझ रहे हैं तो कई ऐसे अभागे भी हैं जिन्होंने इस पुनीत आमंत्रण को ठुकरा दिया है।*

ठुकराने वाले लोग वही हैं जिन्होंने वर्षों तक राम जी के मंदिर निर्माण में अड़ंगे लगाए, रामजी को तम्बू में रखा, राम मंदिर पर कभी निर्णय ना आ पाए इसके लिये सारे हथकंडे अपनाये, रामजी को काल्पनिक बताया, रामसेतु को तोड़ने तक की तैयारी कर ली गई थी, इनका उद्देश्य केवल हिन्दुओं को अपमानित करने, रामजी को सदैव तम्बू में रखने और अपने तथाकथित वोटबैंक को खुश रखने के सिवाय कुछ नहीं था।

*भाजपा एकमात्र ऐसा राजनीतिक दल था जिसके घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण का संकल्प था और ये सभी जानते हैं कि जिसके हाथ में सत्ता की चाभी होती है उसी की तूती बोलती है, इसलिये जब तक सत्ता कांग्रेस जैसी देशद्रोही हिन्दू विरोधी पार्टी के पास रही राम मंदिर का निर्णय कभी नहीं आ पाया परंतु सत्ता नरेंद्र मोदी जैसे व्यक्ति के हाथ में आई तो उनके पहले ही कार्यकाल में राम मंदिर का निर्णय हिन्दुओं के पक्ष में आ गया।*

जब भाजपा ने नारा दिया "मंदिर वहीं बनाएंगे" तब आज का सारा विपक्ष और इनके समर्थक भाजपा और उसके समर्थकों पर तंज कसते थे "मंदिर वहीं बनाएँगे, परंतु तारीख़ नहीं बताएँगे" और ये तंज वो कसते थे जो राम मंदिर का निर्णय कभी ना आने पाए इसके लिये सत्ता का दुरूपयोग करने से कभी पीछे नहीं हटे।

*आज विपक्ष इस राम मंदिर के उद्घाटन को भाजपा का कार्यक्रम बताकर इससे दूरी बना रहा है क्योंकि विपक्ष जानता है कि राम मंदिर निर्माण की इस प्रचंड लहर में वो आगामी लोकसभा चुनावों में तिनके की भांति उड़ जाने वाला है।*

विपक्ष का गठबंधन ठीक से बन भी नहीं पाया था कि उसके नेताओं में इतनी फूट पड़ी कि सारा घड़ा ही फूट गया है, विपक्ष लाचार है, बेबस है, यही लाचारी, यही बेबसी हिन्दुओं ने वर्षों तक झेली है जब सत्ता के मद में डूबी कांग्रेस, गाँधी परिवार ने रामजी को तम्बू में रहने को विवश किया जबकि स्वयं अरबों खरबों की संपत्ति अर्जित करते रहे।

*रामजी को भी सही उत्तराधिकारियों के आने की प्रतीक्षा थी इसलिए उन्होंने भी वनवास की तरह तम्बू निवास को स्वीकार किया और जब केंद्र और राज्य में दोनों ही जगह सही उत्तराधिकारियों के हाथों में सत्ता सौंपी तब स्वयं ही सारे मार्ग सुगम करते चले गए।*

आज योगीजी की जगह उत्तरप्रदेश में अखिलेश यादव होते तब भी इतना वृहद आयोजन होना, संपूर्ण अयोध्या को सजाना, विकास कार्यों का इतनी तीव्रता से होना असंभव था, अखिलेश पूरी तरह से केंद्र को असहयोग करते, बाधाएँ उत्पन्न करते परंतु जब रामजी ने स्वयं आना चाहा तो सब कुछ उनके अनुसार ही होता चला गया।

*ये कार्यक्रम राम मंदिर न्यास की तरफ से आयोजित है, प्रधानमंत्री देश के प्रधान होने के कारण आमंत्रित हैं, मुख्य अतिथि हैं, भूमि पूजन में भी वो सम्मिलित रहे थे। उनके स्वयं के चाहने से ये सब होना असंभव था यदि प्रभु की कृपा उन पर नहीं होती या उन्हें प्रभु ने नहीं चुना होता।*

आज विपक्ष चीख रहा है कि भाजपा इसका श्रेय क्यों ले रही है तो विपक्ष से भी यही प्रश्न है कि आपके पास तो कहीं अधिक अवसर और समय था श्रेय लेने का लेकिन आपने तो प्रभु को तम्बू में रखने का निर्णय लिया हुआ था, तंज भी इसी भाजपा पर कसते थे तो आज इसका श्रेय भी भाजपा क्यों ना ले?

*करोड़ों रुपयों के हज हाउस बनाने वाले, करोड़ों रुपयों की बरसों तक हज सब्सिडी देने वाले, वक़्फ़ बोर्ड को देश की बहुत बड़ी संपत्ति उपहार स्वरुप देनेवाले आज कह रहे हैं कि मंदिर की बजाय वहाँ अस्पताल बनाते तो ज़्यादा सही होता।*

अस्पताल तो देश में हज़ारों लाखों हैं, आयुष्मान भारत योजना में करोड़ों ग़रीब परिवारों का इलाज भी हुआ है, हो रहा है लेकिन राम मंदिर देश और हिंदुत्व की दशा और दिशा बदलने वाला है।

*ना केवल देश भर से बल्कि विदेशों से सदियों तक लोग प्रभु श्रीराम, माता जानकी, लक्ष्मण जी और हनुमान जी के दर्शन करने आएँगे, अयोध्या जी और उसके आसपास के इलाके कितने संपन्न और सुखी हो जायेंगे इसकी कल्पना करना कठिन नहीं है, ये एक मंदिर जानें कितने लोगों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रोज़गार देगा, अच्छी जीवनशैली, अच्छी शिक्षा देगा।*

कलयुग में इस भव्य राम मंदिर के उद्घाटन का साक्षी बनना जहाँ हमारे भाग्यशाली होने का प्रतीक है वहीं इस पर विलाप करने वाले कितने अभागे हैं ये भी हम देख पा रहे हैं।

*राम को काल्पनिक बताने वाले उन्हें अप्रासंगिक बनाने वाले अब स्वयं ही अप्रासंगिक हो चले हैं, अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, प्रभु के साथ छल कपट के परिणाम तो भुगतने ही होंगे।*

आखिर होई वही जो राम रचि राखा !!

जय श्रीराम 🙏🏻🌹🚩

*मेरी झोपड़ी के भाग अब खुल जाएँगे, राम आएँगे*

एक रामभक्त, हनुमान भक्त 


🚩 *राम काज किये बिना मोहें कहा विश्राम*
🙏🏻🚩 *जय श्रीराम* 🙏🏻🚩

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पौराणिक काल के 24 चर्चित श्रापो की कहानी 🌳*

*🌳 पौराणिक काल के 24 चर्चित श्रापो की कहानी 🌳*

सनातन पौराणिक ग्रंथो में अनेको अनेक श्रापों का वर्णन मिलता है। हर श्राप के पीछे कोई न कोई कहानी जरूर मिलती है। आज हम आपको 24 ऐसे ही प्रसिद्ध श्राप और उनके पीछे की कथा बताएँगे।

1..युधिष्ठिर का स्त्री जाति को श्राप : –
महाभारत के शांति पर्व के अनुसार युद्ध समाप्त होने के बाद जब कुंती ने युधिष्ठिर को बताया कि कर्ण तुम्हारा बड़ा भाई था तो पांडवों को बहुत दुख हुआ। तब युधिष्ठिर ने विधि-विधान पूर्वक कर्ण का भी अंतिम संस्कार किया। माता कुंती ने जब पांडवों को कर्ण के जन्म का रहस्य बताया तो शोक में आकर युधिष्ठिर ने संपूर्ण स्त्री जाति को श्राप दिया कि – आज से कोई भी स्त्री गुप्त बात छिपा कर नहीं रख सकेगी।

2..ऋषि किंदम का राजा पांडु को श्राप: –1
महाभारत के अनुसार एक बार राजा पांडु शिकार खेलने वन में गए। उन्होंने वहां हिरण के जोड़े को मैथुन करते देखा और उन पर बाण चला दिया। वास्तव में वो हिरण व हिरणी ऋषि किंदम व उनकी पत्नी थी। तब ऋषि किंदम ने राजा पांडु को श्राप दिया कि जब भी आप किसी स्त्री से मिलन करेंगे। उसी समय आपकी मृत्यु हो जाएगी। इसी श्राप के चलते जब राजा पांडु अपनी पत्नी माद्री के साथ मिलन कर रहे थे, उसी समय उनकी मृत्यु हो गई।

3..माण्डव्य ऋषि का यमराज को श्राप: –
महाभारत के अनुसार माण्डव्य नाम के एक ऋषि थे। राजा ने भूलवश उन्हें चोरी का दोषी मानकर सूली पर चढ़ाने की सजा दी। सूली पर कुछ दिनों तक चढ़े रहने के बाद भी जब उनके प्राण नहीं निकले, तो राजा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने ऋषि माण्डव्य से क्षमा मांगकर उन्हें छोड़ दिया।
Pतब ऋषि यमराज के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि मैंने अपने जीवन में ऐसा कौन सा अपराध किया था कि मुझे इस प्रकार झूठे आरोप की सजा मिली। तब यमराज ने बताया कि जब आप 12 वर्ष के थे, तब आपने एक फतींगे की पूंछ में सींक चुभाई थी, उसी के फलस्वरूप आपको यह कष्ट सहना पड़ा।
तब ऋषि माण्डव्य ने यमराज से कहा कि 12 वर्ष की उम्र में किसी को भी धर्म-अधर्म का ज्ञान नहीं होता। तुमने छोटे अपराध का बड़ा दण्ड दिया है। इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूं कि तुम्हें शुद्र योनि में एक दासी पुत्र के रूप में जन्म लेना पड़ेगा। ऋषि माण्डव्य के इसी श्राप के कारण यमराज ने महात्मा विदुर के रूप में जन्म लिया।

4..नंदी का रावण को श्राप: –
वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण भगवान शंकर से मिलने कैलाश गया। वहां उसने नंदीजी को देखकर उनके स्वरूप की हंसी उड़ाई और उन्हें बंदर के समान मुख वाला कहा। तब नंदीजी ने रावण को श्राप दिया कि बंदरों के कारण ही तेरा सर्वनाश होगा।

5..कद्रू का अपने पुत्रों को श्राप : –
महाभारत के अनुसार ऋषि कश्यप की कद्रू व विनता नाम की दो पत्नियां थीं। कद्रू सर्पों की माता थी व विनता गरुड़ की। एक बार कद्रू व विनता ने एक सफेद रंग का घोड़ा देखा और शर्त लगाई। विनता ने कहा कि ये घोड़ा पूरी तरह सफेद है और कद्रू ने कहा कि घोड़ा तो सफेद हैं, लेकिन इसकी पूंछ काली है।

कद्रू ने अपनी बात को सही साबित करने के लिए अपने सर्प पुत्रों से कहा कि तुम सभी सूक्ष्म रूप में जाकर घोड़े की पूंछ से चिपक जाओ, जिससे उसकी पूंछ काली दिखाई दे और मैं शर्त जीत जाऊं। कुछ सर्पों ने कद्रू की बात नहीं मानी। तब कद्रू ने अपने उन पुत्रों को श्राप दिया कि तुम सभी जनमजेय के सर्प यज्ञ में भस्म हो जाओगे।

6..उर्वशी का अर्जुन को श्राप : –
महाभारत के युद्ध से पहले जब अर्जुन दिव्यास्त्र प्राप्त करने स्वर्ग गए, तो वहां उर्वशी नाम की अप्सरा उन पर मोहित हो गई। यह देख अर्जुन ने उन्हें अपनी माता के समान बताया। यह सुनकर क्रोधित उर्वशी ने अर्जुन को श्राप दिया कि तुम नपुंसक की भांति बात कर रहे हो। इसलिए तुम नपुंसक हो जाओगे, तुम्हें स्त्रियों में नर्तक बनकर रहना पड़ेगा। यह बात जब अर्जुन ने देवराज इंद्र को बताई तो उन्होंने कहा कि अज्ञातवास के दौरान यह श्राप तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हें कोई पहचान नहीं पाएगा।

7..तुलसी का भगवान विष्णु को श्राप : –
शिवपुराण के अनुसार शंखचूड़ नाम का एक राक्षस था। उसकी पत्नी का नाम तुलसी था। तुलसी पतिव्रता थी, जिसके कारण देवता भी शंखचूड़ का वध करने में असमर्थ थे। देवताओं के उद्धार के लिए भगवान विष्णु ने शंखचूड़ का रूप लेकर तुलसी का शील भंग कर दिया। तब भगवान शंकर ने शंखचूड़ का वध कर दिया। यह बात जब तुलसी को पता चली तो उसने भगवान विष्णु को पत्थर हो जाने का श्राप दिया। इसी श्राप के कारण भगवान विष्णु की पूजा शालीग्राम शिला के रूप में की जाती है।

8..श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को श्राप : –
पाण्डवों के स्वर्गारोहण के बाद अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित ने शासन किया। उसके राज्य में सभी सुखी और संपन्न थे। एक बार राजा परीक्षित शिकार खेलते-खेलते बहुत दूर निकल गए। तब उन्हें वहां शमीक नाम के ऋषि दिखाई दिए, जो मौन अवस्था में थे। राजा परीक्षित ने उनसे बात करनी चाहिए, लेकिन ध्यान में होने के कारण ऋषि ने कोई जबाव नहीं दिया।

ये देखकर परीक्षित बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने एक मरा हुआ सांप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया। यह बात जब शमीक ऋषि के पुत्र श्रृंगी को पता चली तो उन्होंने श्राप दिया कि आज से सात दिन बात तक्षक नाग राजा परीक्षित को डंस लेगा, जिससे उनकी मृत्यु हो जाएगी।

9..राजा अनरण्य का रावण को श्राप : –
वाल्मीकि रामायण के अनुसार रघुवंश में एक परम प्रतापी राजा हुए थे, जिनका नाम अनरण्य था। जब रावण विश्वविजय करने निकला तो राजा अनरण्य से उसका भयंकर युद्ध हुई। उस युद्ध में राजा अनरण्य की मृत्यु हो गई। मरने से पहले उन्होंने रावण को श्राप दिया कि मेरे ही वंश में उत्पन्न एक युवक तेरी मृत्यु का कारण बनेगा। इन्हीं के वंश में आगे जाकर भगवान श्रीराम ने जन्म लिया और रावण का वध किया।

10..परशुराम का कर्ण को श्राप : –
महाभारत के अनुसार परशुराम भगवान विष्णु के ही अंशावतार थे। सूर्यपुत्र कर्ण उन्हीं का शिष्य था। कर्ण ने परशुराम को अपना परिचय एक सूतपुत्र के रूप में दिया था। एक बार जब परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे, उसी समय कर्ण को एक भयंकर कीड़े ने काट लिया। गुरु की नींद में विघ्न न आए, ये सोचकर कर्ण दर्द सहते रहे, लेकिन उन्होंने परशुराम को नींद से नहीं उठाया।

नींद से उठने पर जब परशुराम ने ये देखा तो वे समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र नहीं बल्कि क्षत्रिय है। तब क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि मेरी सिखाई हुई शस्त्र विद्या की जब तुम्हें सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उस समय तुम वह विद्या भूल जाओगे।

11..तपस्विनी का रावण को श्राप: –
वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण अपने पुष्पक विमान से कहीं जा रहा था। तभी उसे एक सुंदर स्त्री दिखाई दी, जो भगवान विष्णु को पति रूप में पाने के लिए तपस्या कर रही थी। रावण ने उसके बाल पकड़े और अपने साथ चलने को कहा। उस तपस्विनी ने उसी क्षण अपनी देह त्याग दी और रावण को श्राप दिया कि एक स्त्री के कारण ही तेरी मृत्यु होगी।

12..गांधारी का श्रीकृष्ण को श्राप : –
महाभारत के युद्ध के बाद जब भगवान श्रीकृष्ण गांधारी को सांत्वना देने पहुंचे तो अपने पुत्रों का विनाश देखकर गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि जिस प्रकार पांडव और कौरव आपसी फूट के कारण नष्ट हुए हैं, उसी प्रकार तुम भी अपने बंधु-बांधवों का वध करोगे। आज से छत्तीसवें वर्ष तुम अपने बंधु-बांधवों व पुत्रों का नाश हो जाने पर एक साधारण कारण से अनाथ की तरह मारे जाओगे। गांधारी के श्राप के कारण ही भगवान श्रीकृष्ण के परिवार का अंत हुआ।

13..महर्षि वशिष्ठ का वसुओं को श्राप: –
महाभारत के अनुसार भीष्म पितामह पूर्व जन्म में अष्ट वसुओं में से एक थे। एक बार इन अष्ट वसुओं ने ऋषि वशिष्ठ की गाय का बलपूर्वक अपहरण कर लिया। जब ऋषि को इस बात का पता चला तो उन्होंने अष्ट वसुओं को श्राप दिया कि तुम आठों वसुओं को मृत्यु लोक में मानव रूप में जन्म लेना होगा और आठवें वसु को राज, स्त्री आदि सुखों की प्राप्ति नहीं होगी। यही आठवें वसु भीष्म पितामह थे।

14..शूर्पणखा का रावण को श्राप: –
वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण की बहन शूर्पणखा के पति का नाम विद्युतजिव्ह था। वो कालकेय नाम के राजा का सेनापति था। रावण जब विश्वयुद्ध पर निकला तो कालकेय से उसका युद्ध हुआ। उस युद्ध में रावण ने विद्युतजिव्ह का वध कर दिया। तब शूर्पणखा ने मन ही मन रावण को श्राप दिया कि मेरे ही कारण तेरा सर्वनाश होगा।

15..ऋषियों का साम्ब को श्राप : –
महाभारत के मौसल पर्व के अनुसार एक बार महर्षि विश्वामित्र, कण्व आदि ऋषि द्वारका गए। तब उन ऋषियों का परिहास करने के उद्देश्य से सारण आदि वीर कृष्ण पुत्र साम्ब को स्त्री वेष में उनके पास ले गए और पूछा कि इस स्त्री के गर्भ से क्या उत्पन्न होगा। क्रोधित होकर ऋषियों ने श्राप दिया कि श्रीकृष्ण का ये पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए लोहे का एक भयंकर मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा समस्त यादव कुल का नाश हो जाएगा।

16..दक्ष का चंद्रमा को श्राप : –
शिवपुराण के अनुसार प्रजापति दक्ष ने अपनी 27 पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से करवाया था। उन सभी पत्नियों में रोहिणी नाम की पत्नी चंद्रमा को सबसे अधिक प्रिय थी। यह बात अन्य पत्नियों को अच्छी नहीं लगती थी। ये बात उन्होंने अपने पिता दक्ष को बताई तो वे बहुत क्रोधित हुए और चंद्रमा को सभी के प्रति समान भाव रखने को कहा, लेकिन चंद्रमा नहीं माने। तब क्रोधित होकर दक्ष ने चंद्रमा को क्षय रोग होने का श्राप दिया।

17..माया का रावण को श्राप : –
रावण ने अपनी पत्नी की बड़ी बहन माया के साथ भी छल किया था। माया के पति वैजयंतपुर के शंभर राजा थे। एक दिन रावण शंभर के यहां गया। वहां रावण ने माया को अपनी बातों में फंसा लिया। इस बात का पता लगते ही शंभर ने रावण को बंदी बना लिया। उसी समय शंभर पर राजा दशरथ ने आक्रमण कर दिया।

इस युद्ध में शंभर की मृत्यु हो गई। जब माया सती होने लगी तो रावण ने उसे अपने साथ चलने को कहा। तब माया ने कहा कि तुमने वासना युक्त होकर मेरा सतित्व भंग करने का प्रयास किया। इसलिए मेरे पति की मृत्यु हो गई, अत: तुम्हारी मृत्यु भी इसी कारण होगी।

18..शुक्राचार्य का राजा ययाति को श्राप : –
महाभारत के एक प्रसंग के अनुसार राजा ययाति का विवाह शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी के साथ हुआ था। देवयानी की शर्मिष्ठा नाम की एक दासी थी। एक बार जब ययाति और देवयानी बगीचे में घूम रहे थे, तब उसे पता चला कि शर्मिष्ठा के पुत्रों के पिता भी राजा ययाति ही हैं, तो वह क्रोधित होकर अपने पिता शुक्राचार्य के पास चली गई और उन्हें पूरी बात बता दी। तब दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने ययाति को बूढ़े होने का श्राप दे दिया था।

19..ब्राह्मण दंपत्ति का राजा दशरथ को श्राप : –
वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार जब राजा दशरथ शिकार करने वन में गए तो गलती से उन्होंने एक ब्राह्मण पुत्र का वध कर दिया। उस ब्राह्मण पुत्र के माता-पिता अंधे थे। जब उन्हें अपने पुत्र की मृत्यु का समाचार मिला तो उन्होंने राजा दशरथ को श्राप दिया कि जिस प्रकार हम पुत्र वियोग में अपने प्राणों का त्याग कर रहे हैं, उसी प्रकार तुम्हारी मृत्यु भी पुत्र वियोग के कारण ही होगी।

20..नंदी का ब्राह्मण कुल को श्राप : –
शिवपुराण के अनुसार एक बार जब सभी ऋषिगण, देवता, प्रजापति, महात्मा आदि प्रयाग में एकत्रित हुए तब वहां दक्ष प्रजापति ने भगवान शंकर का तिरस्कार किया। यह देखकर बहुत से ऋषियों ने भी दक्ष का साथ दिया। तब नंदी ने श्राप दिया कि दुष्ट ब्राह्मण स्वर्ग को ही सबसे श्रेष्ठ मानेंगे तथा क्रोध, मोह, लोभ से युक्त हो निर्लज्ज ब्राह्मण बने रहेंगे। शूद्रों का यज्ञ करवाने वाले व दरिद्र होंगे।

21..नलकुबेर का रावण को श्राप : –
वाल्मीकि रामायण के अनुसार विश्व विजय करने के लिए जब रावण स्वर्ग लोक पहुंचा तो उसे वहां रंभा नाम की अप्सरा दिखाई दी। अपनी वासना पूरी करने के लिए रावण ने उसे पकड़ लिया। तब उस अप्सरा ने कहा कि आप मुझे इस तरह से स्पर्श न करें, मैं आपके बड़े भाई कुबेर के बेटे नलकुबेर के लिए आरक्षित हूं। इसलिए मैं आपकी पुत्रवधू के समान हूं।

लेकिन रावण ने उसकी बात नहीं मानी और रंभा से दुराचार किया। यह बात जब नलकुबेर को पता चली तो उसने रावण को श्राप दिया कि आज के बाद रावण बिना किसी स्त्री की इच्छा के उसको स्पर्श करेगा तो उसका मस्तक सौ टुकड़ों में बंट जाएगा।

22..श्रीकृष्ण का अश्वत्थामा को श्राप : –
महाभारत युद्ध के अंत समय में जब अश्वत्थामा ने धोखे से पाण्डव पुत्रों का वध कर दिया, तब पाण्डव भगवान श्रीकृष्ण के साथ अश्वत्थामा का पीछा करते हुए महर्षि वेदव्यास के आश्रम तक पहुंच गए। तब अश्वत्थामा ने पाण्डवों पर ब्रह्मास्त्र का वार किया। ये देख अर्जुन ने भी अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ा।

महर्षि व्यास ने दोनों अस्त्रों को टकराने से रोक लिया और अश्वत्थामा और अर्जुन से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र वापस लेने को कहा। तब अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र वापस ले लिया, लेकिन अश्वत्थामा ये विद्या नहीं जानता था। इसलिए उसने अपने अस्त्र की दिशा बदलकर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी।
यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि तुम तीन हजार वर्ष तक इस पृथ्वी पर भटकते रहोगे और किसी भी जगह, किसी पुरुष के साथ तुम्हारी बातचीत नहीं हो सकेगी। तुम्हारे शरीर से पीब और लहू की गंध निकलेगी। इसलिए तुम मनुष्यों के बीच नहीं रह सकोगे। दुर्गम वन में ही पड़े रहोगे।

23..तुलसी का श्रीगणेश को श्राप :-
ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार तुलसीदेवी गंगा तट से गुजर रही थीं, उस समय वहां श्रीगणेश तप कर रहे थे। श्रीगणेश को देखकर तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी ने श्रीगणेश से कहा कि आप मेरे स्वामी हो जाइए, लेकिन श्रीगणेश ने तुलसी से विवाह करने से इंकार कर दिया। क्रोधवश तुलसी ने श्रीगणेश को विवाह करने का श्राप दे दिया और श्रीगणेश ने तुलसी को वृक्ष बनने का।

24..नारद का भगवान विष्णु को श्राप : –
शिवपुराण के अनुसार एक बार देवऋषि नारद एक युवती पर मोहित हो गए। उस कन्या के स्वयंवर में वे भगवान विष्णु के रूप में पहुंचे, लेकिन भगवान की माया से उनका मुंह वानर के समान हो गया। भगवान विष्णु भी स्वयंवर में पहुंचे। उन्हें देखकर उस युवती ने भगवान का वरण कर लिया। यह देखकर नारद मुनि बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने भगवान विष्णु को श्राप दिया कि जिस प्रकार तुमने मुझे स्त्री के लिए व्याकुल किया है। उसी प्रकार तुम भी स्त्री विरह का दु:ख भोगोगे। भगवान विष्णु ने राम अवतार में नारद मुनि के इस श्राप को पूरा किया।

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