जय श्री कृष्णा, ब्लॉग में आपका स्वागत है यह ब्लॉग मैंने अपनी रूची के अनुसार बनाया है इसमें जो भी सामग्री दी जा रही है कहीं न कहीं से ली गई है। अगर किसी के कॉपी राइट का उल्लघन होता है तो मुझे क्षमा करें। मैं हर इंसान के लिए ज्ञान के प्रसार के बारे में सोच कर इस ब्लॉग को बनाए रख रहा हूँ। धन्यवाद, "साँवरिया " #organic #sanwariya #latest #india www.sanwariya.org/
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रविवार, 6 नवंबर 2011
अहिंसा परमो धर्मं
मायावती ने यू॰पी॰ मे 8 अत्याधुनिक कत्लखाने के लिए जो टेंडर मंगवाएँ है उसमे ऐसी म...शीनों का प्रयोग होगा जो 1 दिन मे हजारो मवेशियों की 'हत्या' करेगी एक ऐसी मशीन है जिसमे पशु को एक संकरी गली मे घुसेड़ा जाता है और आखिरी सिरे पर एक दर्पण होता है मवेशी उसे छूने के लिए जैसे ही अपना सिर अंदर करता है मशीन उसकी गर्दन को जकड़ लेती है और तुरंत उसका सिर धड़ से अलग हो जाता है -
क्या आपको पता है की उत्तर प्रदेश में 15 कत्लखाने खोलने की अनुमति चीफ मिनिस्टर ने दी है जहां एक कत्लखाने में एक दिन में 10000 (दस हजार) जानवरों को कटा जायेगा तो एक दिन में 15 कत्लखानों में 1,50,000 जीवों की हिंसा होगी अगर आप जीव दया प्रेमी हैं तो इस MSG को इतना विस्तार दो कि सभी इसके समर्थन में खड़े हो जाएँ और C.M. को अनुमति वापस लेनी पड़े (अहिंसा परमो धर्मं)
jai shree krishna
भारत की नई पहचान - Sharad Harikisanji Panpaliya
पन्द्रहवीं शाताब्दी में अरबों की मार्फत योरुप पहुँचे भारतीय ज्ञान विज्ञान ने जब पाश्चात्य देशों में जागृति की चमक पैदा करी तो पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्राँस, स्पेन, होलैण्ड तथा अन्य कई योरुपीय देशों की व्यवसायिक कम्पनियाँ आपसी प्रतिस्पर्धा में दौलत कमाने के लिये भारत की ओर निकल पडीं थीं। उन की कल्पना में भारत के साथ उच्च कोटि की दार्शनिक्ता, धन, वैभव, व्यापार, तथा ज्ञान के भण्डार जुडे थे लेकिन इस्लामी शासकों ने भारत को नष्ट कर के जिस हाल में छोडा था वह अत्यन्त निराशाजनक था। उस समय का हिन्दुस्तान योरूप वासियों की आपेक्षाओं के उलट निकला। योरुपीय जागृति के तुलना में भारत के हर क्षेत्र में अन्धकार, घोर निराशा, अन्ध-विशवास, बीमारी, भुखमरी, तथा आपसी षटयन्त्रों का वातावरण था जिस के कारण भारत की नई पहचान चापलूसों, चाटूकारों, सपेरों, लुटेरों और अन्धविशवासियों की बन गयी।
वह पहचान आज भी लगभग वैसी ही चल रही है जिस के लिये जिम्मेदार हमारे स्वार्थी नेता, उन के काले खाते और कारनामें, कुछ स्वार्थी धर्म गुरु, मानव अधिकारों की दुहाई देने वाले कुछ विदेशियों के तनखाहिये, कानवेन्ट परिशिक्षित सेक्यूलरिस्ट और चर्च पालित मीडिया वाले हैं जिन्हों ने हमारे युवाओं को अंग्रेजी चमक दमक और उदारीकरण के बहानों से गुमराह कर रखा है। अब जरूरत है कि हम आक्रामिक विरोध का सामना अटल हो कर करें और भारतीयता को पुनर्स्थापित करें। इस सब के लिये हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान की पहचान प्रथम पादान है जिसे फिर से युवाओं को ही स्थापित करनी है। आप अंग्रेजी से कुछ सीमा तक अपनी व्यक्तिगत उन्नति कर सकते हैं परन्तु देश की उन्नति नहीं कर सकते।
- Sharad Harikisanji Panpaliyaनोट : इस ब्लॉग पर प्रस्तुत लेख या चित्र आदि में से कई संकलित किये हुए हैं यदि किसी लेख या चित्र में किसी को आपत्ति है तो कृपया मुझे अवगत करावे इस ब्लॉग से वह चित्र या लेख हटा दिया जायेगा. इस ब्लॉग का उद्देश्य सिर्फ सुचना एवं ज्ञान का प्रसार करना है
शनिवार, 5 नवंबर 2011
लक्ष्मी-नारायण को प्रिय है तुलसी - By Shyam Sunder Chandak (Bikaner)
देवउठनी ग्यारस (एकादशी) का दिन मूलतः तुलसी के विवाह का पर्व है। पुराणों के अनुसार कार्तिक शुक्ल एकादशी के दिन ही भगवान श्री हरि पाताल लोक के राजा बलि के राज्य से चातुर्मास का विश्राम पूरा कर बैकुंठ लौटे थे। भारतीय समाज में तुलसी के पौधे को देवतुल्य मान ऊंचा स्थान दिया गया है। यह औषधि भी है तो मोक्ष प्रदायिनी भी है। हर घर परिवार के आंगन में तुलसी को स्थान मिला हुआ है जहां नित उसे पूजा जाता है। कहा गया है कि जहां तुलसी होती है वहां साक्षात् लक्ष्मी का निवास भी होता है। स्वयं भगवान नारायण श्री हरि तुलसी को अपने मस्तक पर धारण करते हैं। यह मोक्ष कारक है तो भगवान की भक्ति भी प्रदान करती है। क्योंकि ईश्वर की उपासना, पूजा व भोग में तुलसी के पत्तों का होना अनिवार्य माना गया है। तुलसी को भारतीय जनमानस में बड़ा पवित्र स्थान दिया गया है। यह लक्ष्मी व नारायण दोनों को समान रूप से प्रिय है। इसे हरिप्रिया भी कहा गया है। बिना तुलसी के यज्ञ, हवन, पूजन, कर्मकांड, साधना व उपासना पूरे नहीं होते। यहां तक कि श्राद्ध, तर्पण, दान, संकल्प के साथ ही चरणामृत, प्रसाद व भगवान के भोग में तुलसी का होना अनिवार्य माना गया है।
तुलसी विवाह की कथा : तुलसी विवाह का प्रचलन........
श्रीमद्भगवत पुराण के अनुसार वर्णित कथा के अनुसार तुलसी को पूर्व जन्म में जालंधर नामक दैत्य की पत्नी बताया गया है। जालंधर नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त होकर भगवान विष्णु ने अपनी योगमाया से जालंधर का वध किया था। पति जालंधर की मृत्यु से पीड़ित तुलसी पति के वियोग में तड़पती हुई सती हो गई। इसके भस्म से ही तुलसी के पौधे का जन्म हुआ। तुलसी की पतिव्रता एवं त्याग से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने तुलसी को अपनी पत्नी के रूप में अंगीकार किया और वरदान भी दिया जो भी तुम्हारा विवाह मेरे साथ करवाएगा वह परमधाम को प्राप्त करेगा। इसलिए देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए तुलसी विवाह का प्रचलन है।
पौराणिक कथानुसार एक बार सृष्टि के कल्याण के उद्येश्य से भगवान विष्णु ने राजा जालंधर की पत्नी वृंदा के सतीत्व को भंग कर दिया l इस पर सती वृंदा ने उन्हें श्राप दे दिया और भगवान विष्णु पत्थर बन गए, जिस कारणवश प्रभु को शालिग्राम भी कहा जाता है और भक्तगण इस रूप में भी उनकी पूजा करते हैं l इसी श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु को अपने शालिग्राम स्वरुप में तुलसी से विवाह करना पड़ा था और उसी समय से तुलसी विवाह का यह अनूठा रस्म प्रत्येक साल मनाया जाता है l तुलसी विवाह के सुअवसर पर व्रत रखने का बड़ा ही महत्व है. आस्थावान भक्तों के अनुसार इस दिन श्रद्धा-भक्ति और विधिपूर्वक व्रत करने से व्रती के इस जन्म के साथ-साथ पूर्वजन्म के भी सारे पाप मिट जाते हैं और उसे पुण्य की प्राप्ति होती है l
By Shyam Sunder Chandak (Bikaner)
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