पन्द्रहवीं शाताब्दी में अरबों की मार्फत योरुप पहुँचे भारतीय ज्ञान विज्ञान ने जब पाश्चात्य देशों में जागृति की चमक पैदा करी तो पुर्तगाल, ब्रिटेन, फ्राँस, स्पेन, होलैण्ड तथा अन्य कई योरुपीय देशों की व्यवसायिक कम्पनियाँ आपसी प्रतिस्पर्धा में दौलत कमाने के लिये भारत की ओर निकल पडीं थीं। उन की कल्पना में भारत के साथ उच्च कोटि की दार्शनिक्ता, धन, वैभव, व्यापार, तथा ज्ञान के भण्डार जुडे थे लेकिन इस्लामी शासकों ने भारत को नष्ट कर के जिस हाल में छोडा था वह अत्यन्त निराशाजनक था। उस समय का हिन्दुस्तान योरूप वासियों की आपेक्षाओं के उलट निकला। योरुपीय जागृति के तुलना में भारत के हर क्षेत्र में अन्धकार, घोर निराशा, अन्ध-विशवास, बीमारी, भुखमरी, तथा आपसी षटयन्त्रों का वातावरण था जिस के कारण भारत की नई पहचान चापलूसों, चाटूकारों, सपेरों, लुटेरों और अन्धविशवासियों की बन गयी।
वह पहचान आज भी लगभग वैसी ही चल रही है जिस के लिये जिम्मेदार हमारे स्वार्थी नेता, उन के काले खाते और कारनामें, कुछ स्वार्थी धर्म गुरु, मानव अधिकारों की दुहाई देने वाले कुछ विदेशियों के तनखाहिये, कानवेन्ट परिशिक्षित सेक्यूलरिस्ट और चर्च पालित मीडिया वाले हैं जिन्हों ने हमारे युवाओं को अंग्रेजी चमक दमक और उदारीकरण के बहानों से गुमराह कर रखा है। अब जरूरत है कि हम आक्रामिक विरोध का सामना अटल हो कर करें और भारतीयता को पुनर्स्थापित करें। इस सब के लिये हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान की पहचान प्रथम पादान है जिसे फिर से युवाओं को ही स्थापित करनी है। आप अंग्रेजी से कुछ सीमा तक अपनी व्यक्तिगत उन्नति कर सकते हैं परन्तु देश की उन्नति नहीं कर सकते।
- Sharad Harikisanji Panpaliya
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