फेसबुक पर भी कुछ लोगों का सोचना है कि हिन्दी पढ कर भारत के युवा केवल कलर्क ही बन सकेंगे। इस प्रकार की सोच नकारात्मिक गुलामी भरी सोच का प्रतीक है क्यों कि आज अधिकांश युवा अंग्रजी पढ कर काल सेन्टर में ही नौकरी कर रहै हैं जो वास्तव में कर्लक या टेलीफोन आप्रेटर के बराबर है। उन में से कई ईनजिनियरिंग और अन्य विषयों में ऐम बी ऐ इत्यादी ङी हैं लेकिन उन्हें विदेशों में बैठे मालिकों के आदेशों को भारत में पुनः प्रसारित करना होता है जिस के लिये उन्हें अमेरिका के हिसाब से न्यूनतम वेतन मिलता है। अमेरिका की आर्थिक क्षमता के अनुपात से तो वह वेतन भारत के वेतन से पचास गुणा बडा होना चाहिये लेकिन मालिक विदेशी हैं इस लिये वह वेतन 10 गुणा भी नहीं होता।
अगर हम हिन्दी को उच्च शिक्षा का माध्यम बनाते हैं तो हिन्दी मीडियम से पढा ऐक ग्रामीण विद्यार्थी भी डाक्टर, इंजीनियर और आफिसर बन सकता है और उसे यहां काल सैंटरों की जरूरत नहीं पडे गी। वह स्वाधीन होगा। हमारे युवा स्वाभिमान से देश में ही अपने देशवासियों के लिये काम करें गे। इस व्यवस्था से विकसित देशों को आर्थिक नुकसान होगा इस लिये वह इन बातों के विरोध में भ्रामिकतायें फैलाते रहते हैं।
यह कहना भी गल्त है कि हिन्दी में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये टेकनीकल और सुविधायें नहीं है – वह अब प्रयाप्त मात्रा में है – और जो कुछ अगर नहीं भी है तो वह हमारे अपने टेकनीकल बुद्धिजीवियों को विकसित करना है। कोई दूसरा हमें बना कर नहीं दे गा। अगर हम शुरआत ही नहीं करें गे तो चाहे टुग बीत जायें हम वहीं के वहीं खडे रहैं गे और अपनी बेबसी पर दूसरों को कोसते रहैं गे।
गुजरात में अधिकांश युवा गुजराती माध्यम से वकालत, इन्जिनियरिंग और मेडिकल करते हैं और यूनिवर्सिटी की डिग्री प्राप्त करते हैं। वह अपना काम सक्षमता से चला रहै हैं। अंग्रेजी केवल वही सीखते हैं जिन्हें विदेश जाने की चाहत होती है क्यों कि नदी के तट का दूसरा किनारा देखे बिना सुहावना लगता है।
-Sharad Harikisanji Panpaliya
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