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शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

क्यों जरूरी है पूर्वजों का श्राद्ध?

क्यों जरूरी है पूर्वजों का श्राद्ध? जानिए पितृपक्ष से जुड़े ऐसे ही कई सवालों के जवाब
सनानत धर्म की परंपराओं में भादौ महीने की पूर्णिमा से आश्विन माह की अमावस्या तककुल 16 दिनों के श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों को याद कर उनके सुख और शांति के लिए श्राद्ध कर्म कर उनसे स्वयं के जीवन के कष्टों को दूर करने की भी कामना की जाती है। किंतु प्राचीन काल से लेकर आधुनिक दौर तक धर्म की समझ से दूर कई लोगों यह सवाल करते हैँ कि आखिर श्राद्ध कर्म करने से पितरों को कैसे संतुष्टि मिलती है?


यही नहीं, कई धर्मावलंबियों की भी यह जिज्ञासा होती है कि पितृपक्ष में ही क्यों पूर्वजों का श्राद्ध जरूरी है? धर्मशास्त्रों में पितृपक्ष और श्राद्ध से जुड़े ऐसे ही कई सवालों के जवाब मिलते हैं, जिनसे धर्म व ईश्वर में विश्वास रखने वाले कई लोग भी अनजान हैं।

सनातन धर्म की मान्यता है कि मानव शरीर पंच तत्वों - आग, पानी, पृथ्वी, वायु, आकाश, पांच कर्म इन्द्रियों हाथ-पैर आदि सहित 27 तत्वों से बना है। किंतु जब मृत्यु होती है तो शरीर पंचतत्व और कर्मेंन्द्रियों को छोड़ देता है। किंतु शेष 17 तत्वों से बना अदृश्य और सूक्ष्म शरीर इसी संसार में बना रहता है।

हिन्दू शास्त्रों की मान्यता है कि सांसारिक मोह और लालसाओं के कारण यह सूक्ष्म शरीर 1 साल तक मूल स्थान, घर और परिवार के आस-पास ही रहता है। किंतु शरीर न होने से उसे किसी भी सुख का आनंद नहीं मिलता और इच्छा पूर्ति न होने के कारण वह अतृप्त रहता है।

इसके बाद वह अपने कर्म के अनुसार अलग-अलग योनि को प्राप्त करता है। हर योनि में किए गए कर्म के अनुसार जनम-मरण का चक्र चलता रहता है।
यही कारण है कि मृत्यु के बाद वर्ष भर और उसके बाद भी मृत परिजन को तृप्त करने और जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्राद्ध के द्वारा भोजन के साथ अन्य सुख, रस सूक्ष्म रुप में मृत जीव आत्मा या अलग-अलग योनि में घूम रहे पूर्वजों को मिलते हैं और वह तृप्त हो जाते हैं। खासतौर पर पितृपक्ष काल में, जबकि यह माना जाता है कि पूर्वज इस विशेष काल में अपने परिजनों से मिलने जरूर आते हैं।

शास्त्रों में किसी भी व्यक्ति के लिए 5 धर्म-कर्म जरूरी बताए गए हैं। ये भूतयज्ञ, मनुष्य यज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ व ब्रह्मयज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। इनमें सारे जीवों के लिए अन्न-जल दान भूतयज्ञ, घर आए अतिथि की सेवा मनुष्य यज्ञ, स्वाध्याय व ज्ञान का प्रचार-प्रसार ब्रह्मयज्ञ और पितरों के लिए तर्पण व श्राद्ध करना पितृयज्ञ कहलाता है।
इनको महायज्ञ कहा गया है और इनसे किसी तरह का दोष नहीं लगता। किंतु पितृयज्ञ से ही पितृऋण से छुटकारा नहीं मिलता और ऐसे पितृदोष से मुक्ति के लिए श्राद्ध जरूरी बताया गया है।

हिन्दू धर्मग्रंथों में कई तरह के श्राद्ध अवसर विशेष करने का महत्व बताया गया है। इनमें खासतौर पर तिथि और पार्वण श्राद्ध का विशेष महत्व है।
तिथि श्राद्ध हर साल उस तिथि पर किया जाता है, जिस तिथि पर किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई हो। यह
वहीं, पार्वण श्राद्ध हर साल पितृपक्ष में किए जाते हैं। इसे महालया या श्राद्ध पक्ष भी पुकारा जाता है। हर साल भादौ महीने की पूर्णिमा और आश्विन माह के कृष्ण पक्ष के 15 दिन सहित 16 दिन श्राद्धपक्ष आता है
इसी पक्ष में तिथि के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को पितरों के लिए जल का तर्पण व श्राद्ध करना चाहिए। तिथि न मालूम होने या तिथि विशेष पर श्राद्ध चूकने पर इसी पक्ष में आने वाली सर्वपितृ अमावस्या या महालया पर पूर्वजों के लिए श्राद्ध, दान व तर्पण करना चाहिए।
स्कन्दपुराण में लिखा है कि मृत्यु तिथि पर श्राद्ध न करने वाले व्यक्ति को उसके पितृगण श्राप देकर पितृलोक चले जाते हैं। ऐसे व्यक्ति के परिवार को पितृदोष लगता है और वहां रोग, शोक, दरिद्रता, दु:ख व दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है।
ब्रह्म और ब्रह्मवैवर्तपुराण में क्रमश: लिखा है कि धन बचाने की लालसा से श्राद्ध न करने वाले का पितृगण रक्त पीते हैं, वहीं सक्षम होने पर श्राद्ध न करने वाला रोगी और वंशहीन हो जाता है।
इसी तरह विष्णु स्मृति के मुताबिक श्राद्ध न करने वाला नरक को प्राप्त होता है।

वायुपुराण के मुताबिक पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध, देवताओं की प्रसन्नता के लिए किए जाने वाले यज्ञ आदि धर्म-कर्मों से भी ज्यादा शुभ फल देते हैं। श्रद्धा से किए श्राद्ध से कई पीढिय़ों के पितरगण प्रसन्न होकर व्यक्ति को आयु, धन-धान्य, संतान और विद्या से संपन्न होने का आशीर्वाद देते हैं।

गरुड पुराण के मुताबिक इस पक्ष में श्राद्ध से पितरों को स्वर्ग मिलता है। यहीं नहीं जिनका श्राद्ध किया जाता है, उनको प्रेत योनि नहीं मिलती और वे पितर बन जाते हैं। ये पितर तृप्त संतान के मनचाहे काम पूरे कर धर्मराज के मंदिर में पहुंच बड़ा ही सुख-सम्मान पाते हैं।

गुरुड पुराण में यह भी बताया गया है कि श्राद्ध करना पवित्र कार्य हैं। क्योंकि मृत्यु होने पर धर्मराजपुर में जाने के चार रास्ते हैं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण। पितरों का श्राद्ध करने वाले को स्वयं धर्मराज की सभा में पश्चिम द्वार से जाते हैं और धर्मराज स्वयं खड़े होकर उनका स्वागत व सम्मान करते हैं।
यथासंभव श्राद्ध अपने घर पर ही किया जाना चाहिए। संभव न हो तो किसी भी तीर्थ या जलाशय के किनारे भी किया जा सकता है।

दक्षिणायन में चूंकि पितरों का प्रभाव ज्यादा होता है। इसलिए श्राद्धकर्म के लिए यथासंभाव दक्षिण की तरफ झुकी हुई जमीन का उपयोग करना चाहिए।

शास्त्रों के मुताबिक पितृगणों को ऐसी जगह भाती है, जो पवित्र हो और जहां लोगों का ज्यादा आना-जाना होता है, नदी का किनारा भी पितरों का पसंद है। ऐसी जगह पर गोबर से जमीन को लीपकर श्राद्ध करना चाहिए।

काले तिल और कुश तर्पण व श्राद्धकर्म में जरूरी हैं। क्योंकि माना जाता है कि यह भगवान विष्णु के शरीर से निकले हैं और पितरों को भी भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है। इनके बिना पितरों को जल भी नहीं मिलता।

श्राद्ध का पहला अधिकार पुत्र का होता है। पुत्र न होने पर पुत्री का पुत्र यानी नाती श्राद्ध करे।
जिनके कई पुत्र हो तो वहां सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करे। पुत्र के उपस्थित न होने पर पोता और पोता भी न होने पर परपोता श्राद्ध कर सकता है।
पुत्र व पोते की अनुपस्थिति में विधवा औरत को भी श्राद्ध का हक है। मगर पुत्र के न होने पर ही पति, पत्नी का श्राद्ध कर सकता है। इसी तरह पुत्र होने पर उसे ही माता का श्राद्ध करना चाहिए, पति को नहीं।
पुत्र, पोते या दामाद के न होने पर भाई का पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है, यहां तक की दत्तक पुत्र या किसी उत्तराधिकारी को भी श्राद्ध करने का हक है।

श्राद्ध के एक दिन पहले श्राद्ध करने वाला विनम्रता के साथ साफ मन से विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रण देना चाहिए। क्योंकि ब्रह्मपुराण के मुताबिक ब्राह्मणों की देह में पितृगण वायु के रूप में मौजूद होते हैं और उनके साथ-साथ ही चलते हैं। उनके बैठते ही वे उनमें ही समाकर ब्राह्मणों के साथ ही बैठे होते हैं। उस वक्त श्राद्ध करने वाले का यह बोलना चाहिए कि- "मैं आपको आमंत्रित करता हूं।

पितृ शांति के लिए तर्पण का सही वक्त 'संगवकाल' यानी सुबह तकरीबन 8 से लेकर 11 बजे तक माना जाता है। इस दौरान किया गया जल से तर्पण पितरों को तृप्त करने के साथ पितृदोष और पितृऋण से छुटकारा भी देता

इसी तरह शास्त्रों के मुताबिक तर्पण के बाद बाकी श्राद्ध कर्म के लिए सबसे शुभ और फलदायी समय 'कुतपकाल' होता है। ज्योतिष गणना के अनुसार यह वक्त हर तिथि पर सुबह तकरीबन 11.36 से दोपहर 12.24 तक होता है।

धार्मिक मान्यता है कि इस समय सूर्य की रोशनी और ताप कम होने के साथ-साथ पश्चिमाभिमुख हो जाते हैं। ऐसे हालात में पितर अपने वंशजों द्वारा श्रद्धा से भोग लगाए कव्य बिना किसी परेशानी के ग्रहण करते हैं। इसलिए इस समय पितृकार्य करने के साथ पितरों की प्रसन्नता के लिए पितृस्तोत्र का पाठ भी करना चाहिए।

ब्राह्मण भोजन से पहले श्राद्ध के लिए बनाए गए भोजन में से पंचबली यानी गाय, कुत्ते, कौआ, देवता व चींटी के लिए थोड़ा हिस्सा निकाल एक पात्र में रखें। हाथ में जल, फूल, अक्षत, तिल व चंदन लेकर संकल्प करें और कौए का हिस्सा कौए को, कुत्ते का कुत्ते को और बाकी हिस्से गाय को खिला सकते हैं।

याज्ञवल्क्य स्मृति के मुताबिक श्राद्ध करने वाले को श्राद्ध तिथि पूरी होने तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। यही नहीं, सहवास से लेकर बाल कटवाने, गुस्सा करने, दूसरों का भोजन करने, सफर करना जैसे काम नहीं करने चाहिए। पान खाना या सौंदर्य प्रसाधन की चीजों का उपयोग भी नहीं करना चाहिए।

श्राद्ध की शुरुआत व आखिर में 3 बार यह श्लोक बोलना चाहिए - देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च नम: स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नम:।

रविवार, 17 अगस्त 2014

भगवान कृष्ण की नगरी-1

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष ********
परम अलौकिक श्रीकृष्ण की लीला
भगवान कृष्ण की नगरी-1
यमुना नदी के तट पर बसा सुंदर शहर मथुरा
श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ था। पिता का नाम वासुदेव और माता का नाम देवकी। दोनों को ही कंस ने कारागार में डाल दिया था। उस काल में मथुरा का राजा कंस था, जो श्रीकृष्ण का मामा था। कंस को आकाशवाणी द्वारा पता चला कि उसकी मृत्यु उसकी ही बहन देवकी की आठवीं संतान के हाथों होगी। इसी डर के चलते कंस ने अपनी बहन और जीजा को आजीवन कारागार में डाल दिया था।
मथुरा यमुना नदी के तट पर बसा एक सुंदर शहर है। मथुरा जिला उत्तरप्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इसके पूर्व में जिला एटा, उत्तर में जिला अलीगढ़, दक्षिण-पूर्व में जिला आगरा, दक्षिण-पश्चिम में राजस्थान एवं पश्चिम-उत्तर में हरियाणा राज्य स्थित हैं। मथुरा, आगरा मण्डल का उत्तर-पश्चिमी जिला है। मथुरा जिले में चार तहसीलें हैं- मांट, छाता, महावन और मथुरा तथा 10 विकास खण्ड हैं- नन्दगांव, छाता, चौमुहां, गोवर्धन, मथुरा, फरह, नौहझील, मांट, राया और बल्देव हैं।
मथुरा भारत का प्राचीन नगर है। यहां पर से 500 ईसा पूर्व के प्राचीन अवशेष मिले हैं, जिससे इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। उस काल में शूरसेन देश की यह राजधानी हुआ करती थी। पौराणिक साहित्य में मथुरा को अनेक नामों से संबोधित किया गया है जैसे- शूरसेन नगरी, मधुपुरी, मधुनगरी, मधुरा आदि। उग्रसेन और कंस मथुरा के शासक थे जिस पर अंधकों के उत्तराधिकारी राज्य करते थे।
मथुरा के बारह जंगल : वराह पुराण एवं नारदीय पुराण ने मथुरा के पास के 12 वनों की चर्चा की है- 1. मधुवन, 2. तालवन, 3. कुमुदवन, 3. काम्यवन, 5. बहुलावन, 6. भद्रवन, 7. खदिरवन, 8. महावन (गोकुल), 9. लौहजंघवन, 10. बिल्व, 11. भांडीरवन एवं 12. वृन्दावन। इसके अलावा 24 अन्य उपवन भी थे। आज यह सारे स्थान छोटे-छोटे गांव और कस्बों में बदल गए हैं।
जन्मभूमि का इतिहास : जहां भगवान कृष्ण का जन्म हुआ पहले वह कारागार हुआ करता था। यहां पहला मंदिर 80-57 ईसा पूर्व बनाया गया था। इस संबंध में महाक्षत्रप सौदास के समय के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि किसी 'वसु' नामक व्यक्ति ने यह मंदिर बनाया था। इसके बहुत काल के बाद दूसरा मंदिर सन् 800 में विक्रमादित्य के काल में बनवाया गया था, जबकि बौद्ध और जैन धर्म उन्नति कर रहे थे।
इस भव्य मंदिर को सन् 1017-18 ई. में महमूद गजनवी ने तोड़ दिया था। बाद में इसे महाराजा विजयपाल देव के शासन में सन् 1150 ई. में जज्ज नामक किसी व्यक्ति ने बनवाया। यह मंदिर पहले की अपेक्षा और भी विशाल था, जिसे 16वीं शताब्दी के आरंभ में सिकंदर लोदी ने नष्ट करवा डाला।
ओरछा के शासक राजा वीरसिंह जू देव बुन्देला ने पुन: इस खंडहर पड़े स्थान पर एक भव्य और पहले की अपेक्षा विशाल मंदिर बनवाया। इसके संबंध में कहा जाता है कि यह इतना ऊंचा और विशाल था कि यह आगरा से दिखाई देता था। लेकिन इसे भी मुस्लिम शासकों ने सन् 1669 ईस्वी में नष्ट कर इसकी भवन सामग्री से जन्मभूमि के आधे हिस्से पर एक भव्य ईदगाह बनवा दी गई, जो कि आज भी विद्यमान है।
इस ईदगाह के पीछे ही महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी की प्रेरणा से पुन: एक मंदिर स्थापित किया गया है, लेकिन अब यह विवादित क्षेत्र बन चुका है क्योंकि जन्मभूमि के आधे हिस्से पर ईदगाह है और आधे पर मंदिर।
मथुरा के अन्य मंदिर : मथुरा में जन्मभूमि के बाद देखने के लिए और भी दर्शनीय स्थल है :- जैसे विश्राम घाट की ओर जाने वाले रास्ते पर द्वारकाधीश का प्राचीन मंदिर, विश्राम घाट, पागल बाबा का मंदिर, इस्कॉन मंदिर, यमुना नदी के अन्य घाट, कंस का किला, योग माया का स्थान, बलदाऊजी का मंदिर, भक्त ध्रुव की तपोस्थली, रमण रेती आदि।
मथुरा परिक्रमा : मथुरा परिक्रमा में होते हैं कृष्ण से जुड़े प्रत्येक स्थलों के दर्शन। माना जाता है कि यह परिक्रमा चौरासी कोस की है जिसके मार्ग में अलीगढ़, भरतपुर, गुड़गांव, फरीदाबाद की सीमा लगती है, लेकिन इसका अस्सी फीसदी हिस्सा मथुरा जिले में ही है। मथुरा से चलकर यात्रा सबसे पहले भक्त ध्रुव की तपोस्थली से शुरू होती है परिक्रमा इसके बाद...
1. मधुवन
2. तालवन
3. कुमुदवन
4. शांतनु कुण्ड
5. सतोहा
6. बहुलावन
7. राधा-कृष्ण कुण्ड
8. गोवर्धन
9. काम्यक वन
10. संच्दर सरोवर
11. जतीपुरा
12. डीग का लक्ष्मण मंदिर
13. साक्षी गोपाल मंदिर
14. जल महल
15. कमोद वन
16. चरन पहाड़ी कुण्ड
17. काम्यवन
18. बरसाना
19. नंदगांव
20. जावट
21. कोकिलावन
22. कोसी
23. शेरगढ
24. चीर घाट
25. नौहझील
26. श्री भद्रवन
27. भांडीरवन
28. बेलवन
29. राया वन
30. गोपाल कुण्ड
31. कबीर कुण्ड
32. भोयी कुण्ड
33. ग्राम पडरारी के वनखंडी में शिव मंदिर
34. दाऊजी
35. महावन
36. ब्रह्मांड घाट
37. चिंताहरण महादेव
38. गोकुल
39. लोहवन
40. वृन्दावन
इस यात्रा मार्ग में कई और पौराणिक स्थलों के अलावा 12 वन, 24 उपवन, चार कुंज, चार निकुंज, चार वनखंडी, चार ओखर, चार पोखर, 365 कुण्ड, चार सरोवर, दस कूप, चार बावरी।
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय
जय जय श्री राधे ........

श्रीकृष्ण की गुरूसेवा

श्रीकृष्ण की गुरूसेवा
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी (005-09-2015) आपका आत्मिक सुख जगाने का, आध्यात्मिक बल जगाने का पर्व है। जीव को श्रीकृष्ण-तत्त्व में सराबोर करने का त्यौहार है। तुम्हारा सुषुप्त प्रेम जगाने की दिव्य रात्रि है।
श्रीकृष्ण का जीवन सर्वांगसंपूर्ण जीवन है। उनकी हर लीला कुछ नयी प्रेरणा देने वाली है। उनकी जीवन-लीलाओं का वास्तविक रहस्य तो श्रीकृष्ण तत्त्व का आत्मरूप से अनुभव किये हुए महापुरूष ही हमें समझा सकते हैं।
!! श्रीकृष्ण की गुरूसेवा !!
गुरू की महिमा अमाप है, अपार है। भगवान स्वयं भी लोक कल्याणार्थ जब मानवरूप में अवतरित होते हैं तो गुरूद्वार पर जाते हैं।
राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिन्ह ने भी गुरू कीन्ह।
तीन लोक के हैं धनी, गुरू आगे आधीन।।
द्वापर युग में जब भगवान श्रीकृष्ण अवतरित हुए और कंस का विनाश हो चुका, तब श्रीकृष्ण शास्त्रोक्त विधि से हाथ में समिधा लेकर और इन्द्रियों को वश में रखकर गुरूवर सांदीपनी के आश्रम में गये। वहाँ वे भक्तिपूर्वक गुरू की सेवा करने लगे। गुरू आश्रम में सेवा करते हुए, गुरू सांदीपनी से भगवान श्रीकृष्ण ने वेद-वेदांग, उपनिषद, मीमांसादि षड्दर्शन, अस्त्र-शस्त्रविद्या, धर्मशास्त्र और राजनीति आदि की शिक्षा प्राप्त की। प्रखर बुद्धि के कारण उन्होंने गुरू के एक बार कहने मात्र से ही सब सीख लिया। विष्णुपुराण के मत से 64 दिन में ही श्रीकृष्ण ने सभी 64 कलाएँ सीख लीं।
जब अध्ययन पूर्ण हुआ, तब श्रीकृष्ण ने गुरू से दक्षिणा के लिए प्रार्थना की।
"गुरूदेव ! आज्ञा कीजिए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?"
गुरूः "कोई आवश्यकता नहीं है।"
श्रीकृष्णः "आपको तो कुछ नहीं चाहिए, किंतु हमें दिये बिना चैन नहीं पड़ेगा। कुछ तो आज्ञा करें !"
गुरूः "अच्छा....जाओ, अपनी माता से पूछ लो।"
श्रीकृष्ण गुरूपत्नी के पास गये और बोलेः "माँ ! कोई सेवा हो तो बताइये।"
गुरूपत्नी जानती थीं कि श्रीकृष्ण कोई साधारण मानव नहीं बल्कि स्वयं भगवान हैं, अतः वे बोलीः "मेरा पुत्र प्रभास क्षेत्र में मर गया है। उसे लाकर दे दो ताकि मैं उसे पयः पान करा सकूँ।"
श्रीकृष्णः "जो आज्ञा।"
श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर प्रभास क्षेत्र पहुँचे और वहाँ समुद्र तट पर कुछ देर ठहरे। समुद्र ने उन्हें परमेश्वर जानकर उनकी यथायोग्य पूजा की। श्रीकृष्ण बोलेः "तुमने अपनी बड़ी बड़ी लहरों से हमारे गुरूपुत्र को हर लिया था। अब उसे शीघ्र लौटा दो।"
समुद्रः "मैंने बालक को नहीं हरा है, मेरे भीतर पंचजन नामक एक बड़ा दैत्य शंखरूप से रहता है, निसंदेह उसी ने आपके गुरूपुत्र का हरण किया है।"
श्रीकृष्ण ने तत्काल जल के भीतर घुसकर उस दैत्य को मार डाला, पर उसके पेट में गुरूपुत्र नहीं मिला। तब उसके शरीर का पांचजन्य शंख लेकर श्रीकृष्ण जल से बाहर आये और यमराज की संयमनी पुरी में गये। वहाँ भगवान ने उस शंख को बजाया। कहते हैं कि उस ध्वनि को सुनकर नारकीय जीवों के पाप नष्ट हो जाने से वे सब वैकुंठ पहुँच गये। यमराज ने बड़ी भक्ति के साथ श्रीकृष्ण की पूजा की और प्रार्थना करते हुए कहाः "हे लीलापुरूषोत्तम ! मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?"
श्रीकृष्णः "तुम तो नहीं, पर तुम्हारे दूत कर्मबंधन के अनुसार हमारे गुरूपुत्र को यहाँ ले आये हैं। उसे मेरी आज्ञा से वापस दे दो।"
'जो आज्ञा' कहकर यमराज उस बालक को ले आये।
श्रीकृष्ण ने गुरूपुत्र को, जैसा वह मरा था वैसा ही उसका शरीर बनाकर, समुद्र से लाये हुए रत्नादि के साथ गुरूचरणों में अर्पित करके कहाः
"गुरूदेव ! और जो कुछ भी आप चाहें, आज्ञा करें।"
गुरूदेवः "वत्स ! तुमने गुरूदक्षिणा भली प्रकार से संपन्न कर दी। तुम्हारे जैसे शिष्य से गुरू की कौन-सी कामना अवशेष रह सकती है ? वीर ! अब तुम अपने घर जाओ। तुम्हारी कीर्ति श्रोताओं को पवित्र करे और तुम्हारी पढ़ी हुई विद्या नित्य उपस्थित और नित्य नवीन बनी रहकर इस लोक तथा परलोक में तुम्हारे अभीष्ट फल को देने में समर्थ हों।"
गुरूसेवा का कैसा सुंदर आदर्श प्रस्तुत किया है श्रीकृष्ण ने ! थे तो भगवान, फिर भी गुरू की सेवा उन्होंने स्वयं की है।
सत्शिष्यों को पता होता है कि गुरू की एक छोटी सी सेवा करने से सकामता निष्कामता में बदलने लगती है, खिन्न हृदय आनंदित हो उठता है, सूखा हृदय भक्तिरस से सराबोर हो उठता है। गुरूसेवा में क्या आनंद आता है, यह तो किसी सत्शिष्य से ही पूछकर देखें।

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष

श्री कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष

परम अलौकिक श्रीकृष्ण की लीला

मथुरा आगमन और कंस वध
श्रीकृष्ण को किशोर वय होते न होते कंस उन्हें मरवा डालने का एक बार फिर षड्यंत्र रचकर मथुरा बुलवाता है, किंतु श्रीकृष्ण उसको उसके महाबली साथियों सहित मार डालते हैं। कंस शब्द का अर्थ और उसकी कथा भी संकेत करती है कि कंस देहासक्ति का मूर्तिमान रूप है, जो संभावित मृत्यु से बचने के लिए कितने ही कुत्सित कर्म करता है। मथुरा का शब्दार्थ है- 'विक्षुब्ध किया हुआ।' अतः मथुरा है देहासक्ति से विक्षुब्ध मन। श्रीकृष्ण का कंस वध करने के उपरांत द्वारिका में राज्य स्थापना करने का अर्थ है कि आत्मभाव में प्रवेश के पूर्व देहासक्ति की समाप्ति आवश्यक है।
समुद्र में द्वारिका निर्माण और राज्य स्थापना
कंस वध के बाद श्रीकृष्ण समुद्र के भीतर द्वारिका का निर्माण करवाते हैं और वहां राज्य स्थापित करते हैं। इतिहास के महापुरुष श्रीकृष्ण द्वारा द्वारका नगर का समुद्र किनारे या द्वीप पर निर्माण करवाना और कालांतर में उसका समुद्र में डूब जाना (जिसके कुछ अवशेष अभी हाल में ही खोजे गए हैं) उस काल की वास्तविक घटना होगी, किंतु भागवत ने 'समुद्र के अंदर' द्वारिका निर्माण का वर्णन करके स्पष्टतः यहां उसका आध्यात्मिक रूपांतरण प्रस्तुत किया है।
द्वारिका शब्द में द्वार का अर्थ है- साधन, उपाय या प्रवेश मार्ग। समुद्र व्यक्तित्व के गहरे तल- आत्म क्षेत्र को इंगित करता है। अतः आत्म क्षेत्र का प्रवेश द्वार है द्वारिका। इस क्षेत्र में चेतना का प्रवेश होने पर जीवन जीने का जैसा स्वरूप होगा, उसका निरूपण द्वारिका पर श्रीकृष्ण राज्य के रूप में किया गया है। इस क्षेत्र का परिचय हमें महाभारत में श्रीकृष्ण के लोकहितार्थ और धर्मस्थापनार्थ किए गए कार्यों द्वारा तथा गीता के अंतर्गत उनकी वाणी द्वारा कराया गया है। सारांश यह कि व्यक्ति भी संकल्प करे तो उसकी चेतना भी कृष्ण सम विकसित हो सकती है। श्रीकृष्ण जिनका नाम है , गोकुल जिनका धाम है! ऐसे श्री भग्वान देव:कोटी को बरम्बार प्रनाम है !!!!

बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय
जय जय श्री राधे ........
क्रमशः

असल में है वही पागल ,

कोई पागल पिता का है ,
कोई पागल है माई का


कोई पागल बहन का है ,
कोई पागल है भाई का

कोई पागल है बेटी का ,
कोई पागल है जमाई का

कोई पागल है इज्ज़त का ,
कोई पागल है कमाई का

कोई पागल है शोहरत का ,
कोई पागल है नारी का

कोई पागल है दौलत का , 
कोई पागल गाड़ी का 

है पागलपन में ये दुनिया ,
की दुःख सुख की पिटारी का

असल में है वही पागल ,
जो पागल है बिहारी का

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