गेहूं के जवारे : पृथ्वी की संजीवनी बूटी
प्रकृति ने हमें अनेक अनमोल नियामतें दी हैं। गेहूं के जवारे उनमें से ही
प्रकृति की एक अनमोल देन है। अनेक आहार शास्त्रियों ने इसे संजीवनी बूटी भी
कहा है, क्योंकि ऐसा कोई रोग नहीं, जिसमें इसका सेवन लाभ नहीं देता हो।
यदि किसी रोग से रोगी निराश है तो वह इसका सेवन कर श्रेष्ठ स्वास्थ्य पा
सकता है।
गेहूं के जवारों में
अनेक अनमोल पोषक तत्व व रोग निवारक गुण पाए जाते हैं, जिससे इसे आहार नहीं
वरन् अमृत का दर्जा भी दिया जा सकता है। जवारों में सबसे प्रमुख तत्व
क्लोरोफिल पाया जाता है। प्रसिद्ध आहार शास्त्री डॉ. बशर के अनुसार
क्लोरोफिल (गेहूंके जवारों में पाया जाने वाला प्रमुख तत्व) को केंद्रित
सूर्य शक्ति कहा है।
गेहूं के जवारे रक्त व रक्त संचार संबंधी
रोगों, रक्त की कमी, उच्च रक्तचाप, सर्दी, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस, स्थायी
सर्दी, साइनस, पाचन संबंधी रोग, पेट में छाले, कैंसर, आंतों की सूजन, दांत
संबंधी समस्याओं, दांत का हिलना, मसूड़ों से खून आना, चर्म रोग, एक्जिमा,
किडनी संबंधी रोग, सेक्स संबंधी रोग, शीघ्रपतन, कान के रोग, थायराइड ग्रंथि
के रोग व अनेक ऐसे रोग जिनसे रोगी निराश हो गया, उनके लिए गेहूं के जवारे
अनमोल औषधि हैं। इसलिए कोई भी रोग हो तो वर्तमान में चल रही चिकित्सा
पद्धति के साथ-साथ इसका प्रयोग कर आशातीत लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
हिमोग्लोबिन रक्त में पाया जाने वाला एक प्रमुख घटक है। हिमोग्लोबिन में
हेमिन नामक तत्व पाया जाता है। रासायनिक रूप से हिमोग्लोबिन व हेमिन में
काफी समानता है। हिमोग्लोबिन व हेमिन में कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन व
नाइट्रोजन के अणुओं की संख्या व उनकी आपस में संरचना भी करीब-करीब एक जैसी
होती है। हिमोग्लोबिन व हेमिन की संरचना में केवल एक ही अंतर होता है कि
क्लोरोफिल के परमाणु केंद्र में मैग्नेशियम, जबकि हेमिन के परमाणु केंद्र
में लोहा स्थित होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हिमोग्लोबिन व
क्लोरोफिल में काफी समानता है और इसीलिए गेहूं के जवारों को हरा रक्त कहना
भी कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
गेहूं के जवारों में रोग निरोधक व
रोग निवारक शक्ति पाई जाती है। कई आहार शास्त्री इसे रक्त बनाने वाला
प्राकृतिक परमाणु कहते हैं। गेहूं के जवारों की प्रकृति क्षारीय होती है,
इसीलिए ये पाचन संस्थान व रक्त द्वारा आसानी से अधिशोषित हो जाते हैं। यदि
कोई रोगी व्यक्ति वर्तमान में चल रही चिकित्सा के साथ-साथ गेहूं के जवारों
का प्रयोग करता है तो उसे रोग से मुक्ति में मदद मिलती है और वह बरसों
पुराने रोग से मुक्ति पा जाता है।
यहां एक रोग से ही मुक्ति नहीं
मिलती है वरन अनेक रोगों से भी मुक्ति मिलती है, साथ ही यदि कोई स्वस्थ
व्यक्ति इसका सेवन करता है तो उसकी जीवनशक्ति में अपार वृद्धि होती है। इस
प्रकार हम कह सकते हैं कि गेहूं के जवारे से रोगी तो स्वस्थ होता ही है
किंतु सामान्य स्वास्थ्य वाला व्यक्ति भी अपार शक्ति पाता है। इसका नियमित
सेवन करने से शरीर में थकान तो आती ही नहीं है।
यदि किसी असाध्य
रोग से पीड़ित व्यक्ति को गेहूं के जवारों का प्रयोग कराना है तो उसकी
वर्तमान में चल रही चिकित्सा को बिना बंद किए भी गेहूं के जवारों का सेवन
कराया जा सकता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कोई चिकित्सा पद्धति गेहूं के
जवारों के प्रयोग में आड़े नहीं आती है, क्योंकि गेहूं के जवारे औषधि ही
नहीं वरन श्रेष्ठ आहार भी है।
सावधानी
गेहूँ के जवारों का रस निकालने के पश्चात अधिक समय तक नहीं रखना चाहिए
अन्यथा उसके पोषक तत्व समय बीतने के साथ-साथ नष्ट हो जाते हैं, क्योंकि
गेहूँ के जवारों में पोषक तत्व सुरक्षित रहने का समय मात्र ३ घंटे है।
गेहूँ के जवारों को जितना ताजा प्रयोग किया जाता है , उतना ही अधिक उसका
स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है। इसका सेवन प्रारंभ करते समय कुछ लोगों को
दस्त, उल्टी, जी घबराना व अन्य लक्षण प्रकट हो सकते हैं, किंतु उन लक्षणों
से घबराने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है केवल इसकी मात्रा को कम या कुछ
समय के लिए इसका सेवन बंद कर सकते हैं।
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पित्त दोष
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जब शरीर में अग्नि तत्व की अधिकता हो जाए ; तो इसे पित्त दोष कहते है।
- पित्त बढ़ा हुआ हो तो नाड़ी देखते समय बीच वाली ऊँगली में स्पंदन अधिक महसूस होता है।यह ऐसा लगता है मानो मेंढक उछल रहा हो।
- पित्त यानी गर्मी बढ़ने से जिस तरह दूध कुनकुना रहने से उसमे जीवाणु तेज़
गति से बढ़ते है और दही तुरंत जम जाता है ; वैसे ही शरीर में भी कीटाणु तेज़ी
से पनपते है। इससे किसी भी तरह का इन्फेक्शन होने की पूरी संभावना होती है। अगर पित्त संतुलित हो तो शरीर किसी भी इन्फेक्शन से लड़कर ख़त्म कर देता है।
- गर्मी ज़्यादा होती है , पसीना अधिक आयेगा , चेहरा लाल या पीला दिख सकता है . दांत पीले रहेंगे और जल्दी सड़ने की संभावना रहेगी।
- गर्मी अधिक होने से सभी धातु पिघल कर बहेंगे। इससे बहता हुआ ज़ुकाम ,
अत्याधिक कफ वाली खांसी होने की संभावना होगी। श्वेत प्रदर , रक्त प्रदर
आदि होने की संभावना रहेगी।
- गर्मी अधिक होने से ज़रूरी अंग जैसे किडनी खराब हो सकती है , हार्ट एन्लार्ज हो सकता है, बाल सफ़ेद हो सकते है।
- गर्मी अधिक होने से मुंह में दुर्गन्ध आ सकती है , पसीने में भी
दुर्गन्ध आ सकती है। पित्त संतुलित हो तो कितना भी पसीना आये उसमे कोई गंध
नहीं होगी।
- पिम्पल्स , फोड़े फुंसी आदि होने की संभावना बढ़ जाती है।
- सर दर्द , माइग्रेन आदि हो सकता है।
- पेट जल्दी जल्दी खराब होता है।
- क्रोध ,चिडचिडापन अधिक रहेगा।
- गुस्से से ,काम भावना से , ईर्ष्या की भावना से पित्त बढ़ता है।
- खान पान जैसे तिल , दाना , सुखा मेवा , मिर्च-मसाले , तैलीय पदार्थ ,
गाजर , ऊष्ण के खाद्य पदार्थों आदि के सेवन से पित्त बढ़ता है।
- सौंफ , धनिया ( सुखा या हरा ) , हिंग , अजवाइन , आंवला आदि पित्त को नियंत्रित करते है।
- सुबह सुबह छाछ , निम्बू पानी , नारियल पानी , मूली , फलों के रस आदि के सेवन से पित्त नहीं बढ़ता।
- रात को दूध में चम्मच गाय का घी मिलाकर लेने से पित्त नहीं बढ़ता।
- दिन में गर्म पानी में एक चम्मच घी मिलाकर पित्त और वात दोनों नियंत्रण में रखा जा सकता है।
- शरीर में पित्त का स्थान छोटी आंत होता है। गर्मियों में अक्सर पित्त बढ़
जाता है और पसीने से वस्त्र भी पीले होने लगते है , तब एरंडी का तेल लेने
से एक दो दस्त हो कर छोटी आंत से पित्त निकल जाता है और ठंडक आती है।
- गोमूत्र त्रिदोषों का निवारण करता है ; पर पित्त प्रवृत्ति के लोगों को गाय का घी भी साथ में लेना चाहिए।
- जीवन के मध्य प्रहर यानी जवानी में पित्त बढ़ जाता है।
- दिन के मध्य प्रहर और रात्री के मध्य प्रहर में पित्त बढ़ता है। इस समय रोग की तीव्रता बढना पित्त रोग की और इशारा करता है।
- त्वचा में खुजली हो सकती है। डैंड्रफ भी तैलीय हो सकता है। बालों में भी पसीने की दुर्गन्ध आ सकती है।
शंखपुष्पी -कन्वॉल्व्यूलस प्लूरीकॉलिस
शंख के समान आकृति वाले श्वेत पुष्प होने से इसे शंखपुष्पी कहते हैं । इसे
क्षीर पुष्प (दूध के समान सफेद फूल वाले) मांगल्य कुसुमा (जिसके दर्शन से
मंगल माना जाता हो) भी कहते हैं । यह सारे भारत में पथरीली भूमि में जंगली
रूप में पायी जाती हैं ।
वानस्पतिक परिचय-
पुष्पभेद से शंखपुष्पी की तीन जातियाँ बताई गई हैं । श्वेत, रक्त, नील पुष्पी । इनमें से श्वेत पुष्पों वाली
शंखपुष्पी ही औषधि मानी गई है । शंखपुष्पी के क्षुप प्रसरणशील, छोटे-छोटे
घास के समान होते हैं । इसका मूलस्तम्भ बहुवर्षायु होता है, जिससे 10 से 30
सेण्टीमीटर लम्बी, रोमयुक्त, कुछ-कुछ उठी शाखाएँ चारों ओर फैली रहती हैं ।
जड़ उंगली जैसी मोटी 1-1 इंच लंबी होती है । सिरे पर चौड़ी व नीचे सकरी
होती है । अंदर की छाल और लकड़ी के बीच से दूध जैसा रस निकलता है, जिसकी
गंध ताजे तेल जैसी दाहक व चरपरी होती है । तना और शाखाएँ सुतली के समान
पतली सफेद रोमों से भरी होती हैं । पत्तियाँ 1 से 4 सेण्टीमीटर लंबी,
रेखाकार, डण्ठल रहित, तीन-तीन शिराओं से युक्त होती हैं । पत्तियों के मलवे
पर मूली के पत्तों सी गंध आती है ।
फूल हल्के गुलाबी रंग के
संख्या में एक या दो कनेर के फूलों से मिलती-जुलती गंध वाले होते हैं । फल
छोटे-छोटे कुछ गोलाई लिए भूरे रंग के, चिकने तथा चमकदार होते हैं । बीज
भूरे या काले रंग के एक ओर तीन धार वाले, दूसरी ओर ढाल वाले होते हैं । बीज
के दोनों ओर सफेद रंग की झाई दिखती है । मई से दिसम्बर तक इसमें पुष्प और
फल लगते हैं । शेष समय यह सूखी रहती है । गीली अवस्था में पहचानने योग्य
नहीं रह पाती । श्वेत पुष्पा शंखपुष्पी के क्षुप दूसरे प्रकारों की अपेक्षा
छोटे होते हैं तथा इसके पुष्प शंख की तरह आवर्त्तान्तित होते हैं ।
पहचान एवं मिलावट-
श्वेत, रक्त एवं नील तीनों प्रकार के पौधों की ही मिलावट होती है ।
शंखपुष्पी नाम से श्वेत, पुष्प ही ग्रहण किए जाने चाहिए । नील पुष्पी नामक
(कन्वांल्व्यूलस एल्सिनाइड्स) क्षुपों को भी शंखपुष्पी नाम से ग्रहणकिया
जाता है जो कि त्रुटिपूर्ण है । इसके क्षुप छोटे क्रीपिंग होते हैं । मूल
के ऊपर से 4 से 15 इंच लंबी अनेकों शाखाएँ निकली फैली रहती हैं । पुष्प
नीले होते हैं तथा दो या तीन की संख्या में पुष्प दण्डों पर स्थित होते हैं
। इसी प्रकार शंखाहुली, कालमेध (कैसकोरा डेकुसेटा) से भी इसे अलग पहचाना
जाना चाहिए । अक्सर पंसारियों के पास इसकी मिलावट वाली शंखपुष्पी बहुत
मिलती है । फूल तो इसके भी सफेद होते हैं पर पौधे की ऊँचाई, फैलने का क्रम,
पत्तियों की व्यवस्था अलग होतीत है । नीचे पत्तियाँ लम्बी व ऊपर की छोटी
होती हैं । गुण धर्म की दृष्टि से यह कुछ तो शंखपुष्पी से मिलती है पर सभी
गुण इसमें नहीं होते । प्रभावी सामर्थ्य भी क्षीण अल्पकालीन होती है ।
संग्रह तथा संरक्षण एवं कालावधि-
छाया में सुखाए गए पंचांग को मुखंबद डिब्बों में सूखे शीतल स्थानों में
रखते हैं । यह सूखी औषधि चूर्ण रूप में या ताजे स्वरस कल्क के रूप में
प्रयुक्त हो सकती है । वीर्य कालावधि 6 माह से एक वर्ष तक की है ।
गुण-कर्म संबंधी विभिन्न मत-
इसे मेध्य (बुद्धिवर्धक), मस्तिष्क शामक एवं नाड़ी दौर्बल्य में सहायक
माना गया है । महर्षि चरक ने मेध्या विशेषेण च शंखपुष्पी लिखते हुए कहा
है-'स्मरण शक्ति को बढ़ाने वाली औषधियों में शंखपुष्पी प्रधान है ।'
आयुर्वेद में मनुष्य के मस्तिष्क को बल देने वाली जितनी वनस्पतियाँ बतायी
गई हैं, उनमें ब्राह्मी तथा शंखपुष्पी को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है ।
भाव प्रकाश के अनुसार यह मेधावर्धक, मानस रोगहन अपस्मारहन
(एण्टीइपीलैप्टिक) भूतघ्न तथा विषहन है । राजनिघण्टुकार लिखते
हैं-'ग्रहभूतादिदोषहनी वशीकरण सिद्धिदा'
अर्थात् यह भूत रोग
(हिस्टीरिया) मिटाकर व्यक्ति की मेधा में वृद्धि कर उसके व्यक्तित्व को
सम्मोहक बनाती है । लेखक ने इसे अनिद्रा के लिए सर्वश्रेष्ठ औषधि माना है ।
निघण्टु रतनाकर ने भी मेधा स्मृति वर्धक, कान्तिदायक, तेज बढ़ाने
वाली एवं मस्तिष्क दोष हर इसे माना है । श्री भण्डारी (वनौषधि चन्द्रोदय)
लिखते हैं कि शंखपुष्पी से मस्तिष्क को शांति व शक्ति मिलती है ।
विशेषणात्मक बुद्धि बढ़ती है । विशेषकर अल्पमंदता के लिए यह औषधि तथा
मस्तिष्कीय कार्य अधिक करने वालों के लिए यह एक बलवर्धक टॉनिक है, जो सीधे
स्नायु कोषों को प्रभावित करता है ।
डॉ. देसाई के मतानुसार शंखपुष्पी
मस्तिष्क और मज्जा तंतुओं को बल देने वाली औषधि है । डॉ. खोरी लिखते हैं कि
शंखपुष्पी ज्ञान तंतुओं को बल देने वाली 'नवाईन टॉनिक' है । उन्माद व
मानसिक कमजोरी में इसका ताजा रस तुरंत लाभ देता है ।
डॉ. डिमक का कथन
है कि वेदों के समय में शंखपुष्पी गर्भाशय पर कार्य करने वाली औषधि मानी
जाती थी, परन्तु बाद के समय में टीकाकारों ने मस्तिष्क पर कार्य करने वाले
सूत्र भी निकाले ।
यूनानी मतानुसार शंखपुष्पी तर है तथा बल्य रसायन है ।
इसका प्रयोग स्मृतिवर्धन और मस्तिष्क तथा नाड़ियों को शक्ति देने के लिए
किया जाता है । भ्रम, अनिद्रा, अपस्मार एवं उन्माद को दूर करने के लिए
यूनानी वैद्य इसका प्रयोग करते हैं ।
रासायनिक संगठन-
शंखपुष्पी से एक स्फटिकीय एल्केलाइड निकाला गया है, जिसे शंखपुष्पीन नाम
दिया गया है । यही इसका सक्रिय संघटक है । इस औषधि में से एक 'इसेन्शियल
ऑइल' भी निकाला गया है । पंचांग के किसी विशेष भाग में नहीं सारी औषधि में
ही यह सक्रिय संघटक समान रूपसे वितरित पाया जाता है । इसी कारण शंखपुष्पी
का पंचांग ही प्रयुक्त होता है ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग, निष्कर्ष-
'इण्डियन जनरल ऑफ मेडिकल रिसर्च' में डॉ. शर्मा ने शंखपुष्पी के मानसिक
उत्तेजना शामक गुणों पर विस्तार से प्रकाश डाला है । इसके प्रयोग से
प्रायोगिक जीवों में स्वतः होने वाली मांसपेशियों की हलचलें(स्पाण्टेनियम
मोटर एक्टिविटी) घट गई । शंशपुष्पी के निष्कर्ष सेवन से चूहों में
'फिनोबार्ब' द्वारा उत्पन्न की गई निद्रा बढ़ गई । इनमें मार्फीन का
दर्दनाशक प्रभाव भी बढ़ा । चूहों की लड़ने की प्रवृत्ति में कमी हुई तथा
अंदर से आक्रामक प्रवृत्ति में शांति आयी । प्रायोगिक जीवों में विद्युत के
झटकों द्वारा उत्पन्न आक्षेप (कन्वल्शन-मिर्गी जैसे झटके) तथा कंपन इस
औषधि के प्रयोग के बाद शांत हो गए ।
थायराइड ग्रंथि के अतिस्राव
से उत्पन्न घबराहट, अनिद्रा एवं कंपन जैसी उत्तेजनापूर्ण स्थिति में
शंखपुष्पी अत्यधिक सफल पायी गई है । यह रोग अधिसंख्य जनता को अपने राष्ट्र
में प्रभावित करता है । इसमें हृदय व मस्तिष्क समान रूपसे प्रभावित होते
हैं । स्राव संतुलन बनाए रखना इस औषधि का प्रमुख कार्य है । बी.एच.यू. के
डॉ. गुप्ता, प्रसाद व उडुप्पा के अनुसार शंखपुष्पी थायरोटॉ-क्सिकोसिस के
नवीन रोगियों में आधुनिक औषधियों से अधिक लाभकारी सिद्ध हुई है । यदि किसी
रोगी ने पूर्व में एलोपैथिक एण्टाथायराइड औषधि ली थी तो उस कारण उत्पन्न
दुष्प्रभावों से भी शंखपुष्पी के कारण मुक्ति मिल गई ।
इन दोहरे
लाभों को देखते हुए अब इस औषधि पर विस्तृत जाँच पड़ताल आरंभ कर दी गई है ।
सेण्ट्रल ड्रग रिसर्च इण्स्टीट्रयूट के वैज्ञानिकों ने पाया है कि यह औषधि
सीधे थायराइड की कोशिकाओं पर प्रभाव डालकर स्राव व नियमन करती हैं । इसके
प्रयोग से मस्तिष्क एसिटाइल कोलीन नामक महत्त्वपूर्ण न्यूरोकेमीकल की
मात्रा बढ़ गई । इसका बढ़ना इस तथ्य का द्योतक है कि उत्तेजना के लिए
उत्तरदायी केन्द्र शांत हो रहे है । मस्तिष्क रक्त अवरोधी झिल्ली
(ब्लड-ब्रेनवैरियर) से शंखपुष्पी एसिटाइलकोलीन का मस्तिष्क से निकल कर रक्त
में जाना रोकती है ।
यह उत्तेजना शामक प्रभाव रक्त चाप पर भी अनुकूल
प्रभाव डालती है । प्रयोगों से पाया गया है कि भावनात्मक संक्षोभों, तनाव
जन्य उच्च रक्त चाप जैसी परिस्थिति में शंखपुष्पी बड़ी लाभकारी सिद्ध होती
है । आदत डालने वाले टैरक्विलाइजर्स की तुलना में यह अधिक उत्तम है,
क्योंकि यह तनाव का शमन कर दुष्प्रभाव रहित निद्रा लाती है तथा हृदय परभी
अवसादक प्रभाव डालती है ।
ग्राह्य अंग-
पंचांग-समग्र क्षुप का चूर्ण या कल्क ताजी अवस्था में स्वरस कल्क प्रयुक्त होता है ।
मात्रा-
कल्क- 10 से 20 ग्राम प्रतिदिन । चूर्ण- 3 से 6 ग्राम प्रतिदिन । स्वरस- 2 से 4 तोला प्रतिदिन ।
इस औषधि को सुबह या शाम को दो बार अथवा रोगावस्थानुसार रात्रि को ही प्रयुक्त किया जा सकता है ।
निर्धारणानुसार प्रयोग-
स्मरण शक्ति बढ़ाने के लिए 6 माशा शंखपुष्पी चूर्ण मिश्री की चाशनी या दूध
के साथ प्रतिदिन प्रातः लेने का शास्रोक्त विधान बताया गया है । पंचांग को
दूध के साथ घोंट कर भी देते हैं ।
ज्वर प्रलाप में होश खो बैठने तथा
प्रलाप करने पर (डेलीरियम) मस्तिष्क को शक्ति देने तथा नींद लाने के लिए
शंखपुष्पी फाण्ट रूप में या चूर्ण को मिश्री के साथ देते हैं । इसकी ठण्डाई
भी प्रयुक्त की जा सकती है ।
उन्माद व अपस्मार में इसका स्वरस 20
ग्राम के लगभग मधु के साथ दिन में दो बार दिया जाता है । शय्या मूत्र का
रोग जो अक्सर बच्चों को बढ़ती उम्र तक बना रहता है, (नॉक्चरनल एन्यूरेसिस)
में रात्रि के समय शंखपुष्पी चूर्ण (3 ग्राम) दूध के साथ देने पर लाभ
पहुँचाता है । मनोविकारों में भी इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है । जितने भी
उत्तेजना कारक मनोविकार हैं, उन्हें प्रारंभिक स्थिति में ही शंखपुष्पी के
द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है ।
उच्च रक्तचाप व अन्य
उत्तेजना जन्य स्थितियाँ जो उसे जन्म देती हैं, में रोकथाम के लिए एवं
उपचार के लिए भी शंखपुष्पी का रस तीन समय अथवा चूर्ण दिन में दो बार देने
पर आशातीत लाभ देखे जाते हैं ।
शंखपुष्पी का घृत शर्बत-सिरप भी
प्रयुक्त होता है । पर इसमें योगों से बचकर एकाकी प्रयोग ही श्रेयस्कर है ।
अधिक से अधिक सरस्वती पंचक के रूप में प्रयोग क्षम्य है । (ब्राह्मी,
शंखपुष्पी, बच, गोरखमुण्डी, शतावर) जो मेधावर्धन हेतु सिद्ध प्रयोग है ।
अन्य उपयोग-
यह कफ, वात शामक माना जाता है । वाह्य उपचारों में चर्मरोगों में तथा
केशवृद्धि के लिए प्रयोग करते हैं । यह दीपक व पाचक है । पेट में गए विष को
बाहर निकालने के लिए भी इसे प्रयुक्त किया जाता है । पेट में दर्द, वायु
प्रदाह आदि में भी यह गुणकारी है । डॉ. प्रियव्रत के अनुसार यह हृदय रोगों,
रक्तवमन आदि में लाभकारी है । खाँसी में भी यह लाभ पहुँचाती है गर्भाशय की
दुर्बलता के कारण जिनको गर्भ धारण नहीं होता या नष्ट हो जाताहै, उनमें इसे
चिर पुरातन काल से प्रयोग किया जाता रहा है । ज्वर-दाह में इसे शांतिदायक
पेय के रूप में तथा पेशाब की जलन में डाययूरेटिक की तरह प्रयुक्त करते हैं ।
मस्तिष्क दौर्बल्य के अलावा यह एक सामान्य दौर्बल्य में हितकारी बल्य
रसायन भी है । इसे जनरल टॉनिक के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है ।