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सोमवार, 23 जनवरी 2023

बागेश्वर धाम का रहस्य क्या हैं ? जानकर आपके होश उड़ जायेगे

बागेश्वर धाम का रहस्य क्या हैं ? जानकर आपके होश उड़ जायेगे

बागेश्वर धाम का रहस्य क्या हैं ? बागेश्वर धाम की सच्चाई क्या हैं ? दोस्तों आपने बागेश्वर धाम के बारे में यूट्यूब और टेलीविज़न के माध्यम से देखा और सुना होगा जहा लोग बागेश्वर धाम के सामने अपनी अर्जी लगाते हैं , वे अपने सवाल पूज्य श्री धीरेन्द्र कृष्णा शास्त्री से पूछते हैं , और उसका निवारण उन्हें तत्काल ही उन्हें मिल जाता हैं ,लेकिन क्या दोस्तों आपने बागेश्वर धाम के पीछे के रहस्यों को सुना हैं , क्या आप बागेश्वर धाम के पीठाधीश्वर धीरेन्द्र कृष्णा शास्त्री के बारे में जानते हैं कैसे इतनी जल्दी फेमस हो गए, आइये जानते हैं.

बागेश्वर धाम एक ऐसा धाम जो बहुत ही कम समय में देश और दुनिया के कोने कोने में सनातन धर्म का डंका बजा रहा हैं , एक ऐसा दिव्य धाम जिस देखकर और सुनकर वैज्ञानिक भी हैरान है, जिससे लोग बागेश्वर धाम के रहस्यों को जानना चाहते हैं , बागेश्वर धाम की सच्चाई क्या हैं.

बागेश्वर धाम का रहस्य क्या हैं ?

बागेश्वर धाम का निर्माण बहुत समय पहले हुआ था , जब इन्टरनेट इतना विकसित नहीं हुआ था, बागेश्वर धाम बहुत पुराना चमत्कारिक मंदिर हैं , यहाँ पीडी दर पीडी प्रसिद्ध संत हुए जो दिव्य दरबार लगाते रहे हैं, परन्तु इन्टरनेट की सुबिधा ना हो पाने के कारण धाम पर प्रचार प्रसार नहीं हो पाया और लोकल क्षेत्र के लोग बस आया करते थे.

बागेश्वर धाम मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह हैं की जो भी श्रधालु सच्चे मन से जो भी मनोकामनाओ को लेकर जाते हैं , बागेश्वर बालाजी सरकार और सन्यासी बाबा की कृपा से सब सिद्ध हो जाता है, धाम पर पहले बागेश्वर महाराज के दादा दरबार लगाया करते थे इसके बाद श्री धीरेन्द्र कृष्णा शास्त्री ने अपना बचपन पूज्य दादा जी की शरण में विताया और पूजा पाठ करने लगे , समय वित्ताता गया और धीरे धीरे दरबार लगाने लगे जनकल्याण के लिए इस तरह बागेश्वर धाम महाराज को सिद्धि प्राप्त हुई.

बागेश्वर धाम महाराज का शुरुआती जीवन बहुत ही कष्टदायक रहा, जिसके चलते वह अपनी पूरी पढ़ाई नहीं कर पाए और बागेश्वर बालाजी, सन्यासी बाबा की सेवा में लग गए और जन कल्याण के लिए दरबार लगाने लगे धीरे-धीरे बागेश्वर धाम इंटरनेट के माध्यम से देश के कोने कोने में जाना जाने लगा.

बागेश्वर धाम की सच्चाई क्या हैं ?

बागेश्वर धाम की सच्चाई को जानने के लिए आय दिन बहुत से न्यूज़ चैनल और पत्रकार आते रहते हैं लेकिन किसी को कुछ नहीं मिलता , सब हैरान हैं की आखिर कैसे बिना बताये लोगों के मन की बात जान लेते हैं और उसका निवारण भी बता देते हैं , हम आपको बता दे बागेश्वर धाम महाराज के अनुसार वह यह सब बागेश्वर बालाजी महाराज और सन्यासी बाबा की कृपा से कर पाते हैं, दोस्तों श्री धीरेन्द्र कृष्णा शास्त्री जिन्हें दुनिया बागेश्वर धाम के नाम से जानती हैं, उन्हें भगवान श्री राम के अनन्य भक्त श्री हनुमान ( बालाजी सरकार ) की कृपा प्राप्त है, जिससे वह अपने पर्चे पर जो भी लिख देते हैं,वही होता है.

वैज्ञानिक भी हैरान बागेश्वर धाम के इस रहस्य सेजानकर आपके भी होश उड़ जाएगे

दोस्तों वैज्ञानिक भी हैरान हैं बागेश्वर धाम के इस रहस्य से टेक्नोलोजी इतनी विकसित हो गई हैं जिससे हम किसी से भी बात कर सकते है मोबाइल फ़ोन के जारी , और लोकेशन का पता लगा सकते हैं, लेकिन किसी के मन की बात नहीं जान सकते हैं , यह केवल दिव्य चमत्कारी शक्तिओ से हो सकता हैं , भारत हमेशा से आस्था और श्रद्धा का देश रहा है, भारत के लोग ईश्वर को मानते हैं ,जिसका जीता जागता उदाहरण है बागेश्वर धाम की ईश्वर हैं और सभी का कल्याण करता हैं.

रानी दुर्गावती ने वीरमरण स्वीकार किया वेद धर्म के लिए


 रानी दुर्गावती ने वीरमरण स्वीकार किया वेद धर्म के लिए


शत्-शत् नमन 5 अक्टूबर/जन्मदिवस, ज्वालारूपी रानी दुर्गावती जिनका हत्यारा था वो अकबर जिसे साजिशन बनाया गया महान*

अकबर की महानता के गुण गाने वालों को आज पता भी नहीं होगा की आज किसका जन्म दिवस है। उन्हें भी नहीं पता होगा जिन्होंने आज़ादी , शौर्य , वीरता और बलिदान को केवल दो या चार परिवारों के आस पास इर्द गिर्द घुमा कर रख दिया है.. इस भारत भूमि ने आजादी और धर्म की रक्षा के लिए बहुत से बलिदान लिए हैं। उनमे से एक हैं महान रानी दुर्गावती जी जिनका सौभाग्य से आज जन्म दिवस है,..

महान रानी दुर्गावती जी का जन्म 5 अक्टूबर सन 1524 को महोबा में हुआ था। दुर्गावती के पिता महोबा के राजा थे। रानी दुर्गावती सुन्दर, सुशील, विनम्र, योग्य एवं साहसी लड़की थी। बचपन में ही उसे वीरतापूर्ण एवं साहस भरी कहानियां सुनना व पढ़ना अच्छा लगता था। पढाई के साथ-साथ दुर्गावती ने घोड़े पर चढ़ना, तीर तलवार चलाना, अच्छी तरह सीख लिया था शिकार खेलना उसका शौक था। वे अपने पिता के साथ शिकार खेलने जाया करती थी। पिता के साथ वे शासन का कार्य भी देखती थी।

विवाह योग्य अवस्था प्राप्त करने पर उनके पिता मालवा नरेश ने राजपूताने के राजकुमारों में से योग्य वर की तलाश की। परन्तु दुर्गावती गोडवाना के राजा दलपतिशाह की वीरता पर मुग्ध थी। इस प्रकार दुर्गावती और दलपति शाह का विवाह हुआ। रानी दुर्गावती जी अपने पति के साथ गढ़मंडल में सुखपूर्वक रहने लगी। इसी बीच दुर्गावती के पिता की मृत्यु हो गई और महोबा तथा कालिंजर पर मुग़ल सम्राट अकबर का अधिकार हो गया।

विवाह के एक वर्ष पश्चात् दुर्गावती का एक पुत्र हुआ। जिसका नाम वीर नारायण रखा गया। जिस समय वीरनारायण केवल तीन वर्ष का था उसके पिता दलपति शाह की मृत्यु हो गई। दुर्गावती के ऊपर तो मानो दुखो का पहाड़ ही टूट पड़ा। परन्तु उसने बड़े धैर्य और साहस के साथ इस दुःख को सहन किया। दलपति शाह की मृत्यु के बाद उनका पुत्र वीर नारायण गद्दी पर बैठा। रानी दुर्गावती उसकी संरक्षिका बनी और राज–काज स्वयं देखने लगी। वे सदैव प्रजा के दुःख–सुख का ध्यान रखती थी। चतुर और बुद्धिमान मंत्री आधार सिंह की सलाह और सहायता से रानी दुर्गावती ने अपने राज्य की सीमा बढ़ा ली।राज्य के साथ–साथ उसने सुसज्जित स्थायी सेना भी बनाई और अपनी वीरता, उदारता, चतुराई से राजनैतिक एकता स्थापित की। गोंडवाना राज्य शक्तिशाली और संपन्न राज्यों में गिना जाने लगा।

रानी दुर्गावती की योग्यता एवं वीरता की प्रशंसा अकबर ने सुनी.. क्रूर अकबर जिसे कईयों ने महानता का झूठा खिताब दे रखा है उसने आसफ खां नामक सरदार को गोंडवाना की गढ़मंडल पर चढ़ाई करने का आदेश दे दिया ये सोच कर कि एक औरत कितनी देर लड़ पाएगी.. उसका हत्यारा सरदार आसफ खां ने भी समझा कि दुर्गावती महिला है, अकबर के प्रताप से भयभीत होकर आत्मसमर्पण कर देगी। परन्तु रानी दुर्गावती को अपनी योग्यता, साधन और सैन्य शक्ति पर इतना विश्वास था कि उसे अकबर की सेना के प्रति भी कोई भय नहीं था। रानी दुर्गावती के मंत्री ने आसफ खान की सेना और सज्जा को देखकर युद्ध न करने की सलाह दी।

*परन्तु रानी ने कहा, " कलंकित जीवन जीने की अपेक्षा शान से मर जाना अच्छा है। आसफ खान जैसे साधारण सूबेदार के सामने झुकना लज्जा की बात है। रानी सैनिक के वेश में घोड़े पर सवार होकर निकल पड़ी। रानी को सैनिक के वेश में देखकर आसफ खान के होश उड़ गये। रणक्षेत्र में रानी के सैनिक उत्साहित होकर शत्रुओ को काटने लगे। रानी भी शत्रुओ पर टूट पड़ी. देखते ही देखते दुश्मनो की सेना मैदान छोड़कर भाग निकली। आसफ खान बड़ी कठिनाई से अपने प्राण बचाने में सफल हुआ। आसफ खान की बुरी तरह हार सुनकर अकबर बहुत क्रोधित हुआ और अपनी क्रूरता की हदें लांघता हुआ डेढ़ वर्ष बाद उसने पुनः आसफ खान को गढ़मंडल पर आक्रमण करने भेजा। रानी तथा आसफ खान के बीच घमासान युद्ध हुआ। तोपों का वार होने पर भी रानी ने हिम्मत नहीं हारी। रानी हाथी पर सवार सेना का संचालन कर रही थी। उन्होंने मुग़ल तोपचियों का सिर काट डाला। यह देखकर आसफ खान की सेना फिर भाग खड़ी हुई। दो बार हारकर वो कामुक, जल्लाद अकबर और भी अधिक क्रोध, लज्जा और ग्लानी से भर गया.*

रानी दुर्गावती अपने राजधानी में विजयोत्स्व मना रही थी। उसी गढ़मंडल के एक सरदार ने रानी को धोखा दे दिया। उसने गढ़मंडल का सारा भेद अकबर के सरदार आसफ खान को बता दिया। आसफ खान ने अपने हार का बदला लेने के लिए तीसरी बार गढ़मंडल पर आक्रमण किया। रानी ने अपने पुत्र के नेतृत्व में सेना भेजकर स्वयं एक टुकड़ी का नेतृत्व संभाला। दुश्मनों के छक्के छूटने लगे. उसी बीच रानी ने देखा कि उसका 15 का वर्ष का पुत्र घायल होकर घोड़े से गिर गया है। रानी विचलित न हुई उसी सेना के कई वीर पुरुषो ने वीर नारायण को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और रानी से प्रार्थना की कि वे अपने पुत्र का अंतिम दर्शन कर ले। रानी ने उत्तर दिया- यह समय पुत्र से मिलने का नहीं है। मुझे ख़ुशी है कि मेरे वीर पुत्र ने युद्ध भूमि में वीर गति पाई है। अतः मैं उससे देवलोक में ही मिलू।

वीर पुत्र की स्थिति देखकर रानी दो गुने उत्साह से तलवार चलाने लगी. दुश्मनों के सिर कट–कट कर जमीन पर गिरने लगे. तभी दुश्मनों का एक बाण रानी की आँख में जा लगा और दूसरा तीर रानी की गर्दन में लगा। रानी समझ गई की अब मृत्यु निश्चित है। यह सोचकर कि जीते जी दुश्मनों की पकड़ में न आऊँ उन्होंने अपनी ही तलवार अपनी छाती में भोंक ली और अपने प्राणों की बलि दे दी। इनकी मृत्यु 24 जून सन 1564 को हुई. रानी दुर्गावती ने लगभग 16 वर्षो तक संरक्षिका के रूप में शासन किया।

कोटी कोटी नमन महान् वीरांंगना को

Bageshwar Dham Chhatarpur कैसे जाएं पूरी जानकारी – बागेश्वर धाम सरकार


 Bageshwar Dham Chhatarpur कैसे जाएं पूरी जानकारी – बागेश्वर धाम सरकार

दोस्तो अगर आप Bageshwar Dham Chhatarpur जाना चाहते हैं, जो मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के गढ़ा में स्थित है, बागेश्वर धाम बहुत की काम समय में लोकप्रियता पाने वाला स्थान हैं, यहां पर भगवान श्री बालाजी की कृपा से सभी की मनो कामनाये पूरी की जाती हैं, तो अगर आप भी Bageshwar Dham Sarkar Chhatarpur जानें की सोच रहे हैं, तो आज हम इसी के बारे में पूरी जानकारी देने वाले हैं।

Table of Contents

Bageshwar Dham Chhatarpur के बारे में

बागेश्वर धाम सरकार छतरपुर का एक बहुत ही लोकप्रिय पवित्र धार्मिक स्थल है, यहां पर बड़ी संख्या में लोग रोजाना अपनी मनो कामनाएं पूरी करने के उद्देश से आते हैं, और उनकी मनो कामनाएं भगवान बालाजी के द्वारा की जाती हैं, यह भगवान के अस्तित्व का जीता जागता उदाहरण है, और बागेश्वर धाम पर दिव्य दरबार लगाया जाता हैं, जिसमे लोगो के मन की बात एक कोरे कागज पर लिख पर उसका निवारण भी बताया जाता हैं।

बागेश्वर धाम की लोकप्रियता बहुत की काम समय में लोगो की समस्याओं का निवारण करने से हुई हैं, बागेश्वर धाम बुंदेलखंड के छतरपुर में हैं, बागेश्वर धाम के महाराज पंडित श्री धीरेंद्र कृष्ण जी हैं,

बागेश्वर धाम के बारे में महत्पूर्ण जानकारियाँ

स्थान नाम वागेश्वर धाम सरकार
स्थान पता ग्राम गढ़ा जिला छतरपुर, मध्यप्रदेश – 471105
बागेश्वर धाम महाराज पंडित श्री धीरेन्द्र कृष्ण महाराज
बागेश्वर धाम फ़ोन नंबर 8120592371
बागेश्वर धाम किस जिले में हैं मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में
बागेश्वर धाम वेबसाइट यहाँ क्लिक करे


बागेश्वर धाम सरकार से सम्बंधित कुछ महत्पूर्ण जानकारियां

Bageshwar Dham कैसे जाए ?

दोस्तो अगर आप दुनिया के किसी भी कोने से बागेश्वर धाम पर आना चाहते हैं, तो सबसे पहले आपको बागेश्वर धाम का पता होना बहुत ही जरूरी हैं। उसके बाद आप बहुत ही आसानी से बागेश्वर धाम पर आ सकते है, यहां पर आप सड़क मार्ग, रेल्वे मार्ग और हवाई मार्ग से भी आ सकते हैं।

Bageshwar Dham Chhatarpur Address ( बागेश्वर धाम का पता क्या हैं )

बागेश्वर धाम मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के छतरपुर जिले में स्थित है, छतरपुर से पन्ना छतरपुर NH 39 मार्ग से 30 किलोमीटर दूर गंज से आपको 4 से 5 किलोमीटर दूर गाढ़ा ग्राम मिलेगा, जहां पर बालाजी का मंदिर हैं, और यहां पर आपको बालाजी के दर्शन होते हैं।

Bus से बागेश्वर धाम कैसे जाए ?

बस से बागेश्वर धाम स्थान पर जाने के लिए सबसे पहले आपको मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले आना होगा, उसके बाद आपको पन्ना छतरपुर NH 39 मार्ग पर 30 किलोमीटर दूर गंज पर उतरना होगा और वहां से आपको टैक्सी लेकर 4 किलोमीटर दूर ग्राम गाढ़ा में बागेश्वर धाम का मंदिर हैं

बागेश्वर धाम ट्रेन से कैसे जाए ?

दोस्तों अगर आप दुनिया के किसी भी कोने से ट्रेन के माध्यम से बागेश्वर धाम आना चाहते हैं, तो उसके लिए सबसे पहले आपको ट्रेन के माध्यम से छतरपुर आना होगा उसके बाद आप छतरपुर से पन्ना छतरपुर सड़क मार्ग से 30 किलोमीटर दूर गंज नामक स्थान पर उतरकर 4 किलोमीटर अंदर बागेश्वर धाम का स्थान है

Aeroplane से बागेश्वर धाम। कैसे जाए ?

दोस्तों अगर आप हवाई मार्ग से बागेश्वर धाम सरकार मंदिर जाना चाहते हैं तो उसके लिए सबसे पहले आपको हवाई मार्ग से खजुराहो आना होगा उसके बाद आप खजुराहो से बमिठा होते हुए गंज नामक से 3 किलोमीटर अंदर बागेश्वर धाम स्थान है।

तो दोस्तों इन सभी मार्गों से आप बागेश्वर धाम सरकर छतरपुर आ सकते हैं, बागेश्वर धाम से जुड़ी जानकारी पाने के लिए bageshwardham.net को विजिट करते रहिए।

कृष्ण का नाम लड्डू गोपाल कैसे पड़ा ?

 कृष्ण का नाम लड्डू गोपाल कैसे पड़ा ?



भगवान श्रीकृष्ण के कई नाम हैं, श्याम, मोहन, बंसीधर, कान्हा और न जाने कितने, लेकिन इनमें से एक प्रसिद्ध नाम है लड्डू गोपाल।

क्या आपको पता है भगवान कृष्ण का नाम लड्डू गोपाल क्यों पड़ा।

ब्रज भूमि में बहुत समय पहले श्रीकृष्ण के परम भक्त रहते थे.. कुम्भनदास जी ।
उनका एक पुत्र था रघुनंदन ।

कुंम्भनदास जी के पास बाँसुरी बजाते हुए श्रीकृष्ण जी का एक विग्रह था, वे हर समय प्रभु भक्ति में लीन रहते और पूरे नियम से श्रीकृष्ण की सेवा करते।

वे उन्हें छोड़ कर कहीं नहीं जाते थे, जिससे उनकी सेवा में कोई विघ्न ना हो।

एक दिन वृन्दावन से उनके लिए भागवत कथा करने का न्योता आया।

पहले तो उन्होंने मना किया, परन्तु लोगों के ज़ोर देने पर वे जाने के लिए तैयार हो गए कि भगवान की सेवा की तैयारी करके वे कथा करके रोज वापिस लौट आया करेंगे व भगवान का सेवा नियम भी नहीं छूटेगा।

अपने पुत्र को उन्होंने समझा दिया कि भोग मैंने बना दिया है, तुम ठाकुर जी को समय पर भोग लगा देना और वे चले गए।

रघुनंदन ने भोजन की थाली ठाकुर जी के सामने रखी और सरल मन से आग्रह किया कि ठाकुर जी आओ भोग लगाओ ।

उसके बाल मन में यह छवि थी कि वे आकर अपने हाथों से भोजन करेगें जैसे हम खाते हैं।

उसने बार-बार आग्रह किया, लेकिन भोजन तो वैसे ही रखा था.. अब उदास हो गया और रोते हुए पुकारा की ठाकुरजी आओ भोग लगाओ।

ठाकुरजी ने बालक का रूप धारण किया और भोजन करने बैठ गए और रघुनंदन भी प्रसन्न हो गया।

रात को कुंम्भनदास जी ने लौट कर पूछा कि भोग लगाया था बेटा, तो रघुनंदन ने कहा हाँ। उन्होंने प्रसाद मांगा तो पुत्र ने कहा कि ठाकुरजी ने सारा भोजन खा लिया।

उन्होंने सोचा बच्चे को भूख लगी होगी तो उसने ही खुद खा लिया होगा। अब तो ये रोज का नियम हो गया कि कुंम्भनदास जी भोजन की थाली लगाकर जाते और रघुनंदन ठाकुरजी को भोग लगाते।

जब प्रसाद मांगते तो एक ही जवाब मिलता कि सारा भोजन उन्होंने खा लिया।
कुंम्भनदास जी को अब लगने लगा कि पुत्र झूठ बोलने लगा है,

लेकिन क्यों.. ?? उन्होंने उस दिन लड्डू बनाकर थाली में सजा दिये और छुप कर देखने लगे कि बच्चा क्या करता है।

रघुनंदन ने रोज की तरह ही ठाकुरजी को पुकारा तो ठाकुरजी बालक के रूप में प्रकट हो कर लड्डू खाने लगे।

यह देख कर कुंम्भनदास जी दौड़ते हुए आये और प्रभु के चरणों में गिरकर विनती करने लगे।

उस समय ठाकुरजी के एक हाथ मे लड्डू और दूसरे हाथ का लड्डू मुख में जाने को ही था कि वे जड़ हो गये ।

उसके बाद से उनकी इसी रूप में पूजा की जाती है और वे ‘लड्डू गोपाल’ कहलाये जाने लगे..!!
  जय हो लड्डू गोपाल जी की

बागेश्वर धाम और धीरेंद्र शास्त्री...

बागेश्वर धाम और धीरेंद्र शास्त्री...




बागेश्वर धाम बुंदेलखंड का एक typical गांव जो मुख्य सड़क से लगभग 6 से 7km अंदर है...
आज से चार पांच साल पहले तक, खुद उस गांव (गड़ा) के लोगों और उनके रिश्तेदारों के अलावा उस गांव और उस हनुमान मंदिर को कोई नहीं जानता था...

फिर उसी ठेठ गांव का एक इक्कीस बाइस साल का ठेठ बुंदेलखंडी नौजवान जो श्री श्री रामभद्राचार्य महाराज का शिष्य है और कलयुग में सर्वाधिक पूजे जाने वाले भगवान श्री हनुमान जी का अनन्य भक्त है अपनी शास्त्री की शिक्षा दीक्षा पूरी करके अपने गांव लौटता है...

ठेठ गांव का ठेठ लड़का जिस गांव को कोई नहीं जानता था उसने पिछले चार पांच साल में अपने Aura, वाकपटुता, धर्म ज्ञान, कथा करने का रोचक अंदाज, और भगवान हनुमान के आशीर्वाद से लोगों के मन में भगवान, हिंदू धर्म, सनातन और राष्ट्रवाद की एक ऐसी अलख जगानी शुरू की जिसमें न कोई अगड़ा था न कोई पिछड़ा, न कोई ऊंचा था न कोई नीचा, उसकी कथाओं में सिर्फ और सिर्फ धर्म था, सनातन था, हिंदू था, राष्ट्रवाद था...

आदिवासियों के लिए जंगल में जाकर उनके बीच बैठकर रामकथा करना हो या सैकड़ों लड़कियों की हर साल शादी कराने का महायज्ञ, बुंदेलखंड जैसे पिछड़े इलाके में कैंसर हॉस्पिटल शुरू करने की वकालत हो उसने न सिर्फ इसका सपना दिखाया बल्कि उसे करके भी दिखाया और सबसे बड़ी बात ये सब कुछ निःशुल्क, स्वेच्छा से जो देना है दे दो नही तो कोई बात नही...

उसने बिना किसी ऊंच नीच की परवाह किए, सभी को एक पंडाल के नीचे इकट्ठा कर दिया, साथ ही साथ वो गरीब लोग जो किसी लालचवश या मजबूरी में किसी और धर्म मेंं जाने को मजबूर हो गए थे उन्हें भी पुनः वापिस लाने का काम किया... 

बस.......यही गलती हो गई उस छब्बीस साल के लड़के से...

सभी जाति को एक साथ एक पंडाल में बैठाकर रामकथा,  ये नही चलेगा बाबू

आदिवासियों के लिए जंगल में जाकर उनके बीच में रामकथा करना और उनको अहसास दिलाना की आप प्रभु राम के वंशज हो... राम राम इतना बड़ा घोर पाप...... ये कतई नहीं चलेगा लड़के...

धर्म परिवर्तन कर चुके लोगों को वापिस लाने का जघन्य पाप...... आप अपराधी है बाबा...
जात पात, अंगड़ा पिछड़ा को छोड़कर सिर्फ सनातन की बात करना और लोगों को उस पर चलने को प्रेरित करना...... 

पगला गए हो का धीरेंद्र शास्त्री...

खैर, छब्बीस साल की उम्र में यदि इस अत्यंत पिछड़े हुए इलाके के बेहद ठेठ गांव से निकला यह लड़का जिसने खुद की प्रतिभा से अपना लोहा पूरे देश विदेश में मनवाया है तो यह निश्चित है की इसके ऊपर अत्यंत ईश्वरीय कृपा है और जिस पथ पर यह आगे निकला है तो ऐसे आरोप और कीचड़ उछलना तो महज एक शुरुआत है, अभी आरोपों की तीव्रता और स्तर बहुत नीचे जाने वाला है...

मैं धीरेंद्र शास्त्री से व्यक्तिगत तौर पर कभी नहीं मिला और न ही मिलने की कोई तीव्र इच्छा है, उनके चमत्कार सही होते हैं या गलत इस पर भी में कुछ नही कहना चाहता, में तो इतना कहना चाहता हूं की एक गांव से निकले इस नौजवान ने सनातन को उठाने, बढ़ाने और देश को सशक्त बनाने का जो काम शुरू किया है वो विरले लोग ही करते हैं...

दुराचार, बलात्कार, मोलेस्टेशन, हत्या, रंगदारी के आरोप लाइन में हैं तैयार रहिए...

लेकिन...

जब तक वो धर्म के रास्ते पर है में उनके साथ हूं...
जब तक वो धर्म को धंधा नहीं बनाते में उनके साथ हूं...
जब तक वो सनातन की बात करेंगे में उनके साथ हूं...
जब तक गरीब उत्थान का काम करते रहेंगे में उनके साथ हूं...
जब तक उन्हे साजिश के तहत टारगेट किया जाता रहेगा, तब तक में उनके साथ हूं...

धर्म की जय हो,
अधर्म का नाश हो,
प्राणियों में सद्भाव हो,
विश्व का कल्याण हो...

जय श्री राम

अधिकार का सदुपयोग

*“🔥अधिकार का सदुपयोग”🔥*



एक हाथी था| वह मर गया तो धर्मराज के यहाँ पहुँचा| धर्मराज ने उससे पूछा- ‘अरे! तुझे इतना बड़ा शरीर दिया, फिर भी तू मनुष्य के वश में हो गया! तेरे एक पैर जितना था मनुष्य, उसके वश में तू हो गया!’ वह हाथी बोला-‘महाराज! यह मनुष्य ऐसा ही है|

बड़े-बड़े इसके वश में हो जाते हैं!’ धर्मराज ने कहा-‘हमारे यहाँ तो अनगिनत आदमी आते हैं!’ हाथी ने जवाब दिया-‘आपके यहाँ मुर्दे आते हैं, जो जीवित आदमी आये तो पता लगे! धर्मराज ने दूतो से कहा-‘अरे! एक जीवित आदमी ले आओ|’ दूतों ने कहा-‘ठीक है’|

दूत घूमते ही रहते थे| गर्मी के दिनों में उन्होंने देखा कि छत के ऊपर एक आदमी सोया हुआ है| दूतों ने उसकी खाट उठा ली और ले चले| उस आदमीं की नींद खुली तो देखा कि क्या बात है! वह कायस्थ था| ग्रन्थ लिखा करता था| ग्रंथो में धर्मराज के दूतों के लक्षण आते हैं| उसने जेब से कागज और कलम निकली| कागज पर कुछ लिखा और जेब में रख लिया| उसने सोचा कि हम कुछ चीं-चपड़ करेंगे तो गिर जायेंगें, हड्डियाँ बिखर जायँगी! वह बेचारा खाट पर पड़ा रहा कि जो होगा, देखा जायगा|

सुबह होते ही दूत पहुँच गये| धर्मराज की सभा लगी हुई थी| दूतों ने खाट नीचे रखी| उस कायस्थ ने तुरन्त जेब से कागज निकाला और दूतों को दे दिया कि धर्मराज को दे दो| उस पर विष्णु भगवान् का नाम लिखा था| दूतों ने यह कागज धर्मराज को दे दिया| धर्मराज ने पत्र पढ़ा| उसमें लिखा था- ‘धर्मराज जी से नारायण की यथायोग्य| यह हमारा मुनीम आपके पास आता है| इसके द्वारा ही सब काम कराना|  दस्तखत-

नारायण, वैकुण्ठपुरी|

पत्र पढ़कर धर्मराज ने अपनी गद्दी छोड़ दी और बोले- ‘आइये महाराज! गद्दी पर बैठो|’ धर्मराज ने कायस्थ को गद्दी पर बैठा दिया कि भगवान् का हुक्म है|

अब दूत दूसरे आदमी को लाये| कायस्थ बोला-‘यह कौन है?’ दूत-महाराज! यह डाका डालने वाला है| बहुतों को लूट लिया, बहुतों को मार दिया| इसको क्या दण्ड दिया जाय?’ कायस्थ-‘इसको वैकुण्ठ में भेजो|’

‘यह कौन है?’

‘महाराज! यह दूध बेचने वाली है| इसने पानी मिलाकर दूध बेचा जिससे बच्चों के पेट बढ़ गये, वे बीमार हो गये| इसका क्या करें?’

‘इसको भी वैकुण्ठ में भेजो|’ ‘यह कौन है?

‘इसने झूठी गवाही देकर बेचारे लोगों को फँसा दिया| इसका क्या किया जाय?’

‘अरे, पूछते क्या हो? वैकुण्ठ में भेजो|’

अब व्यभिचारी आये, पापी आये, हिंसा करनेवाला आये, कोई भी आये, उसके लिए एक ही आज्ञा कि ‘वैकुण्ठ में भेजो|’ अब धर्मराज क्या करें? गद्दी पर बैठा मालिक जो कह रहा है, वही ठीक! वहाँ वैकुण्ठ में जाने वालों की कतार लग गयी| भगवान् ने देखा कि अरे! इतने लोग यहाँ कैसे आ रहे हैं? कहीं मृत्युलोक में कोई महात्मा प्रकट हो गये? बात क्या है, जो सभी को बैकुण्ठ में भेज रहे हैं? कहाँ से आ रहे हैं? देखा कि ये तो धर्मराज के यहाँ से आ रहे हैं|

भगवान् धर्मराज के यहाँ पहुँचे|  भगवान् को देखकर सब खड़े हो गये| धर्मराज भी खड़े हो गये| वह कायस्थ भी खड़ा हो गया| भगवान् ने पूछा-‘धर्मराज! आपने सबको वैकुण्ठ भेज दिया, बात क्या है? क्या इतने लोग भक्त हो गये?’

धर्मराज-‘प्रभो! मेरा काम नहीं है| आपने जो मुनीम भेजा है, उसका काम है|’

भगवान् ने कायस्थ से पूछा-‘तुम्हे किसने भेजा?’

कायस्थ-‘आपने महाराज!’

‘हमने कैसे भेजा?’

‘क्या मेरे बाप के हाथ की बात है, जो यहाँ आता? आपने ही तो भेजा है| आपकी मर्जी के बिना कोई काम होता है क्या? क्या यह मेरे बल से हुआ है?’

‘ठीक है, तूने यह क्या किया?’

‘मैंने क्या किया महाराज?’

‘तूने सबको वैकुण्ठ में भेज दिया!’

‘यदि वैकुण्ठ में भेजना खराब काम है तो जितने संत-महात्मा हैं, उनको दण्ड दिया जाय! यदि यह खराब काम नहीं है तो उलाहना किस बात की? इस पर भी आपको यह पसंद न हो तो सब को वापस भेज दो| परन्तु भगवद्गीता में लिखा यह श्लोक आपको निकालना पड़ेगा-‘यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परम मम’ ‘मेरे धाम में जाकर पीछे लौटकर कोई नहीं आता|

‘बात तो ठीक है| कितना ही बड़ा पापी हो, यदि वह वैकुण्ठ में चला जाय तो पीछे लौटकर थोड़े ही आयेगा! उसके पाप तो सब नष्ट हो गये| पर यह काम तूने क्यों किया?’

‘मैंने क्या किया महाराज? मेरे हाथ में जब बात आयेगी तो मै यही करूँगा, सबको वैकुण्ठ भेजूँगा| मैं किसी को दण्ड क्यों दूँ? मै जानता हूँ कि थोड़ी देर देने के लिए गद्दी मिली है, तो फिर अच्छा काम क्यों न करूँ? लोगों का उद्धार करना खराब काम है क्या?’

भगवान् ने धर्मराज से पूछा-‘धर्मराज! तुमने इसको गद्दी कैसे दे दी?

धर्मराज बोले-‘महाराज! देखिये, आपका कागज आया है| नीचे साफ-साफ आपके दस्तखत हैं|’

भगवान् ने कायस्थ से पूछा-‘क्यों रे, ये कागज मैंने कब दिया तेरे को?’

कायस्थ बोला-‘आपने गीता में कहा है-‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टः’ ‘ मै सबके हृदय में रहता हूँ’; अतः हृदय से आज्ञा आयी कि कागज लिख दे तो मैंने लिख दिया| हुक्म तो आपका ही हुआ! यदि आप इसको मेरा मानते हैं तो गीता में से उपर्युक्त बात निकाल दीजिये!’

भगवान् ने कहा-‘ठीक|’ धर्मराज से पूछा-‘अरे धर्मराज! बात क्या है? यह कैसे आया?’

धर्मराज बोले-‘महाराज! कैसे क्या आया, आपका पुत्र ले आया!’ दूतों से पूछा-‘यह बात कैसे हुई?’

दूत बोले-‘महाराज! आपने ही तो एक दिन कहा था कि एक जीवित आदमी लाना|’

धर्मराज-‘तो वह यही है क्या? अरे, परिचय तो कराते!’

दूत-‘हम क्या परिचय कराते महाराज! आपने तो कागज लिया और इसको गद्दी पर बैठा दिया| हमने सोचा कि परिचय होगा, फिर हमारी हिम्मत कैसे होती बोलने की?’
हाथी वहाँ खड़ा सब देख रहा था, बोला-‘जै रामजी की! आपने कहा था  कि तू कैसे आदमी के वश में हो गया? मैं क्या वश में हो गया, वश में तो धर्मराज हो गये और भगवान् हो गये! यह काले माथेवाला आदमी बड़ा विचित्र है महाराज! यह चाहे तो बड़ी उथल-पुथल कर दे! यह तो खुद ही संसार में फँस गया!’
भगवान् ने कहा-‘अच्छा, जो हुआ सो हुआ, अब तो नीचे चला जा|’

कायस्थ बोला-‘गीता में आपने कहा है- ‘मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते’ ‘मेरे को प्राप्त होकर पुनः जन्म नहीं लेता’ तो बतायें, मैं आपको प्राप्त हुआ कि नहीं?

भगवान्-‘अछ भाई, तू चल मेरे साथ|’

कायस्थ-‘महाराज! केवल मैं ही चलूँ? हाथी पीछे रहेगा बेचारा? इसकी कृपा से ही तो मैं यहाँ आया| इसको भी तो लो साथ में!’

हाथी बोला-‘मेरे बहुत-से भाई यहीं नरकों में बैठे हैं, सबको साथ ले लो|’

भगवान् बोले-‘चलो भाई, सबको ले लो!’ भगवान् के आने से हाथी का भी कल्याण हो गया, कायस्थ का भी कल्याण हो गया और अन्य जीवों का भी कल्याण हो गया!

यह कहानी तो कल्पित है, पर इसका सिद्धांत पक्का है कि अपने हाथ में कोई अधिकार आये तो सबका भला करो| जितना कर सको, उतना भला करो| अपनी तरफ से किसी का बुरा मत करो, किसी को दुःख मत दो| गीता का सिद्धांत है-‘सर्वभूतहिते रताः’ ‘प्राणिमात्र के हित में प्रीति हो’| अधिकार हो, पद हो, थोड़े ही दिन रहने वाला है| सदा रहने वाला नहीं है| इसलिये सबके साथ अच्छे-से-अच्छा बर्ताव करो|
   

रविवार, 22 जनवरी 2023

# जय_जय_श्री_रघुवीर_समर्थ_गुरु_रामदास_जी_की_पुण्यतिथि 22_जनवरी

#22_जनवरी
#जय_जय_श्री_रघुवीर_समर्थ_गुरु_रामदास_जी_की_पुण्यतिथि
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हिन्दू पद पादशाही के संस्थापक छत्रपति शिवाजी के गुरु, समर्थ स्वामी रामदास का नाम भारत के साधु-सन्तों व विद्वत समाज में सुविख्यात है। महाराष्ट्र तथा सम्पूर्ण दक्षिण भारत में तो प्रत्यक्ष हनुमान् जी के अवतार के रूप में उनकी पूजा की जाती है। उनके जन्मस्थान जाम्बगाँव में उनकी मूर्ति मन्दिर में स्थापित की गयी है। 

यद्यपि मूर्ति स्थापना के समय अनेक विद्वानों ने कहा कि मनुष्यों की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा देवताओं के समान नहीं की जा सकती; पर हनुमान् जी के अवतार वाली जन मान्यता के सम्मुख उन्हें झुकना पड़ा।

स्वामी रामदास का जन्म चैत्र शुक्ल 9, विक्रम सम्वत् 1665 (1608 ई0) को दोपहर में हुआ था। यही समय श्रीराम के जन्म का भी है। सूर्याजी पन्त तथा राणूबाई के घर में जन्मे इस बालक का नाम नारायण रखा गया। नारायण बचपन में बहुत शरारती थे। सात वर्ष की अवस्था में उन्होंने हनुमान् जी को अपना गुरु मान लिया। इसके बाद तो उनका अधिकांश समय हनुमान् मन्दिर में पूजा में बीतने लगा। 

एक बार उन्होंने निश्चय किया कि जब तक मुझे हनुमान् जी दर्शन नहीं देंगे, तब तक मैं अन्न जल ग्रहण नहीं करूँगा। यह संकल्प देखकर हनुमान् जी प्रकट हुए और उन्हें श्रीराम के दर्शन भी कराये। रामचन्द्र जी ने उनका नाम नारायण से बदलकर रामदास कर दिया।

जब घर वाले उनका विवाह करने लगे, तो वे मण्डप से भागकर गोदावरी के पास टाकली गाँव में एक गुफा में रहकर तप करने लगे। भिक्षा से जो सामग्री मिलती, उसी से वे अपना जीवनयापन करते थे। बारह साल तक कठोर तप करने के बाद वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़े। यात्रा में उन्होंने हिन्दुओं की दुर्दशा तथा उन पर हो रहे मुसलमानों के भीषण अत्याचार देखे। वे समझ गये कि हिन्दुओं के संगठन के बिना भारत का उद्धार नहीं हो सकता।

इस प्रवास में उन्होंने देश भर में 700 मठ बनाये। इनमें श्रीराम और हनुमान् जी की पूजा के साथ ही युवक कुश्ती तथा शस्त्र स॰चालन का अभ्यास करते थे। इस प्रकार उन्होंने युवकों की एक अच्छी टोली खड़ी कर दी। चाफल केन्द्र से वे इनका संचालन करते थे। ‘जय-जय श्री रघुवीर समर्थ’ उनका उद्घोष था। इसी से लोग उन्हें ‘समर्थ स्वामी’ कहने लगे। जब शिवाजी ने आदर्श हिन्दू राज्य स्थापित करने के प्रयास प्रारम्भ किये, तो उन्होंने समर्थ स्वामी को अपना गुरु और मार्गदर्शक बनाया।

समर्थ स्वामी की जीवन यात्रा के अनुभव मुख्यतः ‘दासबोध’ नामक ग्रन्थ में संकलित हैं। ऐसी मान्यता है यह उन्होंने शिवाजी के मार्गदर्शन के लिए लिखा था। उनके शिष्य उनके प्रवचनों को लिखते रहते थे। यह सब अन्य अनेक ग्रन्थों में संकलित हैं। 1680 में शिवाजी के देहान्त के बाद उनके पुत्र शम्भाजी का अनुचित व्यवहार देखकर स्वामी जी को बहुत दुख हुआ। उन्होंने पत्र लिखकर उसे समझाया; पर उसने ध्यान नहीं दिया। 

स्वामी जी को लगा कि जिस काम के लिए प्रभु ने उन्हें शरीर दिया था, वह उसे यथाशक्ति पूरा कर चुके हैं। अतः उन्होंने स्वयं को समेटना शुरू किया। जब अश्रुपूरित शिष्यों ने उनसे पूछा कि आपके बाद हमें मार्गदर्शन कौन देगा, तो उन्होंने अपने ग्रन्थ ‘दासबोध’ की ओर संकेत किया। माघ कृष्ण 9, विक्रम सम्वत् 1739 (22 जनवरी, 1682 ई0) को राम-नाम लेते हुए समर्थ स्वामी रामदास ने अपना शरीर त्याग दिया।

बाबा माधवदास की वेदना और ईसाई मिशनरियां...

■ बाबा माधवदास की वेदना और ईसाई मिशनरियां...



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कई वर्ष पहले दूर दक्षिण भारत से बाबा माधवदास नामक एक संन्यासी दिल्ली में ‘वॉयस ऑफ इंडिया’ प्रकाशन के कार्यालय पहुँचे। उन्होंने सीताराम गोयल की कोई पुस्तक पढ़ी थी, जिसके बाद उन्हें खोजते-खोजते वह आए थे। मिलते ही उन्होंने सीताराम जी के सामने एक छोटी सी पुस्तिका रख दी। यह सरकार द्वारा 1956 में बनी सात सदस्यीय जस्टिस नियोगी समिति की रिपोर्ट का एक सार-संक्षेप था। यह संक्षेप माधवदास ने स्वयं तैयार किया, किसी तरह माँग-मूँग कर उसे छपाया और तब से देश भर में विभिन्न महत्वपूर्ण, निर्णयकर्ता लोगों तक उसे पहुँचाने, और उन्हें जगाने का अथक प्रयास कर रहे थे। किंतु अब वह मानो हार चुके थे और सीताराम जी तक इस आस में पहुँचे थे कि वह इस कार्य को बढ़ाने का कोई उपाय करेंगे।

माधवदास ने देश के विभिन्न भागों में घूम-घूम कर ईसाई मिशनरियों की गतिविधियाँ स्वयं ध्यान से देखी थीं। उन्हें यह देख बड़ी वेदना होती थी कि मिशनरी लोग हिन्दू धर्म को लांछित कर, भोले-भोले लोगों को छल से जाल में फँसा कर, दबाव देकर, भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल कर आदि विधियों से ईसाइयत में धर्मांतरित करते थे। सबसे बड़ा दुःख यह था कि हिन्दू समाज के अग्रगण्य लोग, नेता, प्रशासक, लेखक इसे देख कर भी अनदेखा करते थे। यह भी माधवदास ने स्वयं अनुभव किया। वर्षों यह सब देख-सुन कर अब वे सीताराम जी के पास पहुँचे थे। सीताराम जी ने उन्हें निराश नहीं किया। उन्होंने न केवल जस्टिस नियोगी समिति रिपोर्ट को पुनः प्रकाशित किया, वरन ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों की ऐतिहासिक क्रम में समीक्षा करते हुए ‘छद्म-पंथनिरपेक्षता, ईसाई मिशन और हिन्दू प्रतिरोध’ नामक एक मूल्यवान पुस्तिका भी लिखी। पर ऐसा लगता है कि हिन्दू उच्च वर्ग की की काहिली और अज्ञान पर शायद ही कुछ असर पड़ा हो।

उदाहरण के लिए, सात वर्ष पहले जब ‘तहलका’ ने साप्ताहिक पत्रिका आरंभ की तो अपना प्रवेशांक (7 फरवरी 2004) भारत में ईसाई विस्तार के अंतर्राष्ट्रीय षड्यंत्र पर केंद्रित किया। इस के लिए अमेरिकी सरकार तथा अनेक विदेशी चर्च संगठनों द्वारा भारी अनुदान, अनेक मिशनरी संगठनों के प्रतिनिधियों से बात-चीत, उनके दस्तावेज, मिशनरियों द्वारा भारत के चप्पे-चप्पे का सर्वेक्षण और स्थानीय विशेषताओं का उपयोग कर लोगों का धर्मांतरण कराने के कार्यक्रम आदि संबंधी भरपूर खोज-बीन और प्रमाण ‘तहलका’ ने जुटा कर प्रस्तुत किया था। किंतु उस पर भारतीय नेताओं, बुद्धिजीवियों, प्रशासकों की क्या प्रतिक्रिया रही? कुछ नहीं, एक अभेद्य मौन! मानो उन्होंने कुछ न सुना हो। जबकि मिशनरी संगठनों में उस प्रकाशन से भारी चिंता और बेचैनी फैली (क्योंकि वे उस पत्रिका को संघ-परिवार का दुष्प्रचार बताकर नहीं बच सकते थे!)। उन्होंने तरह-तरह के बयान देकर अपना बचाव करने की कोशिश की। मगर हिन्दू समाज के प्रतिनिधि निर्विकार बने रहे! हमारे जिन बुद्धिजीवियों, अखबारों, समाचार-चैनलों ने उसी तहलका द्वारा कुछ ही पहले रक्षा मंत्रालय सौदों में रिश्वतखोरी की संभावना का पर्दाफाश करने पर खूब उत्साह दिखाया था, और रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीस समेत सबके इस्तीफे की माँग की थी। वही लोग उसी अखबार के इस पर्दाफाश पर एकदम गुम-सुम रहे। मानो इस में कोई विशेष बात ही न हो।

ठीक यही पचपन वर्ष पहले नियोगी समिति की रिपोर्ट आने पर भी हुआ था। जहाँ मिशनरी संगठनों में खलबली मच गई थी, वहीं हमारे नेता, बुद्धिजीवी, अफसर, न्यायविद सब ठस बने रहे। अंततः संसद में सरकार ने यह कह कर कि समिति की अनुशंसाएं संविधान में दिए मौलिक अधिकारों से मेल नहीं खाती, मामले को रफा-दफा कर दिया। कृपया ध्यान दें – किसी ने यह नहीं कहा कि समिति का आकलन, अन्वेषण, तथ्य और साक्ष्य त्रुटिपूर्ण है। बल्कि सबने एक मौन धारण कर उसे चुप-चाप धूल खाने छोड़ दिया। (उसके तैंतालीस वर्ष बाद, 1999 में, यही जस्टिस वधवा कमीशन रिपोर्ट के साथ भी हुआ, जिसने उड़ीसा में ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी ग्राहम स्टेंस की हत्या के संबंध में विस्तृत जाँच की थी)। हिन्दू सत्ताधारियों व बौद्धिक वर्ग की इस भीरू भंगिमा को देख कर सहमे हुए मिशनरी संगठनों का साहस तुरत स्वभाविक रूप से बढ़ गया। सुदूर आदिवासी क्षेत्रों में उनकी गतिविधियाँ इतनी अशांतिकारक हो गईं कि उड़ीसा व मध्य प्रदेश की सरकारों को क्रमशः 1967 और 1968 में धूर्तता और प्रपंच द्वारा धर्मांतरण कार्यों पर अंकुश लगाने के लिए कानून बनाने पड़े। उस से माधवदास जैसे दुखियारों को कुछ प्रसन्नता मिली। मगर वह क्षणिक साबित हुई क्योंकि उन कानूनों को लागू कराने में किसी ने रुचि नहीं ली। जिन स्थानों में मिशनरी सक्रिय थे, वहाँ इन कानूनों को जानने और उपयोग करने वाले नगण्य थे। जबकि शहरी क्षेत्रों में जो हिन्दू यह सब समझने वाले और समर्थ थे, उन्होंने रुचि नहीं दिखाई कि इन कानूनों के प्रति लोगों को जगाकर चर्च के विस्तारवादी आक्रमण को रोकें।

एक अर्थ में आश्चर्य है कि ब्रिटिश भारत में मिशनरी विस्तारवाद के विरुद्ध हिन्दू प्रतिरोध सशक्त था, जबकि स्वतंत्र भारत में यह मृतप्राय हो गया। 1947 से पहले के हमारे राष्ट्रीय विचार-विमर्श, साहित्य, भाषणों आदि में इस का नियमित उल्लेख मिलता है कि विदेशी मिशनरी भारतीय धर्म-संस्कृति को लांछित, नष्ट करने और भारत को विखंडित कर जहाँ-जहाँ संभव हो स्वतंत्र ईसाई राज्य बनाने के प्रयास कर रहे हैं। तब हमारे नेता, लेखक, पत्रकार अच्छी तरह जानते थे कि यूरोपीय साम्राज्यवाद और ईसाई विस्तारवाद दोनों मूलतः एक दूसरे के पूरक व सहयोगी हैं। इसलिए 1947 से पहले के राष्ट्रीय लेखन, वाचन में इस के प्रतिकार की चिंता, भाषा भी सर्वत्र मिलती है। किंतु स्वतंत्रता के बाद स्थिति विचित्र हो गई। स्वयं देश के संविधान में धर्म प्रचार को ‘मौलिक अधिकार’ के रूप में उच्च स्थान देकर मिशनरी विस्तारवाद को सिद्धांततः वैधता दे दी गई!

जबकि स्वतंत्रता से पहले गाँधीजी जैसे उदार व्यक्ति ने भी स्पष्ट कहा था कि यदि उन्हें कानून बनाने का अधिकार मिल जाए तो वह “सारा धर्मांतरण बंद करवा देंगे जो अनावश्यक अशांति की जड़ है”। पर उन्हीं गाँधी के शिष्यों ने, यह सब जानते हुए भी कि कौन, किन तरीकों, उद्देश्यों से धर्मांतरण कराते हैं, मिशनरियों को उलटे ऐसी छूट दे दी जो उन्हें ब्रिटिश राज में भी उपलब्ध न थी। देशी-विदेशी मिशनरी संगठनों को यह देख आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई, जो उन्होंने छिपाई भी नहीं! उन्होंने भारत को अपने प्रमुख निशाने के रूप में चिन्हित कर लिया। परिणामस्वरूप अंततः उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अलगाववाद की आँच सुलग उठी। इसके पीछे असंदिग्ध रूप से मिशनरी प्रेरणाएं थीं।

इसी पृष्ठभूमि में हम बाबा माधवदास जैसे देशभक्तों की वेदना समझ सकते हैं जिन्होंने प्रत्यक्ष देखा कि भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता ने हिन्दू धर्म-संस्कृति व समाज की सुरक्षा निश्चित करने के बदले, उल्टे उसे अपने हाल पर छोड़ दिया है। विदेशी, साम्राज्यवादी, सशक्त संगठनों को खुल कर खेलने से रोकने का कोई उपाय नहीं किया। उन का अवैध, धूर्ततापूर्ण खेल देख-सुन कर भी स्वतंत्र भारत के नेता, लेखक, पत्रकार, बुद्धिजीवी उस से मुँह चुराने लगे। नियोगी समिति ने जो प्रमाणिक आकलन किया था, उसका महत्व इस में भी है कि स्वतंत्र भारत के मात्र पाँच-सात वर्षों में मिशनरी धृष्टता कितनी बेलगाम हो चली थी। उस रिपोर्ट की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उस की एक-एक बात और अनुशंसाएं आज भी उतनी ही समीचीन हैं। कम से कम हम उसे पढ़ भी लें तो बाबा माधवदास की आत्मा को संतोष होगा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में ईसाई मिशनरी संगठनों को भय था कि अब उन का कारोबार बाधित होगा। आखिर स्वयं गाँधीजी जैसे सर्वोच्च नेता ने खुली घोषणा की थी कि कानून बनाने का अधिकार मिलने पर वह सारा धर्मांतरण बंद करवा देंगे। किंतु मिशनरियों की खुशी का ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि उन की दुकान बंद कराने के बदले, भारतीय संविधान में धर्मांतरण कराने समेत धर्म प्रचार को ‘मौलिक अधिकार’ के रूप में उच्च स्थान मिल गया है! इसमें किसी संदेह को स्वयं प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने दूर कर दिया था। नेहरू ने मुख्यमंत्रियों को लिखे अपने पत्र (17 अक्तूबर 1952) में स्पष्ट कर दिया, “वी परमिट, बाई अवर कंस्टीच्यूशन, नॉट ओनली फ्रीडम ऑफ कांशेंस एंड बिलीफ बट आलसो प्रोजेलाइटिज्म”। और यह प्रोजेलाइटिज्म मुख्यतः चर्च-मिशनरी करते हैं और किन हथकंडों से करते है, यह उस समय हमारा प्रत्येक नेता जानता था!

जब स्वतंत्र भारत का संविधान बन रहा था, तो संविधान सभा में इस पर हुई पूरी बहस चकित करने वाली है। कि कैसे हिंदू समाज खुली आँखों जीती मक्खी निगलता है। एक ही भूल बार-बार करता, दुहराता है, चोट खाता है, फिर भी कुछ नहीं सीखता! धर्मांतरण कराने समेत ‘धर्म-प्रचार’ को मौलिक अधिकार बनाने का घातक निर्णय मात्र एक-दो सदस्यों की जिद पर कर दिया गया। इसके बावजूद कि धर्म-प्रचार के नाम पर इस्लामी और ईसाई मिशनरियों द्वारा जुल्म, धोखा-धड़ी, रक्तपात और अशांति के इतिहास से हमारे संविधान निर्माता पूर्ण परिचित थे। इसीलिए संविदान सभा में पुरुषोत्तमदास टंडन, तजामुल हुसैन, कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, हुसैन इमाम, जैसे सभी सदस्य ‘धर्म-प्रचार’ के अधिकार को मौलिक अधिकार में जोड़ना अनुचित मानते थे। फिर भी केवल “ईसाई मित्रों का ख्याल करते हुए” उसे स्वीकार कर बैठे! यह उस हिन्दू भोलेपन का ही पुनः अनन्य उदाहरण था जो ‘पर-धर्म’ को गंभीरता-पूर्वक न जानने-समझने के कारण इतिहास में असंख्य बार ऐसी भूलें करता रहा है।

इसीलिए स्वतंत्र भारत में मिशनरी कार्य-विस्तार की समीक्षा करते हुए जेसुइट मिशनरी फेलिक्स अलफ्रेड प्लैटर ने अपनी पुस्तक द कैथोलिक चर्च इन इंडियाः येस्टरडे एंड टुडे (1964) में भारी प्रसन्न्ता व्यक्त की। उन्होंने सटीक समझा कि भारतीय संविधान ने न केवल भारत में चर्च को अपना धंधा जारी रखने की छूट दी है, बल्कि “टु इनक्रीज एंड डेवलप हर एक्टिविटी ऐज नेवर बिफोर विदाउट सीरियस हिंडरेंस ऑर एंक्जाइटी”। यह निर्विघ्न, निश्चिंत, अपूर्व छूट पाने का ही परिणाम हुआ कि चार-पाँच वर्ष में ही कई क्षेत्रों में मिशनरी गतिविधियाँ अत्यंत उछृंखल हो गईं। तभी सरकार ने मिशनरी गतिविधियों का अध्ययन करने और उस से उत्पन्न समस्याओं पर उपाय सुझाने के लिए 1954 में जस्टिस बी. एस. नियोगी की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय समिति का गठन किया। इस में ईसाई सदस्य भी थे। समिति ने 1956 में अपनी रिपोर्ट दी, जिसका संपूर्ण आकलन आँखें खोल देने वाला था। किंतु कोई कार्रवाई नहीं हुई। न किसी ने उस के तथ्यों, साक्ष्यों को चुनौती दी, न खंडन किया। केवल मौन के षड्यंत्र द्वारा उसे इतिहास के तहखाने में डाल दिया गया।

तब से आधी शती बीत गई, किंतु उस के आकलन और अनुशंसाएं आज भी सामयिक हैं। जो सामग्री नियोगी समिति ने इकट्ठा की उस से वह इस परिणाम पर पहुँची कि मिशनरी गतिविधियाँ किसी राज्य या देश की सीमाओं में स्वायत्त नहीं है। उनका चरित्र, संगठन और नियंत्रण अंतर्राष्ट्रीय है। जब समिति ने कार्य आरंभ किया तब पहले तो ईसाई मिशनों ने सहयोग की भंगिमा अपनाई। किंतु जब उन्होंने देखा कि समिति अपने काम में गंभीर है तब उन्होंने बहिष्कार किया। फिर नागपुर उच्च न्यायालय जाकर इस का कार्य बंद कराने का प्रयास किया। न्यायालय ने निर्णय दिया कि समिति का गठन और कार्य किसी नियम के विरुद्ध नहीं है।

अपनी जाँच-पड़ताल के सिलसिले में नियोगी समिति चौदह जिलों में, सतहत्तर स्थानों पर गई। वह ग्यारह हजार से अधिक लोगों से मिली, उस ने लगभग चार सौ लिखित बयान एकत्र किए, इसकी तैयार प्रश्नावली पर तीन सौ पचासी उत्तर आए जिस में पचपन ईसाइयों के थे और शेष गैर-ईसाइयों के। समिति ने सात सौ गाँवों से भिन्न-भिन्न लोगों का साक्षात्कार लिया। समिति ने पाया कि कहीं किसी ने ईसा की निंदा नहीं की, सभी जगह केवल अवैध तरीकों से धर्मांतरण कराने पर आपत्ति थी। यह आपत्तियाँ सुदूर क्षेत्रों में, जहाँ यातायात न होने के कारण शासन या प्रेस का ध्यान नहीं, वहाँ गरीब लोगों को नकद धन देने; स्कूल-अस्पताल की बेहतर सुविधाएं देने के लोभ; नौकरी देने; पैसे उधार देकर दबाव डालने; नवजात शिशुओं को आशीर्वाद देने के बहाने जबरन बप्तिस्मा करने; आपसी झगड़ों में किसी को मदद कर के बाद में दबाव डालने; छोटे बच्चों और स्त्रियों का अपहरण करने; तथा विदेशों से आने वाले धन के सहारे इन्हीं तरीकों से किसी क्षेत्र में पर्याप्त धर्मांतरण करा कर पाकिस्तान जैसा स्वतंत्र ईसाई राज्य बना लेने के प्रयासों, आदि संबंधी थीं।

समिति ने पाया कि लूथरन और कैथोलिक मिशनों द्वारा नीतिगत रूप से धर्मांतरित ईसाइयों में अलगाववादी भाव भरे जाते हैं। उन्हें सिखाया जाता है कि धर्म बदल लेने के बाद उनकी राष्ट्रीयता भी वही नहीं रहती जो पहले थी। अतः अब उन्हें स्वतंत्र ईसाई राज्य का प्रयास करना चाहिए। मिशनरी दस्तावेजों, पुस्तकों, कार्यक्रमों आदि का अध्ययन कर समिति ने पाया कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत के प्रति मिशनरी नीतियाँ हैं – (1) राष्ट्रीय एकता का प्रतिरोध करना, (2) भारत और अमेरिका के बीच सहअस्तित्व के सिद्धांत से मतभेद, (3) भारतीय संविधान द्वारा दी गई धार्मिक स्वतंत्रता का लाभ उठाते हुए मुस्लिम लीग जैसी ईसाई राजनीतिक पार्टी बनाकर अंततः एक स्वतंत्र राज्य बनाना अथवा कम से कम एक जुझारू अल्पसंख्यक समुदाय बनाना। भारतीय संविधान की उदारता देखकर यूरोप और अमेरिका में मिशनरी सूत्रधारों ने अपना ध्यान भारत पर केंद्रित किया, समिति ने इसके भी प्रमाण पाए।

किंतु समिति की रिपोर्ट का सबसे महत्वपूर्ण अंश मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की स्थिति पर था। उस ने पाया कि जिन क्षेत्र में स्वतंत्रता से पहले स्वायत्त रजवाड़ो का शासन था और मिशनरियों पर अंकुश था, अब वहाँ उनकी गतिविधियाँ तीव्र हो गई हैं। इन नए खुले क्षेत्रों में पिछड़े आदिवासियों को धर्मांतरित कराने के लिए विदेशी धन उदारता से आ रहा है। ‘आज्ञाकारिता में भागीदारी’ नामक सिद्धांत के अंतर्गत चर्च को बताया जाता है कि वे जमीन से जुड़े रहें, किंतु अपनी निष्ठा और आज्ञाकारिता को राष्ट्रीय पहचान से ऊपर रखें। समिति ने ईसाई स्त्रोतों से ही पाया कि वे मानते हैं कि उन के कार्य में सबसे बड़ी प्रेरक शक्ति केवल धन है, हर जगह, हर समय, हर चीज धन पर ही निर्भर है। यहाँ तक कि जो भी व्यक्ति मिशनरियों से मिलने आता है केवल धन के लिए। भारतीय ईसाई विदेशी मिशनरियों का स्वागत भी केवल पैस के लिए करते हैं। कहीं किसी आध्यात्मिक या दार्शनिक चर्चा या प्रेरणा का नामो-निशान नहीं था।

यह तथ्य एक लाक्षणिक उदाहरण भर था कि ‘नेशनल क्रिश्चियन काऊंसिल ऑफ इंडिया’ के खर्च का मात्र बीसवाँ अंश ही भारतीय स्त्रोतों से आता है, शेष बाहर से। कमो-बेश आज भी स्थिति वही है। यह कितनी विचित्र बात है कि जब जोर-जबर्दस्ती, छल-प्रपंच आदि द्वारा ईसाइयत विस्तार कार्यक्रमों पर चिंता होती है, तो ईसाइयत को भारत में दो हजार वर्ष पुराना, इसलिए, ‘भारतीय’ धर्म बताया जाता है। किंतु जब उसे राष्ट्रीय और आत्मनिर्भर होने के लिए कहा जाता है, तो उसे निर्बल होने के कारण विदेशी सहायता की आवश्यकता का तर्क दिया जाता है! जो भी हो, नियोगी समिति ने विदेशी स्त्रोतों से मिशनरी कार्यों के लिए आने वाले धन का भी हिसाब किया था और पाया कि ‘शिक्षा और चिकित्सा’ के लिए आए धन का बड़ा हिस्सा धर्मांतरण कराने पर खर्च किया जाता है।

जिन तरीकों से यह कार्य होता है वह आज भी तनिक भी नहीं बदले हैं। नियोगी समिति ने ठोस उदाहरण नोट किए थे। हरिजनों, आदिवासी छात्रों पर विशेष ध्यान दिया जाता है। उन्हें दी जानी वाली अतिरिक्त सुविधाओं को ईसाई प्रार्थनाओं में शामिल होने की शर्त से जोड़ा जाता है। बाइबिल कक्षा में शामिल न होने को पूरे दिन की अनुपस्थिति के रूप में दंडित किया जाता है। स्कूल के उत्सवों का उपयोग ईसाई चिन्ह की अन्य धर्मों के चिन्हों पर विजय दिखाने के लिए किया जाता है। अस्पतालों में गरीब मरीजों को ईसाई बनने के लिए दबाव दिया जाता है। सबसे जोरदार फसल अनाथालयों में काटी जाती है जहाँ बाढ़, भूकंप जैसी प्राकृतिक विपदा में तबाह परिवारों के बच्चों को लाकर सबको ईसाई बना लिया जाता है। अधिकांश धर्मांतरण अनिच्छा से होते हैं, क्योंकि सबमें किसी न किसी लाभ-लोभ की प्रेरणा रहती है। समिति ने पाया कि किसी ने अपने नए धर्म का कोई अध्ययन या विचार जैसा कभी कुछ नहीं किया। धर्मांतरित लोग केवल साधारण आदिवासियों के झुंड थे जिनकी चुटिया कटवा कर बस उन्हें ईसाई के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है।

रोमन कैथोलिक मिशनरी जरूरतमंदों को उधार देकर बाद में उसे वापस न करने के बदले ईसाई बनाने की विधि में सिद्धहस्त हैं। अन्य ईसाई मिशनरियों ने ही नियोगी समिति को यह बात बतायी। यदि कोई वापस करना चाहे तो उसे कड़ा ब्याज देना पड़ता है। कर्ज पाने की शर्त में भी कर्ज माँगने वाले को अपने हिन्दू चिन्ह छोड़ने, जैसे सिर की चोटी कटाने को कहा जाता है। कई लेनदार किशोर उम्र के और मजदूर होते हैं। यदि कोई व्यक्ति कर्ज लेता है, तो मिशनरी रजिस्टर में उस के पूरे परिवार को संभावित धर्मांतरितों में नोट कर लिया जाता है। कर्ज लेते समय ही एक वर्ष का ब्याज उस में से काट लिया जाता है। समिति को अपने संपूर्ण आकलन, अन्वेषण के दौरान एक भी ऐसा धर्मांतरित ईसाई न मिला जिस ने धन के लोभ या दबाव के बिना ईसाई बनना स्वीकार किया हो!

कितने आश्चर्य है कि जो प्रगतिवादी लेखक संगठन और वामपंथी नाट्यकर्मी प्रेमचंद की कहानी ‘सवा सेर गेहूँ’ पर हजारों नाटक मंचित कर चुके हैं, वे मिशनरियों की इस स्थायी, अवैध और घृणित महाजनी पर कभी कोई नाटक क्यों नहीं करते! मगर इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि भारतीय वामपंथियों को वैसा हर साम्राज्यवाद प्रिय है जिसका निशाना हिन्दू समाज हो।

मिशनरी साहित्य में हिन्दू देवी-देवताओं की छवियों और उन की पूजा पर अत्यंत भद्दे आक्षेप रहते हैं। स्कूलों में मंचित नाटकों में उनकी हँसी उड़ाई जाती है। उनका मखौल बनाने वाले गाने लिखे, गाए जाते हैं। हिन्दू ग्रंथों को विकृत करके प्रस्तुत किया जाता है। संविधान बनने के बाद से सरगुजा जिले में बने ईसाइयों की एक सूची सरकार ने समिति को दी थी। नियोगी समिति ने पाया कि वहाँ दो वर्ष में चार हजार उराँव ईसाई बने। उन में एक वर्ष से साठ वर्ष के पुरुष, स्त्री शामिल थे। समिति ने पाया कि उन में अपने नए धर्म का कहीं, कोई भाव लेश मात्र न था। प्रायः लोगों को झुंड में थोक भाव में धर्मांतरित करा लिया जाता है। किंतु रोमन कैथोलिक मिशनों ने समिति को अपने द्वारा धर्मांतरित कराए लोगों का विवरण नहीं दिया। क्योंकि उस से यह सच्चाई सामने आ जाती कि वह स्वेच्छा से नहीं, बल्कि संगठित, प्रायोजित हुआ था।

नियोगी समिति का प्रमाणिक निष्कर्ष था कि धर्मांतरण लोगों को राष्ट्रीय भावनाओं से विलग करता है (यही अपने समय में गाँधीजी ने भी कहा था)। धर्मांतरित ईसाइयों को सचेत रूप से इस दिशा में धकेला जाता है। उन से ‘राम-राम!’ या ‘जय हिन्द’ जैसे अभिवादन छुड़वा कर ‘जय यीशू’ कहना सिखाया जाता है। मिशनरी स्कूलों के कार्यक्रमों में राष्ट्रीय ध्वज से ऊपर ईसाई झंडा लगाया जाता है। ईसाई अखबारों में गोवा पर पुर्तगाल की औपनिवेशिक सत्ता बने रहने के पक्ष में लेख रहते थे, और इस बात की आलोचना की जाती थी कि भारत उसे अपना अंग बनाना चाहता है (तब गोवा पुर्तगाल के अधिकार में था)।

मिशनरी गतिविधियों की एक तकनीक समिति ने नोट की कि वह स्थानीय शासन और सरकार पर नियमित आरोप और शिकायतें करके एक दबाव बनाए रखते हैं, ताकि कोई उन की अवैध कारगुजारियों पर ध्यान देने का विचार ही न करे। यह एक जबरदस्त तकनीक है जो आज भी बेहतरीन रूप से कारगर है। समिति ने पाया कि मध्य प्रदेश शासन मिशनरी सक्रियता के क्षेत्रों में पूरी तरह तटस्थ रहा है, उस ने कभी कोई हस्तक्षेप किया हो ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिला। किंतु मिशनरी संगठन सरकार पर प्रायः कोई न कोई भेद-भाव जैसी शिकायत करते रहने की आदत रखते हैं। समिति ने पाया था कि यह प्रशासनिक अधिकारियों को रक्षात्मक बनाए रखने की पुरानी मिशनरी तकनीक रही है। यही आज भी देखा जाता है, जब दिल्ली, गुजरात, झारखंड, उड़ीसा या मध्य-प्रदेश में मिशनरी संगठन अकारण या उलटी बयानबाजी करके सरकार को रक्षात्मक बने रहने के लिए विवश करते हैं। उलटा चोर कोतवाल को डाँटे जैसी सफल तकनीक।

नियोगी समिति ने अनेकानेक मिशनरी दस्तावेजों का अध्ययन करके पाया था कि भारत में मिशनरी धर्मांतरण गतिविधियाँ एक वैश्विक कार्यक्रम के अंग हैं जो पूरे विश्व पर पश्चिमी दबदबा पुनर्स्थापित करने की नीति से जुड़ी हुई हैं। उस में कोई आध्यात्मिकता का भाव नहीं, बल्कि गैर-ईसाई समाजों की एकता छिन्न-भिन्न करने की चाह है। जो भारत की सुरक्षा के लिए खतरनाक है। समिति की राय में ईसाई मिशन भारत के ईसाई समुदाय को अपने देश से विमुख करने का प्रयास कर रहे हैं। यानी, धर्मांतरण कार्यक्रम कोई धार्मिक दर्शन नहीं, बल्कि राजनीतिक उद्देश्य के अंग हैं। भारत के चर्च स्वतंत्र नहीं, बल्कि उन के प्रति उत्तरदायी हैं जो उनके रख-रखाव का खर्च वहन करते हैं। समिति के अनुसार धर्मांतरण दूसरे तरीके से राजनीति के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

यह संयोग नहीं है कि नियोगी समिति ने अवैध, राष्ट्र-विरोधी, समाज-विरोधी मिशनरी गतिविधियों को रोकने के लिए जो अनुशंसाएं दी थीं, उन का आज भी उतना ही मूल्य है। वे अनुशंसाएं यह थीं – (1) जिन विदेशी मिशनों का प्राथमिक कार्य मात्र धर्मांतरण कराना है, उन्हें देश से चले जाने के लिए कह देना चाहिए, (2) चिकित्सा और अन्य सेवाओं के माध्यम से धर्मांतरण बंद करने के लिए कानून बनाए जाने चाहिए, (3) किसी की विवशता, बुद्धिहीनता, अक्षमता, असहायता आदि का लाभ उठाते हुए धोखे या दबाव से धर्मांतरण को पूर्णतः प्रतिबंधित करना चाहिए, (4) विदेशियों द्वारा तथा छल-प्रपंच से धर्मांतरण रोकने के लिए संविधान में उपयुक्त संशोधन होना चाहिए, (5) अवैध तरीकों से धर्मांतरण बंद करने के लिए नए कानून बनने चाहिए, (6) अस्पतालों में नियुक्त डॉक्टरों, नर्सों और अन्य अधिकारियों के रजिस्ट्रेशन में ऐसे संशोधन करने चाहिए जिस से उनके द्वारा किसी मरीज के ईलाज और सेवा के कार्यों के दौरान उस का धर्मांतरण न होने की शर्त हो, (7) बिना राज्य सरकार की अनुमति के धार्मिक प्रचार वाले साहित्य के वितरण पर प्रतिबंध हो।

जब नियोगी समिति की यह रिपोर्ट सार्वजनिक हुई तो मिशनरी संगठनों ने इसे तानाशाही की ओर बढ़ने का उपाय बताकर निंदा की। किंतु किसी ने इस रिपोर्ट के तथ्यों, आकलनों को मिथ्या कहने का साहस नहीं किया। हमारे देश का दुर्भाग्य है कि हमारे नेताओं, प्रशासकों, बुद्धिजीवियों ने समिति की किसी अनुशंसा को लागू करने का प्रयास नहीं किया। यही कारण है कि रोग, उस के फैलने के तरीके, उस से होने वाली हानि और देश की सुरक्षा और अखंडता को खतरा भी यथावत है। इस अर्थ में नियोगी समिति की ऐतिहासिक रिपोर्ट आज पचपन वर्ष बाद भी सामयिक और पठनीय है।

बाबा माधवदास संभवतः अब नहीं हैं, किंतु उनकी वेदना का कारण यथावत है। न रोग दूर हुआ, न उस के निदान की कोई चिंता है। कंधमाल (उड़ीसा) की घटनाएं इस का नवीनतम प्रमाण हैं। नियोगी समिति ने उस के सटीक उपचार के लिए जो सुचिंतित, विवेकपूर्ण अनुशंसाएं दी थीं। वह आज भी उतनी ही आवश्यक हैं जितनी तब थीं। परंतु उस के प्रति हिन्दू उच्च वर्ग की उदासीनता भी लगभग वैसी ही है। इन में वैसे हिन्दू भी हैं जो सभी बातें जानते हैं, किंतु अपने सुख-चैन में खलल डाल कोई कार्य नहीं करना चाहते। कोई दूसरा कर दे तो उन्हें अच्छा ही लगता है। पर उसके लिए एक शब्द कहने तक का कष्ट वह उठाना नहीं चाहते।
इस भीरू प्रवृत्ति को महान रूसी लेखक सोल्झेनित्सिन ने ‘म्यूनिख भावना’ की संज्ञा दी थी। इस मुहावरे की उत्पत्ति 1938 में जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली के बीच हुए म्यूनिख समझौते के बाद हुई। उस समझौते में महत्वपूर्ण यूरोपीय देशों ने चेकोस्वोवाकिया को हिटलरी जर्मनी की दया पर छोड़ कर स्वयं को सुरक्षित समझ लिया था। अपने नोबेल पुरस्कार भाषण (1970) में सोल्झेनित्सिन ने कहा था, “The spirit of Munich is a sickness of the will of successful people, it is the daily condition of those who have given themselves up to the thirst after prosperity at any price, to material well-being as the chief goal of earthly existence. Such people – and there are many in today’s world – elect passivity and retreat, just so that their accustomed life might drag on a bit longer, just so as not to step over the threshold of hardship today – tomorrow, you’ll see, it will all be all right. (But it will never be alright! The price of cowardice will only be evil; we shall reap courage and victory only when we dare to make sacrifices.)” भारत के उच्च वर्गीय हिन्दुओं में यह भावना केवल ईसाई मिशनरियों के आध्यात्मिक आक्रमण के प्रति ही नहीं, बल्कि इस्लामी आतंकवाद, कश्मीरी मुस्लिम अलगाववाद और नक्सली विखंडनवाद जैसे उन सभी घातक परिघटनाओं के प्रति है जिनका निहितार्थ उन्हें मालूम है। किंतु इन से लड़ने के लिए वे कोई असुविधाजनक कदम उठाना तो दूर, दो सच्चे शब्द कहने से भी वे कतराते हैं।
✍🏻साभार: डॉ० शंकर शरण

बागेश्वर धाम के महाराज श्री धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी आजकल विवादों में है,

 बागेश्वर धाम के महाराज श्री धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री जी आजकल विवादों में है,
अगर विरोध करने वाली समिति और महाराज के बीच संवाद होता है तो या तो चमत्कार होगा, या नही होगा...




चमत्कार हो गया तो पूरे भारत की आस्था बढ़ जाएगी उनके प्रति और नही हुआ तो विरोध बढ़ जाएगा...

चिंतनीय प्रश्न-1- आज अधिकांश लोग परेशानी में है, और उनकी परेशानी कही आस्था रखने से दूर भी हो रही है, तो विरोधियों को परेशानी नही होनी चाहिए !

2- चमत्कार न भी हो तो मैने खुद देखा है, लोग उनके कार्यक्रम में जाकर नशे या व्यसन से दूर हुए है।

3- सनातन धर्म का प्रचार करना कोई गलत बात नही।

4- धर्म/कथा/उपदेश ही आने वाली पीढ़ी को बचा सकती है, नही तो आप देख ही रहे हो छोटे छोटे बच्चे बच्चियां कहा जा रहे हैं, लड़के-लडकिया नशे के आदि हो रहे है, पाश्चात्य संस्कृति में जा रहे है, वो सिर्फ धर्म से जुड़कर ही अच्छे रह सकेंगे।

मैं खुद महाराज के किसी कार्यक्रम में नही गया,,
पर भारत मे संस्कृति धर्म प्रचार के लिए ऐसे व्यक्तित्वों की आवश्यकता है, क्योकि, बुजुर्ग घरों में परेशान हो रहे है युवा पीढ़ी नशा, और अन्य गलत गतिविधियों में सम्मलित हो रहे है, और लोग मानसिक समस्या से परेशान हो रहे है।
इन्हें उपदेश की आवश्यकता है...इसलिए देश को ऐसे व्यक्तित्व की हमेशा आवश्यकता रहेगी....


प्राणी में साँस चलना भी चमत्कार है....❤️
https://www.youtube.com/watch?v=_rTNQuIFPEo
बागेश्वर धाम सरकार

पठान का बॉयकॉट करना था न, देखने से धर्म संपत्ति और संस्कृति की हानि हो सकती है

 ये कहानी आपके दिल को टच कर लेगी दोस्तों



एक आदमी की कार पार्किंग से चोरी हो गयी। दो दिन बाद देखा तो कार वापस उसी जगह पार्किंग में ही खड़ी थी।

अंदर एक लिफाफा था उसमे एक माफीनामा था

माँ की तबियत अचानक बिगड़ जाने से रातों रात बड़े अस्पताल लेकर जाना आवश्यक था। लेकिन इतनी रात में और छुट्टियों के सीजन में गाडी मिली नहीं इसी वजह से आपकी गाड़ी को उपयोग में लेना पड़ा।

आपको तकलीफ देने के लिये खेद है....गाडी में जितना पेट्रोल था उतना ही है। उसका लाक भी ठीक करा दिया है |

आपको गाड़ी की मदद के एवज में कल रात "पठान फिल्म" की 5 टिकेट्स आपके परिवार के लिए कार में रखें हैं।

मुझे बड़े दिल के साथ माफ़ करिये ये विनती है आपसे.!!

चिट्ठी में स्टोरी ओरिजिनल लगने से और गाड़ी जैसी की तैसी वापस सही सलामत मिलने से परिवार शांत हो गया और दूसरे दिन "पठान" देखने चला गया, और जाए भी क्यों न, आखिर 12 लाख की गाड़ी वापस जो मिल गयी थी |

फिल्म देखकर रात को वापस लौटा तो घर का दरवाजा टूटा हुआ था। अंदर जाकर देखा तो सब कीमती सामान गायब था।
करीब 25-30 लाख की चोरी हो गयी थी |

बाहर टेबल पर एक लिफाफा था, जिसमे लिखा था

पठान का बॉयकॉट करना था न, देखने से धर्म संपत्ति और संस्कृति की हानि हो सकती है

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