कठिनाइयां" जब आती हैं तो "कष्ट" देती हैं पर जब जाती हैं
तो "आत्मबल" का ऐसा उत्तम उपहार दे जाती है,
जो उन "कष्टों" "दुःखों" की तुलना में "हजारों" गुना "मूल्यवान" होता है।
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जब तक जीव ईश्वर को नहीं प्राप्त कर लेता,तब तक उसके जीवन में समग्रता और पूर्णता नहीं आ पाती। जीव की पूर्णता ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाने में है। यही उसके जीवन का परम लक्ष्य है, परम साध्य है।
भगवान् राम का यह दृष्टिकोण है कि वे न्याय उसे मानते हैं, जिससे भरत को राज्य मिले और अपना स्वार्थ-त्याग हो। और भरत भी न्याय उसे मानते हैं, जिससे श्रीराम को राज्य मिले।
तो, श्रीराम और श्रीभरत दोनों की परिभाषा वह है, जिससे स्वयं के हिस्से में भोग के बदले त्याग पड़े, जिसमें संघर्ष के स्थान पर एक-दूसरे को देने की वृत्ति हो। यही रामराज्य है। जहाँ उचित लेने-देने की वृत्ति है, वह धर्मराज्य है और जहाँ परस्पर देने की वृत्ति है, वह रामराज्य। श्रीराम और श्रीभरत अपने चरित्र के माध्यम से यही दर्शन प्रस्तुत करते हैं।
श्रीभरत जब चित्रकूट से लौटकर आए तो उन्होंने 'सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि' --
प्रभु की चरण पादुकाओं को निर्विघ्नता पूर्वक सिंहासन पर विराजित करा दिया। अयोध्या के लोग चकित रह गए। यह एक नई बात थी। आज तक सिंहासन पर राजा विराजित होता था, उसको तिलक कराया जाता था, पर यह किसी ने नहीं देखा था कि सिंहासन पर चरण पादुका को, पदत्राण को, जूते को विराजित कराया जाए। इस प्रकार श्रीभरत ने संसार के समक्ष एक नए आदर्श, एक नए दर्शन की स्थापना कर दी। वे कर्त्तव्य से मुँह नहीं मोड़ते, चौदह वर्ष तक राज्य चलाने के लिए तैयार हैं ; केवल वे भगवान् राम से आधार की याचना करते हैं -- 'बिनु आधार मन तोषु न साँती' --
क्योंकि बिना किसी आधार के उनके मन में न सन्तोष होगा ; न शान्ति। तब --
प्रभु करि कृपा पाँवरी दीन्हीं।
सादर भरत सीस धरि लीन्हीं।। --
प्रभु ने कृपा करके खड़ाऊँ दे दी और भरत ने उन्हें आदर पूर्वक सिर पर धारण कर लिया। यहीं पर भगवान् राम और रावण का अन्तर प्रकट होता है। क्या विभीषण रावण के चरणों को हदय से नहीं लगा सकते थे ? क्या लक्ष्मण भगवान् श्रीराम के चरणों को हृदय से नहीं लगाते हैं ? छोटा भाई जब बड़े भाई के चरणों को दबाता है, तो क्या वह उन चरणों को हृदय के पास नहीं ले जाता है ? तो विभीषण भी रावण के चरणों को हृदय से लगा सकते थे और तब वह श्रद्धा और प्रेम का प्रकट होना होता। पर क्रिया विभीषण की ओर से न होकर रावण की ओर से हो गई, रावण स्वयं अपना चरण, प्रहार करने के उद्देश्य से, विभीषण की छाती पर रख देता है, इसलिए वह अधर्म अन्याय हो गया।
प्रभु ने भरतजी से संकेत में कहा -- भरत, तुम्हें मैंने पादुकाएँ दीं और तुमने सिर पर धारण कर लिया, यह कैसी बात है ? पादुकाएँ तो पैर में पहनने के लिए होती हैं ? तुमने मुझसे आधार माँगा था, इसीलिए मैंने पादुकाएँ दी। यदि उन्हें पैर में पहनो, तब तो वे आधार हैं, पर यदि सिर पर रखो तो भार है। तो मैंने तो आधार के बदले तुम्हें भार ही दे दिया ! इस पर भरत कहते हैं -- नहीं प्रभो, आपने तो आधार ही दिया है। आपने यह जो दिया है, वह मेरे लिए चौदह वर्ष तक राज्य चलाने के लिए सबसे बड़ा आधार है। भरत का सूक्ष्म संकेत यह है कि महाराज, पादुका आपके पद की है, किसी दूसरे का पद उसके लायक नहीं है। पादुका में तो मानो जीवन होता है। भले ही दो व्यक्तियों के पैर में एक ही नम्बर के जूते हों, पर हर व्यक्ति के पैर में कुछ न कुछ भिन्नता अवश्य होती है, इसलिए यदि कोई व्यक्ति दूसरे के जूते में पैर डाले, तो झट जूता बता देता है कि हम आपके पैर के नहीं हैं। 'दोहावली' में गोस्वामीजी लिखते हैं --
बिन आखिन की पनहीं पहिचानत लखि पाय।
बिना आँख वाली जूती पैर को देखकर पहचान लेती है। यह पैर और जूते का सम्बन्ध है। अब उनकी बात और है, जो जूते की बात न सुनें और पहनकर चले जाएँ ! ऐसे लोग दूसरों के जूते ले जाने के आदी होते हैं तो भरत का संकेत यह है कि प्रभु, आपने पादुका देकर यह बता दिया कि अयोध्या का राज्य सिंहासन आपका है, और जैसे दूसरे की पादुका में अपना पैर नहीं डालना चाहिए, इसी प्रकार मेरे लिए यह कदापि उचित न होगा कि मैं आपकी पादुका में पैर डालूँ, अन्यथा मैं भी चोर की श्रेणी में ही खड़ा किया जाऊँगा। इसीलिए मैंने आपकी पादुकाओं को सिर पर रखा है। यह भरत का दर्शन है। वे यही मानते हैं कि पद एकमात्र ईश्वर का है और पादुकाएँ उन्हें प्रभु के पद का निरन्तर स्मरण दिलाती रहती हैं। इस प्रकार श्रीभरत अपने चरित्र और दर्शन के माध्यम से रामराज्य की भूमिका निर्मित करते हैं।
दूसरी ओर रावण है, जो युद्ध में विजय तो चाहता है, पर उसे पराजय ही हाथ लगती है, क्योंकि उसके व्यवहार में अन्याय और अधर्म है। जब एक पुत्र या अनुज अपने पिता या अग्रज के चरणों का स्पर्श करता है, तब पुत्र या अनुज के अन्तःकरण में अपने पिता या अग्रज के लिए श्रद्धा होती है। उसी प्रकार, जब पिता या अग्रज अपने पुत्र या अनुज को चरण छूने देता है, हृदय से लगाने देता है, तब उसके अन्तःकरण में वात्सल्य उमड़ता है। अत: चरण और हृदय का मिलन मानो श्रद्धा और वात्सल्य का मिलन है। पर रावण और विभीषण के लिए चरण और हृदय का ऐसा मिलन अपमान और पीड़ा की ही सृष्टि करता है और अन्तत: विभीषण को रावण से पृथक् कर देता है। वास्तव में रावण लड़ाई तभी हार जाता है, जब वह विभीषण का इस प्रकार तिरस्कार कर देता है। इस प्रकार ये दो दर्शन हमारे सामने आते हैं -- एक है भगवान् राम का दर्शन और दूसरा है रावण का दर्शन। अब यह हम पर है कि अपने व्यवहार में हम किस दर्शन का चुनाव करते हैं। यदि हम अपने जीवन में धन्यता लाना चाहते हैं, तो हमें भी रावण को छोड़ राम की ओर उन्मुख होना होगा, जैसाकि विभीषणजी करते हैं। वे जीव का प्रतिनिधित्व करते हैं और विभीषण-शरणागति वस्तुत: जीव का ईश्वर के प्रति समर्पण ही है । जब तक विभीषण श्रीराम से नहीं मिले यानी जब तक जीव ईश्वर को नहीं प्राप्त कर लेता, तब तक उसके जीवन में समग्रता और पूर्णता नहीं आ पाती। जीव की पूर्णता ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाने में है। यही उसके जीवन का परम लक्ष्य है, परम साध्य है।
जय श्री राम।
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