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सोमवार, 29 अप्रैल 2024

वैशाखमास महात्म्य (तृतीय अध्याय)

वैशाखमास महात्म्य (तृतीय अध्याय) 
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इस अध्याय में:- वैशाख मास में छत्रदान से हेमकान्त का उद्धार का वर्णन किया गया है।

नारदजी कहते हैं👉 एक समय विदेहराज जनक के घर दोपहर के समय श्रुतदेव नाम से विख्यात एक श्रेष्ठ मुनि पधारे, जो वेदों के ज्ञाता थे उन्हें देख कर राजा बड़े उल्लास के साथ उठ कर खड़े हो गये और मधुपर्क आदि सामग्रियों से उनकी विधि पूर्वक पूजा करके राजा ने उनके चरणोदक को अपने मस्तक पर धारण किया। इस प्रकार स्वागत सत्कार के पश्चात् जब वे आसन पर विराजमान हुए, तब विदेहराज के प्रश्न के अनुसार वैशाख मास के माहात्म्य का वर्णन करते हुए वे इस प्रकार बोले।
         
श्रुतदेव ने कहा 👉 राजन्! जो लोग वैशाख मास में धूप से सन्तप्त होने वाले महात्मा पुरुषों के ऊपर छाता लगाते हैं, उन्हें अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। पहले वंगदेश में हेमकान्त नाम से विख्यात एक राजा हो गये हैं। वे कुशकेतु के पुत्र परम बुद्धिमान् और शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ थे। एक दिन वे शिकार खेलने में आसक्त होकर एक गहन वन में जा घुसे वहाँ अनेक प्रकार के मृग और वराह आदि जन्तुओं को मारकर जब वे बहुत थक गये, तब दोपहर के समय मुनियों के आश्रम पर आये। उस समय आश्रम पर उत्तम व्रत का पालन करने वाले शर्तरचि नाम वाले ऋषि समाधि लगाये बैठे थे, जिन्हें बाहर के कार्यो का कुछ भी भान नहीं होता था। उन्हें निश्चल बैठे देख राजा को बड़ा क्रोध हुआ और उन्होंने उन महात्माओं को मार डालने का निश्चय किया। तब उन ऋषियों के दस हजार शिष्यों ने राजा को मना करते हुए कहा- ओ खोटी बुद्धि वाले नरेश! हमारे गुरु लोग इस समय समाधि में स्थित हैं, बाहर कहाँ क्या हो रहा है-इसको ये नहीं जानते। इसलिये इन पर तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये।'
         
तब राजा ने क्रोध से विह्वल होकर शिष्यों से कहा-द्विजकुमारो! मैं मार्ग से थका-माँदा यहाँ आया हूँ। अत: तुम्हीं लोग मेरा आतिथ्य करो। राजा के ऐसा कहने पर वे शिष्य बोले-'हम लोग भिक्षा माँग कर खाने वाले हैं। गुरुजनों ने हमें किसी के आतिथ्य के लिये आज्ञा नहीं दी है। हम सर्वथा गुरु के अधीन हैं। अत: तुम्हारा आतिथ्य कैसे कर सकते हैं।' शिष्यों का यह कोरा उत्तर पाकर राजा ने उन्हें मारने के लिये धनुष उठाया और इस प्रकार कहा-'मैंने हिंसक जीवों और लुटेरों के भय आदि से जिनकी अनेकों बार रक्षा की है, जो मेरे दिये हुए दानों पर ही पलते हैं, वे आज मुझे ही सिखलाने चले हैं। ये मुझे नहीं जानते, ये सभी कृतघ्न और बड़े अभिमानी हैं इन आततायियों को मार डालने पर भी मुझे कोई दोष नहीं लगेगा।' ऐसा कह कर वे कुपित हो धनुष से बाण छोड़ने लगे बेचारे शिष्य आश्रम छोड़कर भय से भाग चले। भागने पर भी हेमकान्त ने उनका पीछा किया और तीन सौ शिष्यों को मार गिराया। शिष्यों के भाग जाने पर आश्रम में जो कुछ सामग्री थी उसे राजा के पापात्मा सैनिकों ने लूट लिया। राजा के अनुमोदन से ही उन्होंने वहाँ इच्छानुसार भोजन किया। तत्पश्चात् दिन बीतते-बीतते राजा सेना के साथ अपनी पुरी में आ गये राजा कुशकेतु ने जब अपने पुत्र का यह अन्यायपूर्ण कार्य सुना, तब उसे राज्य करने के अयोग्य जानकर उसकी निन्दा करते हुए उसे देश निकाला दे दिया। पिता के त्याग देने पर हेमकान्त घने वन में चला गया। वहाँ उसने बहुत वर्षो तक निवास किया। ब्रह्महत्या उसका सदा पीछा करती रहती थी, इसलिये वह कहीं भी स्थिरता पूर्वक रह नहीं पाता था । इस प्रकार उस दुष्टात्मा के अट्ठाईस वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन वैशाख मास में जब दोपहर का समय हो रहा था, महामुनि त्रित तीर्थ यात्रा के प्रसंग से उस वन में आये। वे धूप से अत्यन्त संतप्त और तृषा से बहुत पीड़ित थे, इसलिये किसी वृक्षहीन प्रदेश में मूर्छित होकर गिर पड़े। दैवयोग से हेमकान्त उधर आ निकला; उसने मुनि को प्यास से पीड़ित, मूर्छित और थका-माँदा देख उन पर बड़ी दया की। उसने पलाश के पत्तों से छत्र बनाकर उनके ऊपर आती हुई धूप का निवारण किया। वह स्वयं मुनिके मस्तक पर छाता लगाये खड़ा हुआ और तूँबी में रखा हुआ जल उनके मुँह में डाला। इस उपचार से मुनि को चेत हो आया और उन्होंने क्षत्रिय को दिये हुए पत्ते के छातेको लेकर अपनी व्याकुलता दूर की। उनकी इन्द्रियों में कुछ शक्ति आयी और वे धीरे-धीरे किसी गाँव में पहुँच गये। उस पुण्य के प्रभाव से हेमकान्त की तीन सौ ब्रह्महत्याएँ नष्ट हो गयीं। इसी समय यमराज के दूत हेमकान्त को लेने के लिये वन में आये। उन्होंने उसके प्राण लेने के लिये संग्रहणी रोग पैदा किया। उस समय प्राण छूटने की पीड़ा से छटपटाते हुए हेमकान्त ने तीन अत्यन्त भयंकर यमदूतों को देखा, जिनके बाल ऊपर की ओर उठे हुए थे। उस समय अपने कर्मों को याद करके वह चुप हो गया। छत्र-दान के प्रभाव से उसको भगवान् विष्णु का स्मरण हुआ। उसके स्मरण करने पर भगवान् महाविष्णु ने विष्वक्सेन से कहा-'तुम शीघ्र जाओ, यमदूतों को रोको, हेमकान्त की रक्षा करो। अब वह निष्पाप एवं मेरा भक्त हो गया है। उसे नगर में ले जाकर उसके पिता को सौंप दो। साथ ही मेरे कहने से कुशकेतु को यह समझाओ कि तुम्हारे पुत्र ने अपराधी होने पर भी वैशाख मास में छत्र-दान करके एक मुनि की रक्षा की है। अत: वह पापरहित हो गया है। इस पुण्य के प्रभाव से वह मन और इन्द्रियों को अपने वश में रखने वाला दीर्घायु, शूरता और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा तुम्हारे समान गुणवान् हो गया है। इसलिये अपने इस महाबली पुत्र को तुम राज्य का भार सँभालने के लिये नियुक्त करो। भगवान् विष्णु ने तुम्हें ऐसी ही आज्ञा दी है। इस प्रकार राजा को आदेश देकर हेमकान्त को उनके अधीन करके यहाँ लौट आओ।'
         
भगवान् विष्णु का यह आदेश पाकर महाबली विष्वक्सेन ने हेमकान्त के पास आकर यमदूतों को रोका और अपने कल्याणमय हाथों से उसके सब अंगों में स्पर्श किया। भगवद्भक्त के स्पर्श से हेमकान्त की सारी व्याधि क्षण भर में दूर हो गयी। तदनन्तर विष्पकसेन उसके साथ राजा की पुरी में गये। उन्हें देखकर महाराज कुशकेतु ने आश्चर्ययुक्त हो भक्तिपूर्वक मस्तक झुका कर पृथ्वी पर साष्टांगकर घ रमें प्रवेश कराया वहाँ नाना प्रकार के स्तोत्रों से इनकी स्तुति तथा वैभवों से उनका पूजन किया। तत्पश्चात् महाबली विष्वक्सेन ने अत्यन्त प्रसन्न होकर राजा को हेमकान्त के विषय में भगवान् विष्णु ने जो सन्देश दिया था, वह सब कह सुनाया। उसे सुनकर कुशकेतु ने पुत्र को राज्य पर बिठा दिया और स्वयं विष्वक्सेन की आज्ञा लेकर उन्होंने पत्नी सहित वन को प्रस्थान किया।
         
तदनन्तर महामना विष्वक्सेन हेमकान्त से पूछकर और उसकी प्रशंसा करके श्वेतद्वीप में भगवान् विष्णु के समीप चले गये तब से राजा हेमकान्त वैशाख मास में बताये हुए भगवान् की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले शुभ धर्मो का प्रतिवर्ष पालन करने लगे। वे ब्राह्मणभक्त, धर्मनिष्ठ, शान्त, जितेन्द्रिय, सब प्राणियों के प्रति दयालु और सम्पूर्ण यज्ञों की दीक्षा में स्थित रहकर सब प्रकार की सम्पदाओं से सम्पन्न हो गये। उन्होंने पुत्र-पौत्र आदि के साथ समस्त भोगों का उपभोग करके भगवान् विष्णु का लोक प्राप्त किया। वैशाख सुख से साध्य, अतिशय पुण्य प्रदान करने वाला है। पापरूपी इन्धन को अग्नि की भाँति जलाने वाला, परम सुलभ तथा धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष–चारों पुरुषार्थों को देने वाला है।
  
"जय जय श्री हरि"
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वैशाखमास-महात्म्य (द्वितीय अध्याय)

वैशाखमास-महात्म्य (द्वितीय अध्याय)
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इस अध्याय में:👉 वैशाख मास में विविध वस्तुओं के दान का महत्त्व तथा वैशाख स्नान के नियम का वर्णन किया गया है।

नारदजी कहते हैं👉 वैशाख मास में धूप से तपेऔर थके-माँदे ब्राह्मणों को श्रमनाशक सुखद पलंग देकर मनुष्य कभी जन्म-मृत्यु आदि के क्लेशों से कष्ट नहीं पाता। जो वैशाख मास में पहनने के लिये कपड़े और विछावन देता है, वह उसी जन्म में सब भोगों से सम्पन्न हो जाता है और समस्त पापों से रहित हो ब्रह्मनिर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होता है। जो तिनके की बनी  या अन्य खजूर आदि के पत्तों की बनी हुई चटाई दान करता है, उसकी उस चटाई परसाक्षात् भगवान् विष्णु शयन करते हैं। चटाई देने वाला बैठने और बिछाने आदि में सब ओर से सुखी रहता है। जो सोने के लिये चटाई और कम्बल देता है, वह उतने ही मात्र से मुक्त हो जाता है। निद्रा से दुःख का नाश होता है, निद्रा से थकावट दूर होती है और वह निद्रा चटाई पर सोने वाले को सुखपूर्वक आ जाती है। धूप से कष्ट पाये हरा श्रेष्ठ ब्राह्मण को जो सूक्ष्मतर वस्त्र दान करता है, वह पूर्ण आयु और परलोक में उत्तम गति को पाता है जो पुरुष ब्राह्मण को फूल और रोली देता है, वह लौकिक भोगों का भोग करके मोक्ष को प्राप्त होता है। जो खस, कुश और जल से वासित चन्दन देता है, वह सब भोगों में देवताओं की सहायता पाता है तथा उसके पाप और दु:ख की हानि होकर परमानन्द की प्राप्ति होती है। वैशाख के धर्म को जानने वाला जो पुरुष गोरोचन और कस्तूरी का दान करता है, वह तीनों तापों से मुक्त होकर परम शान्ति को प्राप्त होता है। जो विश्रामशाला बनवाकर प्याऊ सहित ब्राह्मण को दान करता है, वह लोकों का अधिपति होता है। जो सड़क के किनारे बगीचा, पोखरा, कुआँ और मण्डप बनवाता है, वह धर्मात्मा है, उसे पुत्रों की क्या आवश्यकता है। उत्तम शास्त्र का श्रवण, तीर्थयात्रा, सत्संग, जलदान, अन्नदान, पीपल का वृक्ष लगाना तथा पुत्र- इन सात को विज्ञ पुरुष सन्तान मानते हैं। जो वैशाख मास में तापनाशक तक्र दान करता है, वह इस पृथ्वी पर विद्वान् और धनवान् होता है। धूप के समय मट्टठे के समान कोई दान नहीं, इसलिये रास्ते के थके-माँदे ब्राह्मण को मट्टा देना चाहिये। जो वैशाख मास में धूप की शान्ति के लिये दही और खाँड़ दान करता है तथा विष्णुप्रिय वैशाख मास में जो स्वच्छ चावल देता है, वह पूर्ण आयु और सम्पूर्ण यज्ञों का फल पाता है। जो पुरुष ब्राह्मण के लिये गोघृत अर्पण करता है, वह अश्वमेध यज्ञ का फल पाकर विष्णुलोक में आनन्द का अनुभव करता है। जो दिन के ताप की शान्ति के लिये सायंकाल में ब्राह्मण को ऊख दान करता है, उसको अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। जो वैशाख मास में शाम को ब्राह्मण के लिये फल और शर्बत देता है, उससे उसके पितरों को निश्चय ही अमृतपान का अवसर मिलता है। जो वैशाख के महीने में पके हुए आम के फल के साथ शर्बत देता है, उसके सारे पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। जो वैशाख की अमावास्या को पितरों के उद्देश्य से कस्तूरी, कपूर, बेला और खस की सुगन्ध से वासित शर्बत से भरा हुआ घड़ा दान करता है, वह छियानबे घड़ा दान करने का पुण्य पाता है।
         
वैशाख में तेल लगाना, दिन में सोना, कांस्य के पात्र में भोजन करना, खाट पर सोना, घर में नहाना, निषिद्ध पदार्थ खाना, दुबारा भोजन करना तथा रात में खाना-ये आठ बातें त्याग देनी चाहिये।
         
जो वैशाख में व्रत का पालन करने वाला पुरुष पद्म-पत्ते में भोजन करता है, वह सब पापो से मुक्त हो विष्णुलोक में जाता है। जो विष्णुभक्त पुरुष वैशाख मास में नदी-स्नान करता है, वह तीन जन्मों के पाप से निश्चय ही मुक्त हो जाता है। जो प्रात:काल सूर्योदय के समय किसी समुद्रगामिनी नदी में स्नान करता है, वह सात जन्मों के पाप से तत्काल छूट जाता है। जो मनुष्य सात गंगाओं में से किसी में ऊष:काल में स्नान करता है, वह करोड़ों जन्मों में उपार्जित किये हुए पाप से निस्सन्देह मुक्त हो जाता है । जाहनवी (गंगा), वृद्ध गंगा (गोदावरी), कालिन्दी (यमुना), सरस्वती, कावेरी, नर्मदा और वेणी- ये सात गंगाएँ कही गयी हैं। वैशाख मास आने पर जो प्रात:काल बावलियो में स्नान करता है, उसके महापातकों का नाश हो जाता है। कन्द, मूल, फल, शाक, नमक, गुड़, बेर, पत्र, जल और तक्र - जो भी वैशाख में दिया जाय, वह सब अक्षय होता है।
        
ब्रह्मा आदि देवता भी बिना दिये हुए कोई वस्तु नहीं पाते। जो दान से हीन है, वह निर्धन होता है। अतः सुख की इच्छा रखने वाले पुरुष को वैशाख मास में अवश्य दान करना चाहिये। सूर्य देव के मेष राशि में स्थित होने पर भगवान् विष्णु के उद्देश्य से अवश्य प्रात:काल स्नान करके भगवान् विष्णु की पूजा करनी चाहिये। कोई महीरथ नामक एक राजा था, जो कामनाओं में आसक्त और अजितेन्द्रिय था । वह केवल वैशाख-स्नान के सुयोग से स्वतः वैकुण्ठधाम को चला गया। वैशाख मास के देवता भगवान् मधुसूदन हैं। अतएव वह सफल मास है। वैशाख मास में भगवान् की प्रार्थना का मन्त्र इस प्रकार है।

मधुसूदन    देवेश    वैशाखे    मेषगे    रवौ।
प्रात:स्नानं करिष्यामि निर्विघ्नं कुरु माधव॥

अर्थात👉 'हे मधुसूदन! हे देवेश्वर माधव! मैं मेष राशि में सूर्य के स्थित होने पर वैशाख मास में प्रात: स्नान करूँगा, आप इसे निर्विघ्न पूर्ण कीजिये।
         
तत्पश्चात् निम्नांकित मन्त्र से अर्ध्य प्रदान करे.

वैशाखे मेषगे भानौ प्रात:स्नानपरायणः।
अर्ध्य तेऽहं प्रदास्यामि गृहाण मधुसूदन॥

अर्थात👉 'सूर्य के मेष राशि पर स्थित रहते हुए वैशाख-मास में प्रात:स्नान के नियम में संलग्न होकर मैं आपको अर्ध्य देता हूँ। मधुसूदन! इसे ग्रहण कीजिये।'
         
इस प्रकार अर्ध्य समर्पण करके स्नान करे। फिर वस्त्रों को पहनकर सन्ध्या-तर्पण आदि सब कर्मो को पूरा करके वैशाख मास में विकसित होने वाले पुष्पों से भगवान् विष्णु की पूजा करे। उसके बाद वैशाख मास के माहात्म्य को सूचित करने वाली भगवान् विष्णु की कथा सुने ऐसा करने से कोटि जन्मों के पापों से मुक्त होकर मनुष्य मोक्ष को प्राप्त होता है । यह शरीर अपने अधीन है, जल भी अपने अधीन ही है, साथ ही अपनी जिह्वा भी अपने वश में है। अत: इस स्वाधीन शरीर से स्वाधीन जल में स्नान करके स्वाधीन जिह्वा से 'हरि' इन दो अक्षरोंका उच्चारण करे। जो वैशाख मास में तुलसी दल से भगवान् विष्णु की पूजा करता है, वह विष्णु की सायुज्य मुक्ति को पता है। अत: अनेक प्रकार के भक्ति मार्ग से तथा भाँति भाँति के व्रतों द्वारा भगवान् विष्णु की सेवा तथा उनके सगुण या निर्गुण स्वरूप का अनन्य चित्त से ध्यान करना चाहिये।

"जय जय श्री हरि"
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इस वजह से भगवान गणेश बने थे स्त्री, जानिए पौराणिक कथा

इस वजह से भगवान गणेश बने थे स्त्री, जानिए पौराणिक कथा
  

हम सभी इस बात से वाकिफ हैं कि कभी भी कोई भी शुभ कार्य करने से पहले भगवान गणेश की पूजा करते हैं. ऐसे में भक्त इन्हें लंबोदर के स्वरूप में जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि भगवान गणेश के स्त्री अवतार की भी पूजा होती है जिसे विनायकी कहा जाता है. आज हम आपको बताने जा रहे हैं कि आखिर क्यों लिया था गणेश जी ने विनायकी अवतार.

मां पार्वती को बचाने गणेश ने लिया था स्त्री रूप – कहा जाता है धर्मोत्तर पुराण में विनायकी के इस रूप का उल्लेख किया गया है. इसी के साथ वन दुर्गा उपनिषद में भी गणेश जी के स्त्री रूप का उल्लेख है, जिसे गणेश्वरी का नाम दिया गया है. केवल इतना ही नहीं, मत्स्य पुराण में भी गणेश जी के इसी स्त्री रूप का वर्णन प्राप्त होता है. आइए बताते हैं उस कथा के बारे में. पुराणों की कथा के अनुसार एक बार अंधक नामक दैत्य माता पार्वती को अपनी अर्धांगिनी बनाने के लिए इच्छुक हुआ. अपनी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए उसने जबर्दस्ती माता पार्वती को अपनी पत्नी बनाने की कोशिश की, लेकिन मां पार्वती ने मदद के लिए अपने पति शिव जी को बुलाया. अपनी पत्नी को दैत्य से बचाने के लिए भगवान शिव ने अपना त्रिशूल उठाया और राक्षस के आरपार कर दिया. लेकिन वह राक्षस म’रा नहीं, बल्कि जैसे ही उसे त्रिशूल लगा तो उसके र’क्त की एक-एक बूंद एक राक्षसी ‘अंधका’ में बदलती चली गई.

राक्षसी को हमेशा के लिए मारने के लिए उसके खू’न की बूंद को जमीन पर गिरने से रोकना था, जो संभव नहीं था. ऐसे में माता पार्वती को एक बात समझ में आई. वे जानती थीं कि हर एक दैवीय शक्ति के दो तत्व होते हैं. पहला पुरुष तत्व जो उसे मानसिक रूप से सक्षम बनाता है और दूसरा स्त्री तत्व, जो उसे शक्ति प्रदान करता है. इसलिए पार्वती जी ने उन सभी देवियों को आमंत्रित किया जो शक्ति का ही रूप हैं. ऐसा करते हुए वहां हर दैवीय ताकत के स्त्री रूप आ गए, जिन्होंने राक्षस के खून को गिरने से पहले ही अपने भीतर समा लिया.

फलस्वरूप अंधका का उत्पन्न होना कम हो गया. लेकिन, इस सबसे से भी अंधक के रक्त को खत्म करना संभव नहीं हो रहा था. अंत में भगवान गणेश जी अपने स्त्री रूप ‘विनायकी’ में प्रकट हुए और उन्होंने अंधक का सारा रक्त’ पी लिया. इस प्रकार से देवताओं के लिए अंधका का सर्वना’श करना संभव हो सका. गणेश जी के विनायकी रूप को सबसे पहले 16वीं सदी में पहचाना गया.

!! जय श्री राम !!
 मात पिता के चरण में,जग के चारों धाम।
श्रीगणेश हैं कह गये, भजो इन्हीं का नाम।।
!! जय श्री राम  !!

शकुन शास्त्र के 12 सूत्र

शकुन शास्त्र के 12 सूत्र 
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घर में हर छोटी वस्तु का अपना महत्व होता है। कभी-कभी बेकार समझी जाने वाली वस्तु भी घर में अपनी उपयोगिता सिद्ध कर देती है। गृहस्थी में रोजाना काम में आने वाली चीजों से भी शकुन-अपशकुन जुड़े होते हैं, जो जीवन में कई महत्वपूर्ण मोड़ लाते हैं। शकुन शुभ फल देते हैं, वहीं अपशकुन इंसान को आने वाले संकटों से सावधान करते हैं। हम आपको घर से जुड़ी वस्तुओं के शकुनों के बारे में बता रहे हैं।

1-दूध का शकुन
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सुबह-सुबह दूध को देखना शुभ कहा जाता है। दूध का उबलकर गिरना शुभ माना जाता है। इससे घर में सुख-शांति, संपत्ति, मान व वैभव की उन्नति होती है। दूध का बिखर जाना अपशकुन मानते हैं, जो किसी दुर्घटना का संकेत है। दूध को जान-बूझकर छलकाना अपशकुन माना जाता है , जो घर में कलह का कारण है।
2-दर्पण का शकुन
हर घर में दर्पण का बहुत महत्व है। दर्पण से जुड़े कई शकुन-अपशकुन मनुष्य जीवन को कहीं न कहीं प्रभावित अवश्य करते हैं। दर्पण का हाथ से छूटकर टूट जाना अशुभ माना जाता है। एक वर्ष तक के बच्चे को दर्पण दिखाना अशुभ होता है। यदि कोई नव विवाहिता अपनी शादी का जोड़ा पहन कर श्रृंगार सहित खुद को टूटे दर्पण में देखती है तो भी अपशकुन होता है। तात्पर्य यह है कि दर्पण का टूटना हर दृष्टिकोण से अशुभ ही होता है। इसके लिए यदि दर्पण टूट जाए तो इसके टूटे हुए टुकड़ों को इकटठा करके बहते जल में डाल देने से संकट टल जाते हैं।

3-पैसे का शकुन
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आज के इस युग में पैसे को भगवान माना जाता है। जेब को खाली रखना अपशकुन मानते हैं। कहा जाता है कि पैसे को अपने कपड़ों की हर जेब में रखना चाहिए। कभी भी पर्स खाली नहीं रखना चाहिए।

4-चाकू का शकुन
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चाकू एक ऐसी वस्तु है, जिसके बिना किसी भी घर में काम नहीं चल सकता। इसकी जरूरत हर छोटे-छोटे कार्य में पड़ती है। इससे जुड़े भी अनेक शकुन-अपशकुन होते हैं। डाइनिंग टेबल पर छुरी-कांटे का क्रास करके रखना अशुभ मानते हैं, इसके कारण घर के सदस्यों में झगड़ा हो जाता है। मेज से चाकू का नीचे गिरना भी अशुभ होता है। नवजात शिशु के तकिए के नीचे चाकू रखना शुभ होता है तथा छोटे बच्चे के गले में छोटा सा चाकू डालना भी अच्छा होता है। इससे बच्चों की बुरी आत्माओं से रक्षा होती है व नींद में बच्चे रोते भी नहीं हैं। यदि कोई व्यक्ति आपको चाकू भेंट करे तो इसके बुरे प्रभाव से बचने के लिए एक सिक्का अवश्य दें।

5-झाडू का शकुन
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घर के एक कोने में पड़े हुए झाडू को घर की लक्ष्मी मानते हैं, क्योंकि यह दरिद्रता को घर से बाहर निकालता है। इससे भी कई शकुन व अपशकुन जुड़े हैं। दीपावली के त्यौहार पर नया झाडू घर में लाना लक्ष्मी जी के आगमन का शुभ शकुन है। नए घर में गृह प्रवेश से पूर्व नए झाडू का घर में लाना शुभ होता है। झाडू के ऊपर पांव रखना गलत समझा जाता है। यह माना जाता है कि व्यक्ति घर आई लक्ष्मी को ठुकरा रहा है। कोई छोटा बच्चा अचानक घर में झाडू लगाने लगे तो समझ लीजिए कि घर में कोई अवांछित मेहमान के आने का संकेत है। सूर्यास्त के बाद घर में झाडू लगाना अपशकुन होता है, क्योंकि यह व्यक्ति के दुर्भाग्य को निमंत्रण देता है।

6-बाल्टी का शकुन
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सुबह के समय यदि पानी या दूध से भरी बाल्टी दिखाई दे तो शुभ होता है। इससे मन में सोचे कार्य पूरे होते हैं। खाली बाल्टी देखना अपशकुन समझा जाता है, जो बने-बनाए कार्यों को बिगाड़ देता है। रात को खाली बाल्टी को प्रायः उल्टा करके रखना चाहिए एवं घर में एक बाल्टी को अवश्य भरकर रखें, ताकि सुबह उठकर घर के सदस्य उसे देख सकें।

7-लोहे का शकुन
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घर में लोहे का होना शुभ कहा जाता है। लोहे में एक शक्ति होती है, जो बुरी आत्माओं को घर से भगा देती है। पुराने व जंग लगे लोहे को घर में रखना अशुभ है। घर में लोहे का सामान साफ करके रखें।

8-हेयरपिन का शकुन
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हेयरपिन एक बहुत ही मामूली सी चीज है, परंतु इसका प्रभाव बड़ा आश्चर्यजनक होता है। यदि किसी व्यक्ति को राह में कोई हेयरपिन पड़ा मिल जाये तो समझो कि उसे कोई नया मित्र मिलने वाला है। वहीं यदि हेयर पिन खो जाये तो व्यक्ति के नए दुश्मन पैदा होने वाले हैं। हेयरपिन को घर में कहीं लटका दिया जाए तो यह अच्छे भाग्य का प्रतीक है।

9-काले वस्त्र का शकुन
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काले वस्त्र बहुत अशुभ माने जाते हैं। किसी व्यक्ति के घर से बाहर जाते समय यदि कोई आदमी काले वस्त्र पहने हुए दिखाई दे तो अपशकुन माना जाता है, जिसके बुरे प्रभाव से जाने वाले व्यक्ति की दुर्घटना हो सकती है। अतः ऐसे व्यक्ति को अपना जाना कुछ मिनट के लिए स्थगित कर देना चाहिए।

10-रुई का शकुन
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रूई का कोई टुकड़ा किसी व्यक्ति के कपड़ों पर चिपका मिले तो यह शुभ शकुन है। यह किसी शुभ समाचार आने का संकेत है या किसी प्रिय व्यक्ति के आने का संकेत है। कहा जाता है कि रूई का यह टुकड़ा व्यक्ति को किसी एक अक्षर के रूप में नजर आता है व यह अक्षर उस व्यक्ति के नाम का प्रथम अक्षर होता है, जहां से उस व्यक्ति के लिए शुभ संदेश या पत्र आ रहा है।

11-चाबियों का शकुन
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चाबियों का गुच्छा गृहिणी की संपूर्णता का प्रतीक है। यदि गृहिणी के पास चाबियों का कोई ऐसा गुच्छा है, जिस पर बार-बार साफ करने के बाद भी जंग चढ़ जाए तो यह एक अच्छा शकुन है। इसके फलस्वरूप घर का कोई रिश्तेदार अपनी जायदाद में से आपको कुछ देना चाहता है या आपके नाम से कुछ धन छोड़कर जाना चाहता है। चाबियों को बच्चे के तकिए के नीचे रखना भी अच्छा होता है, इससे बुरे स्वप्नों एवंबुंरी आत्माओं से बच्चे का बचाव होता है।

12-बटन का शकुन
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कभी-कभी कमीज़, कोट या अन्य कोई कपड़े का बटन गलत लग जाए तो अपशकुन होता है, जिसके अनुसार सीधे काम भी उल्टे पड़ जाएंगे। इसके दुष्प्रभाव से बचने के लिए कपड़े को उतारकर सही बटन लगाने के बाद पहनें। यदि रास्ते चलते आपको कोई बटन पड़ा मिल जाए तो यह आपको किसी नए मित्र से मिलवाएगा।
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वैशाखमास–माहात्म्य अध्याय–01

.                      वैशाखमास–माहात्म्य

                             अध्याय–01

         इस अध्याय में:- वैशाख मास की श्रेष्ठता; उसमें जल, व्यजन, छत्र, पादुका और अन्न आदि दानों की महिमा

               नारायणं  नमस्कृत्य  नरं चैव  नरोत्तमम्।
               देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

          'भगवान् नारायण, नरश्रेष्ठ नर, देवी सरस्वती तथा महर्षि वेदव्यास को नमस्कार करके भगवान् की विजय-कथा से परिपूर्ण इतिहास-पुराण आदि का पाठ करना चाहिये।
          सूतजी कहते हैं–“राजा अम्बरीष ने परमेष्ठी ब्रह्मा के पुत्र देवर्षि नारद से पुण्यमय वैशाख मास का माहात्म्य इस प्रकार पूछा–‘ब्रह्मन्! मैंने आपसे सभी महीनों का माहात्म्य सुना। उस समय आपने यह कहा था कि सब महीनों में वैशाख मास श्रेष्ठ है। इसलिये यह बताने की कृपा करें कि वैशाख-मास क्यों भगवान् विष्णु को प्रिय है और उस समय कौन-कौन-से धर्म भगवान् विष्णु के लिये प्रीतिकारक हैं ?’ ‘ 
          नारदजी ने कहा–‘वैशाख मास को ब्रह्माजी ने सब मासों में उत्तम सिद्ध किया है वह माता की भाँति सब जीवों को सदा अभीष्ट वस्तु प्रदान करने वाला है। धर्म, यज्ञ, क्रिया और तपस्या का सार है। सम्पूर्ण देवताओं द्वारा पूजित है। 
          जैसे विद्याओं में वेद-विद्या, मन्त्रों में प्रणव, वृक्षों में कल्पवृक्ष, धेनुओं में कामधेनु, देवताओं में विष्णु, वर्णों में ब्राह्मण, प्रिय वस्तुओं में प्राण, नदियों में गंगाजी, तेजों में सूर्य, अस्त्र शम्तरों में चक्र, धातुओं में सुवर्ण, वैष्णवों में शिव तथा रत्नों में कौस्तुभमणि है, उसी प्रकार धमक साधन भूत महीनों में वैशाख मास सबसे उत्तम है। संसार में इसके समान भगवान् विष्णु को प्रसन्न करने वाला दूसरा कोई मास नहीं है। 
          जो वैशाख मास में सूर्योदय से पहले स्नान करता है, उससे भगवान् विष्णु निरन्तर प्रीति करते हैं । पाप तभी तक गर्जते हैं, जब तक जीव वैशाख मास में प्रात:काल जल में स्नान नहीं करता। 
          राजन्! वैशाख के महीने में सब तीर्थ आदि देवता (तीर्थ के अतिरिक्त) बाहर के जल में भी सदैव स्थित रहते हैं। भगवान् विष्णु की आज्ञा से मनुष्यों का कल्याण करने के लिये वे सूर्योदय से लेकर छ: दण्ड के भीतर तक वहाँ मौजूद रहते हैं।
          वैशाख के समान कोई मास नहीं है, सत्ययुग के समान कोई युग नहीं है, वेद के समान कोई शास्त्र नहीं है और गंगाजी के समान कोई तीर्थ नहीं है। जल के समान दान नहीं है, खेती के समान धन नहीं है और जीवन से बढ़कर कोई लाभ नहीं है। उपवास के समान कोई तप नहीं, दान से बढ़कर कोई सुख नहीं, दया के समान धर्म नहीं, धर्म के समान मित्र नहीं, सत्य के समान यश नहीं, आरोग्य के समान उन्नति नहीं, भगवान् विष्णु से बढ़कर कोई रक्षक नहीं और वैशाख मास के समान संसार में कोई पवित्र मास नहीं है। ऐसा विद्वान् पुरुषों का मत है। ‘
         वैशाख श्रेष्ठ मास है। और शेषशायी भगवान् विष्णु को सदा प्रिय है। सब दानों से जो पुण्य होता है और सब तीर्थो में जो फल होता है, उसी को वैशाख मास में मनुष्य केवल जलदान करके प्राप्त कर लेता है। जो जलदान में असमर्थ है, ऐसे ऐश्वर्य की अभिलाषा रखने वाले पुरुष को उचित है कि वह दूसरे को प्रबोध करे, दूसरे को जलदान का महत्त्व समझावे। यह सब दानों से बढ़कर हितकारी है। 
         जो मनुष्य वैशाख में सड़क पर यात्रियों के लिये प्याऊ लगाता है, वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है। नृपश्रेष्ठ ! प्रपादान (पौंसला या प्याऊ) देवताओं, पितरों तथा ऋषियों को अत्यन्त प्रीति देने वाला है। जिसने प्याऊ लगाकर रास्ते के थके-माँदै मनुष्यों को सन्तुष्ट किया है, उसने ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं को सन्तुष्ट कर लिया है। 
         राजन् ! वैशाख मास में जल की इच्छा रखने वाले को जल, छाया चाहने वाले को छाता और पंखे की इच्छा रखने वाले को पंखा देना चाहिये। राजेन्द्र! जो प्यास से पीड़ित महात्मा पुरुष के लिये शीतल जल प्रदान करता है, वह उतने ही मात्र से दस हजार राजसूय यज्ञों का फल पाता है। 
         धूप और परिश्रम से पीड़ित ब्राह्मण को जो पंखा डुलाकर हवा करता है, वह उतने ही मात्र से निष्पाप होकर भगवान् का पार्षद हो जाता है। जो मार्ग से थके हुए श्रेष्ठ द्विज को वस्त्र से भी हवा करता है, वह उतने से ही मुक्त हो भगवान् विष्णु का सायुज्य प्राप्त कर लेता है। जो शुद्ध चित्त से ताड़ का पंखा देता है, वह सब पापों का नाश करके ब्रह्मलोक को जाता है। 
          जो विष्णुप्रिय वैशाख मास में पादुका दान करता है, वह यमदूतों का तिरस्कार करके विष्णुलोक में जाता है। जो मार्ग में अनाथों के ठहरने लिये विश्रामशाला बनवाता है, उसके पुण्य-फल का वर्णन किया नहीं जा सकता। 
         मध्याह्न में आये हुए ब्राह्मण अतिथि को यदि कोई भोजन दे, तो उसके फल का अन्त नहीं है। राजन्! अन्नदान मनुष्यों को तत्काल तृप्त करने वाला है, इसलिये संसार में अन्न के समान कोई दान नहीं है। जो मनुष्य मार्ग के थके हुए ब्राह्मण के लिये आश्रय देता है, उसके पुण्यफल का वर्णन किया नहीं जा सकता।
         भूपाल! जो अन्नदाता है, वह माता-पिता आदि का भी विस्मरण करा देता है। इसलिये तीनों लोकों के निवासी अन्नदान की ही प्रशंसा करते हैं। माता और पिता केवल जन्म के हेतु पर जो अन्न देकर पालन करता है, मनीषी पुरुष इस लोक में उसी को पिता कहते हैं।
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                       "जय जय श्री हरि

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