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शुक्रवार, 8 मार्च 2013

नाभि का खिसकना

नाभि का खिसकना

- योग में नाड़ियों की संख्या बहत्तर हजार से ज्यादा बताई गई है और इसका मूल उदगम स्त्रोत नाभिस्थान है।

- आधुनिक जीवन-शैली इस प्रकार की है कि भाग-दौड़ के साथ तनाव-दबाव भरे प्रतिस्पर्धापूर्ण वातावरण में काम करते रहने से व्यक्ति का नाभि चक्र निरंतर क्षुब्ध बना रहता है। इससे नाभि अव्यवस्थित हो जाती है। इसके अलावा खेलने के दौरान उछलने-कूदने, असावधानी से दाएँ-बाएँ झुकने, दोनों हाथों से या एक हाथ से अचानक भारी बोझ उठाने, तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ने-उतरने, सड़क पर चलते हुए गड्ढे, में अचानक पैर चले जाने या अन्य कारणों से किसी एक पैर पर भार पड़ने या झटका लगने से नाभि इधर-उधर हो जाती है। कुछ लोगों की नाभि अनेक कारणों से बचपन में ही विकारग्रस्त हो जाती है।

- प्रातः खाली पेट ज़मीन पर शवासन में लेतें . फिर अंगूठे के पोर से नाभि में स्पंदन को महसूस करे . अगर यह नाभि में ही है तो सही है . कई बार यह स्पंदन नाभि से थोड़ा हट कर महसूस होता है ; जिसे नाभि टलना या खिसकना कहते है .यह अनुभव है कि आमतौर पर पुरुषों की नाभि बाईं ओर तथा स्त्रियों की नाभि दाईं ओर टला करती है।

- नाभि में लंबे समय तक अव्यवस्था चलती रहती है तो उदर विकार के अलावा व्यक्ति के दाँतों, नेत्रों व बालों के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ने लगता है। दाँतों की स्वाभाविक चमक कम होने लगती है। यदाकदा दाँतों में पीड़ा होने लगती है। नेत्रों की सुंदरता व ज्योति क्षीण होने लगती है। बाल असमय सफेद होने लगते हैं।आलस्य, थकान, चिड़चिड़ाहट, काम में मन न लगना, दुश्चिंता, निराशा, अकारण भय जैसी नकारात्मक प्रवृत्तियों की उपस्थिति नाभि चक्र की अव्यवस्था की उपज होती है।

- नाभि स्पंदन से रोग की पहचान का उल्लेख हमें हमारे आयुर्वेद व प्राकृतिक उपचार चिकित्सा पद्धतियों में मिल जाता है। परंतु इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हम हमारी अमूल्य धरोहर को न संभाल सके। यदि नाभि का स्पंदन ऊपर की तरफ चल रहा है याने छाती की तरफ तो अग्न्याष्य खराब होने लगता है। इससे फेफड़ों पर गलत प्रभाव होता है। मधुमेह, अस्थमा, ब्रोंकाइटिस जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं।

- यदि यह स्पंदन नीचे की तरफ चली जाए तो पतले दस्त होने लगते हैं।

- बाईं ओर खिसकने से शीतलता की कमी होने लगती है, सर्दी-जुकाम, खाँसी, कफजनित रोग जल्दी-जल्दी होते हैं।

- दाहिनी तरफ हटने पर लीवर खराब होकर मंदाग्नि हो सकती है। पित्ताधिक्य, एसिड, जलन आदि की शिकायतें होने लगती हैं। इससे सूर्य चक्र निष्प्रभावी हो जाता है। गर्मी-सर्दी का संतुलन शरीर में बिगड़ जाता है। मंदाग्नि, अपच, अफरा जैसी बीमारियाँ होने लगती हैं।

- यदि नाभि पेट के ऊपर की तरफ आ जाए यानी रीढ़ के विपरीत, तो मोटापा हो जाता है। वायु विकार हो जाता है। यदि नाभि नीचे की ओर (रीढ़ की हड्डी की तरफ) चली जाए तो व्यक्ति कुछ भी खाए, वह दुबला होता चला जाएगा। नाभि के खिसकने से मानसिक एवंआध्यात्मिक क्षमताएँ कम हो जाती हैं।

- नाभि को पाताल लोक भी कहा गया है। कहते हैं मृत्यु के बाद भी प्राण नाभि में छः मिनट तक रहते है।

- यदि नाभि ठीक मध्यमा स्तर के बीच में चलती है तब स्त्रियाँ गर्भधारण योग्य होती हैं। यदि यही मध्यमा स्तर से खिसककर नीचे रीढ़ की तरफ चली जाए तो ऐसी स्त्रियाँ गर्भ धारण नहीं कर सकतीं।

- अकसर यदि नाभि बिलकुल नीचे रीढ़ की तरफ चली जाती है तो फैलोपियन ट्यूब नहीं खुलती और इस कारण स्त्रियाँ गर्भधारण नहीं कर सकतीं। कई वंध्या स्त्रियों पर प्रयोग कर नाभि को मध्यमा स्तर पर लाया गया। इससे वंध्या स्त्रियाँ भी गर्भधारण योग्य हो गईं। कुछ मामलों में उपचार वर्षों से चल रहा था एवं चिकित्सकों ने यह कह दिया था कि यह गर्भधारण नहीं कर सकती किन्तु नाभि-चिकित्सा के जानकारों ने इलाज किया।

- दोनों हथेलियों को आपस में मिलाएं। हथेली के बीच की रेखा मिलने के बाद जो उंगली छोटी हो यानी कि बाएं हाथ की उंगली छोटी है तो बायीं हाथ को कोहनी से ऊपर दाएं हाथ से पकड़ लें। इसके बाद बाएं हाथ की मुट्ठि को कसकर बंद कर हाथ को झटके से कंधे की ओर लाएं। ऐसा ८-१० बार करें। इससे नाभि सेट हो जाएगी।

- पादांगुष्ठनासास्पर्शासन उत्तानपादासन , नौकासन , कन्धरासन , चक्रासन , धनुरासन आदि योगासनों से नाभि सही जगह आ सकती है .

- 15 से 25 मि .वायु मुद्रा करने से भी लाभ होता है .

- दो चम्मच पिसी सौंफ, ग़ुड में मिलाकर एक सप्ताह तक रोज खाने से नाभि का अपनी जगह से खिसकना रुक जाता है।

गैंग्रीन अंग का सड़ जाना Osteomyelitis -------------

गैंग्रीन अंग का सड़ जाना Osteomyelitis -------------
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कुछ चोट लग जाती है, और कुछ छोटे बहुत गंभीर हो जाती है। जैसे कोई डाईबेटिक पेशेंट है चोट लग गयी तो उसका सारा दुनिया जहां एक ही जगह है, क्योंकि जल्दी ठीक ही नही होता है। और उसके लिए कितना भी चेष्टा करे करे डॉक्टर हर बार उसको सफलता नही मिलता है। और अंत में वो चोट धीरे धीरे गैंग्रीन (अंग का सड़ जाना) में कन्वर्ट हो जाती है। और फिर काटना पड़ता है, उतने हिस्से को शारीर से निकालना पड़ता है। ऐसी परिस्तिथि में एक औषधि है जो गैंग्रीन को भी ठीक करती है और Osteomyelitis (अस्थिमज्जा का प्रदाह) को भी ठीक करती है।

गैंग्रीन माने अंग का सड़ जाना, जहाँ पे नए कोशिका विकसित नही होते। न तो मांस में और न ही हड्डी में और सब पुराने कोशिका मरते चले जाते हैं। इसीका एक छोटा भाई है Osteomyelitis इसमें भी कोशिका कभी पुनर्जीवित नही होते, जिस हिस्से में होता है उहाँ बहुत बड़ा घाव हो जाता है और वो ऐसा सड़ता है के डॉक्टर कहता है की इसको काट के ही निकलना है और कोई दूसरा उपाय नही है।। ऐसे परिस्तिथि में जहां शारीर का कोई अंग काटना पड़ जाता हो या पड़ने की संभावना हो, घाव बहुत हो गया हो उसके लिए आप एक औषधि अपने घर में तैयार कर सकते है।

औषधि है देशी गाय का मूत्र (सूती के आट परत कपड़ो में चन कर) , हल्दी और गेंदे का फुल। गेंदे के फुल की पिला या नारंगी पंखरियाँ निकलना है, फिर उसमे हल्दी डालके गाय मूत्र डालके उसकी चटनी बनानी है। अब चोट कितना बड़ा है उसकी साइज़ के हिसाब से गेंदे के फुल की संख्या तै होगी, माने चोट छोटे एरिया में है तो एक फुल, बड़े है तो दो, तिन, चार अंदाज़े से लेना है। इसकी चटनी बनाके इस चटनी को लगाना है जहाँ पर भी बाहर से खुली हुई चोट है जिससे खून निकल जुका है और ठीक नही हो रहा। कितनी भी दावा खा रहे है पर ठीक नही हो रहा, ठीक न होने का एक कारण तो है डाईबेटिस दूसरा कोई जिनगत कारण भी हो सकते है। इसको दिन में कम से कम दो बार लगाना है जैसे सुबह लगाके उसके ऊपर रुई पट्टी बांध दीजिये ताकि उसका असर बॉडी पे रहे; और शाम को जब दुबारा लगायेंगे तो पहले वाला धोना पड़ेगा टी इसको गोमूत्र से ही धोना है डेटोल जैसो का प्रयोग मत करिए, गाय के मूत्र को डेटोल की तरह प्रयोग करे। धोने के बाद फिर से चटनी लगा दे। फिर अगले दिन सुबह कर दीजिये।

यह इतना प्रभावशाली है के आप सोच नही सकते देखेंगे तो चमत्कार जैसा लगेगा। इस औषधि को हमेशा ताजा बनाके लगाना है। किसीका भी जखम किसी भी औषधि से ठीक नही हो रहा है तो ये लगाइए। जो सोराइसिस गिला है जिसमे खून भी निकलता है, पस भी निकलता है उसको यह औषधि पूर्णरूप से ठीक कर देता है। अकसर यह एक्सीडेंट के केसेस में खूब प्रोयोग होता है क्योंकि ये लगाते ही खून बांध हो जाता है। ऑपरेशन का कोई भी घाव के लिए भी यह सबसे अच्छा औषधि है। गिला एक्जीमा में यह औषधि बहुत काम करता है, जले हुए जखम में भी काम करता है।

अधिक जानकारी के लिए ये विडियो देखे :
http://www.youtube.com/watch?v=Io6nPEFz2vY

हरीतकी (हरड़) अमृतोपम औषधि

हरीतकी (हरड़)

हरीतकी को वैद्यों ने चिकित्सा साहित्य में अत्यधिक सम्मान देते हुए उसे अमृतोपम औषधि कहा है । राज बल्लभ निघण्टु के अनुसार-
यस्य माता  गृहे नास्ति, तस्य माता हरीतकी ।
कदाचिद् कुप्यते माता, नोदरस्था हरीतकी॥

अर्थात् हरीतकी मनुष्यों की माता के समान हित करने वाली है । माता तो कभी-कभी कुपित भी हो जाती है, परन्तु उदर स्थिति अर्थात् खायी हुई हरड़ कभी भी अपकारी नहीं होती ।

आर्युवेद के ग्रंथकार हरीतकी की इसी प्रकार स्तुति करते हैं वे कहते हैं कि 'तू हर (महादेव) के भवन में उत्पन्न हुई है इसलिए अमृत से भी श्रेष्ठ है ।' वस्तुतः यह मूल रूप से गंगा के किनारे बसने वाला वृक्ष भी है । ड्यूथी ने अपने प्रसिद्ध 'फ्लोरा ऑफ द अपर गैगेटिक प्लेन' ग्रंथ में लिखा भी है कि हरड़ का मूल स्थान गंगातट ही है । यहीं से यह सारे भारत और विश्व में फैली है । मदनपाल निघण्टु में ग्रंथाकार लिखता है-हरस्य भवने जाता हरिता च स्वभावतः । हरते सर्वरोगांश्च तस्मात् प्रोक्ता हरीतकी॥ अर्थात् श्री हर के घर में उत्पन्न होने से, स्वभाव से हरित वर्ण की होने से तथा सब रोगों का नाश करने में समर्थ होने से इसे हरीतकी कहा जाता है ।

वानस्पतिक परिचय-
यह एक ऊँचा वृक्ष होता है एवं मूलतः निचले हिमालय क्षेत्र में रावी तट से लेकर पूर्व बंगाल-आसाम तक पाँच हजार फीट की ऊँचाई पर पाया जाता है । यह 50 से 60 फीट ऊँचा वृक्ष है । इसकी छाल गहरे भूरे रंग की होती है, पत्ते आकार में वासा के पत्र के समान 7 से 20 सेण्टीमीटर लम्बे, डेढ़ इंच चौडें होते हैं । फूल छोटे, पीताभ श्वेत लंबी मंजरियों में होते हैं । फल एक से तीन इंच लंबे, अण्डाकार होते हैं, जिसके पृष्ठ भाग पर पाँच रेखाएँ होती हैं । कच्चे फल हरे तथा पकने पर पीले धूमिल होते हैं । बीज प्रत्येक फल में एक होता है । अप्रैल-मई में नए पल्लव आते हैं । फल शीतकाल में लगते हैं । पके फलों का संग्रह जनवरी से अप्रैल के मध्य किया जाता है ।

हरड़ बाजार में दो प्रकार की पायी जाती है-बड़ी और छोटी । बड़ी में पत्थर के समान सख्त गुठली होती है, छोटी में कोई गुठली नहीं होती । वे फल जो पेड़ से गुठली पैदा होने से पहले ही गिर पड़ते हैं या तोड़कर सुखा लिया जाते हैं । उन्हें छोटी हरड़ कहते हैं । आयुर्वेद के जानकार छोटी हरड़ का उपयोग अधिक निरापद मानते हैं, क्योंकि आँतों पर उनका प्रभाव सौम्य होता है, तीव्र नहीं । इसके अतिरिक्त वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार हरड़ के 3 भेद और किए जा सकते हैं । पक्व फल या बड़ी हरड़, अर्धपक्व फल पीली हरड़ (इसका गूदा काफी मोटा स्वाद में कसैला होता है ।) अपक्व फल जिसे ऊपर छोटी हरड़ नाम से बताया गया है । इसका वर्ण भूरा-काला तथा आकार में यह छोटी होती है । यह गंधहीन व स्वाद में तीखी होती है । फल के स्वरूप, प्रयोग एवं उत्पत्ति स्थान के आधार पर भी हरड़ को कई वर्ग भेदों में बाँटा गया है पर छोटी स्याह, पीली जर्द, बड़ी काबुली ये 3 ही सर्व प्रचलित हैं ।

शुद्धाशुद्ध परीक्षा-
औषधि प्रयोग हेतु फल ही प्रयुक्त होते हैं एवं उनमें भी डेढ़ तोले से अधिक भार वाली भरी हुई छिद्र रहित छोटी गुठली व बड़े खोल वाली हरड़ उत्तम मानी जाती है । भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार जो हरड़ जल में डूब जाए वह उत्तम है ।

गुण, कर्म संबंधी मत-
चरक संहिता के अनुसार हरड़ त्रिदोष हर व अनुलोमक है यह संग्रहणी शूल, अतिसार (डायरिया) बवासीर तथा गुल्म का नाश करती है एवं पाचन अग्निदीपन में सहायक है ।
श्री खगेन्द्र नाथ वसु के अनुसार हरड़ के गुण-कर्मों के अनुसार विभिन्न भेद हैं । किसी हरड़ को खाने, सूँघने, छूने अथवा देखने मात्र से तीव्र रेचन क्रिया होने लगती है । हिमाचल व तराई में उत्पन्न होने वाली चेतकी नामक हरड़ इतनी तीव्र है कि इसकी छाया में बैठने मात्र से दस्त होने लगते हैं । यह शास्रोक्त उक्ति कहाँ तक सत्य है, इसकी परीक्षा तो शुद्ध चेतकी हरड़ प्राप्त होने पर ही की जा सकता है, परन्तु वृहद् आँत्र संस्थान पर इसके प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता ।

भाव प्रकाश निघण्टु के अनुसार हरड़ बवासीर, सभी प्रकार के उदर रोगों, कृमियों, संग्रहणी, विबंध, गुल्म आदि रोगों में लाभ पहुँचाती है व सात्मीकरण की स्थिति लाती है । वैद्यराज चक्रदत्त के अनुसार आँतों की नियमित सफाई हेतु हरड़ों का नियमित प्रयोग किया जाना चाहिए । हर ऋतु में इसे अलग-अलग अनुपान से लेने का विधान है । नित्य प्रातः नियमित रूप से हरड़ लेते रहने से बुढ़ापा कभी नहीं आता, शरीर थकता नहीं तथा स्फूर्ति बनी रहती है, ऐसा शास्रों का मत है ।

श्री नादकर्णी के अनुरसा हरड़ एक निरापद, सौम्य विरेचक औषधि है । साथ ही यह ग्राही भी है अर्थात् मल निष्कासन को यह सुव्यवस्थित करती है । अंदर के रसों की अनावश्यक हानि नहीं होने देती, ये दोनों (रेचक व ग्राही) प्रभाव परस्पर विरोधी हैं, फिर भी एक औषधि में इनकापाया जाना व शरीर स्थिति के अनुसार उस प्रभाव का ही फलित होना अपने आप में इसकी एक विलक्षणता है । इसे इसी कारण आल्सरेटिव (रसायन) भी मानते हैं । कच्चे फल पके फलों की अपेक्षा अधिक रेचक होते हैं । इससे पित्त कम होता है, आमाशय व्यवस्थित तथा बवासीर के मस्से उभरना तथा शिराओं का फूलना बंद हो जाता है ।
श्री नादकर्णी के अनुसार लंबे समय से चली आ रही पेचिश एवं दस्त आदि में यह बहुत लाभकारी है । वृहद् आंत्र को संकुचित कर रुके मल को हरड़ निकालती है एवं ग्राही होने के कारण रस स्रावों को रोक देती है, जिससे रोगी को आराम मिलता है । महत्त्वपूर्ण रस द्रव्यों-इलेक्ट्रोलाइट्स की हानि नहीं होती ।

कृमि सभी प्रकार के हरीतकी के दुश्मन हैं । उन्हें समूल नष्ट करने में, वायु निष्कासित करने तथा उदर शूल में भी यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । कर्नल चौपड़ा कहते हैं कि हरड़ कषाय प्रधान है, विरेचक तथा बलवर्धक है । डॉ. घोष की 'ड्रग्स ऑफ हिन्दुस्तान' के अनुसार यह आँतों की जीर्ण व्याधियों में विशेष लाभकारी है । पाश्चात्य जगत में अभी तक इसे पेचिश आदि में ही लाभकारी माना जाता था । पर अब डॉ. ए.प्री जैसे वैज्ञानिकों ने अपनी शोध द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि यह अनियंत्रित विरेचन क्रिया में भी लाभकारी है तथा आँतों को सुव्यवस्थित करने में सहायता करती है ।
होम्योपैथी में भी बवासीर, कब्ज, पेचिश आदि के लिए हरड़ के मदर टिंक्चर का प्रयोग किया जाता है । यूनानी चिकित्सा पद्धति में 'स्लैल स्याह' नाम से छोटी हरड़ प्रयुक्त होती है । हकीम इसे आमाशय व आंतों को बल देने वाली संग्रह मानते हैं । अतिसार बंद करने के लिए इसे घी में भूनकर चूर्ण बनाकर खिलाते हैं ।

रासायनिक संगठन-
हरड़ में ग्राही (एस्टि्रन्जेन्ट) पदार्थ हैं, टैनिक अम्ल (बीस से चालीस प्रतिशत) गैलिक अम्ल, चेबूलीनिक अम्ल और म्यूसीलेज । रेजक पदार्थ हैं एन्थ्राक्वीनिन जाति के ग्लाइको साइड्स । इनमें से एक की रासायनिक संरचना सनाय के ग्लाइको साइड्स सिनोसाइड 'ए' से मिलती जुलती है । इसके अलावा हरड़ में दस प्रतिशत जल, 13.9 से 16.4 प्रतिशत नॉन टैनिन्स और शेष अघुलनशील पदार्थ होते हैं । वेल्थ ऑफ इण्डिया के वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लूकोज, सार्बिटाल, फ्रूक्टोस, सुकोस, माल्टोस एवं अरेबिनोज हरड़ के प्रमुख कार्बोहाइड्रेट हैं । 18 प्रकार के मुक्तावस्था में अमीनो अम्ल पाए जाते हैं । फास्फोरिक तथा सक्सीनिक अम्ल भी उसमें होते हैं । फल जैसे पकता चला जाता है, उसका टैनिक एसिड घटता एवं अम्लता बढ़ती है । बीज मज्जा में एक तीव्र तेल होता है ।

आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
हरड़ में पाए गए विभिन्न ग्राही पदार्थ प्रोटीन समुदाय के परस्पर संबद्ध कर देते हैं । डॉ. आर. घोष ने अपने 'मटेरिया मेडिका' में लिखते हैं कि टैनिक एसिड श्लेष्मा झिल्लियों परश्लेष्मा और अल्व्यूमन को कोएगुलेट करके उसकी एक परत वहाँ बना देते हैं, जिससे उस कोमल भाग की रक्षा होती है । यह अम्ल आँतों को संकुचित करता है तथा रक्तस्राव को कम कर देता है । अतिसार में यह रसस्राव ही अधिक मात्रा में निकलकर रोगी को कमजोर कर देता है ।

टैनिक अम्ल से चीस्ट और अन्य जीवाणु भी प्रेसिपिटेट हो जाते हैं । जीवाणुनाशी प्रभाव बाह्य रोगाणुओं को नष्ट करता व दुर्गंध को समाप्त करता है । इस प्रभाव के कारण ही हरड़ के एनिमा से (क्वाथ या स्वरस) अल्सरेटिव कोलाइटिव कोलाइटिस जैसे असाध्य रोग भी शांत होते देखे गए हैं । पेपेक्रीन के समान शूल निवारण स्पास्मोलिटिक क्षमता भी हरड़ में पायी गई है ।
हरड़ का मुख्य रेचक पदार्थ एन्थाक्वीनोन अपना प्रभाव बड़ी आँत पर ही दिखाता है । सेवन करने के 6 घंटे बाद ही इसका प्रभाव शुरु होता है । पुराने कब्ज वाली जर् आँतों को बिना कोई हानि पहुँचाए यह तुरंत लाभ पहुँचाता है ।
हरड़ वैसे वात, पित्त, कफ तीनों का ही शमन करती है पर मूलतः इसे वात शामक माना गया है । इसी कारण इसका प्रभाव समग्र संस्थान पर पड़ता है । दुर्बल नाड़ियों को यह समर्थ बनाती है तथा इन्द्रियों को सामर्थ्यवान् । शोथ निवारण में भी इसकी प्रमुख भूमिका होती है, चाहे वह कोपीय हो अथवा अन्तर्कोपीय ।

ग्राह्य अंग-
फल ही प्रयोग में आता है । उत्तम फलों को चैत्र-वैशाख में ग्रहण कर सुखा लिया जाता है तथा अनाद्र-शीतल स्थान में बंद कर रख दिया जाता है ।

कालावधि-
1 से 3 वर्ष तक इन्हें प्रयुक्त किया जा सकता है ।

मात्रा-
हरड़ का चूर्ण 3 से 5 ग्राम प्रत्येक बार । आवश्यकतानुसार इसे 2 या 3 बार लिया जा सकता है । फल का बाहरी खोल वाला अंश अधिक उपयोगी माना जाता है ।

निर्धारणानुसार प्रयोग-
हरड़ को वैसे रसायन, नाड़ीवर्धक, पाचक कई प्रकार से प्रयुक्त किया जा सकता है पर वृहद् आँत्र पर सर्वाधिक प्रभाव होने से वहीं के रोगों में इसे विशेषतया उपयोग में लाते हैं । विवंध (कब्ज) में पीसकर चूर्ण रूप बनाकर या घी सेंकी हुई हरड़ डेढ़ से तीन ग्राम मात्रा में मधु अथवा सैंधव नमक के साथ दी जा सकती है । अतिसार में हरड़ को उबालकर देते हैं । संग्रहणी में हरड़ चूर्ण को गरम जल के साथ भी दे सकते हैं ।
बवासीर में अथवा खूनी पेचिश में चरक के अनुसार हरड़ का चूर्ण व गुड़ दोनों गोमूत्र मिलाकर रात्रि भर रखकर प्रातः पिलाना चाहिए । इसके अलावा इस रोग में हरड़ चूर्ण को दही या मट्ठे के साथ भी दे सकते हैं । अर्श की सूजन उतारने तथा वेदना कम करने के लिए स्थान विशेष पर हरड़ को जल में पीसकर लगाते हैं । रक्त स्राव भी इससे रुकता है व मस्से भी सूखते हैं ।
कामला, लीवर, स्प्लीन बढ़ने तथा कृमि रोगों में 3 से 6 ग्राम चूर्ण प्रातः सायं देने से 2 सप्ताह में आराम हो जाता है । अग्निमंदता में चबाने पर तथा त्रिदोष विकार जन्य वृहद् आंत्र के जीर्ण रोगों में भूनकर सेवन किए जाने पर तुरंत लाभ दिखाती है ।

अन्य उपयोग-
सेंधा नमक के साथ कफज, शक्कर के साथ पित्तज तथा घी के बातज रोगों में यह लाभ पहुँचाती है । व्रणों में लेप के रूप में, मुँह के छालों में क्वाथ से कुल्ला करके, मस्तिष्क दुर्बलता में चूर्ण रूप में, रक्त विकार शोथ में उबालकर, श्वांस रोग में चूर्ण, जीर्ण ज्वरों में चूर्ण रूप में इसका प्रयोग होता है । रसायन के रूप में इसका प्रयोग डॉ. प्रियव्रत शर्मा के अनुसार विभिन्न अनुपानों के साथ दिया जाता है ।
जीर्णकाया, अवसाद ग्रस्त मनःस्थिति, लंबे उपवास में, पित्ताधिक्य वाले तथा गर्भवती स्रियों के लिए इए औषधि का निषेध है ।

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