मोदी के तेवर बदल गयें हैं और भाषण भी, क्या मोदी भटक गए हैं ? या भटक गए थे?
लोकसभा चुनाव के पहले दौर के मतदान के तुरंत बाद मोदी की भाषा और शैली अचानक बदल गई और उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र से मुस्लिम तुष्टीकरण से संबंधित कई तथ्यों पर जनता के सामने खुलकर अपनी बातें रखी. जब उन्होंने कहा कि कांग्रेस पिछड़े और दलितों का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को देना चाहती है, तो खलबली मच गई. उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस आर्थिक सर्वेक्षण करवाकर सम्पन्न लोगों का धन घुसपैठियों में बांटना चाहती है तो सहसा लोगों को विश्वास नहीं हुआ. उसके बाद राहुल गाँधी के सलाहकार सैम पित्रोदा, जो उनके पिता राजीव गाँधी के मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे, ने विरासत टैक्स का मुद्दा उठाते हुए कहा कि अमेरिका में जब कोई व्यक्ति मरता हैं तो उसकी संपत्ति का 55% हिस्सा सरकार ले लेती है. भारत में ऐसा टैक्स नहीं है, जिसके लिए योजना बनाई जा सकती है. पूरा देश सन्न रह गया. राहुल गाँधी ने हाल ही में तेलंगाना की एक सभा में भाषण देते हुए कहा था वह केवल जातिगत जनगणना नहीं करायेगे, वह आर्थिक और संस्थागत सर्वेक्षण भी करवाएंगे जो देश का एक्स रे होगा, जिससे पता चल सकेगा किसके पास कितनी संपत्ति है, किसकी कितनी हिस्सेदारी है. इसके बाद वह क्रांतिकारी कदम उठाएंगे. प्रधानमंत्री मोदी ने कांग्रेस के घोषणापत्र, राहुल गाँधी के भाषण और सैम पित्रोदा के बयान की कड़ियां जोड़ते हुए मुस्लिम तुष्टीकरण, दलितों और पिछड़ों का आरक्षण छीन कर मुस्लिमों को देने और सम्पन्न लोगों द्वारा मेहनत से कमाई गई संपत्ति को घुसपैठियों में बांटने का मुद्दा जोर शोर से उठाया. इसके बाद तो चुनावी मैदान का पूरा परिदृश्य बदल गया.
जहाँ विपक्ष इसे ध्रुवीकरण करने की कोशिश बता रहा था, वही मोदी भक्त गदगद थे और सोशल मीडिया पर चर्चा कर रहे थे कि असली मोदी वापस आ गए हैं. यह सही है कि मोदी जिन वादों और इरादों के साथ पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आए थे, उन्हें धीरे धीरे भूलने लगे थे. सबका साथ, सबका विकास तक तो ठीक रहा लेकिन जब से यह “सबका साथ, सबका विकास, सब का विश्वास और सब का प्रयास” बन गया, लोग हैरान भी थे और परेशान भी, जो धीरे धीरे उदासीनता में बदल रही थी. पहले चरण के कम मतदान से यह स्पष्ट रूप से दिखाई भी पड़ा. कहना मुश्किल है कि प्रधानमंत्री मोदी के अचानक इस बदले व्यवहार का कारण क्या है, क्योंकि अब तक मोदी सिर्फ और सिर्फ विकास की बात करते रहे हैं और भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने की बात करते रहे हैं. इसलिए इस पर सियासत तो होगी. सामान्यतः सभी राजनैतिक दल मुस्लिमों के विरुद्ध कोई भी बयान देने से बचते हैं, चाहे मामला देश के लिए कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो. अनेक अवसरों पर राजनीतिक स्वार्थ के लिए तुष्टिकरण की पराकाष्ठा पार करते हुए राष्ट्रीय हितों की बलि चढ़ाने में भी कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने संकोच नहीं किया. इसका परिणाम ये हुआ कि बहुसंख्यक हिंदू अपने ही देश में दोयम दर्जे का नागरिक बन गए हैं. क्या कोई कांग्रेस द्वारा बनाए गए पूजा स्थल कानून, वक्फ बोर्ड कानून, और अल्पसंख्यक आयोग कानून को भूल सकता है. गनीमत इतनी रही कि कांग्रेस अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में सांप्रदायिक हिंसा कानून पारित नहीं करवा सकी अन्यथा हिंदुओं की स्थिति कितनी बदतर हो चुकी होगी उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती.
प्रधानमंत्री मोदी का यह आरोप बहुत गंभीर हैं कि कांग्रेस पिछड़ों और दलितों का आरक्षण छीन कर मुस्लिमों को देना चाहती है. राजनीति की विडंबना देखिए कि पिछड़ों की राजनीति करने वाले और जातिगत जनगणना की जोरशोर से मांग करने वाले क्षेत्रीय दल इस मामले पर पूरी तरह चुप हैं लेकिन दलितों और पिछड़ों में बेचैनी स्पष्ट देखी जा सकती है. नेहरू गाँधी का मुस्लिम प्रेम किसी से छिपा नहीं है. यद्यपि नेहरु ने मुसलमानों को धार्मिक आधार पर आरक्षण देने का समर्थन नहीं किया था लेकिन कांग्रेस इस मोहपाश से कभी बाहर नहीं आ सकी और 1960 से ही इस दिशा में प्रयासरत हैं. इसका पहला प्रयोग अविभाजित आंध्र प्रदेश में किया गया जब 1994 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय भास्कर रेड्डी ने बड़ी चालाकी से बिना कोटा निर्धारित किए मुसलमानों की कुछ जातियों को सरकारी आदेश से ओबीसी में शामिल कर दिया. इससे हिन्दू ओबीसी वर्ग का लाभ अपने आप कम हो गया. 2004 में कांग्रेसी मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी ने मुसलमानों को 5% कोटा निर्धारित करते हुए ओबीसी वर्ग में आरक्षण दे दिया, जिसे उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया क्योंकि इससे आरक्षण की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित 50% की सीमा पार हो गयी थी. 2005 में आंध्र प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने फिर एक बार विधानसभा में अधिनियम पारित करके शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए ओबीसी के अंतर्गत 5% का कोटा निर्धारित कर दिया. इसे आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ ने रद्द कर दिया.
इसके बाद भी कांग्रेस नहीं रुकी और 2007 में मुसलमानों की 14 श्रेणियों को ओबीसी की मान्यता देते हुए 4% कोटा निर्धारित कर दिया और इसके लिए अध्यादेश जारी कर दिया लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर रोक लगाते हुए सरकार की गंभीर आलोचना की. 2014 में तेलंगाना के गठन के बाद टीआरएस के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव ने मुसलमानों के लिए आरक्षण का कोटा बढ़ाते हुए 12% करने का प्रस्ताव विधानसभा में पारित किया और इसे केंद्र सरकार की अनुमति के लिए भेजा जिसे भाजपा सरकार से अनुमति नहीं मिल सकी. इसके बाद कांग्रेस की कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश की सरकारों ने समय समय पर मुसलमानों की अनेक जातियों को बिना कोटा निर्धारित किए ओबीसी वर्ग में शामिल कर दिया, जिसके अंतर्गत उन्हें आज भी आरक्षण प्राप्त हो रहा है. इससे हिंदू समुदाय के ओबीसी वर्ग का आरक्षण अपने आप कम हो गया, और उन्हें खासा नुकशान हुआ. हाल ही में बिहार की बहु प्रचारित जातिगत सर्वे में समूचे मुस्लिम समुदाय को पिछड़े वर्ग में शामिल किया गया था जिसके आधार पर भविष्य में इन्हें ओबीसी श्रेणी के अंतर्गत बिना कोटा निर्धारित किए आरक्षण देने की मंशा रही होगी.
कांग्रेस ने 2004 के अपने घोषणापत्र में लिखा था कि उसने कर्नाटक और केरल में मुसलमानों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में इस आधार पर आरक्षण दिया है कि वे सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हैं. कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर भी मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में इस तरह की सुविधा प्रदान करने के लिए कृत संकल्पित है. 2009 के कांग्रेस के चुनाव घोषणापत्र में भी इस वायदे को दोहराया गया है. 2014 के घोषणापत्र में भी कांग्रेस ने लिखा था कि कांग्रेस के नेतृत्व में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने के मामले में कई कदम उठाए हैं. सरकार न्यायालय में लंबित इस मामले की प्रभावी ढंग से पैरवी करेगी और सुनिश्चित करेगी कि उचित कानून बनाकर इन नीति को राष्टीय स्तर पर लागू किया जाए. इससे बिलकुल स्पष्ट है कि मुसलमानों को आरक्षण देना कांग्रेस की सोंची समझी नीति है, जिस पर दशकों से काम किया जा रहा है.
जहाँ तक लोगों की संपत्ति छीनकर बांटने का प्रश्न है, कांग्रेस का अतीत इस मामले में भी बहुत दागदार है. 1953 में जवाहर लाल नेहरू ने सम्पदा शुल्क अधिनियम लागू किया था जिसमें जिसमें विभिन्न श्रेणियों के अंतर्गत अधिकतम 85% तक शुल्क वसूला जाता था. यानी मालिक की मृत्यु के बाद संपत्ति का 85% भाग सरकार हड़प लेती थी. यह कानून तीन दशक तक चलता रहा और राजीव गाँधी ने इसे तब समाप्त किया जब उन्हें इंदिरा गाँधी की परिसंपत्तियां मिलनी थी. राहुल गाँधी ने अपने कई भाषणों में इस ओर संकेत किया था और जिस एक्स रे की बात राहुल गाँधी कर रहे थे उसका खुलासा उनके सलाहकार सैम पित्रोदा ने कर दिया. यद्यपि कांग्रेस ने उनका निजी विचार बताते हुए मामले को दबाने की कोशिश की लेकिन लोग चिंतित हैं और सियासत गर्म हो गयी है.
बहुत कम लोगों को याद होगा कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी जो वित्त मंत्री भी थीं ने आयकर का बोझ इतना बढ़ा दिया था कि वह सरचार्ज सहित 97.75% पहुँच गया. पत्रकार वार्ता में जब उनसे पूछा गया कि आयकर का इतना बोझ लोग और कंपनियां कैसे सह पाएंगी तो उनके वित्त सचिव ने जवाब दिया था कि अभी भी 2.25% आय तो बच रही हैं. यहीं से कालेधन की अर्थव्यवस्था की शुरुआत हुई जिसने देश की प्रगतिशील और ईमानदार अर्थव्यवस्था का गला घोंट दिया और देश को कई दशक पीछे धकेल दिया. इसके बाद इंदिरा जी ने वामपंथियों के दबाव में उद्योगों का अंधाधुंध राष्ट्रीयकरण किया जिसने देश की अर्थव्यवस्था की जड़ें हिला दी. कपड़ा मिलों के अधिग्रहण और उन्हें मिलाकर राष्ट्रीय कपड़ा निगम बनाने की सनक ने देश में औद्योगिक वातावरण चौपट कर दिया. सरकार को अरबों रुपए का निवेश इन बीमार मिलों में करना पड़ा, जो नहीं चल सकी और अंत में कौड़ियों के मोल बेचनी पड़ी जिससे देश का अरबों रुपया स्वाहा हो गया.
अगर दोपहर का भूला शाम को वापस आ गया है तो उससे नाराज नहीं होना चाहिए बल्कि उसे इतना संबल देने की आवश्यकता है कि वह फिर भटकने न पाये. इसी में आपका भला और सबकी भलाई है.
आज आवश्यकता इस बात की है के सभी मतदान करना सुनिश्चित करें क्योंकि आपका एक वोट आपका ही नहीं आपके राष्ट्र का भविष्य तय करेगा. महंगाई बेरोजगारी, जाति पांति और मुफ्तखोरी से ऊपर उठकर वोट करें. सोच समझकर वोट करें, और देश के लिए वोट करें. देश बचेगा तो ही आप बच सकेंगे और सनातन संस्कृति भी बच सकेगी.
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