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सोमवार, 21 अगस्त 2023

अक्षय की नयी फ़िल्म ओ एम जी 2 कैसी है?

 

फाइनली गरद 2 के बाद आज ओ माई गॉड २ फिल्म भी देख ली।

समीक्षा -

फिल्म की शुरुआत होती है कांति शाह बने पंकज त्रिपाठी से जो भगवान शिव का महाभक्त है और बचपन से मंदिर जाता है।।।

उसके एक बेटा विवेक और एक बेटी और पत्नी है।।।

लड़का मार्डन स्कूल में पढ़ाई करता है एक दिन स्कूल के एक फंक्शन में एक लड़की यह कहकर विवेक के साथ डांस करने से मना कर देती है क्योंकि वो शर्मीला है जबकि उसके दोस्त विवेक को उसका गुप्त अंग छोटा होने का कारण बताकर अपमान करते हैं।।

इस अपमान से पीड़ित पंकज का बेटा विवेक कभी डाक्टर के पास गुप्त अंग बड़ा करने की दवा लेता है, कभी हस्तमैथुन करता है तभी कोई उसका वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल देता है जहां उसकी समाज में बदनामी होती है और पिता पंकज उर्फ कांति शाह की।।। एक दिन कांति शाह भगवान शिव की पूजा करता है तभी शिव बने अक्षय कुमार आ जाते हैं भक्त की मदद करने

तब कांति शाह सेक्स एजुकेशन को पाठ्यक्रम में शामिल करने के लिए कोर्ट जाता है और सभी स्कूलों, और डाक्टर और शामिल लोगों को कोर्ट में पेश करते हैं तब वही सब होता है जैसे ओमाई गाड फिल्म में परेश रावल करता है वहीं यहां कांति शाह करते हैं कोर्ट केस और विजय।।।। इस विजय में भगवान शिव बने अक्षय कुमार साथ देते हैं और सेक्स एजुकेशन का पाठ्यक्रम स्कूल और कालेज में शामिल करते हैं।।।।

साधारण सी कहानी और ताना बाना बुना कर एक टाइमपास और सामाजिक संदेश के लिए फिल्म बनी है।।।।। हलाकि गरद 2 की तुलना में कम व्यवसाय कर रही है पर देखने लायक है।।।

फिल्म में अक्षय कुमार एक फकीर बनकर आते हैं और पंकज से मिलते हैं।।।

फिल्म में कुछ कामेडी, कुछ सस्पेंस और हां रामायण सीरियल में भगवान राम बने अरूण गोविल जी भी है जो विलेन के किरदार में हैं।।।।

फिल्म को 5 मे से 4 रेटिंग।।।।

अंग्रजों की क्रूरता की सच्चाई क्या थी, जिसे अक्सर दबा दिया जाता था ?

 

अंग्रेजों की क्रूरता और अत्याचार पर यदि गहन अध्ययन किया जाय तो वर्तमान के ISIS जैसे खूंखार आतंकी संगठन भी क्रूरता के मामले में पीछे रह जाते है। कम ही लोग जानते होंगे, फतेहपुर में इमली के पेड़ पर अंग्रेजों ने एक साथ 52 क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया था।

उस वक्त अंग्रेजो के सैन्य अधिकारियों को मुकदमा करने और फांसी देने का पूर्ण अधिकार प्राप्त था, जिसका वह मनमाना उपयोग करते थे। इसीलिए उनका प्रत्येक सैनिक बादशाह की तरह जीवन जीता था।

वो सैनिक, मासूम गरीब लोग जो आवाज नही उठा सकते थे, उनका शोषण करते थे। महिलाओं का बलात्कार कर उनके गुप्तांग पर बंदूक की बैरल रख कर फायर कर दिया जाता था।

निम्नवर्गीय पुरुषों को सूली पर चढ़ा दिया जाता था तथा बड़े चेहरों या क्रांतिकारीयों को सार्वजनिक रूप से फांसी चढ़ाया जाता था ताकि चिंगारी न भड़के और लोगों में डर कायम रहे।

कर्नल नील जो बहुत ही क्रूर अधिकारी हुआ करता था, उसकी पर्सनल डायरी में लिखा था कि ऐसा कोई दिन नही गया जब उसने भारतीय महिला को सेक्स के लिए मजबूर न किया हो। उसे बच्चों की चीख पुकार पसंद थी। अर्थात अंग्रेज बच्चो पर भी समान रूप से अत्याचार करते थे।

किसान जो भुगतान नहीं कर पाते थे उन्हें कील जड़े चमड़े के कोडे से पीटा जाता था। वसूली के नाम पर उनकी बहन बेटियों को निर्वस्त्र करके नग्न मार्च कराया जाता था और उनके स्तनों को चिमटे से खींचा जाता था तथा अमानवीय और क्रूर तरीके से उनका बलात्कार किया जाता था।

अंग्रेजों द्वारा बड़े शहरों में 350 से अधिक वैश्यवृत्ति के लिए कोठे बनाए गए और मजबूर भारतीय बहन बेटियों को सेक्स स्लेव बनाया गया। महिलाओं पर किए गए अत्याचारों को भारत में ब्रिटिश प्रत्यारोपित राजनेताओं और कम्युनिस्ट इतिहासकारों ने बड़ी चालाकी से कब्र में डाल दिया।

यह इमली का पेड़ तथा स्मारक उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के बिन्दकी तहसील की मुगल रोड पर स्थित है। लोगों का मानना है कि नरसंहार के बाद इस पेड़ का विकास बन्द हो गया। इमली के इस पेड़ को बावनी पेड़ भी बोला जाता है।

हुआ ये था कि, अंग्रेजो की मनमानी से तंग आकर जोधासिंह अटैया के मन में स्वतन्त्रता की आग जल गई। उनका सम्बन्ध तात्या टोपे से बना हुआ था। उन्होंने महमूदपुर गाँव में एक अंग्रेज अधिकारी और सिपाही को उस समय जलाकर मार दिया, जब वो दोनो एक घर में महिला का बलात्कार कर रहे थे।

जोधासिंह की योजना अचूक थी। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध प्रणाली का सहारा लिया और कर्नल पावेल को मार दिया। इसके बाद अंग्रेजों ने एक क्रूर और नीछ कर्नल नील के नेतृत्व में सेना की नयी खेप भेज दी।

हमारे देश का दुर्भाग्य यह रहा है कि यहां वीरों से अधिक देशद्रोही पनपते रहे हैं। 28 अप्रैल 1858 जब जोधासिंह अटैया खजुहा लौट रहे थे, तो किसी मुखबिर की सूचना पर अंग्रेजों की घुड़सवार सेना ने उन्हें बीच राह में बंदी बनाकर उनके इक्यावन साथीयों के साथ वहीं इमली के पेड़ पर उन्हे फांसी लटका दिया।

लेकिन वामपंथियों ने इतिहास की इतनी बड़ी घटना को गुमनामी के अंधेरों में ढके रखा। खैर ! अंग्रेजो द्वारा मुनादी करा दी गई कि..

जो कोई भी शव को पेड़ से उतारेगा उसे भी उस पेड़ से लटका दिया जाएगा । जिसके बाद कितने दिनों तक शव पेड़ों से लटकते रहे और चील गिद्ध खाते रहे ।

लगभग 2 माह पश्चात महाराजा भवानी सिंह ने अपने साथियों के साथ मिलकर शवों को पेड़ से नीचे उतारा और अंतिम संस्कार किया। इस घटना के बाद चिंगारी भड़की तब जनरल वलाक को प्रोवोस्ट मास्टर नियुक्त करना पड़ा।

शुरुआती दौर में अंग्रेजों के कृत्य वास्तव में बेहद घिनौने थे। लोगों को डराकर लाखों अमानवीय घटनाओं पर पर्दा डाल दिया जाता था, जिसमें बलात्कार, चोरी और हत्याएं आम थी। अंग्रेजों के कानून उनकी ताकत थे और भारतीयों की मुसीबत।

भारतीय राष्ट्रवाद को दबाने लिए अंग्रेजों ने महाराष्ट् नागपुर के एक छोटा से कस्बे (चिमूर) में 100 से अधिक महिलाओं के गहने लूटकर उनका बलात्कार किया। उन्होंने गर्भवती महिलाओं कों भी नही बक्शा।

भारत आने से लेकर तथा आजादी तक अंग्रेजों के अत्याचारों के लाखों किस्से और कड़वी सच्चाइयां है, जिन्हे एकसाथ लिख पाना असंभव है। इन सच्चाइयों को डर और भ्रष्टाचार के नीचे दफन कर दिया जाता था।

अंग्रेजों ने भारत के राजा महाराजाओं को भ्रष्ट करके ही भारत को गुलाम बनाया। उसके बाद उन्होने योजनाबद्ध तरीके से भ्रष्टाचार को अपना प्रभावी हथियार बना लिया। यही भ्रष्टाचार हमारे राजनेताओं को विरासत मे मिला है।

(चित्र स्रोत गूगल)

औरंगजेब को लगा अब तो मराठों को पराजित करना अत्यंत आसान होगा।

 

सन 1680 में औरंगजेब को समझ आ चुका था कि #शिवाजी को रोकने उसे स्वयं ही दक्खन जाना होगा। पांच लाख की विशाल फौज लेकर वह दक्खन की ओर निकला और उसके वहां पहुंचने के पहले ही छत्रपति की मृत्यु हो गई।

औरंगजेब को लगा अब तो मराठों को पराजित करना अत्यंत आसान होगा।

परन्तु छत्रपति सम्भाजी ने 1689 तक उसे जीतने नहीं दिया। अपने सगे साले की दगाबाजी की वजह से छत्रपति सम्भाजी पकड़े गए और औरंगजेब ने अत्यन्त क्रूर और वीभत्स तरीके से उनकी हत्या करवा दी।

अब छत्रपति बने राजाराम मात्र 20 वर्ष के थे और औरंगजेब के अनुभव के सामने कच्चे थे। एकबार फिर उसे दक्खन अपनी मुट्ठी में नज़र आने लगा था।

यहीं से इतिहास यह बताता है कि छत्रपति शिवाजी ने किस आक्रामक संस्कृति की नींव डाली थी। हताश हो कर हथियार डालने के बजाय संताजी घोरपड़े और धनाजी जाधव के नेतृत्व में राजाराम को छत्रपति बना कर संघर्ष जारी रहा।

सन 1700 में छत्रपति राजाराम भी मारे गए।

अब उनके दो साल के पुत्र को छत्रपति मान कर उनकी विधवा ताराबाई, जो कि छत्रपति शिवाजी के सेनापति हंबीराव मोहिते की बेटी थी, आगे आई और प्रखर संघर्ष जारी रहा। समय पड़ने पर ताराबाई स्वयं भी युद्ध के मैदान में उतरी।

संताजी और धनाजी ने मुगल सम्राट की नींद हराम कर दी।

कभी सेना के पिछले हिस्से पर, कभी उनकी रसद पर तो कभी उनके साथ चलने वाले तोपखाने के गोला बारूद पर हमले कर मराठों ने मुगलों को बेजार कर दिया। सब लोग इस खौफ में ही रहते थे कि कब मराठे किस दिशा से आएंगे और कितना नुकसान कर जायेंगे।

एक बार संताजी और उनके दो हजार सैनिकों ने सर्जिकल स्ट्राइक की तर्ज पर रात में औरंगजेब की छावनी पर हमला बोल दिया और औरंगजेब के निजी तंबू की रस्सियां काट दी। तंबू के अंदर के सभी लोग मारे गए। परन्तु संयोग से उस रात औरंगजेब अपने तंबू में नहीं था इसलिए बच गया।

27 साल मुगलों का सम्राट, महाराष्ट्र के जंगलों में छावनियां लगा कर भटकता रहा। रोज यह भय लेकर सोना पड़ता था कि मराठों का आक्रमण न हो जाए।

27 साल कुछ हजार मराठे लाखों मुगलों से लोहा भी ले रहे थे और उन्हें नाकों चने भी चबवा रहे थे। 27 वर्ष सम्राट अपनी राजधानी से दूर था। लाखों रुपए सेना के इस अभियान पर खर्च हो रहे थे। मुगलिया राज दिवालिया हो रहा था। अन्तत: सन 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हो गई। 27 वर्षों के सतत युद्ध और संघर्ष के बाद भी मराठों ने घुटने नहीं टेके। छत्रपति के दिए लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हजारों मराठे बलिदान हो गए लेकिन उन्होंने घुटने नही टेके।

यह इतिहास भी कहां पढ़ाया गया है?

कितने लोग है जिन्हें ताराबाई, संताजी और धनाजी के नाम भी मालूम है, पराक्रम तो छोड़ ही दीजिए?


सबसे अच्छी फिल्म कोनसी ह ?

 


मेरी नज़र में सबसे अच्छी फिल्म तो यह है जिस पर मैंने पहले भी पोस्ट लिखी है।।। ला एबिडिग सिटीजन 2009

फिल्म की कहानी शुरू होती है एक एंजीनियर से इनसे।

इसके परिवार में एक बेटी और पत्नी है। सुबह का समय था नाश्ता परिवार के साथ खा रहे थें तभी अचानक तीन लोगों बंदूक के साथ एंजीनियर के घर में घुसकर चोरी करते हैं और एंजीनियर के परिवार को बंधक बना लेते हैं ।।

उन चोरों में से ये डारबी

एंजीनियर की पत्नी के साथ दुष्कर्म करके एंजीनियर की आंख के सामने उसकी छोटी बेटी को मारकर इजीनियर को भी मांर देता है पर इंजीनियर बच जाता है।।। अब इंजीनियर दोषी को फांसी दिलाने कोर्ट जाता है

इंजीनियर एक प्रसिद्ध वकील को बुलाता है 🙏 इनको

एंजीनियर का वकील कोर्ट की लेट लतीफी और अपने रूतबे यानी कभी ना हारने वाले वकील की इमेज सही करने के लिए ब्लाताकारी दोषी डार्बी से और इंजीनियरिंग से समझौता कर लेता है और डारबी सरकारी गवाह बनकर कुछ दिन सजा पाकर फिर छूट जाता है जिस पर इंजीनियर सरकारी सिस्टम और कानून से चिढ़ जाता है और बदला लेने की ठानता है

अब इंजीनियर किस तरह अपनी बेटी के कातिलों को मारता है सबसे पहले डार्बी को मारता है इस तरह 👇👇👇 टूकडों टूकडों में

फिर पुलिस पकड़ लेती है इंजीनियर को।।।

पर फिर भी इंजीनियर जेल में रहकर भी सभी खूनी और सरकारी सिस्टम पर बैठे बुरे लोगों को भी मारता है इस तरह 👇

यहां तक कि वकील और जज को भी मार देता है।।।।

इस फिल्म का आखिरी सीन जबरदस्त है जब इंजीनियर का वकील इंजीनियर को मारने के लिए उसके जेल में बम फिट कर देता है जो इंजीनियर ने खुद वकील को मारने के लिए लगाया था और इंजीनियरि से पुछता है कया लोगों को मारना बंद नहीं करोगे तब इंजीनियर कहता है जब तक सिस्टम सही नहीं हो जाता तब तक मारूंगा तभी वकील चालाकी से इंजीनियर को जेल में बंद कर देता है जिसमें बम फिट है और आखिर में वकील चालाकी से इंजीनियर को खत्म कर देता है इस तरह

इस फिल्म में इमोशनल ड्रामा सस्पेंस थ्रिलर, सामाजिक संदेश, सबकुछ है।।

इस फिल्म को परिवार के साथ देखें या अकेले।। यह फिल्म mkvmoviespoint vegamovies वेबसाइट पर हिन्दी में उपलब्ध है।।।

ससुराल का हैंडपंप उखड़ना कहाॅं की संस्कृति सभ्यता हैं ? जैसा की सन्नी देओल की फिल्म "" गदर "" में दिखाया गया है ? बताइए ? 🤔 🤔

 

ये एक बहुत ही गंभीर,जघन्य एवं अत्यंत ही निंदनीय कृत्य है।

कहीं का भी हैंडपंप उखाड़ना किसी भी दृष्टि से एक प्रशंसनीय कार्य नहीं माना जायेगा,खासतौर से जब ये ससुराल का हो तो और भी ज्यादा सुरक्षा बरतनी चाहिए।

उस पर से जब ससुराल पहले ही इतनी समस्याओं से जूझ रहा हो तो कौनसा ऐसा समझदार जमाई होगा जो वहां जाए, लोगों को मारे पीटे और उनका हैंडपंप भी उखाड़ लाए।

जब से सनी पाजी ने उस गांव का हैंडपंप उखाड़ा है वहां के लोगों को नहाने-धोने के लाले पड़ गए हैं;इतने लाले की वहां के सारे लाले दी जान 2001 के बाद से नहाए ही नहीं है..धोई भी नहीं..!

और तो और वो हैंडपंप कोई सामान्य हैंडपंप नहीं था। वो एक दुर्लभ हैंडपंप था।

वहां की सरकार ने ये बोलकर वो हैंडपंप लगाया था की उनके कजिन मुलुक की तरह एक दिन उस हैंडपंप से तेल निकलेगा जिसे बेचकर वो और भी बड़ी सेना बनाएंगे, आतंकवादी पालेंगे और काश्मीर हासिल कर लेंगे।

लेकिन जबसे पाजी ने मुआ हैंडपंप उखाड़ा है सरकार की नाक में दम हो गया। अब वो सरकार अपनी सेना को पाले, पूरी दुनियां से लिए उधार का ब्याज चुकता करे, कटोरा लेकर नया उधार मांगने जाए,आतंकवादियों का पेट पाले, नए नए हथियार खरीदे, दस रुपए के थुरतरे खरीदे की कमबख्त इन लोगों के लिए नया हैंडपंप लगाए।

वैसे ये मामला शुरू कैसे हुआ?

हुआ यूं की अशरफ अली ने तारा से जोश जोश में बोल दिया की "तू हमारा क्या उखाड़ लेगा?"

अपने कबीले के नेता को ऐसा बोलते देख पच्चीस तीस चमचे भी तारा को मारने दौड़े। अब उन्हें क्या पता की वो ढाई किलो के हाथ वाले सनी पाजी से पंगा ले रहे हैं;जो किसी को भी पेलने से पहले कोई तारीख नहीं देते। तत्काल प्रभाव से पेल देते हैं।

बस यहां भी यही हुआ,सनी पाजी ने हैंडपंप उखाड़ा और जो भी सामने आया: लेफ्ट राइट सेंटर पेल दिया गया।

हालांकि ये बात 22 वर्ष पुरानी है। लेकिन हाल ही में तारा सिंह जब फिर से उस गांव से गुज़रा तो उसे प्यास लगी।

वो जैसे ही सामने लगे हैंडपंप के पास गया तो उस गांव में भगदड़ मच गई। लोग वहां से ऐसे गायब हुए जैसे उस देश के प्रधानमंत्री गायब हो जाते हैं।

ख़ैर…हम इस कृत्य की निंदा करते हैं। अपने ससुराल का हैंडपंप उखाड़ना भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अनुरूप बिलकुल नहीं है।

इस कृत्य की अत्यंत ही कड़ी निंदा…!

अभी अभी व्हाट्सएप से प्राप्त सूचना के अनुसार 15 जून को अंतरराष्ट्रीय हैंडपंप दिवस घोषित किया जा चुका है।

15 जून इसलिए क्योंकि इसी दिन पहली बार 2001 में तारा ने वहां हैंडपंप उखाड़ा था।

चीन भी इस याद में अपने देश में एक 420 फीट ऊंची हैंडपंप की प्रतिमा लगाने वाला है। सुना है की गदर 3 से लगा के गदर 36 तक तारा सिंह चीन ही जाने वाले हैं। चीन ने उन्हें चैलेंज किया है की ये 420 फीट ऊंचा हैंडपंप उखाड़ के दिखाओ तो माने!

देखते हैं आगे क्या होता है?

रविवार, 20 अगस्त 2023

शेर थे पेशवा बाजीराव जिन्होंने 5 बार हैदराबाद के निज़ाम को हराया था*

Story:
*हैदराबाद का चूहा है ओवैसी... शेर थे पेशवा बाजीराव जिन्होंने 5 बार हैदराबाद के निज़ाम को हराया था* 

पेशवा बाजीराव की जन्म जयंती पर विशेष लेख 

- दूसरा विश्व युद्ध लड़ने वाले बड़े-बड़े जनरल पेशवा बाजीराव से प्रेरणा लेते थे और हमारे देश के बच्चों को स्कूली किताबों में बाजीराव का बा भी नहीं पढ़ाया जाता है 

- ब्रिटिश फ़ील्ड मार्शल बर्नार्ड मॉन्टगॉमेरी ने जर्मनी के All Time War Hero... पूरा उत्तर अफ्रीकी महाद्वीप फतेह करने वाले... एडॉल्फ हिटलर के सबसे बड़े सेनापति... Field Marshal इरविन रोमल को हराया था... 

- ब्रिटेन को सबसे बडी जीत दिलाने वाले जनरल मॉन्टगॉमेरी पेशवा बाजीराव से प्रेरणा लेते थे । मॉन्टगॉमेरी ने अपनी किताब A Concise History of Warfare में लिखा है कि हैदराबाद के निज़ाम के खिलाफ पेशवा बाजीराव का पालखेड़ अभियान स्ट्रेटेजिक मोबिलिटी का मास्टर पीस उदाहरण है आइए इस युद्ध के बारे में आपको बताते हैं 

- साल 1727 में मराठों के राजा छत्रपति शाहू जी महाराज ने अपने प्रधानमंत्री पेशवा बाजीराव को हैदराबाद के निज़ाम... निज़ाम उल मुल्क पर हमले का आदेश दिया 

- 27 अगस्त 1727 को पेशवा बाजीराव ने अपने 15 हजार घुड़सवारों के साथ निज़ाम के खिलाफ अभियान शुरू किया 

- निज़ाम के पास बहुत बड़ी सेना थी... उसके पास 40 हज़ार सेना के अलावा एक बहुत बड़ा तोपख़ाना भी था 

- पेशवा बाजीराव के विश्वस्त सेनापति थे... मल्हार राव होल्कर और राणों जी शिंदे । दोनों पाँच-पाँच हजार के घुड़सवार दस्ते का नेतृत्व कर रहे थे 

- दूसरी तरफ निज़ाम के दो सबसे बड़े जनरल थे... तुर्क ताज खान और ऐबज खान 

- जैसे ही हैदराबाद के निज़ाम को ये जानकारी मिली कि पेशवा बाजीराव हमला करने वाले हैं । निज़ाम ने बड़ी चतुराई दिखाई और ये सोचा कि क्यों ना सीधे पेशवा बाजीराव के गृहनगर पुणे पर ही कब्जा कर लिया जाए । 

- हमले की खबर मिलते वक्त निज़ाम अपने स्ट्रॉन्ग होल्ड औरंगाबाद जा रहा था लेकिन अब उसने फ़ौरन पुणे की ओर कूच किया... रास्ते में 45 जगहों पर कब्जा जमाते हुए निज़ाम ने पुणे पर कब्जा कर लिया . 

- ये खबर बाजीराव को मिली लेकिन वो ज़रा भी विचलित नहीं हुए । युद्ध तो अभी शुरू हुआ था । सितंबर 1727 में पेशवा बाजीराव और उनकी सेना ने निज़ाम के स्ट्रॉन्ग होल्ड जालना और सिंधखेड़ पर कब्जा कर लिया । 

- 5 नवंबर को पेशवा बाजीराव ने निज़ाम के बड़े सेनापति एबज खान को हरा दिया । इसके बाद पेशवा बाजीराव ने निज़ाम के stronghold बीदर, माहुर, मंगरूर और खानदेश को भी अपने क़ब्ज़े में ले लिया 

- निज़ाम को हैरान करते हुए जनवरी 1728 में पेशवा बाजीराव ने गुजरात पर भी हमला कर दिया 

- पेशवा ने अपनी बिजली के जैसी गति से दुश्मन को हैरान कर दिया । पेशवा की सेना में दो घुड़सवारों के पास तीन घोड़े होते थे । इसी वजह से उनकी सेना की स्पीड काफी ज्यादा होती थी 

- निज़ाम को लगा कि पेशवा गुजरात गया लेकिन पेशवा बाजीराव ने दोबारा पलटवार करते हुए निज़ाम के सबसे बड़े स्ट्रॉन्गहोल्ड बुरहानपुर पर भी हमला कर दिया । बुरहानपुर में निज़ाम की सेना हैरान रह गई कि जो पेशवा अभी गुजरात में था अचानक बुरहानपुर कहां से आ धमका । 

- अब बुरहानपुर गँवा देने के बाद हैदराबाद के निज़ाम की हालत बहुत ज्यादा खराब हो गई । निज़ाम अपना किला बचाने के लिए फ़ौरन औरंगाबाद की तरफ भागा कि कहीं औरंगाबाद भी ना हाथ से निकल जाए ।  

- पेशवा बाजीराव की स्ट्रेटेजी एकदम सही साबित हुई । उनको पता था कि बुरहानपुर गँवाने के बाद निज़ाम सीधा औरंगाबाद की तरफ भागेगा । 

- अब पेशवा ने अपनी सबसे बड़ी रणनीति तैयार की । पेशवा बाजीराव ने निज़ाम को पालखेड़ की पहाड़ियों में फँसाने की योजना बनाई । 

- इसकी वजह ये थी कि निज़ाम के पास बहुत शक्तिशाली तोपख़ाना था । ये तोपख़ाना पहाड़ियों पर बेकार हो जाता । जबकि निज़ाम ये चाहता था कि पेशवा बाजीराव से औरंगाबाद के मैदान में जंग लड़ी जाए ताकी तोपों से मराठों को भून दिया जाए । समझने वाली बात ये है कि पेशवा बाजीराव के पास तोपख़ाना नहीं था वो सिर्फ घुड़सवारों से ही युद्ध कर रहे थे । 

- निज़ाम को पालखेड़ की पहाड़ियों में फँसाने के लिए पेशवा बाजीराव के भाई चिमना जी अप्पा ने पहले ही पुरंदर के किले पर पहरा सख्त कर दिया था । आखिरकार निज़ाम को औरंगाबाद जाने के लिए गोदावरी नदी को पार करना पड़ा 

- और वहीं औरंगाबाद से करीब 20 मील दूर पालखेड़ के पहाड़ी इलाक़े में निज़ाम की पूरी सेना बुरी तरह फँस गई । ना खाना... ना पानी... निज़ाम की पूरी फौज तड़प तड़प कर मरने लगी । बाहर निकलने के सारे रास्ते पेशवा बाजीराव ने बंद कर दिए थे । ऐसी जबरदस्त घेराबंदी थी ।

*(मेरे कई मित्रों ने मेरा लेख व्हाट्सएप पर पाने के लिए मुझे इस नंबर 8527524513 पर मिस्ड कॉल तो किया है लेकिन मेरा ये नंबर दिलीप पांडे के नाम से सेव नहीं किया है इसीलिए उनको मेरे लेख नहीं मिल रहे हैं अगर वो मिस्ड कॉल के बाद नंबर भी सेव कर लेंगे तो उनको मेरे लेख जरूर मिलेंगे !)* 

- पेशवा बाजीराव ने छत्रपति शाहू जी महाराज को पत्र लिखा... निज़ाम की सेना और मेरे बीच सिर्फ 4 मील का फ़ासला है... निज़ाम दाने दाने का मोहताज है और जान बख्शने की फ़रियाद कर रहा है । बताएं... निज़ाम के साथ क्या सलूक किया जाए ? मार दिया जाए या संधि करके छोड़ दिया जाए । 

- निज़ाम ने पेशवा के चरणों में झुक झुक कर अपनी जान की भीख माँगी । आखिर...शाहू जी ने निज़ाम की जान बख्श देने का आदेश दिया । पेशवा बाजीराव ने पहले निज़ाम की फौज का पूरा सरेंडर करवाया और इसके बाद उनकी जान बख्श दी । 

- लेकिन अब आप इस बात पर विचार कीजिए कि अगर पेशवा बाजीराव ने निज़ाम का कत्ल कर दिया होता तो क्या हैदराबाद में आज योगी जी को ये कहना पड़ता कि हम हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर कर देंगे ? क्या हैदराबाद से कोई देश के खिलाफ इतना विषवमन कर पाता ?  सोचिएगा इस पर... 

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शनिवार, 19 अगस्त 2023

#मेरठ में हुई एक युवक की मौत का गम बांटने पहुँचे *#बंदर* की उपस्थिति

*#कलियुग में भी ऐसा होता हैं !!!!*
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#मेरठ में हुई एक युवक की मौत का गम बांटने पहुँचे *#बंदर* की उपस्थिति वहाँ सभी को हैरान कर गयी। #मृतक के साथ उस बंदर ने ऐसा व्यवहार किया कि मानों वह मृतक का बहुत करीबी रहा हो। बंदर के हाव-भाव,प्रतिक्रिया और हरकतें बिल्कुल इंसानों जैसी थी।
*एनएएस कालेज* में वरिष्ठ लिपिक *#सुरेंद्र_सिंह* 86/3 #शास्त्री_नगर में रहते हैं। सुरेंद्र सिंह जी का बड़ा बेटा सुनील तोमर (31) तीस हजारी कोर्ट दिल्ली में वकील था। कैंसर की बीमारी से सुनील की शुक्रवार रात दिल्ली में मृत्यु हो गई।
परिजन शनिवार सुबह करीब साढ़े चार बजे उसका शव लेकर घर पहुंचे।घर पहुंचने के बाद जब परिजन और आसपास के लोग गमगीन माहौल में #अंतिम_यात्रा की तैयारी में जुटे थे।तभी करीब पांच बजे *एक बंदर* भीड़ के बीच से होकर *शव के पास* जा बैठा। बंदर ने पहले सुनील के *पैरों को छुआ* और फिर उसके सिर के पास जाकर बैठ गया। जब शव को स्नान कराया गया तो इस बंदर ने भी एक व्यक्ति के हाथ से लोटा लेकर *पानी शव* के ऊपर डाला।

    *#शवयात्रा में भी हुआ शामिल..*

शवयात्रा में शामिल होते हुए बंदर #सूरजकुंड स्थित *#शमशान_घाट* तक जा पहुंचा। उसने *चिता पर लकड़ी* तक रखने का प्रयास किया। बंदर ने कफन में ढके शव का चेहरा उघाड़ कर अंतिम दर्शन करते हुए एक बार फिर उसके पैर छुए,अंतिम क्रिया में परिजनों की मदद की।
अंतिम संस्कार के बाद जब गमगीन लोग हैंड-पंप पर हाथ पांव धोकर पानी पी रहे थे,वहीं क्रिया बंदर ने भी की। अंतिम क्रिया के बाद अन्य लोगों के साथ बंदर फिर सुरेंद्र सिंह के घर वापस आ गया।
*!! #मां और पत्नी से लिपटकर रोया !!*
घर पहुंच कर बंदर ने अपने हाथों से गमगीन लोगों को पानी पीने के लिए गिलास दिए। उसके बाद रोती हुई सुनील की *मां प्रेमवती* की गोद में बैठकर और सुनील की पत्नी पूनम को गले लगकर #सांत्वना दी। लोगों के घर से जाते ही बंदर भी चला गया। लोगों के अनुसार उन्होंने इस बंदर को पहले कभी भी मोहल्ले में नहीं देखा था।

*---#हनुमान_भक्त था सुनील...!!*

सुरेंद्र सिंह ने बताया कि सुनील *हनुमान भक्त* था। #मेहंदीपुर स्थित #बालाजी के दरबार में वह अक्सर जाता था। बालाजी की बहुत ही *#श्रद्धा और #नियम* से पूजा किया करता था। सुरेंद्र सिंह के अनुसार यह बन्दर पहले कभी यहाँ नहीं आया... 

#जय_श्री_राम #जयहनुमान #जय_बजरंग_बली

शुक्रवार, 18 अगस्त 2023

पैसा, औरत और *अदालतों के फ़ैसले* - दयानंद पांडेय

*पैसा, औरत और*
*अदालतों के फ़ैसले*

*दयानंद पांडेय*

विष्णु प्रभाकर की एक कहानी धरती अब भी घूम रही है में एक निर्दोष आदमी जेल चला जाता है। उस के परिवार में सिर्फ दो छोटे बच्चे हैं। एक बेटा और एक बेटी। बच्चे कचहरी और पुलिस के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं। एक रात जज के घर में पार्टी चल रही होती है। लड़का अपनी बहन को ले कर जज के घर में घुस जाता है। जज से अपनी फरियाद करता है और कहता है कि सुना है आप लोग, पैसा और लड़की ले कर फैसला देते हैं। मेरे पास पैसा तो नहीं है पर मैं अपनी बहन को साथ ले आया हूं। आप मेरी बहन को रात भर के लिए रख लीजिए लेकिन मेरे पिता को छोड़ दीजिए। चार-पांच दशक पुरानी इस कहानी की तस्वीर आज भी वही है न्यायपालिका में, बदली बिलकुल नहीं है। बल्कि बेतहाशा बढ़ गई है। न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे की अवधारणा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। सवाल यह भी है कि कितने गरीबों के और जनहित के मसले इस ज्यूडिशियली के खाते में हैं ? सच तो यह है कि यह अमीरों, बेईमानों और अपराधियों के हित साधने वाली ज्यूडीशरी है !

इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच जब कैसरबाग वाली पुरानी बिल्डिंग में थी तब तो एक डायलाग ख़ूब चलता था कि एक ब्रीफकेस और एक लड़की के साथ में क्लार्क होटल में जज साहब को बुला लीजिए, मनचाहा फैसला लिखवा लीजिए। बहुत फैसले लिखे गए इस तरह भी, आज भी लिखे जा रहे हैं, गोमती नगर में शिफ्ट हो गई नई बिल्डिंग में भी। बहुत से मालूम, नामालूम किस्से हैं। मेरा खुद का एक मुकदमा था। पायनियर मैनेजमेंट के खिलाफ कंटेम्पट आफ कोर्ट का। एक कमीने वकील थे पी के खरे। पायनियर के वकील थे। काला कोट पहने अपने काले और कमीने चेहरे पर बड़ा सा लाल टीका लगाते थे। कहते फिरते थे कि मैं चलती-फिरती कोर्ट हूं। लेकिन सिर्फ तारीख लेने के मास्टर थे। कभी बीमारी के बहाने, कभी पार्ट हर्ड के बहाने, कभी इस बहाने, कभी उस बहाने सिर्फ और सिर्फ तारीख लेते थे। बाहर बरामदे में कुत्तों की तरह गश्त करते रहते थे और उन का कोई जूनियर बकरी की तरह मिमियाते हुआ कोर्ट में कोई बहाना लिए खड़ा हो जाता, तारीख मिल जाती। एक बार इलाहाबाद से जस्टिस पालोक बासु आए। सुनता था कि बहुत सख्त जज हैं। वह लगातार तीन दिन तारीख पर तारीख देते रहे। अंत में एक दिन पी के खरे के जूनियर पर वह भड़के, आप के सीनियर बहुत बिजी रहते हैं ? जूनियर मिमियाया, यस मी लार्ड ! तो पालोक बसु ने भड़कते हुए एक दिन बाद की तारीख़ देते हुए कहा कि शार्प १०-१५ ए एम ऐज केस नंबर वन लगा रहा हूं। अपने सीनियर से कहिएगा कि फ्री रहेंगे और आ जाएंगे।

लोगों ने, तमाम वकीलों ने मुझे बधाई दी और कहा कि खरे की नौटंकी अब खत्म। परसों तक आप का कम्प्लायन्स हो जाएगा। सचमुच उस दिन पी के खरे अपने काले चेहरे पर कमीनापन पोते हुए, लाल टीका लगाए कोर्ट में उपस्थित दिखे। पूरे ठाट में थे। ज्यों ऐज केस नंबर वन पर मेरा केस टेक अप हुआ, बुलबुल सी बोलने वाली सुंदर देहयष्टि वाली, बड़े-बड़े वक्ष वाली एक वकील साहिबा खड़ी हो गईं, वकालतनामा लिए कि अपोजिट पार्टी फला की तरफ से मैं केस लडूंगी। मुझे केस समझने के लिए, समय दिया जाए। पालोक बसु उन्हें समय देते हुए नेक्स्ट केस की सुनवाई पर आ गए। मैं हकबक रह गया। पता चला बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा वकील की देह गायकी में पालोक बसु सेट हो चुके थे। मेरा केस बाकायदा जयहिंद हो चुका था। बाद में यह पूरा वाकया मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में दर्ज किया। इस से हुआ यह कि बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा जस्टिस होने से वंचित हो गईं। मोहतरमा सारी कलाओं से संपन्न थीं ही, रसूख वाली भी थीं। सो जस्टिस के लिए इन का नाम तीन-तीन बार पैनल में गया। लेकिन उन का नाम इधर पैनल में जाता था, उधर उन के शुभचिंतक लोग मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के वह पन्ने जिस में उन का दिलचस्प विवरण था,  फ़ोटोकापी कर राष्ट्रपति भवन से लगायत गृह मंत्रालय, कानून मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट भेज देते। हर बार वह फंस गईं और जस्टिस होने से वंचित हो गईं। संयोग यह कि जिस नए अख़बार में बाद में मैं गया, वहां वह पहले ही से पैनल में थीं। वहां भी मेरी नौकरी खाने की गरज से मैनेजमेंट में मेरी ज़बरदस्त शिकायत कर बैठीं। मैं ने उन्हें संक्षिप्त सा संदेश भिजवा दिया कि मुझे तो फिर कहीं नौकरी मिल जाएगी पर वह अभी एक छोटे से हवा के झोंके में फंसी हैं, लेकिन अगर उन के पूरे जीवन वृत्तांत का विवरण किसी नए उपन्यास में लिख दिया तो फिर उन का क्या होगा, एक बार सोच लें।  सचमुच उन्हों ने सोच लिया। और खामोश हो गईं। मैं ने उस संस्थान में लंबे समय तक नौकरी की।

बसपा नेता सतीश मिश्रा भी एक समय जस्टिस बनना चाहते थे।  उन के पिता भी जस्टिस रहे थे। गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय से उन का नाम क्लियर हो गया। लेकिन राष्ट्रपति के यहां  फाइल फंस गई।  कोई  और राष्ट्रपति रहा होता तो शायद इधर-उधर कर के बात बन गई होती। लेकिन तब राष्ट्रपति थे ए पी जे अब्दुल कलाम। हुआ यह था कि सतीश मिश्रा बिल्डर भी हैं।  तो बतौर बिल्डर भी इनकम टैक्स रिटर्न भरना शो किया था। कलाम  की कलम ने फ़ाइल पर लिख दिया कि एक बिल्डर भला जस्टिस कैसे बन सकता है ? और सतीश मिश्रा के जस्टिस होने पर ताला लग गया। फिर वह नेता बन कर मायावती के अर्दली और विश्वस्त पिछलग्गू बन गए।

कांग्रेस प्रवक्ता और राज्य सभा सदस्य अभिषेक मनु सिंधवी अपने चैंबर में एक समय एक महिला वकील से  मुख मैथुन का लाभ लेते हुए किस तरह जस्टिस बनवाने का वादा करते हुए एक वीडियो में वायरल हुए थे, लोग अभी भी भूले नहीं होंगे। तो सोचिए कि जस्टिस बनने के लिए भी लोग क्या-क्या नहीं कर गुज़रते।  फिर यही लोग जस्टिस बन कर क्या-क्या नहीं कर गुज़रते होंगे। फिर अगर सिंधवी के ड्राइवर ने वह वीडियो वायरल नहीं किया होता तो क्या पता वह मोहतरमा जस्टिस बन ही गई होतीं तो कोई क्या कर लेता भला ? फिर जस्टिस बन कर वह क्या करतीं यह भी सोचा जा सकता है।

खैर, इसी लखनऊ बेंच में एक थे जस्टिस यू के धवन। उन का किस्सा तो और गज़ब था। एक सीनियर वकील की जूनियर हो कर आई थीं योगिता चंद्रा। सीनियर ने एकाध केस में अपनी इस जूनियर को जस्टिस धवन के सामने पेश कर दिया। बात इतनी बन गई मैडम चंद्रा की कि अब वह सीधे जस्टिस धवन से मिलने लगीं। उन के साथ रोज लंच करने लगीं। इतना कि अब उन के सीनियर मैडम चंद्रा के जूनियर बन कर रह गए। उन के पीछे-पीछे चलने लगे। जस्टिस धवन की कोर्ट में मैडम चंद्रा का वकालतनामा लग जाना ही केस जीत जाने की गारंटी बन गई। देखते ही देखते मैडम की फीस लाखों में चली गई। जिरह, बहस कोई और वकील करता लेकिन साथ में मैडम चंद्रा का वकालतनामा भी लगा होता। जस्टिस धवन मैडम पर बहुत मेहरबान हुए। एक जस्टिस इम्तियाज मुर्तुजा भी इन पर मेहरबान हुए। इतना कि उन का सेलेक्शन हायर ज्यूडिशियल सर्विस में हो गया। लेकिन ऐन ज्वाइनिंग के पहले उन पर एक क्रिमिनल केस का खुलासा हो गया। सारी सेटिंग स्वाहा हो गई।

मैं फर्स्ट फ्लोर पर रहता हूं। एक समय हमारे नीचे ग्राउंड फ्लोर पर एक सी जे एम रहते थे। अकसर कुछ ख़ास वकील उन के घर आते रहते थे। किसिम-किसिम के पैकेट आदि-इत्यादि लिए हुए। सी जे एम की बेगम ही अमूमन उन वकीलों से मिलती थीं। वह अचानक दीवार देखते हुए बोलतीं , क्या बताएं ए सी बहुत आवाज़ कर रहा है। शाम तक नया ए सी लग जाता। वह बता देतीं कि फला ज्वेलर के यहां गई थी, एक डायमंड नेकलेस पसंद आ गई लेकिन इन को समय ही नहीं मिलता। शाम तक वह हार घर आ जाता। विभिन्न वकील और पेशकार उन की फरमाइशें सुनने के लिए बेताब रहते थे। ठीक यही हाल सेकेंड फ्लोर पर रहने वाले एक ए डी जे का था। हालत यह है कि यह जज लोग घर की सब्जी भी  पैसे से नहीं खरीदते, न एक मच्छरदानी का एक डंडा। ज़िला जज भी हमारे पड़ोसी हैं। विभिन्न जिला जजों की अजब-गज़ब कहानियां हैं। 

लोग अकसर कोर्ट का फैसला कह कर कूदते रहते हैं लेकिन कोर्ट कैसे और किस बिना पर फैसले देती है, यह कितने लोग जानते हैं भला। फिर जितने फ्राड, भ्रष्ट और गुंडे अकसर जो कहते रहते हैं कि न्याय पालिका में उन्हें पूरा विश्वास है तो क्या वैसे ही ? बिकाऊ माई लार्ड लोग बिकते रहते हैं और इन मुजरिमों का न्यायपालिका में विश्वास बढ़ता रहता है । किस्से तो बहुतेरे हैं लेकिन यहां एक-दो किस्से का ज़िक्र किए देता हूं। लखनऊ में एक समय बड़े होटल के नाम पर सिर्फ क्लार्क होटल ही था। बाद के दिनों में ताज रेजीडेंसी खुल गया। ताज के चक्कर में क्लार्क होटल की मुश्किल खड़ी हो गई। हुआ यह कि क्लार्क होटल के सामने बेगम हज़रत महल पार्क है। पहले सारी राजनीतिक रैलियां, नुमाइश, लखनऊ महोत्सव वगैरह बेगम हज़रत महल पार्क में ही होते थे।  तो शोर-शराबा बहुत होता था। सो लोग क्लार्क होटल सुविधाजनक होने के बावजूद छोड़-छोड़ जाने लगे। अब क्लार्क के मालिकान के माथे बल पड़ गया। उन दिनों मायावती मुख्य मंत्री थीं। क्लार्क के मालिकानों ने मायावती से मुलाकात की। कि यह सब रुकवा दें बेगम हज़रत महल पार्क में। मायावती ने तब के दिनों सीधे पांच करोड़ मांग लिए।  यह बहुत भारी रकम थी। बात एक वकील की जानकारी में आई। उस ने क्लार्क होटल के मालिकान का यह काम सिर्फ पांच लाख में हाईकोर्ट से करवा दिया। जज साहब को एक लड़की और पांच लाख दिए। एक जनहित याचिका दायर की गई। जिस में बेगम हज़रत महल पार्क को पुरातात्विक धरोहर घोषित करने की मांग करते हुए यहां  रैली और नुमाइश आदि बंद करने की प्रार्थना की गई। जज साहब ने न सिर्फ़ यह प्रार्थना स्वीकार कर ली बल्कि इस पार्क को हरा-भरा रखने की ज़िम्मेदारी भी लखनऊ विकास प्राधिकरण को दे दी। अब समस्या ताज होटल को हुई। आज जहां आंबेडकर पार्क है वहां आवासीय कालोनी प्रस्तावित थी। अगर वहां आवासीय कालोनी बन जाती तो ताज का सौंदर्य और खुलापन बिगड़ जाता। तो मायावती के सचिव पी एल पुनिया को साधा गया। क्यों कि मायावती बहुत मंहगी पड़ रही थीं। पुनिया सस्ते में सेट हो गए। और आवासीय कालोनी रद्द कर आंबेडकर पार्क बनाने का प्रस्ताव बनवा दिया। कांशीराम और मायावती को पसंद आ गया। बाद में मुलायम सिंह सरकार में आए तो ताज वालों ने अपने पिछवाड़े कोई आवासीय कालोनी न बन जाए, लोहिया पार्क बनवाने की तजवीज तब के लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष बी बी सिंह से दिलवा दिया अमर सिंह को। मुलायम को भी प्रस्ताव पसंद आ गया। बन गया लोहिया पार्क। दो सौ रुपए के पौधे, दो हज़ार, बीस हज़ार में ख़रीदे गए। बी बी सिंह ने भ्रष्टाचार की वह मलाई काटी कि मायावती ने सत्ता में वापस आते ही बी बी सिंह को सस्पेंड कर दिया। बी बी सिंह को रिटायर हुए ज़माना हो गया लेकिन आज तक उन का सस्पेंशन नहीं समाप्त हुआ। अब आगे भी खैर क्या होगा। वैसे भी बी बी सिंह ने अमर सिंह की छाया में अकूत संपत्ति कमाई। कई सारे मॉल और अपार्टमेंट बनवा लिए। भले कब्रिस्तान तक बेच दिए, ग्रीन बेल्ट बेच दिया जिस पर मेट्रो सिटी बन कर उपस्थित है।

ऐसा भी नहीं है कि हाईकोर्ट का इस्तेमाल सिर्फ होटल वालों ने अपने हित के लिए ही किया हो।  अपने प्रतिद्वंद्वी होटलों के खिलाफ भी खूब किया है। जैसे कि लखनऊ में गोमती नदी के उस पार ताज होटल है, वैसे ही गोमती नदी के इस पार जे पी ग्रुप ने होटल खोलने का इरादा किया। मायावती मुख्य मंत्री थीं। उन्हों ने ले दे कर डील पक्की कर दी। न सिर्फ डील पक्की कर दी बल्कि होटल बनाने के लिए गोमती का किनारा पटवा दिया। पास की बालू अड्डा कालोनी के अधिग्रहण की भी तैयारी हो गई। सुंदरता के लिहजा से।  कि होटल का अगवाड़ा भी सुंदर दिखे। बालू अड्डा के गरीब बाशिंदे भी खुश हुए कि अच्छा खासा मुआवजा मिलेगा। अब ताज होटल के मालिकान के कान खड़े हो गए। फिर वही जनहित याचिका, वही हाईकोर्ट, वही जज, वही लड़की, वही पैसा। पर्यावरण की दुहाई अलग से दी गई। जे पी ग्रुप द्वारा गोमती तट पर होटल बनाने पर रोक लग गई। तब जब कि गोमती का किनारा तो जितना पटना था पाट दिया गया था।  आज भी पटा हुआ है। हां, वहां होटल की जगह अब म्यूजिकल फाउंटेन पार्क बन गया है।

प्रेमचंद ने लिखा है कि न्याय भी लक्ष्मी की दासी है। लेकिन बात अब बहुत आगे बढ़ गई है। हाईकोर्ट और हाईकोर्ट के जजों ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए हैं कि अगर इन की न्यायिक तानाशाही न हो, सही जांच हो जाए तो अस्सी प्रतिशत जस्टिस लोग जेल में होंगे। सोचिए कि अपने को जब-तब कम्युनिस्ट बताने वाले जस्टिस सैयद हैदर अब्बास रज़ा ने बतौर जस्टिस ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि पूछिए मत। कांग्रेस नेता मोहसिना किदवई ने इन्हें जस्टिस बनवाया था सो सारे फैसले इन के कांग्रेस के पक्ष में ही रहते थे। यहां तक तो गनीमत थी। अयोध्या मंदिर मसले पर भी जनाब ने सुनवाई की थी। बेंच में शामिल जस्टिस एस  सी माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने समय रहते ही अपना फैसला लिखवा दिया था लेकिन जस्टिस रज़ा का फैसला लंबे समय तक नहीं लिखा गया। सो फैसला रुका रहा। लगता है इस में भी कुछ पाने की उम्मीद बांधे रहे थे वह। खैर, जब अयोध्या में जब ढांचा गिर गया तो जस्टिस रज़ा ने फैसला लिखवा दिया। और इस फैसले में भी कोई कानूनी राय नहीं, दार्शनिक भाषण और लफ्फाजी का पुलिंदा था। जब कि जस्टिस माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने मंदिर वाले हिस्से पर प्रतीकात्मक कारसेवा की इजाजत दे दी थी। अगर रज़ा भी समय से अपना फैसला लिखवा दिए होते थे लफ्फाजी वाला ही सही तो शायद कारसेवक प्रतीकात्मक कारसेवा कर चले गए होते। रिवोल्ट नहीं हुआ होता और विवादित ढांचा न गिरा होता। लेकिन रज़ा की रजा नहीं थी। सो देश एक भीषण संकट में फंस गया। जस्टिस रज़ा की मनमानी और अय्यासी के तमाम किस्से हैं। पर एक बानगी सुनिए। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सी बी आई ने एक चिटफंडिए के खिलाफ वारंट लिया था। लेकिन गज़ब यह कि पांच लाख रुपए प्रतिदिन के हिसाब से ले कर इन्हीं जस्टिस रज़ा ने छुट्टी में अपने घर पर कोर्ट खोल कर ज़मानत दे दी थी। टिल डेट, टिल डेट की इस ज़मानत के खेल में और भी कई जस्टिस शामिल हुए। पैसे और लड़की की अय्यासी करते हुए।

एक हैं जस्टिस पी सी वर्मा। घनघोर पियक्क्ड़ और जातिवादी। मेरी कालोनी में ही रहते थे। तब सरकारी वकील थे। रोज मार्निंग वाक पर निकल कर अपनी लायजनिंग करते थे। लायजनिंग कामयाब हो गई तो यह भी जस्टिस हो गए। महाभ्रष्ट जजों में शुमार होते हैं जनाब। एक से एक नायाब फैसले देने लगे। लेकिन जब वह बहुत बदबू करने लगे तो सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें उत्तराखंड भेज दिया। लेकिन वहां भी ब्रीफकेस और लड़की का खेल उन का जारी रहा। ऐसे ही एक जस्टिस हुए जस्टिस भल्ला। उन के कारनामे भी बहुत हैं। लेकिन जब उन की शिकायत बहुत बढ़ गई तो वह छत्तीसगढ़ भेज दिए गए चीफ़ जस्टिस बना कर।

कभी कहीं पढ़ा था कि किसी सक्षम देश के लिए सेना से भी ज़्यादा ज़रूरी है न्यायपालिका। तो क्या ऐसी ही न्यायपालिका ?

सोचिए कि यह वही लखनऊ बेंच है जिस में एक बार तब के सीनियर जस्टिस यू सी श्रीवास्तव ने उन्नाव के तब के सी जी एम को हथकड़ी पहनवा कर हाईकोर्ट में तलब किया था। मामला कंटेम्प्ट का था। यू सी एस नाम से खूब मशहूर थे वह। अपनी ईमानदारी और फैसलों के लिए लोग उन्हें आज भी याद कर लेते हैं। जस्टिस यू सी श्रीवास्तव का तर्क था कि अगर एक न्यायाधीश ही हाईकोर्ट का फैसला नहीं मानेगा तो बाकी लोग कैसे मानेंगे। सी जी एम को हथकड़ी लगा कर हाईकोर्ट में पेश करने का संदेश दूर तक गया था तब। कंटेम्प्ट के मामले शून्य हो गए थे। पर अब ? अब तो हर पांचवा, दसवां फैसला कंटेम्प्ट की राह देख रहा है। हज़ारों कंटेम्प्ट केस की फाइलें धूल फांक रही हैं।

यही यू सी एस जब रिटायर हो गए तो रवींद्रालय में आयोजित एक कार्यक्रम में दर्शक दीर्घा से किसी ने पूछा कि इज्जत और शांति से रहने का तरीका बताएं। उन दिनों लखनऊ की कानून व्यवस्था बहुत बिगड़ी हुई थी। बेपटरी थी। यू सी एस ने कहा, जब कोई नया एस एस पी आता है तो उसे फोन कर बताता हूं कि रिटायर जस्टिस हूं, ज़रा मेरा खयाल रखिएगा। इसी तरह नए आए थानेदार को भी फोन कर बता देता हूं कि भाई रिटायर जस्टिस हूं, मेरा खयाल रखिएगा। इलाक़े के गुंडे से भी फोन कर यही बात बता देता हूं। घर में बिजली जाने पर सुविधा के लिए जेनरेटर लगा रखा है। पानी के लिए टुल्लू लगा रखा है।  इस तरह मैं तो इज्जत और शांति से रहता हूं। अपनी आप जानिए।

एक किस्सा ब्रिटिश पीरियड का भी मन करे तो सुन लीजिए। उन दिनों आई सी एस जिलाधिकारी और ज़िला जज दोनों का काम देखा करते थे। लखनऊ के मलिहाबाद में आम के बाग़ का एक मामला सुनवाई के लिए आया उस जज के पास। एक विधवा और उस के देवरों के बीच बाग़ का मुकदमा था। फ़ाइल देख कर वह चकरा गया। दोनों ही पक्ष अपने-अपने पक्ष में मज़बूत थे। फैसला देना मुश्किल हो रहा था। बहुत उधेड़बन के बाद एक रात उस ब्रिटिशर्स ने अपने ड्राइवर से कहा कि एक बड़ी सी रस्सी ले लो और गाड़ी निकालो। रस्सी ले कर वह मलिहाबाद के उस बाग़ में पहुंचा और ड्राइवर से कहा कि मुझे एक पेड़ में बांध दो। और तुम गाड़ी ले कर यहां से जाओ। ड्राइवर के हाथ-पांव फूल गए। बोला, अंगरेज को बांधूंगा तो सरकार फांसी दे देगी, नौकरी खा जाएगी, जेल भेज देगी। आदि-इत्यादि। अंगरेज ने कहा, कुछ नहीं होगा। हां, अगर ऐसा नहीं करोगे तो ज़रूर कुछ न कुछ हो जाएगा। ड्राइवर ने अंगरेज को एक पेड़ से बांध दिया। अंगरेज ने कहा, अब घर जाओ। और भूल कर भी यह बात किसी और को मत बताना। ड्राइवर चला गया। अब सुबह हुई तो इलाके में यह खबर आग की तरह फैल गई कि किसी ने एक अंगरेज को पेड़ में बांध दिया है। तो बाग़ में भारी भीड़ इकट्ठा हो गई। पूछा गया उस अंगरेज से कि किस ने बांधा आप को इस पेड़ से। अंगरेज ने बड़ी मासूमियत से बता दिया कि  जिस का बाग़ है, उसी ने बांधा है। अब उस विधवा के दोनों देवर बुलाए गए। दोनों बोले, यह बाग़ ही हमारा नहीं है, तो हम क्यों बांधेंगे भला इस अंगरेज को। फिर वह विधवा भी बुलाई गई। आते ही वह बेधड़क बोली, बाग़ तो हमारा ही है, लेकिन मैं ने इस अंगरेज को पेड़ से बांधा नहीं है। तब तक पुलिस भी आ गई। पुलिस ने अपने जिलाधिकारी को पहचान लिया। फैसला भी हो गया कि यह आम का बाग़ किस का है।

पर आज तो फैसले की यह बिसात बदल गई है। पैसा, लड़की और राजनीतिक प्रभाव के बिना कोई फैसला नामुमकिन हो चला है। लाखों की बात अब करोड़ो तक पहुंच चुकी है। भुगतान सीधे न हो कर तमाम दूसरे तरीके ईजाद हो चुके हैं। ब्लैंक चेक विथ बजट दे दिया जाना आम है। किस ने दिया, किस ने निकाला, किस नाम से कब निकाला कोई नहीं जानता। इस लिए अब न्याय सिर्फ पैसे वालों के लिए ही शेष रह गया है। जनहित याचिका वालों के लिए रह गया है।

आतंकवादियों, अपराधियों और रसूख वालों के लिए रह गया है। न्यायपालिका अब बेल पालिका में तब्दील है। गरीब आदमी के लिए तारीख है, तारीख की मृगतृष्णा है। जैसे राम जानते थे कि सोने का मृग नहीं होता, फिर भी सीता की फरमाइश पर वह सोने के मृग के पीछे भागे थे और फिर लौट कर हे खग, मृग हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता मृगनैनी ! कह कर सीता को खोजते फिरे थे। ठीक वैसे ही सामान्य आदमी भी जानता है कि न्याय नहीं है उस के लिए कहीं भी पर वह न्याय खोजता, इस वकील, उस वकील के पीछे भागता हुआ, इस कोर्ट से उस कोर्ट दौड़ता रहता है। पर न्याय फिर भी नहीं पाता। तारीखों के मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है। न निकल पाता है, न उस में रह पाता है। वसीम बरेलवी बरेलवी याद आते हैं :

हर शख्श दौड़ता है 
यहां भीड़ की तरफ
फिर ये भी चाहता है 
कि उसे रास्ता मिले।

इस दौरे मुंसिफी में 
ज़रुरी तो नही वसीम 
जिस शख्स की खता 
हो उसी को सज़ा मिले।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ हाईकोर्ट और निचली अदालतों में ही यह पैसा और लड़की वाली बीमारी है। सुप्रीम कोर्ट में भी जस्टिस लोगों के अजब-गज़ब किस्से हैं। फ़िलहाल एक क़िस्सा अभी सुनाता हूं। उन दिनों राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री। अमिताभ बच्चन के चलते राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच मतभेद शुरु हो गए थे। बोफोर्स का किस्सा तब तक सीन में नहीं था। थापर ग्रुप के चेयरमैन ललित मोहन थापर राजीव गांधी के तब बहुत करीबी थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अचानक उन्हें फेरा के तहत गिरफ्तार करवा दिया। थापर की गिरफ्तारी सुबह-सुबह हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के कई सारे जस्टिस लोगों से संपर्क किया थापर के कारिंदों और वकीलों ने। पूरी तिजोरी खोल कर मुंह मांगा पैसा देने की बात हुई। करोड़ो का ऑफर दिया गया। लेकिन कोई एक जस्टिस भी थापर को ज़मानत देने को तैयार नहीं हुआ। यह वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सख्ती का असर था। कोई जस्टिस विवाद में घिरना नहीं नहीं चाहता था। लेकिन दोपहर बाद पता चला कि एक जस्टिस महोदय उसी दिन रिटायर हो रहे हैं। उन से संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि मैं तो दिन बारह बजे ही रिटायर हो गया। फिर भी मुंह मांगी रकम पर अपनी इज्जत दांव पर लगाने के लिए वह तैयार हो गए। उन्हों ने बताया कि बैक टाइम में मैं ज़मानत पर दस्तखत कर देता हूं लेकिन बाक़ी मशीनरी को बैक टाइम में तैयार करना आप लोगों को ही देखना पड़ेगा। और जब तिजोरी खुली पड़ी थी तो बाबू से लगायत रजिस्ट्रार तक राजी हो गए। शाम होते-होते ज़मानत के कागजात तैयार हो गए। पुलिस भी पूरा सपोर्ट में थी। लेकिन चार बजे के बाद पुलिस थापर को ले कर तिहाड़ के लिए निकल पड़ी। तब के समय में मोबाईल वगैरह तो था नहीं। वायरलेस पर यह संदेश दिया नहीं जा सकता था। तो लोग दौड़े जमानत के कागजात ले कर। पुलिस की गाड़ी धीमे ही चल रही थी। ठीक तिहाड़ जेल के पहले पुलिस की गाड़ी रोक कर ज़मानत के कागजात दे कर ललित मोहन थापर को जेल जाने से रोक लिया गया। क्यों कि अगर तिहाड़ जेल में वह एक बार दाखिल हो जाते तो फिर कम से कम एक रात तो गुज़ारनी ही पड़ती। पुलिस ने भी फिर सब कुछ बैक टाइम में मैनेज किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब तक यह सब पता चला तब तक चिड़िया दाना चुग चुकी थी। वह हाथ मल कर रह गए। लेकिन इस का असर यह हुआ कि वह जल्दी ही वित्त मंत्री के बजाय रक्षा मंत्री बना दिए गए। राजीव गांधी की यह बड़ी राजनीतिक गलती थी। क्यों कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे दिल पर ले लिया था। कि तभी टी एन चतुर्वेदी की बोफोर्स वाली रिपोर्ट आ गई जिसे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने न सिर्फ लपक लिया बल्कि एक बड़ा मुद्दा बना दिया। राजीव गांधी के लिए यह बोफोर्स काल बन गया और उन का राजनीतिक अवसान हो गया।

आप लोगों को अभी जल्दी ही बीते सलमान खान प्रसंग की याद ज़रूर होगी। हिट एंड रन केस में लोवर कोर्ट ने इधर सजा सुनाई, उधर फ़ौरन ज़मानत देने के लिए महाराष्ट्र हाई कोर्ट तैयार मिली। कुछ मिनटों में ही सजा और ज़मानत दोनों ही खेल हो गया। तो क्या फोकट में यह सब हो गया ? सिर्फ वकालत के दांव-पेंच से ? फिर किस ने क्या कर लिया इन अदालतों और जजों का ? भोजपुरी के मशहूर गायक और मेरे मित्र बालेश्वर एक गाना गाते थे, बेचे वाला चाही, इहां सब कुछ बिकाला। तो क्या वकील, क्या जज, क्या न्याय यहां हर कोई बिकाऊ है। बस इन्हें खरीदने वाला चाहिए।  पूछने को मन होता है आप सभी से कि, न्याय बिकता है, बोलो खरीदोगे !

यह किस्से अभी खत्म नहीं हुए हैं। और भी ढेर सारे किस्से हैं इन न्यायमूर्तियों के बिकने के और थैलीशाहों द्वारा इन्हें बारंबार खरीदने के। इन की औरतबाजी के किस्से और ज़्यादा।

*दयानंद पांडेय* 
*बरिष्ठ साहित्यकार* 
*व*
*संरक्षक* 
*अंतरराष्ट्रीय भोजपुरी* *सेवा न्यास परिवार*

सिंजारा आज - सिंधारा दूज का महत्व सुहागिनों के लिए बहुत मायने रखता है

सिंजारा आज
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सिंधारा दूज का महत्व सुहागिनों के लिए बहुत मायने रखता है।
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19 अगस्त 2023 को हरियाली तीज का पर्व है। हिंदू धर्म में हरियाली तीज से एक दिन पहले सिंधारा दूज मनाई जाती है। सावन माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को मनाई जाने वाली सिंधारा दूज और हरियाली तीज का गहरा संबंध है।

इसे सिंजारा भी कहते हैं। हरियाली तीज के एक दिन पहले सिंधारे में मायके से बेटी के लिए कुछ विशेष सामान भेजा जाता है। सिंधारा दूज का महत्व सुहागिनों के लिए बहुत मायने रखता है।

सिंधारा दूज की तिथि
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इस साल हरियाली तीज से एक दिन पहले 18 अगस्त 2023 को सिंधारा दूज का पर्व मनाया जाएगा। इसमें अगर बेटी ससुराल में होती है तो मायके से सिंधारा भेजा जाता है और यदि बहू मायके गई हो तो ससुराल से सिंधारा जाता है।

हरियाली तीज पर सिंधारा दूज का महत्व 
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सिंधारे की परंपरा खासतौर पर पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में निभाई जाती है। हरियाली तीज के एक दिन पहले शादीशुदा महिलाएं के मायके या ससुराल से सोलह श्रृंगार का सामान भेजा जाता है, इसे सिंधारा कहते हैं। इसमें कपड़े, सिंगार का सामान, मिठाइयां भेजी जाती हैं। मान्यता है कि सिंधारे की परंपरा निभाते हुए बहू-बेटी को सदा अखंड सौभाग्य का आशीर्वाद दिया जाता है।

कैसे मनाई जाती है सिंधारा दूज 
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सिंधारा दूज नई नवेली दुल्हन के लिए बहुत खास पर्व होता है। कई जगहों पर शादी के बाद नवविवाहिता पहली हरियाली तीज मायके में मनाती हैं। इसमें ससुराल से उनके लिए सिंधारा आता है जिसमें सुहाग का सामान, कपड़े, गहनें होते हैं। इन्हीं को पहनकर वह हरियाली तीज की पूजा करती हैं। सिंधोरे में आए उपहार आपस में बांटे भी जाते हैं। फल-मिठाईयां, उपहार, कपड़े और सुहाग के सामान को बांटने का भी रिवाज होता है।

सिंजारे में होता है ये खास सामान 
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हरी चूड़ी, बिंदी, सिंदुर, काजल , मेहंदी , नथ, गजरा ,

मांग टीका, कमरबंद, बिछिया, पायल, झुमके , बाजूबंद, 

अंगूठी, कंघा, आदि दिए जाते हैं। सोने के आभूषण

मिठाई - घेवर, रसगुल्ला, मावे की बर्फी भी भेज सकते हैं।

बहू-बेटी के अलावा परिवार के लिए कपड़े।


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