*पैसा, औरत और*
*अदालतों के फ़ैसले*
*दयानंद पांडेय*
विष्णु प्रभाकर की एक कहानी धरती अब भी घूम रही है में एक निर्दोष आदमी जेल चला जाता है। उस के परिवार में सिर्फ दो छोटे बच्चे हैं। एक बेटा और एक बेटी। बच्चे कचहरी और पुलिस के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं। एक रात जज के घर में पार्टी चल रही होती है। लड़का अपनी बहन को ले कर जज के घर में घुस जाता है। जज से अपनी फरियाद करता है और कहता है कि सुना है आप लोग, पैसा और लड़की ले कर फैसला देते हैं। मेरे पास पैसा तो नहीं है पर मैं अपनी बहन को साथ ले आया हूं। आप मेरी बहन को रात भर के लिए रख लीजिए लेकिन मेरे पिता को छोड़ दीजिए। चार-पांच दशक पुरानी इस कहानी की तस्वीर आज भी वही है न्यायपालिका में, बदली बिलकुल नहीं है। बल्कि बेतहाशा बढ़ गई है। न्याय हो और होता हुआ दिखाई भी दे की अवधारणा पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। सवाल यह भी है कि कितने गरीबों के और जनहित के मसले इस ज्यूडिशियली के खाते में हैं ? सच तो यह है कि यह अमीरों, बेईमानों और अपराधियों के हित साधने वाली ज्यूडीशरी है !
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच जब कैसरबाग वाली पुरानी बिल्डिंग में थी तब तो एक डायलाग ख़ूब चलता था कि एक ब्रीफकेस और एक लड़की के साथ में क्लार्क होटल में जज साहब को बुला लीजिए, मनचाहा फैसला लिखवा लीजिए। बहुत फैसले लिखे गए इस तरह भी, आज भी लिखे जा रहे हैं, गोमती नगर में शिफ्ट हो गई नई बिल्डिंग में भी। बहुत से मालूम, नामालूम किस्से हैं। मेरा खुद का एक मुकदमा था। पायनियर मैनेजमेंट के खिलाफ कंटेम्पट आफ कोर्ट का। एक कमीने वकील थे पी के खरे। पायनियर के वकील थे। काला कोट पहने अपने काले और कमीने चेहरे पर बड़ा सा लाल टीका लगाते थे। कहते फिरते थे कि मैं चलती-फिरती कोर्ट हूं। लेकिन सिर्फ तारीख लेने के मास्टर थे। कभी बीमारी के बहाने, कभी पार्ट हर्ड के बहाने, कभी इस बहाने, कभी उस बहाने सिर्फ और सिर्फ तारीख लेते थे। बाहर बरामदे में कुत्तों की तरह गश्त करते रहते थे और उन का कोई जूनियर बकरी की तरह मिमियाते हुआ कोर्ट में कोई बहाना लिए खड़ा हो जाता, तारीख मिल जाती। एक बार इलाहाबाद से जस्टिस पालोक बासु आए। सुनता था कि बहुत सख्त जज हैं। वह लगातार तीन दिन तारीख पर तारीख देते रहे। अंत में एक दिन पी के खरे के जूनियर पर वह भड़के, आप के सीनियर बहुत बिजी रहते हैं ? जूनियर मिमियाया, यस मी लार्ड ! तो पालोक बसु ने भड़कते हुए एक दिन बाद की तारीख़ देते हुए कहा कि शार्प १०-१५ ए एम ऐज केस नंबर वन लगा रहा हूं। अपने सीनियर से कहिएगा कि फ्री रहेंगे और आ जाएंगे।
लोगों ने, तमाम वकीलों ने मुझे बधाई दी और कहा कि खरे की नौटंकी अब खत्म। परसों तक आप का कम्प्लायन्स हो जाएगा। सचमुच उस दिन पी के खरे अपने काले चेहरे पर कमीनापन पोते हुए, लाल टीका लगाए कोर्ट में उपस्थित दिखे। पूरे ठाट में थे। ज्यों ऐज केस नंबर वन पर मेरा केस टेक अप हुआ, बुलबुल सी बोलने वाली सुंदर देहयष्टि वाली, बड़े-बड़े वक्ष वाली एक वकील साहिबा खड़ी हो गईं, वकालतनामा लिए कि अपोजिट पार्टी फला की तरफ से मैं केस लडूंगी। मुझे केस समझने के लिए, समय दिया जाए। पालोक बसु उन्हें समय देते हुए नेक्स्ट केस की सुनवाई पर आ गए। मैं हकबक रह गया। पता चला बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा वकील की देह गायकी में पालोक बसु सेट हो चुके थे। मेरा केस बाकायदा जयहिंद हो चुका था। बाद में यह पूरा वाकया मैं ने अपने उपन्यास अपने-अपने युद्ध में दर्ज किया। इस से हुआ यह कि बुलबुल सी आवाज़ वाली मोहतरमा जस्टिस होने से वंचित हो गईं। मोहतरमा सारी कलाओं से संपन्न थीं ही, रसूख वाली भी थीं। सो जस्टिस के लिए इन का नाम तीन-तीन बार पैनल में गया। लेकिन उन का नाम इधर पैनल में जाता था, उधर उन के शुभचिंतक लोग मेरे उपन्यास अपने-अपने युद्ध के वह पन्ने जिस में उन का दिलचस्प विवरण था, फ़ोटोकापी कर राष्ट्रपति भवन से लगायत गृह मंत्रालय, कानून मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट भेज देते। हर बार वह फंस गईं और जस्टिस होने से वंचित हो गईं। संयोग यह कि जिस नए अख़बार में बाद में मैं गया, वहां वह पहले ही से पैनल में थीं। वहां भी मेरी नौकरी खाने की गरज से मैनेजमेंट में मेरी ज़बरदस्त शिकायत कर बैठीं। मैं ने उन्हें संक्षिप्त सा संदेश भिजवा दिया कि मुझे तो फिर कहीं नौकरी मिल जाएगी पर वह अभी एक छोटे से हवा के झोंके में फंसी हैं, लेकिन अगर उन के पूरे जीवन वृत्तांत का विवरण किसी नए उपन्यास में लिख दिया तो फिर उन का क्या होगा, एक बार सोच लें। सचमुच उन्हों ने सोच लिया। और खामोश हो गईं। मैं ने उस संस्थान में लंबे समय तक नौकरी की।
बसपा नेता सतीश मिश्रा भी एक समय जस्टिस बनना चाहते थे। उन के पिता भी जस्टिस रहे थे। गृह मंत्रालय और कानून मंत्रालय से उन का नाम क्लियर हो गया। लेकिन राष्ट्रपति के यहां फाइल फंस गई। कोई और राष्ट्रपति रहा होता तो शायद इधर-उधर कर के बात बन गई होती। लेकिन तब राष्ट्रपति थे ए पी जे अब्दुल कलाम। हुआ यह था कि सतीश मिश्रा बिल्डर भी हैं। तो बतौर बिल्डर भी इनकम टैक्स रिटर्न भरना शो किया था। कलाम की कलम ने फ़ाइल पर लिख दिया कि एक बिल्डर भला जस्टिस कैसे बन सकता है ? और सतीश मिश्रा के जस्टिस होने पर ताला लग गया। फिर वह नेता बन कर मायावती के अर्दली और विश्वस्त पिछलग्गू बन गए।
कांग्रेस प्रवक्ता और राज्य सभा सदस्य अभिषेक मनु सिंधवी अपने चैंबर में एक समय एक महिला वकील से मुख मैथुन का लाभ लेते हुए किस तरह जस्टिस बनवाने का वादा करते हुए एक वीडियो में वायरल हुए थे, लोग अभी भी भूले नहीं होंगे। तो सोचिए कि जस्टिस बनने के लिए भी लोग क्या-क्या नहीं कर गुज़रते। फिर यही लोग जस्टिस बन कर क्या-क्या नहीं कर गुज़रते होंगे। फिर अगर सिंधवी के ड्राइवर ने वह वीडियो वायरल नहीं किया होता तो क्या पता वह मोहतरमा जस्टिस बन ही गई होतीं तो कोई क्या कर लेता भला ? फिर जस्टिस बन कर वह क्या करतीं यह भी सोचा जा सकता है।
खैर, इसी लखनऊ बेंच में एक थे जस्टिस यू के धवन। उन का किस्सा तो और गज़ब था। एक सीनियर वकील की जूनियर हो कर आई थीं योगिता चंद्रा। सीनियर ने एकाध केस में अपनी इस जूनियर को जस्टिस धवन के सामने पेश कर दिया। बात इतनी बन गई मैडम चंद्रा की कि अब वह सीधे जस्टिस धवन से मिलने लगीं। उन के साथ रोज लंच करने लगीं। इतना कि अब उन के सीनियर मैडम चंद्रा के जूनियर बन कर रह गए। उन के पीछे-पीछे चलने लगे। जस्टिस धवन की कोर्ट में मैडम चंद्रा का वकालतनामा लग जाना ही केस जीत जाने की गारंटी बन गई। देखते ही देखते मैडम की फीस लाखों में चली गई। जिरह, बहस कोई और वकील करता लेकिन साथ में मैडम चंद्रा का वकालतनामा भी लगा होता। जस्टिस धवन मैडम पर बहुत मेहरबान हुए। एक जस्टिस इम्तियाज मुर्तुजा भी इन पर मेहरबान हुए। इतना कि उन का सेलेक्शन हायर ज्यूडिशियल सर्विस में हो गया। लेकिन ऐन ज्वाइनिंग के पहले उन पर एक क्रिमिनल केस का खुलासा हो गया। सारी सेटिंग स्वाहा हो गई।
मैं फर्स्ट फ्लोर पर रहता हूं। एक समय हमारे नीचे ग्राउंड फ्लोर पर एक सी जे एम रहते थे। अकसर कुछ ख़ास वकील उन के घर आते रहते थे। किसिम-किसिम के पैकेट आदि-इत्यादि लिए हुए। सी जे एम की बेगम ही अमूमन उन वकीलों से मिलती थीं। वह अचानक दीवार देखते हुए बोलतीं , क्या बताएं ए सी बहुत आवाज़ कर रहा है। शाम तक नया ए सी लग जाता। वह बता देतीं कि फला ज्वेलर के यहां गई थी, एक डायमंड नेकलेस पसंद आ गई लेकिन इन को समय ही नहीं मिलता। शाम तक वह हार घर आ जाता। विभिन्न वकील और पेशकार उन की फरमाइशें सुनने के लिए बेताब रहते थे। ठीक यही हाल सेकेंड फ्लोर पर रहने वाले एक ए डी जे का था। हालत यह है कि यह जज लोग घर की सब्जी भी पैसे से नहीं खरीदते, न एक मच्छरदानी का एक डंडा। ज़िला जज भी हमारे पड़ोसी हैं। विभिन्न जिला जजों की अजब-गज़ब कहानियां हैं।
लोग अकसर कोर्ट का फैसला कह कर कूदते रहते हैं लेकिन कोर्ट कैसे और किस बिना पर फैसले देती है, यह कितने लोग जानते हैं भला। फिर जितने फ्राड, भ्रष्ट और गुंडे अकसर जो कहते रहते हैं कि न्याय पालिका में उन्हें पूरा विश्वास है तो क्या वैसे ही ? बिकाऊ माई लार्ड लोग बिकते रहते हैं और इन मुजरिमों का न्यायपालिका में विश्वास बढ़ता रहता है । किस्से तो बहुतेरे हैं लेकिन यहां एक-दो किस्से का ज़िक्र किए देता हूं। लखनऊ में एक समय बड़े होटल के नाम पर सिर्फ क्लार्क होटल ही था। बाद के दिनों में ताज रेजीडेंसी खुल गया। ताज के चक्कर में क्लार्क होटल की मुश्किल खड़ी हो गई। हुआ यह कि क्लार्क होटल के सामने बेगम हज़रत महल पार्क है। पहले सारी राजनीतिक रैलियां, नुमाइश, लखनऊ महोत्सव वगैरह बेगम हज़रत महल पार्क में ही होते थे। तो शोर-शराबा बहुत होता था। सो लोग क्लार्क होटल सुविधाजनक होने के बावजूद छोड़-छोड़ जाने लगे। अब क्लार्क के मालिकान के माथे बल पड़ गया। उन दिनों मायावती मुख्य मंत्री थीं। क्लार्क के मालिकानों ने मायावती से मुलाकात की। कि यह सब रुकवा दें बेगम हज़रत महल पार्क में। मायावती ने तब के दिनों सीधे पांच करोड़ मांग लिए। यह बहुत भारी रकम थी। बात एक वकील की जानकारी में आई। उस ने क्लार्क होटल के मालिकान का यह काम सिर्फ पांच लाख में हाईकोर्ट से करवा दिया। जज साहब को एक लड़की और पांच लाख दिए। एक जनहित याचिका दायर की गई। जिस में बेगम हज़रत महल पार्क को पुरातात्विक धरोहर घोषित करने की मांग करते हुए यहां रैली और नुमाइश आदि बंद करने की प्रार्थना की गई। जज साहब ने न सिर्फ़ यह प्रार्थना स्वीकार कर ली बल्कि इस पार्क को हरा-भरा रखने की ज़िम्मेदारी भी लखनऊ विकास प्राधिकरण को दे दी। अब समस्या ताज होटल को हुई। आज जहां आंबेडकर पार्क है वहां आवासीय कालोनी प्रस्तावित थी। अगर वहां आवासीय कालोनी बन जाती तो ताज का सौंदर्य और खुलापन बिगड़ जाता। तो मायावती के सचिव पी एल पुनिया को साधा गया। क्यों कि मायावती बहुत मंहगी पड़ रही थीं। पुनिया सस्ते में सेट हो गए। और आवासीय कालोनी रद्द कर आंबेडकर पार्क बनाने का प्रस्ताव बनवा दिया। कांशीराम और मायावती को पसंद आ गया। बाद में मुलायम सिंह सरकार में आए तो ताज वालों ने अपने पिछवाड़े कोई आवासीय कालोनी न बन जाए, लोहिया पार्क बनवाने की तजवीज तब के लखनऊ विकास प्राधिकरण के उपाध्यक्ष बी बी सिंह से दिलवा दिया अमर सिंह को। मुलायम को भी प्रस्ताव पसंद आ गया। बन गया लोहिया पार्क। दो सौ रुपए के पौधे, दो हज़ार, बीस हज़ार में ख़रीदे गए। बी बी सिंह ने भ्रष्टाचार की वह मलाई काटी कि मायावती ने सत्ता में वापस आते ही बी बी सिंह को सस्पेंड कर दिया। बी बी सिंह को रिटायर हुए ज़माना हो गया लेकिन आज तक उन का सस्पेंशन नहीं समाप्त हुआ। अब आगे भी खैर क्या होगा। वैसे भी बी बी सिंह ने अमर सिंह की छाया में अकूत संपत्ति कमाई। कई सारे मॉल और अपार्टमेंट बनवा लिए। भले कब्रिस्तान तक बेच दिए, ग्रीन बेल्ट बेच दिया जिस पर मेट्रो सिटी बन कर उपस्थित है।
ऐसा भी नहीं है कि हाईकोर्ट का इस्तेमाल सिर्फ होटल वालों ने अपने हित के लिए ही किया हो। अपने प्रतिद्वंद्वी होटलों के खिलाफ भी खूब किया है। जैसे कि लखनऊ में गोमती नदी के उस पार ताज होटल है, वैसे ही गोमती नदी के इस पार जे पी ग्रुप ने होटल खोलने का इरादा किया। मायावती मुख्य मंत्री थीं। उन्हों ने ले दे कर डील पक्की कर दी। न सिर्फ डील पक्की कर दी बल्कि होटल बनाने के लिए गोमती का किनारा पटवा दिया। पास की बालू अड्डा कालोनी के अधिग्रहण की भी तैयारी हो गई। सुंदरता के लिहजा से। कि होटल का अगवाड़ा भी सुंदर दिखे। बालू अड्डा के गरीब बाशिंदे भी खुश हुए कि अच्छा खासा मुआवजा मिलेगा। अब ताज होटल के मालिकान के कान खड़े हो गए। फिर वही जनहित याचिका, वही हाईकोर्ट, वही जज, वही लड़की, वही पैसा। पर्यावरण की दुहाई अलग से दी गई। जे पी ग्रुप द्वारा गोमती तट पर होटल बनाने पर रोक लग गई। तब जब कि गोमती का किनारा तो जितना पटना था पाट दिया गया था। आज भी पटा हुआ है। हां, वहां होटल की जगह अब म्यूजिकल फाउंटेन पार्क बन गया है।
प्रेमचंद ने लिखा है कि न्याय भी लक्ष्मी की दासी है। लेकिन बात अब बहुत आगे बढ़ गई है। हाईकोर्ट और हाईकोर्ट के जजों ने ऐसे-ऐसे कारनामे किए हैं कि अगर इन की न्यायिक तानाशाही न हो, सही जांच हो जाए तो अस्सी प्रतिशत जस्टिस लोग जेल में होंगे। सोचिए कि अपने को जब-तब कम्युनिस्ट बताने वाले जस्टिस सैयद हैदर अब्बास रज़ा ने बतौर जस्टिस ऐसे-ऐसे कुकर्म किए हैं कि पूछिए मत। कांग्रेस नेता मोहसिना किदवई ने इन्हें जस्टिस बनवाया था सो सारे फैसले इन के कांग्रेस के पक्ष में ही रहते थे। यहां तक तो गनीमत थी। अयोध्या मंदिर मसले पर भी जनाब ने सुनवाई की थी। बेंच में शामिल जस्टिस एस सी माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने समय रहते ही अपना फैसला लिखवा दिया था लेकिन जस्टिस रज़ा का फैसला लंबे समय तक नहीं लिखा गया। सो फैसला रुका रहा। लगता है इस में भी कुछ पाने की उम्मीद बांधे रहे थे वह। खैर, जब अयोध्या में जब ढांचा गिर गया तो जस्टिस रज़ा ने फैसला लिखवा दिया। और इस फैसले में भी कोई कानूनी राय नहीं, दार्शनिक भाषण और लफ्फाजी का पुलिंदा था। जब कि जस्टिस माथुर और जस्टिस बृजेश कुमार ने मंदिर वाले हिस्से पर प्रतीकात्मक कारसेवा की इजाजत दे दी थी। अगर रज़ा भी समय से अपना फैसला लिखवा दिए होते थे लफ्फाजी वाला ही सही तो शायद कारसेवक प्रतीकात्मक कारसेवा कर चले गए होते। रिवोल्ट नहीं हुआ होता और विवादित ढांचा न गिरा होता। लेकिन रज़ा की रजा नहीं थी। सो देश एक भीषण संकट में फंस गया। जस्टिस रज़ा की मनमानी और अय्यासी के तमाम किस्से हैं। पर एक बानगी सुनिए। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर सी बी आई ने एक चिटफंडिए के खिलाफ वारंट लिया था। लेकिन गज़ब यह कि पांच लाख रुपए प्रतिदिन के हिसाब से ले कर इन्हीं जस्टिस रज़ा ने छुट्टी में अपने घर पर कोर्ट खोल कर ज़मानत दे दी थी। टिल डेट, टिल डेट की इस ज़मानत के खेल में और भी कई जस्टिस शामिल हुए। पैसे और लड़की की अय्यासी करते हुए।
एक हैं जस्टिस पी सी वर्मा। घनघोर पियक्क्ड़ और जातिवादी। मेरी कालोनी में ही रहते थे। तब सरकारी वकील थे। रोज मार्निंग वाक पर निकल कर अपनी लायजनिंग करते थे। लायजनिंग कामयाब हो गई तो यह भी जस्टिस हो गए। महाभ्रष्ट जजों में शुमार होते हैं जनाब। एक से एक नायाब फैसले देने लगे। लेकिन जब वह बहुत बदबू करने लगे तो सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें उत्तराखंड भेज दिया। लेकिन वहां भी ब्रीफकेस और लड़की का खेल उन का जारी रहा। ऐसे ही एक जस्टिस हुए जस्टिस भल्ला। उन के कारनामे भी बहुत हैं। लेकिन जब उन की शिकायत बहुत बढ़ गई तो वह छत्तीसगढ़ भेज दिए गए चीफ़ जस्टिस बना कर।
कभी कहीं पढ़ा था कि किसी सक्षम देश के लिए सेना से भी ज़्यादा ज़रूरी है न्यायपालिका। तो क्या ऐसी ही न्यायपालिका ?
सोचिए कि यह वही लखनऊ बेंच है जिस में एक बार तब के सीनियर जस्टिस यू सी श्रीवास्तव ने उन्नाव के तब के सी जी एम को हथकड़ी पहनवा कर हाईकोर्ट में तलब किया था। मामला कंटेम्प्ट का था। यू सी एस नाम से खूब मशहूर थे वह। अपनी ईमानदारी और फैसलों के लिए लोग उन्हें आज भी याद कर लेते हैं। जस्टिस यू सी श्रीवास्तव का तर्क था कि अगर एक न्यायाधीश ही हाईकोर्ट का फैसला नहीं मानेगा तो बाकी लोग कैसे मानेंगे। सी जी एम को हथकड़ी लगा कर हाईकोर्ट में पेश करने का संदेश दूर तक गया था तब। कंटेम्प्ट के मामले शून्य हो गए थे। पर अब ? अब तो हर पांचवा, दसवां फैसला कंटेम्प्ट की राह देख रहा है। हज़ारों कंटेम्प्ट केस की फाइलें धूल फांक रही हैं।
यही यू सी एस जब रिटायर हो गए तो रवींद्रालय में आयोजित एक कार्यक्रम में दर्शक दीर्घा से किसी ने पूछा कि इज्जत और शांति से रहने का तरीका बताएं। उन दिनों लखनऊ की कानून व्यवस्था बहुत बिगड़ी हुई थी। बेपटरी थी। यू सी एस ने कहा, जब कोई नया एस एस पी आता है तो उसे फोन कर बताता हूं कि रिटायर जस्टिस हूं, ज़रा मेरा खयाल रखिएगा। इसी तरह नए आए थानेदार को भी फोन कर बता देता हूं कि भाई रिटायर जस्टिस हूं, मेरा खयाल रखिएगा। इलाक़े के गुंडे से भी फोन कर यही बात बता देता हूं। घर में बिजली जाने पर सुविधा के लिए जेनरेटर लगा रखा है। पानी के लिए टुल्लू लगा रखा है। इस तरह मैं तो इज्जत और शांति से रहता हूं। अपनी आप जानिए।
एक किस्सा ब्रिटिश पीरियड का भी मन करे तो सुन लीजिए। उन दिनों आई सी एस जिलाधिकारी और ज़िला जज दोनों का काम देखा करते थे। लखनऊ के मलिहाबाद में आम के बाग़ का एक मामला सुनवाई के लिए आया उस जज के पास। एक विधवा और उस के देवरों के बीच बाग़ का मुकदमा था। फ़ाइल देख कर वह चकरा गया। दोनों ही पक्ष अपने-अपने पक्ष में मज़बूत थे। फैसला देना मुश्किल हो रहा था। बहुत उधेड़बन के बाद एक रात उस ब्रिटिशर्स ने अपने ड्राइवर से कहा कि एक बड़ी सी रस्सी ले लो और गाड़ी निकालो। रस्सी ले कर वह मलिहाबाद के उस बाग़ में पहुंचा और ड्राइवर से कहा कि मुझे एक पेड़ में बांध दो। और तुम गाड़ी ले कर यहां से जाओ। ड्राइवर के हाथ-पांव फूल गए। बोला, अंगरेज को बांधूंगा तो सरकार फांसी दे देगी, नौकरी खा जाएगी, जेल भेज देगी। आदि-इत्यादि। अंगरेज ने कहा, कुछ नहीं होगा। हां, अगर ऐसा नहीं करोगे तो ज़रूर कुछ न कुछ हो जाएगा। ड्राइवर ने अंगरेज को एक पेड़ से बांध दिया। अंगरेज ने कहा, अब घर जाओ। और भूल कर भी यह बात किसी और को मत बताना। ड्राइवर चला गया। अब सुबह हुई तो इलाके में यह खबर आग की तरह फैल गई कि किसी ने एक अंगरेज को पेड़ में बांध दिया है। तो बाग़ में भारी भीड़ इकट्ठा हो गई। पूछा गया उस अंगरेज से कि किस ने बांधा आप को इस पेड़ से। अंगरेज ने बड़ी मासूमियत से बता दिया कि जिस का बाग़ है, उसी ने बांधा है। अब उस विधवा के दोनों देवर बुलाए गए। दोनों बोले, यह बाग़ ही हमारा नहीं है, तो हम क्यों बांधेंगे भला इस अंगरेज को। फिर वह विधवा भी बुलाई गई। आते ही वह बेधड़क बोली, बाग़ तो हमारा ही है, लेकिन मैं ने इस अंगरेज को पेड़ से बांधा नहीं है। तब तक पुलिस भी आ गई। पुलिस ने अपने जिलाधिकारी को पहचान लिया। फैसला भी हो गया कि यह आम का बाग़ किस का है।
पर आज तो फैसले की यह बिसात बदल गई है। पैसा, लड़की और राजनीतिक प्रभाव के बिना कोई फैसला नामुमकिन हो चला है। लाखों की बात अब करोड़ो तक पहुंच चुकी है। भुगतान सीधे न हो कर तमाम दूसरे तरीके ईजाद हो चुके हैं। ब्लैंक चेक विथ बजट दे दिया जाना आम है। किस ने दिया, किस ने निकाला, किस नाम से कब निकाला कोई नहीं जानता। इस लिए अब न्याय सिर्फ पैसे वालों के लिए ही शेष रह गया है। जनहित याचिका वालों के लिए रह गया है।
आतंकवादियों, अपराधियों और रसूख वालों के लिए रह गया है। न्यायपालिका अब बेल पालिका में तब्दील है। गरीब आदमी के लिए तारीख है, तारीख की मृगतृष्णा है। जैसे राम जानते थे कि सोने का मृग नहीं होता, फिर भी सीता की फरमाइश पर वह सोने के मृग के पीछे भागे थे और फिर लौट कर हे खग, मृग हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता मृगनैनी ! कह कर सीता को खोजते फिरे थे। ठीक वैसे ही सामान्य आदमी भी जानता है कि न्याय नहीं है उस के लिए कहीं भी पर वह न्याय खोजता, इस वकील, उस वकील के पीछे भागता हुआ, इस कोर्ट से उस कोर्ट दौड़ता रहता है। पर न्याय फिर भी नहीं पाता। तारीखों के मकड़जाल में उलझ कर रह जाता है। न निकल पाता है, न उस में रह पाता है। वसीम बरेलवी बरेलवी याद आते हैं :
हर शख्श दौड़ता है
यहां भीड़ की तरफ
फिर ये भी चाहता है
कि उसे रास्ता मिले।
इस दौरे मुंसिफी में
ज़रुरी तो नही वसीम
जिस शख्स की खता
हो उसी को सज़ा मिले।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ हाईकोर्ट और निचली अदालतों में ही यह पैसा और लड़की वाली बीमारी है। सुप्रीम कोर्ट में भी जस्टिस लोगों के अजब-गज़ब किस्से हैं। फ़िलहाल एक क़िस्सा अभी सुनाता हूं। उन दिनों राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे और विश्वनाथ प्रताप सिंह वित्त मंत्री। अमिताभ बच्चन के चलते राजीव गांधी और विश्वनाथ प्रताप सिंह के बीच मतभेद शुरु हो गए थे। बोफोर्स का किस्सा तब तक सीन में नहीं था। थापर ग्रुप के चेयरमैन ललित मोहन थापर राजीव गांधी के तब बहुत करीबी थे। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अचानक उन्हें फेरा के तहत गिरफ्तार करवा दिया। थापर की गिरफ्तारी सुबह-सुबह हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के कई सारे जस्टिस लोगों से संपर्क किया थापर के कारिंदों और वकीलों ने। पूरी तिजोरी खोल कर मुंह मांगा पैसा देने की बात हुई। करोड़ो का ऑफर दिया गया। लेकिन कोई एक जस्टिस भी थापर को ज़मानत देने को तैयार नहीं हुआ। यह वित्त मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की सख्ती का असर था। कोई जस्टिस विवाद में घिरना नहीं नहीं चाहता था। लेकिन दोपहर बाद पता चला कि एक जस्टिस महोदय उसी दिन रिटायर हो रहे हैं। उन से संपर्क किया गया तो उन्होंने बताया कि मैं तो दिन बारह बजे ही रिटायर हो गया। फिर भी मुंह मांगी रकम पर अपनी इज्जत दांव पर लगाने के लिए वह तैयार हो गए। उन्हों ने बताया कि बैक टाइम में मैं ज़मानत पर दस्तखत कर देता हूं लेकिन बाक़ी मशीनरी को बैक टाइम में तैयार करना आप लोगों को ही देखना पड़ेगा। और जब तिजोरी खुली पड़ी थी तो बाबू से लगायत रजिस्ट्रार तक राजी हो गए। शाम होते-होते ज़मानत के कागजात तैयार हो गए। पुलिस भी पूरा सपोर्ट में थी। लेकिन चार बजे के बाद पुलिस थापर को ले कर तिहाड़ के लिए निकल पड़ी। तब के समय में मोबाईल वगैरह तो था नहीं। वायरलेस पर यह संदेश दिया नहीं जा सकता था। तो लोग दौड़े जमानत के कागजात ले कर। पुलिस की गाड़ी धीमे ही चल रही थी। ठीक तिहाड़ जेल के पहले पुलिस की गाड़ी रोक कर ज़मानत के कागजात दे कर ललित मोहन थापर को जेल जाने से रोक लिया गया। क्यों कि अगर तिहाड़ जेल में वह एक बार दाखिल हो जाते तो फिर कम से कम एक रात तो गुज़ारनी ही पड़ती। पुलिस ने भी फिर सब कुछ बैक टाइम में मैनेज किया। विश्वनाथ प्रताप सिंह को जब तक यह सब पता चला तब तक चिड़िया दाना चुग चुकी थी। वह हाथ मल कर रह गए। लेकिन इस का असर यह हुआ कि वह जल्दी ही वित्त मंत्री के बजाय रक्षा मंत्री बना दिए गए। राजीव गांधी की यह बड़ी राजनीतिक गलती थी। क्यों कि विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे दिल पर ले लिया था। कि तभी टी एन चतुर्वेदी की बोफोर्स वाली रिपोर्ट आ गई जिसे विश्वनाथ प्रताप सिंह ने न सिर्फ लपक लिया बल्कि एक बड़ा मुद्दा बना दिया। राजीव गांधी के लिए यह बोफोर्स काल बन गया और उन का राजनीतिक अवसान हो गया।
आप लोगों को अभी जल्दी ही बीते सलमान खान प्रसंग की याद ज़रूर होगी। हिट एंड रन केस में लोवर कोर्ट ने इधर सजा सुनाई, उधर फ़ौरन ज़मानत देने के लिए महाराष्ट्र हाई कोर्ट तैयार मिली। कुछ मिनटों में ही सजा और ज़मानत दोनों ही खेल हो गया। तो क्या फोकट में यह सब हो गया ? सिर्फ वकालत के दांव-पेंच से ? फिर किस ने क्या कर लिया इन अदालतों और जजों का ? भोजपुरी के मशहूर गायक और मेरे मित्र बालेश्वर एक गाना गाते थे, बेचे वाला चाही, इहां सब कुछ बिकाला। तो क्या वकील, क्या जज, क्या न्याय यहां हर कोई बिकाऊ है। बस इन्हें खरीदने वाला चाहिए। पूछने को मन होता है आप सभी से कि, न्याय बिकता है, बोलो खरीदोगे !
यह किस्से अभी खत्म नहीं हुए हैं। और भी ढेर सारे किस्से हैं इन न्यायमूर्तियों के बिकने के और थैलीशाहों द्वारा इन्हें बारंबार खरीदने के। इन की औरतबाजी के किस्से और ज़्यादा।
*दयानंद पांडेय*
*बरिष्ठ साहित्यकार*
*व*
*संरक्षक*
*अंतरराष्ट्रीय भोजपुरी* *सेवा न्यास परिवार*
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