अति विकसित मानव शरीर की अद्भुत रचना
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पहली मान्यता यह थी कि मनुष्य का विकास अमीबा से हुआ है। अमीबा एक कोशीय जन्तु है जो जल में रहता है और उसमें प्राणधारी के सभी गुण पाये जाते हैं। अमीबा को काँच की स्लाइड पर रखकर सूक्ष्मदर्शी की सहायता से ही अच्छी तरह देखा और उसके गुणों का पता चलाया जा सकता है।
अमीबा की प्रजनन क्रिया बड़ी विचित्र है, उसकी कोशिका जो प्रोटोप्लाज्मा की थैली होती है और उँगलियों की तरह अनेक दिशाओं में निकलती रहती है, जब कोई उँगली काफी आगे निकल जाती है तो वही प्रोटोप्लाज्म निकलकर एक नया अमीबा बन जाता है। इसकी ओर विद्युत आवेश या गर्मी रखी जाये तो वह तुरन्त पीछे हटकर अपनी रक्षा करता है। कोई खाद्य पदार्थ रखा जाये तो वह दो उँगलियों की तरह चिमटी-सी बनाकर उसे ग्रहण कर लेता है और उसे इस तरह रस में बदल लेता है कि नया प्रोटोप्लाज्मा तैयार कर ले, इस तरह उसे शक्ति मिलती है। अन्य जीवों की तरह वह उत्सर्जन भी करता है। पेट के मल को वह पानी में छोड़ता रहता है। अमीबा अपनी संतति को एक से दो, दो से चार और चार से आठ के क्रम में निरन्तर बढ़ता रहता है। इसी अमीबा में बाद में जीवन-विकास का सिद्धान्त (थ्योरी आफ इवोल्यूशन) माना गया और यह कहा गया कि एक कोशीय जीव ने ही अन्त में बहु-कोशीय जीव के रूप में अपने आपको परिणत किया।
किन्तु जब मनुष्य शरीर के कोशों (सेल्स) का अध्ययन किया गया तो जीवन विकास की अनेक नई बातें सामने आई और विज्ञान यह मानने लगा कि अमीबा मनुष्य की विकास शृंखला का मूल घटक नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो मनुष्य शरीर के सूक्ष्म कोश जो स्वयं भी प्रोटोप्लाज्म से बना होता है, निकालकर एक स्वतन्त्र जीव बना दिया जाना सम्भव होता, जबकि नये बालक का जन्म गर्भाधान की विलक्षण प्रक्रिया से सम्पन्न होता है।
अर्थात मनुष्य शरीर अमीवा की तरहा विभाजन पद्धति से नही एक अलग ही प्रक्रिया से वनता है ।
19 वीं और 20 वीं शताब्दी में इस सम्बन्ध में व्यापक खोजें हुई। पर वे सब अपनी-अपनी तरह से एकांगी हल ही प्रस्तुत करती हैं। वैज्ञानिक चेतना के अत्यन्त सूक्ष्म स्वरूप का अध्ययन तो कर सके हैं, किन्तु उसका विश्व-व्यापी शक्ति के साथ कोई सामंजस्य नहीं बिठा सके। यदि मनुष्य अमीबा, अमीबा से मछली, मछली से सुअर, सुअर से बन्दर, बन्दर से गोरिल्ला और गोरिल्ला से वर्तमान मनुष्य रूप में आया होता तो विकास की इस गति को आगे बढ़ते जाना चाहिये था और उस मूल प्रक्रिया को भी चलते रहना चाहिये था और हमें लाखों वर्ष मनुष्य योनि से आगे बढ़कर किसी और प्रकार की शरीर स्थिति में बदल जाना चाहिये था, हम इतनी लम्बी अवधि तक मनुष्य ही क्यों बने रहते? किन्तु उल्टा हो यह रहा है कि धरती में जितने भी जीवित प्रणी हैं, उनकी शक्तियाँ घटती जा रही हैं, मनुष्य की शारीरिक शक्तियाँ भी धीरे-धीरे घटती जा रही हैं।(जैसे कुछ अंग का लुप्त होना, मस्तिष्क के कार्यअ क्षमता ह्रास)
विकास अपेक्षा जीव विनाश की दिशा में चल रहे हैं। इसलिये विकास की थ्योरी गले नहीं उतरती।
चेतना को रसायन की देन कहा जाता तो उसे लैबोरेटरी में बना लिया गया होता और अब जो कम्प्यूटर तैयार किये जाते हैं, उनके स्थान पर मनुष्य शरीर तैयार करने वाले कारखाने चल रहे होते। मनुष्य शरीर में जो भावना-विज्ञान छुपा हुआ है, उससे स्पष्ट ही है कि मनुष्य की उत्पत्ति भी उतनी ही रहस्यपूर्ण है, जितनी उसकी आन्तरिक शक्तियाँ। भौतिक शरीर तैयार हो भी जाये तो उसमें भावनायें कैसे डाली जायें?
अब हम अपने प्राचीन दर्शन की ओर लौटते हैं, जिसमें परमात्मा की इच्छा से अण्ड का निर्माण, अण्ड से अनेक अवयवों का विकास और उसमें देवताओं की परआत्मा की प्रतिष्ठा हुई। सूर्य और चन्द्रमा आदि का वर्तमान स्वरूप कुछ भी हो पर उनका निर्माण एकाएक हुआ है। विकास या विघटन स्थूल और सूक्ष्म दोनों में चलता है, किन्तु उनका आदि - आविर्भाव किसी पराशक्ति का ही महान् चमत्कार हो सकता है, इस बात को अब शरीर विज्ञान के पण्डित भी मानने लगे हैं। ओकाल्ट एनाटामी के प्रसिद्ध विद्वान् ‘एलानलियो’ ने उपरोक्त भारतीय दर्शन को इन शब्दों में प्रमाणित किया है- “ यदि हम इतने बुद्धिमान् होते कि विश्व-व्यवस्था को अच्छी तरह समझ लेते तो वह देखते कि सूर्य-चन्द्रमा एवं अन्य ग्रहों का शरीर के समस्त अवयवों एवं उनके कार्यों पर कितना हस्तक्षेप है।”
“ दो मस्तिष्क प्रणाली एवं उनका आत्मिक उत्थान से सम्बन्ध” नामक पुस्तक के रचयिता डॉ. कोरिन हेलिन (दि भरस एण्ड कूँ नार्थ-स्ट्रीट द्वारा प्रकाशित) ने शरीर की जटिल प्रक्रियाओं को विस्तृत अध्ययन करने के बाद यह लिखा कि-यह बड़े आश्चर्य की बात है कि सारी की सारी प्राकृतिक कला और ज्ञान नक्षत्रों द्वारा मनुष्य समाज को मिला है। सारे बुद्धिजीवी प्राणी नक्षत्रों के ही शिष्य है।” आकास्ट एनाटामी यह मानती है कि मनुष्य के दो शरीर हैं, एक पंच-तत्वों से बना हुआ है स्थूल। दूसरा सूक्ष्म है जो नक्षत्रों से (नक्षत्रों का अर्थ स्पष्टतया उन देव शक्तियों से ही है, जिनका वर्णन ऐतरेय उपनिषद् में किया है।) है।
हमारे शरीर का स्थूल भाग जो दृश्य (विजिवल) और स्पृश्य (टचेबुल) है, पृथ्वी से बना है, यह कितने आश्चर्य की बात है कि अन्य लोकों में यथा चन्द्रमा-सूर्य बुध-बृहस्पति आदि में जो ठोस तत्त्व है, वह पृथ्वी की देन है, पृथ्वी भी अपने अणुओं को उसी प्रकार बिखेरती रहती है, जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा आदि बिखेरते रहते हैं। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अपनी-अपनी शक्ति धाराओं द्वारा नक्षत्रों ने पृथ्वी को आच्छादित कर रखा है, पृथ्वी भी सभी नक्षत्रों पर छाई हुई है। सब अन्योऽन्याश्रित हैं।
इस जटिल प्रक्रिया को मनुष्य शरीर में दो मस्तिष्क प्रणाली को समझ कर अनुभव किया जा सकता है। मस्तिष्क कोष दो पर्तों का बना होता है, सफेद एवं भूरा तत्त्व। सफेद तत्त्व नसें बनाता है और भूरा नसों में ग्रन्थियाँ (गैम्लियन)। गैग्लियन में न्यूक्लियस वाली नसें पाई जाती हैं जो प्रोटोप्लाज्मा के भीतर तक धँसी होती हैं और फास्फोरस तत्त्व वाली होती हैं। फास्फोरस अग्नि तत्त्व है और वह जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। शरीर में अग्नि की मन्दता ही अपच, अजीर्णता, कान्तिहीनता, दुर्बलता और रोगों का कारण होती है, अग्नि न हो तो मनुष्य निर्बल और कमजोर पड़ जाये। यह अग्नि तत्त्व सूर्य नक्षत्र (सोलर) का अदृश्य भाग ही है। फास्फोरस तत्त्व शरीर में आहार प्रक्रिया पर उतना आधारित नहीं है, जितना कि मस्तिष्क की उत्थान प्रक्रिया से। भौतिक विज्ञान अभी केवल स्थूल संरचना को देखती है, एक दिन भौतिक विज्ञान और मैटाफिजिक्स समझ सकेगी कि ब्रह्माण्ड व्यापी ऊर्जा शारीरिक तत्त्वों में कैसे बदलती है और उसे शक्ति के साथ ही बुद्धि, मेधा, प्रज्ञा प्रधान करती है।
एक आम का वृक्ष लगायें उसे पर्याप्त खाद और पानी दें, किन्तु उस पर सूर्य का प्रकाश न पड़े तो सर्वप्रथम तो उसका बचना और बढ़ना ही असम्भव है, किन्तु वैज्ञानिकों की यह थ्योरी मान लें कि प्रकाश सीधा ही नहीं रुकावट (रेजिस्टैनस) को घेरकर भी पहुँचता है तो भी उस वृक्ष में फूल और मीठे फल उपलब्ध नहीं किये जो सकेंगे, क्योंकि खटाई, मिठाई, रंग यह सब सूर्य की रश्मियों के ही ग्रहण (आर्ब्जब) किये जाते हैं, तात्पर्य यह कि पृथ्वी में पाया जाने वाला आस्वाद भाग भी उसका अपना नहीं है। वह सब कुछ ब्रह्माण्ड में कहीं गैस के रूप में विद्यमान् है और यदि उस विज्ञान को कोई सीधे-सीधे समझ लें तो वह मनुष्य किसी भी स्थान पर किसी भी क्षण मन चाहे कितना भी तत्त्व या पदार्थ अपने लिये आकर्षित कर सकता है।
आर्य ग्रन्थों में गौ नाम सूर्य प्राण का है। उससे मिलकर यह पृथ्वी प्राण आस्वाद योग्य रस बनाता है। इसलिये जो भी आस्वाद वस्तुयें हैं, जब उन पर सूर्य का सीधा हस्तक्षेप है, तब मनुष्य शरीर का तो कहना ही क्या? हम तो सूर्य के बिना चल फिर भी नहीं सकते।
भिन्न-भिन्न तत्त्व (एलिमेन्ट्स) जलने पर अलग-अलग प्रकार का प्रकाश उत्सर्ज करते हैं, ये प्रकाश साधारणतया आँखों से देखने पर एक से प्रतीत हो सकते हैं, परन्तु इन प्रकाशों को विक्षेपण (डिस्पर्शन) करके यदि इनका वर्ण क्रम अध्ययन (त्रिकोण प्रिज़्म पर किरण फेंक कर पर्दे पर विक्षेपित प्रकाश अलग-अलग वर्णों में दिखाई दे जाता है।) किया जाये तो पता चलता है कि प्रत्येक प्रकार के प्रकाश के वर्णाश्रम में अन्तर होगा जो दूसरे प्रकार के प्रकाश में नहीं होगा। उदाहरणार्थ सोडियम से पीला, पोटैशियम से लाल-लाल और कैल्शियम से लाल-लाल नारंगी, पीला, हरा-हरा इस प्रकार का वर्णाश्रम बनता है।
इन विशेषताओं का अध्ययन करके बिना तत्त्व का ज्ञान हुये बिना यह बताया जा सकता है कि प्रकाश कौन से तत्त्व से आ रहा है, इतना ही नहीं बल्कि एक से अधिक तत्त्वों के मिश्रण को जलाकर और मिश्रित प्रकाश के वर्णाश्रम (स्पेक्ट्रम) का अध्ययन करके यह बता सकना सम्भव है कि मिश्रण में कौन-कौन से तत्त्व विद्यमान् हैं, भिन्न-भिन्न विशेषताओं से प्रत्येक भिन्न-तत्त्व को पहचान सकना सम्भव हो गया है।
अब इस विश्लेषण का दूसरी तरह से अध्ययन करें तो हम निश्चित ही इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रकाश जिस तरह पदार्थों की ज्वलन शक्ति है, उसी प्रकार उसमें स्थूल पदार्थों का परिवर्तन यह एक चक्र है और इसी सिद्धान्त पर शरीर में स्थूल और चेतन दोनों तत्त्व एक बिन्दु पर बैठ जाते हैं, स्थूल को हम पदार्थ रूप में देखें तो चेतना प्रकाश ही होगी और प्रकाश चूँकि मिट्टी ( पृथ्वी) के अणु की देन नहीं और वह भिन्न-भिन्न प्रकृति का होता है, इसलिये वह भिन्न प्रकृतियाँ निःसन्देह आकाश के भिन्न-भिन्न नक्षत्रों ( देवताओं) के प्राण या प्रकाश प्रवाह कहे जायेंगे। तभी आकाश स्थित देवताओं की शरीर में विद्यमानता सिद्ध होगी।
शरीर में हाथ-पाँव रक्त, माँस-मज्जा को स्थूल पदार्थों की रासायनिक क्रिया कह सकते हैं, मन-बुद्धि प्राण, इच्छा, ज्ञान इन सूक्ष्म गुणों को पदार्थ नहीं कह सकते, जबकि मनुष्य का जीवन इन्हीं से सधा हुआ है, मनुष्य जिस दिन मर जाता है, लाश बनी रहती है तो भी वह गति नहीं कर सकता। गति और क्रियाशीलता प्रकाश का गुण है, भले ही वह किसी भी आकृति और प्रकृति का क्यों न हो? यदि अन्न से ही मन-प्राण बुद्धि, चित्त, अहंकार का निर्माण होता है तो वह उसके स्थूल द्रव्य न होकर ‘न्यूक्लियाई’ ही होंगे और वह ‘न्यूक्लियाई’ आच्छादित आकाश के किसी नक्षत्र द्वारा आकर्षित शक्ति कण ही हो सकते हैं यह शरीर में पहुँच कर अपना-अपना स्थान ग्रहण करते है, मन को चन्द्रमा की तेजस शक्ति कहते हैं-चन्द्रमा प्रकार वनस्पति और वनस्पति ही मन का निर्माण करती है। यह वह निष्कर्ष है जिन्हें वैज्ञानिक जान चुके हैं अन्य देवताओं की स्थिति शरीर में कहाँ और किस प्रकार है, यह तब पता चलेगा जब विज्ञान का प्रवेश मस्तिष्क से फैलने वाले नाड़ी जाल और उनके भीतर की रहस्यमय प्रक्रिया में होगा। अभी तक भी जितना समझा जा सका है, वह अति गम्भीर और भारतीय दर्शन की ही पुष्टि करने वाला है।
मस्तिष्क का अध्ययन करने वाले डाक्टर और वैज्ञानिक यह मानते है कि शरीर में दो प्रकार की नसों का जाल बिछा हुआ है-(1) सैम्पैथेटिक नसें-यह शरीरगत भाग की नसें हैं। उनसे पाचन क्रिया चलती है, खाद्य से शक्ति-चूषण और रक्त परिभ्रमण का कार्य भी यही नसें करती है। ग्रन्थियों से होने वाले स्राव को यह नसें ही नियंत्रित करती हैं। शरीर की टूट-फूट को जोड़ना और मलमूत्र बाहर निकालने में इन नसों का ही योग दान रहता है जब मस्तिष्क की सुषुम्ना प्रणाली की नसें विश्राम करती हैं, तब यही सैम्पैथेटिक प्रणाली टूट-फूट जोड़ती, माँस और अन्य शरीर कोशों में जो क्षति हुई होती है, उसे सुधारती रहती है। नसों की यह जटिलता मनुष्य शरीर में ही है, पशुओं के शरीर में कम ही है ईस लिये मनुष्य सबसे ज्यादा वुद्धिमान जीव कहे जाते है।
इन नसों के मूल स्रोत और शक्ति का पता लगाते हुए शरीर शास्त्री जब मस्तिष्क में पहुँचे तो उन्होंने पाया कि नसें मात्र इच्छा प्रवाह हैं और आगे चलकर वह जटिल और स्थूल रूप ले लेती हैं, इसलिये शरीर शास्त्रियों को एक वर्ग मनोविज्ञान का हिमायती हो गया और यह मानने एवं कहने लगा कि मनुष्य अपनी इच्छाओं को स्वस्थ, पवित्र एवं सृजनात्मक( प्रेम दया श्रद्धा)बनाकर अपने स्वास्थ्य को स्थिर रख सकता है। अधोगामी विचारों और कुप्रवृत्तियों( लोभ ईर्षा हिंसा) से अपने आपको बचाकर अपना स्वास्थ्य भी बचाये रख सकता है।
मनोविज्ञान का यह सिद्धान्त जितना विकसित हुआ उतनी ही महत्त्वपूर्ण मन और मानवीय चेतना गुणों सम्बन्धी बातें सामने आई। शरीर विज्ञानी अब यह भी मानते हैं कि इच्छा शक्ति धाराओं और रंगों के रूप में मस्तिष्क प्रणाली के कोषों में बहता देखा जो सकता है।
नसों का एक बड़ा झुण्ड हृदय के निकट से फूटता है। भावनाओं का, मन का, इसी स्थान से सम्बन्ध है, इसलिये मानवीय इच्छाओं, अनुभूतियों और शरीर विज्ञान सभी दृष्टि से इनका मूल्य महत्व बढ़ जाता है, इनके व्यापक और सूक्ष्म अध्ययन की आवश्यकता भी उतनी ही अधिक है।
शरीर, हृदय या मन के कष्ट मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं, इसलिये जब तक मस्तिष्क की शक्तियों का पता नहीं चलता, तब तक इच्छाएँ और भावनायें भी मनुष्य को सुख और आत्मिक शांति प्रदान नहीं कर सकती। अब वैज्ञानिक यह मानने लगे हैं कि मस्तिष्क आध्यात्मिक ब्रह्माण्ड से प्रभावित है और जीवन सुधार के लिये उसका जानकारी नितान्त आवश्यक है।
मस्तिष्क के इस भाव को अवचेतन मन कहते है और वह जिन नसों से शेष शरीर के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है उन्हें सैरी ब्रोस्पाइनस कहते है। यह जिन कोषों से बना है, यह रेशों के पुरकुन्ज ही जान पड़ते हैं, वही शरीर की तनमात्रायें ग्रहण करते है और सुषुम्ना प्रवाह से लेकर रीढ़ की हड्डी के सारे भाग में छाये रहते हैं। हृदय स्थित मन से यह सम्बन्ध स्थापित कर उसे शक्ति देते हैं, यदि मन को विकसित कर दिया जाय और सुषुम्ना प्रवाह में निवास करने वाली इन शक्ति धाराओं को ऊर्ध्वगामी बना लिया जाये तो मनुष्य आकाश-स्थित अदृश्य शक्तियों की महत्त्वपूर्ण और आश्चर्यजनक जानकारियाँ और रहस्य प्राप्त कर सकता है। देवताओं का सम्बन्ध भी सेरी ब्रोस्पाइनल प्रणाली से, इसे ही विहित ‘द्वार कह सकते है’( ब्रह्म रंध्र )।
उसकी विस्तृत जानकारी नहीं हो पा रहे अभी पर यदि विज्ञान किसी तरह इसे नियन्त्रित कर सका तो ब्रह्माण्ड ज्ञान अत्यन्त सुलभ हो जाने की सम्भावनायें हैं।