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शुक्रवार, 24 फ़रवरी 2012

बड़ा ही नहीं कहीं-कहीं छोटा भी होना होगा--



हनुमान चालीसा की नौवीं चौपाई में उनके लिए तुलसीदासजी ने लिखा है-
"‘सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा,
विकट रूप धरि लंक जरावा।’ "
एक छोटा रूप सीताजी को दिखाया और भयंकर रूप धरकर लंका को जलाया। सीताजी परमात्मा का स्वरूप हैं। सीधा सा अर्थ है भगवान के सामने जाओ तो विनम्र हो जाओ और लंका दहन यानी अपने ही दुगरुणों को नाश करना।

परमात्मा के सामने छोटे रहें। अपनी बुराइयों को समाप्त करने में बड़े सक्षम बनें। हम उलटा आचरण कर बैठते हैं। भगवान के सामने बड़े हो जाते हैं और बुराइयों के विनाश में छोटे बन जाते हैं। इसलिए बुराइयां हमें अपने कब्जे में आसानी से ले लेती हैं। सूक्ष्म होने का एक और दार्शनिक अर्थ है।

नोट : इस ब्लॉग पर प्रस्तुत लेख या चित्र आदि में से कई संकलित किये हुए हैं यदि किसी लेख या चित्र में किसी को आपत्ति है तो कृपया मुझे अवगत करावे इस ब्लॉग से वह चित्र या लेख हटा दिया जायेगा. इस ब्लॉग का उद्देश्य सिर्फ सुचना एवं ज्ञान का प्रसार करना है

मन को साधने की साधना


मन के साधे साधना है, संपदा है। मन न सधे तो बाधा है, विपदा है। अद्भुत है मनुष्य का मन। यही रहस्य है सांसारिक सफलताओं का और आध्यात्मिक विभूतियों का। पाप-पुण्य, बंधन-मोक्ष, स्वर्ग-नरक सभी कुछ इसी में समाए हैं। अँधेरा और उजाला सब इसी में है। इसी में जन्म और मृत्यु के कारण हैं। यही है द्वार बाहरी दुनिया का। यही है सीढ़ी अंतस की। इसको साधने की साधना बन पड़े तो मनुष्य सबसे पार हो जाता है। जिनके जीवन में साधना का सच है, उनकी अनुभूति यही कहती है कि मन सब कुछ है। सब उसकी ही लीला और कल्पना है।

यह खो जाए तो सारी लीला विलीन हो जाती है। एक बार महाकाश्यप ने तथागत से पूछा था- 'भगवन! मन तो बड़ा चंचल है, यह सधे कैसे, खोए कैसे, मन तो बड़ा गंदा है, यह निर्मल कैसे हो?' इन प्रश्नों के उत्तर में भगवान चुप रहे। हाँ, अगले दिन वे महाकाश्यप के साथ एकयात्रा के लिए निकले। इस यात्रा में दोपहर के समय वे एक वृक्ष की छाँव में विश्राम के लिए रुके। उन्हें प्यास लगी तो महाकाश्यप पास के पहाड़ी झरने से पानी लेने के लिए गए, लेकिन झरने में से अभी-अभी बैलगाड़ियाँ निकली थीं और उसका सब पानी गंदा हो गया था। महाकाश्यप ने सारी बात भगवान को बताते हुए कहा- 'प्रभु! झरने का पानी गंदा है, मैं पीछे जाकर नदी से पानी ले आता हूँ।' बुद्ध ने हँसते हुए कहा- 'नदी दूर है, तुम वापस झरने के मूल में जाओ और पानी लेकर आओ।'

भगवान के कहने पर महाकाश्यप से वापस लौटे, उन्होंने देखा अपने मूलस्रोत में झरने का पानी बिलकुल साफ है, वे जल लेकर वापस आ गए। उनके लाए जल को पीते हुए भगवान ने उन्हें बोध दिया- महाकाश्यप, मन की दशा भी कुछ इसी तरह से है। जिंदगी की गाड़ियाँ इसे विक्षुब्धकरती रहती हैं। यदि कोई शांति और धीरज से उसे देखता रहे, उसके मूलस्रोत में प्रवेश करने की कोशिश करे तो सहज ही निर्मलता उभर आती है। बस, बात मन को साधने की है। मन को साधने की साधना करते हुए ही जीवन निर्मलता, सफलता एवं आध्यात्मिक विभूतियों काभंडार बन जाता है।

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