#पितृव्य
हिन्दी में 'काका' के लिए चाचा शब्द रूढ़ हो गया है। लेकिन महाभारत धारावाहिक जैसे पीरियड फिल्म और सीरियल चाचा या चचा बोलकर किसी चरित्र का संबोधन नही करवा सकते हैं।
इसलिए वे 'काकाश्री' जैसे शब्द गढ़कर मध्य मार्ग अपना लेते हैं।
आज यदि किसी को 'काका' का तत्सम शब्द #पितृव्य लिखने बोलने या व्यवहार के लिए कहा जाए तो वह नाक-भौं सिकोड़ने लगेगा। आउटडेटेड कहेगा। हम अपने शब्दों का व्यवहार नहीं करेंगे तो स्वाभाविक है कि अगली पीढ़ी की अवचेतन बुद्धि से वह शब्द विलुप्त होने लगेगा।
सबसे पहले मैंने पितृव्य शब्द को पुस्तक #हिन्दी_साहित्य_की_भूमिका में आचार्य द्विवेदी जी द्वारा प्रयुक्त देखा था, इस पुस्तक को उन्होंने अपने पितृव्य को समर्पित किया है।
हम अपने शब्दों को भूलेंगे तो निश्चय ही हमें परभाषाजीवी बनना ही पड़ेगा।
हम प्रसन्न हो सकते हैं कि हमारी भाषा में बहुत विदेशी शब्दों को खूब स्थान दिया गया है!
✍🏻गजेंद्र कुमार पाटीदार
कृष्णावल....!!!
यदि आज की आधुनिक शिक्षा प्राप्त पीढ़ी से आप पूछें कि "कृष्णावल" क्या है तो संभव है कि ९८ % तो यही कहेंगे कि उन्होंने यह शब्द कभी सुना ही नहीं है।
पर यदि आप दादी नानी से पूछें या पचास वर्ष पूर्व के लोगों से पूछें तो वे आपको बता देंगे कि गाँव में "कृष्णावल" प्याज या पालंडु को कहा जाता है। और यह शब्द ही प्याज के लिए प्रचलित था उस समय में।
प्याज को ग्रामीण क्षेत्रों में कांदा भी कहते हैं।
अंग्रेजी में इसे Onion 🧅 ऑनियन या अन्यन कहते हैं। यह कंद श्रेणी में आता है जिसकी सब्जी भी बनती है और इसे सब्जी बनाने में मसालों के साथ उपयोग भी किया जाता है।
इसे संस्कृत में कृष्णावल कहते थे।
वैसे इस शब्द को विस्मृत कर दिया गया है और आजकल यह शब्द प्रचलन में नहीं है।
कृष्णावल कहने के पीछे एक रहस्य छुपा हुआ है।
आईए, देखिए कि प्याज को क्यों कहते हैं कृष्णावल.!
१. दक्षिण भारत में खासकर कर्नाटक और तमिलनाडु के ग्रामीण क्षेत्रों में प्याज को आज भी कृष्णावल नाम से ही जाना जाता है।
२. इसे कृष्णवल कहने का तात्पर्य यह है कि जब इसे खड़ा काटा जाता है तो वह शङ्खाकृति यानी शङ्ख के आकार में दिखता है।
वहीं जब इसे आड़ा काटा जाता है तो यह चक्राकृति यानी चक्र के आकार में दिखाई देता है।
३. आप जानते ही हैं कि शङ्ख और चक्र दोनों श्री हरि विष्णु के आयुधों में से हैं और श्री कृष्ण जी श्री हरि के दशावतार में ही पूर्णावतार (नवें अवतार) हैं।
४. शङ्ख और चक्र की आकृतियों के कारण ही प्याज को कृष्णावल कहते हैं।
कृष्ण और वलय शब्दों को मिलाकर बना "कृष्णावल" शब्द है।
५. कृष्णावल कहने के पीछे केवल यही एक कारण नहीं है ; अपितु यदि आप प्याज को उसकी पत्तियों के साथ उलटा पकड़ेंगे तो वह गदा का भी रूप ले लेता है।
यह भी रोचक है कि यदि पत्तों के काट दिया जाए तो वह पद्म यानी कमल का आकार लेता है।
गदा और पद्म भी भगवान श्री हरि विष्णु के आयुध हैं जिसे वे चक्र और शङ्ख के साथ धारण करते हैं।
यह दुर्भाग्यपूर्ण विडंबना ही है कि आजकल किन्नर जैसा रूप धरे कथित धार्मिक कथावाचक, जो केवल अपने आप को ही धर्म का झण्डावरदार समझते हैं ; इस कृष्णावल की निंदा में अनर्गल बातें करते हैं और घृणित शब्दों से इसे लांछित कर रहे हैं।
साभार/संशोधन/संकलन - ✍🏻प्रेमझा
शुक्रिया नहीं, शुक्रियम् बोलिए!
2005 की घटना है- अटल सरकार चली गई थी। कांगी-वामी की सरकार आई थी, एनसीईआरटी में बड़ी गहमागहमी थी।
मई माह में 6-7 दिनों खुला विचार-मंथन चल रहा था।
सभागार भरा हुआ, मंच पर अशोक वाजपेयी बोल रहे थे- "धन्यवाद नहीं, शुक्रिया बोलिए।"
संस्कृत के प्रोफेसर मिश्र जी थे तो फूल काँग्रेसी! ललित मिश्र के क्षेत्र के, लेकिन अशोक वाजपेयी के फरमान से दुख हुए।
मुझसे बोले- "जवाब दीजिए, क्यों शुक्रिया बोलें।"
मैं भी आक्रोशित था, पर द्रष्टा भाव में बस सत्ता का मद देख रहा था।
प्रो.केके मिश्र जी, मुझे बार बार प्रेरित कर रहे थे। मैं नहीं नहीं की मुद्रा में था।
मंच से अशोक वाजपेयी ने देख लिया, और मुझ से कहा- "आप कुछ कहना चाहते हैं"?
वह एक पल का ईक्षण था, ललकारता हुआ। मेरे मन में बात आ गई।
मैंने कहा- मैं कुछ कहना नहीं चाहता। सर मुझे कहलाना चाहते हैं, यदि आप सुनना चाहें तो बोलू दूँ?
अशोक जी मेरे राष्ट्रधर्मी विचारों के कट्टर विरोधी हैं,
फिर भी राष्ट्र वादी ढोंढ़ा- मंगरुओं से सम्मानीय विरोधी।
क्योंकि इंडिया इंटरनेशनल की एक गोष्ठी में भी जब उन्होंने राधा को आर्टी फैक्ट कहा था, मैंने उन्हें जवाब दिया था। फिर एक मौका हाथ आया था।
मैंने कहा- अशोक जी, दस हजार या पांच हजार वर्ष पुराना वैदिक शब्द "शुक्रिय" हम से क्यों बोलवाना चाहते हैं?
सामवेद में शुक्रिय पर्व है।
फारसी में भी यह शब्द धन्यवाद अर्थक ही है।
यह सुनते ही पूरी सभा सन्न हो गई- मुर्दो का टीला। काँगी-वामी, मुस्लिम प्रोफेसर निरुत्तर, काटो तो खून नहीं।
इस घटना के साक्षी लोग अभी सदेह हैं।
इसके बाद की कहानी संघी होने के व्यर्थ तमगे से शुरू होती है, कि संघ ने चेलिया रखा है,
मैं स्वयं से अपना पक्ष लेता रहा और शत्रु संघी मान कर नुकसान पहुंचाते रहे।
ये बीती बातें याद इसलिए आईं कि आज मैंने पाणिनि का एक सूत्र देखा-
।। शुक्राद् घनम् ।।
शुक्रियम्- इसका देवता शुक्र है! शुक्र: देवता अस्य!
इस सूत्र पर ध्यान जाने से लाभ यह हुआ कि शुक्रिय को वैदिक शब्द के बदले अब मैं संस्कृत शब्द कह सकता हूँ-
कोई "शुक्रिया" कहे तो आप भी शुक्रियम् कहिए या हिन्दी में शुक्रिया नहीं, शुक्रिय बोलिए ।
"इया" प्रत्यय भी अपना ही है, गइया, मइया, तकिया, इंडिया वैसे ही शुक्र+इया = शुक्रिया।
पर, आप शुक्रियम् बोलिए। स्वागतम् की तरह।
शुक्राचार्य को कौन नहीं जानता, वे महादेव के अनन्य भक्त और असुरों के गुरु थे।
✍🏻प्रमोद दुबे
गुण्डा
यह शब्द किस भाषा बोली से है ?
व्याकरण क्या हो सकता है ?
गुण्ड शब्द का प्रयोग तुलसीबाबा ने भी किया-
गीतावली उत्तरकाण्ड ::-
झुण्ड-झुण्ड झूलन चलीं गजगामिनि बर नारि |
कुसुँभि चीर तनु सोहहीं, भूषन बिबिध सँवारि ||
पिकबयनी मृगलोचनी सारद ससि सम तुण्ड |
रामसुजस सब गावहीं सुसुर सुसारँग गुण्ड ||
सारङ्ग गुण्ड-मलार, सोरठ, सुहव सुघरनि बाजहीं |
बहु भाँति तान-तरङ्ग सुनि गन्धरब किन्नर लाजहीं ||
अति मचत, छूटत कुटिल कच, छबि अधिक सुन्दरि पावहीं |
पट उड़त, भूषन खसत, हँसि-हँसि अपर सखी झुलावहीं |
चालुक्य साम्राज्य के विजयादित्य के पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय (733 से 745 ई.), की प्रथम पत्नी 'लोक महादेवी' ने 'पट्टलक' में विशाल शिव मंदिर (विरुपाक्षमहादेव मंदिर) का निर्माण करवाया था, जो अब 'विरुपाक्ष महादेव मंदिर' के नाम से प्रसिद्ध है।
इस विशाल मंदिर के
प्रधान शिल्पी 'आचार्य गुण्ड' थे, जिन्हें 'त्रिभुवनाचारि', 'आनिवारितचारि' तथा 'तेन्कणदिशासूत्रधारी' आदि उपाधियों से विभूषित किया गया था।
गुड् रक्षायाम् (पाणिनीय धातुपाठ ६/७९) = रक्षा करना या बनाना। या गुडि वेष्टने रक्षणे च (१०/५१)= घेरना, पीसना, चूर्ण करना, संरक्षण करना। अतः जो रक्षा करने केलिये पैसे लेता है वह गुण्डा है। पैसा नहीं मिलनेपर घेर कर चूर चूर कर देता है। इसी अर्थ में राक्षस शब्द है जिसका अर्थ रक्षक है, महापद्मनन्द का पुलिस मुख्य पद राक्षस कहा जाता था। रक्षा करने तक ठीक है पर उसके लिये पैसे वसूलना राक्षसी काम है। गुण्डा से अंग्रेजी का गून (Goon) शब्द है।
✍🏻 सनातन कालयात्री
शिक्षा पर एक पोस्ट पर हुई चर्चा में मित्रवर अमरनाथ झा जी ने एक प्रश्न पूछा था कि यदि विद्या को हम कौशल मानें तो इससे विनय कैसे उत्पन्न होगा।
इस प्रश्न का मूल कारण विनय शब्द का आज प्रचलित अर्थ है। आज विनय का अर्थ माना जाता है नम्र होना। वास्तव में विनय शब्द में जो नय है, उसका अर्थ है नीति, नेता तथा मार्गदर्शन। इसलिए विनय शब्द का अर्थ जो "विद्या ददाति विनयं" में नीतिकार का अभिप्रेत है, वह नम्रता नहीं है, बल्कि विशेष नीति तथा मार्गदर्शन का जानकार होना है। विशेष नीति केवल सामाजिक ही नहीं होती, वह हरेक क्षेत्र में होती है। विशेष नीति से संपन्न व्यक्ति ही पात्र यानी योग्य माना जाता है। यह विनय और उससे जन्य पात्रता कौशल यानी विद्या से ही मिल सकती है।
विनय शब्द के इस अर्थ की ओर मेरा ध्यान सर्वप्रथम गुरुवर रामेश्वर मिश्र पंकज जी ने दिलाया था। अमरनाथ जी ने जब यह प्रश्न पूछा तो इस पर मुझे और अध्ययन करने का अवसर मिला। इससे यह विषय और अधिक स्पष्ट हुआ कि शास्त्रों का अर्थ करने के लिए परंपरा का ज्ञान भी अत्यावश्यक है, आवश्यक नहीं कि शब्दों के जो अर्थ अभी प्रचलित हैं, वही शास्त्रकारों का भी मन्तव्य रहा हो, वह भिन्न हो सकता है, क्योंकि आज यूरोपीय प्रभाव में संस्कृत शब्दों के अंग्रेजी अर्थ ही प्रचलित हैं, उसके शास्त्रशुद्ध अर्थ नहीं।