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मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

महालक्ष्मी रहेंगी आपके घर में, बस समय-समय पर पैसा खर्च करें - by Aditya Mandowara


प्राचीन काल से ही धन के मोह और लोभ के कई किस्से-कहानियां प्रचलित हैं। आज भी धन के प्रति लोगों का मोह काफी अधिक है। सभी पैसों को छिपाकर रखते हैं, खर्च नहीं करते। धन का सही उपयोग नहीं करने पर वह नष्ट हो जाता है। शास्त्रों में भी धन की महिमा बताई गई है। धन यानि महालक्ष्मी किन लोगों के पास रहती है? इस संबंध में राजा भृर्तहरी ने बताया है कि-

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।

यो न ददाति न भुंक्ते तस्त तृतीया गतिर्भवति।।

इस संस्कृत श्लोक का अर्थ है कि धन की केवल तीन ही अवस्थाएं हैं- पहली है दान देना, दूसरी है धन का उपभोग करना और अंतिम अवस्था है धन का नष्ट होना।

राजा भृर्तहरी ने लिखा है कि यदि कोई व्यक्ति धन का दान नहीं करता है और धन का उपभोग नहीं करता है तो उससे महालक्ष्मी रुठ जाती हैं यानि उसका सारा धन नष्ट हो जाता है। जो लोग धन को जान से अधिक सहेजकर कर रखते हैं, उसका सदुपयोग नहीं करते हैं, दान-पुण्य नहीं करते, किसी गरीब की धन से मदद नहीं करते, परिवार वालों की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करते हैं, ऐसे लोगों का धन व्यर्थ ही है। इनका धन बहुत ही जल्द नष्ट होने वाला है। महालक्ष्मी की कृपा ऐसे लोगों पर नहीं होती जो धन को एकत्र करने में लगे रहते हैं और उसका सही उपयोग नहीं करते हैं। धन को बचाने का सबसे अच्छा रास्ता है दान-पुण्य किया जाए, गरीबों की मदद की जाए और पैसों का सही उपयोग किया।

कौन है राजा भृर्तहरी

भृर्तहरी मध्यप्रदेश के उज्जैन के प्राचीन राजा माने जाते हैं। ये सम्राट विक्रमादित्य के बड़े भाई थे। उस काल में उज्जैन को उज्जयिनी के नाम से जाना जाता था। भृर्तहरी उज्जैन के राजा तो थे साथ ही वे महान संस्कृत कवि और नीतिकार भी थे। उन्होंने नीतिशतक, श्रंगारशतक, वैराग्यशतक की रचना की। प्रत्येक शतक में सौ-सौ श्लोक हैं। राजा भृर्तहरी के नीतिशतक में जीवन प्रबंधन की अचूक उपाय बताए गए हैं। जिन्हें अपनाने पर कोई भी व्यक्ति श्रेष्ठ जीवन जी सकता है।
 
 
 
by Aditya Mandowara
 


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सोमवार, 5 दिसंबर 2011

खुशहाल गृहस्थी के लिए

खुशहाल गृहस्थी के लिए पति-पत्नी के बीच ऐसा रिश्ता जरूरी है
सफल गृहस्थी का आधार सुखी दाम्पत्य होता है। दाम्पत्य वो सुखी है जिसमें पति-पत्नी एक दूसरे के सम्मान और स्वाभिमान की मर्यादा को ना लांघें। पति, पत्नी से या पत्नी, पति से समान पूर्वक व्यवहार ना करें तो उस घर में कभी भी परमात्मा नहीं आ सकता। परमात्मा पे्रेम का भूखा है। जहां प्रेम और सम्मान होगा वहीं उसका वास भी होगा।

पतियों का पुरुषत्व वाला अहंकार उन्हें स्त्री के आगे झुकने नहीं देता। कई महिलाओं के लिए भी पुरुषों के आगे झुकने में असहज महसूस करती हैं। बस यहीं से अशांति की शुरुआत होती है दाम्पत्य में।

तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में इसके संकेत दिए हैं। तुलसीदासजी ने शिव और पार्वती के दाम्पत्य का एक छोटा सा प्रसंग लिखा है। जिसमें बहुत गहरी बात कही है। प्रसंग है शिव-पार्वती के विवाह के बाद पार्वती ने एक दिन भगवान को शांतभाव से बैठा देख, उनसे रामकथा सुनने की इच्छा जाहिर की। यहां तुलसीदासजी लिखते हैं कि

बैठे सोह कामरिपु कैसे। धरें सरीरु सांतरसु जैसे।।

पारबती भल अवसरु जानी। गई संभु पहि मातु भवानी।।

एक दिन भगवान शिव शांत भाव से बैठे थे। तो पार्वती ने सही अवसर जानकर उनके पास गई। देखिए पत्नी के मन में पति को लेकर कितना आदर है कि उनसे बात करने के लिए भी सही अवसर की प्रतीक्षा की। जबकि आजकल पति-पत्नी में एक-दूसरे के समय और कार्य को लेकर कोई सम्मान का भाव नहीं रह गया। फिर तुलसीदासजी ने लिखा है -

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा।।

शिव ने पार्वती को अपना प्रिय जानकर उनका बहुत आदर किया। अपने बराबर वाम भाग में आसन बैठने को दिया। पति, पत्नी को आदर दे रहा है। ये भारतीय संस्कृति में ही संभव है। कई लोग आज गृहस्थी को जंजाल भी कहते हैं। लेकिन अगर एक-दूसरे के प्रति इस तरह प्रेम और सम्मान का भाव हो तो गृहस्थी कभी जंजाल नहीं लगेगी।


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