क्या
थी विभाजन की पीड़ा ? क्या थी गोडसे की विवशता ? क्या गोडसे नही जानते थे
की आम आदमी को मरने में और एक राष्ट्रपिता को मरने में क्या अंतर है ? क्या
होगा परिवार का ?कैसे कैसे कष्ट सहने पड़ेंगे परिवार और सम्बन्धियों को और
मित्रों को ?क्या था गांधी वध का वास्तविक कारण ? गांधी का सम्मान करने
वाले गोडसे को गांधी का वध आखिर क्योँ करना पडा, इसके पीछे क्या कारण रहे,
इन कारणोँ की कभी भी व्याख्या नही की जाती।
नाथूराम गोडसे एक विचारक,
समाज सुधारक, पत्रकार एवं सच्चा राष्ट्रभक्त था और गांधी का सम्मान करने
वालोँ मेँ भी अग्रिम पंक्ति मेँ था। किन्तु सत्ता परिवर्तन के पश्चात
गांधीवाद मेँ जो परिवर्तन देखने को मिला, उससे नाथूराम ही नहीँ करीब-करीब
सम्पूर्ण राष्ट्रवादी युवा वर्ग आहत था। गांधीजी इस देश के विभाजन के पक्ष
मेँ नहीँ थे। उनके लिए ऐसे देश की कल्पना भी असम्भव थी, जो किसी एक धर्म के
अनुयायियोँ का बसेरा हो। उन्होँने प्रतिज्ञापूर्ण घोषणा की थी कि भारत का
विभाजन उनकी लाश पर होगा। परन्तु न तो वे विभाजन रोक सके, न नरसंहार का वह
घिनौना ताण्डव, जिसने न जाने कितनोँ की अस्मत लूट ली, कितनोँ को बेघर किया
और कितने सदा - सदा के लिए अपनोँ से बिछड गये।
खण्डित भारत का निर्माण
गांधीजी की लाश पर नहीँ, अपितु 25 लाख हिन्दू, सिक्खोँ और मुसलमानोँ की
लाशोँ तथा असंख्य माताओँ और बहनोँ के शीलहरण पर हुआ।
किसी भी महापुरुष
के जीवन मेँ उसके सिद्धांतोँ और आदर्शो की मौत ही वास्तविक मौत होती है। जब
लाखोँ माताओँ, बहनोँ के शीलहरण तथा रक्तपात और विश्व की सबसे बडी त्रासदी
द्विराष्ट्रवाद के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ। उस समय गांधी के लिए
हिन्दुस्थान की जनता मेँ जबर्दस्त आक्रोश फैल चुका था। प्रायः प्रत्येक की
जुबान पर एक ही बात थी कि गांधी मुसलमानोँ के सामने घुटने चुके है। रही -
सही कसर पाकिस्तान को 55 करोड रुपये देने के लिए गांधी के अनशन ने पूरी कर
दी। उस समय सारा देश गांधी का घोर विरोध कर रहा था और परमात्मा से उनकी
मृत्यु की कामना कर रहा था।
जहाँ एक और गांधीजी पाकिस्तान को 55 करोड
रुपया देने के लिए हठ कर अनशन पर बैठ गये थे, वही दूसरी और पाकिस्तानी सेना
हिन्दू निर्वासितोँ को अनेक प्रकार की प्रताडना से शोषण कर रही थी,
हिन्दुओँ का जगह - जगह कत्लेआम कर रही थी, माँ और बहनोँ की अस्मतेँ लूटी जा
रही थी, बच्चोँ को जीवित भूमि मेँ दबाया जा रहा था। जिस समय भारतीय सेना
उस जगह पहुँचती, उसे मिलती जगह - जगह अस्मत लुटा चुकी माँ - बहनेँ, टूटी
पडी चुडियाँ, चप्पले और बच्चोँ के दबे होने की आवाजेँ।
ऐसे मेँ जब
गांधीजी से अपनी जिद छोडने और अनशन तोडने का अनुरोध किया जाता तो गांधी का
केवल एक ही जबाब होता- "चाहे मेरी जान ही क्योँ न चली जाए, लेकिन मैँ न तो
अपने कदम पीछे करुँगा और न ही अनशन समाप्त करुगा।"आखिर मेँ नाथूराम गोडसे
का मन जब पाकिस्तानी अत्याचारोँ से ज्यादा ही व्यथित हो उठा तो मजबूरन
उन्हेँ हथियार उठाना पडा। नाथूराम गोडसे ने इससे पहले कभी हथियार को हाथ
नही लगाया था। 30 जनवरी 1948 को गोडसे ने जब गांधी पर गोली चलायी तो गांधी
गिर गये। उनके इर्द-गिर्द उपस्थित लोगोँ ने गांधी को बाहोँ मेँ ले लिया।
कुछ लोग नाथूराम गोडसे के पास पहुँचे। गोडसे ने उन्हेँ प्रेमपूर्वक अपना
हथियार सौप दिया और अपने हाथ खडे कर दिये। गोडसे ने कोई प्रतिरोध नहीँ
किया। गांधीवध के पश्चात उस समय समूची भीड मेँ एक ही स्थिर मस्तिष्क वाला
व्यक्ति था, नाथूराम गोडसे। गिरफ्तार होने के बाद गोडसे ने डाँक्टर से शांत
मस्तिष्क होने का सर्टिफिकेट मांगा, जो उन्हेँ मिला भी।
नाथूराम गोडसे
ने न्यायालय के सम्मुख अपना पक्ष रखते हुए गांधी का वध करने के 150 कारण
बताये थे। उन्होँने जज से आज्ञा प्राप्त कर ली थी कि वह अपने बयानोँ को
पढकर सुनाना चाहते है। अतः उन्होँने वो बयान माइक पर पढकर सुनाए। लेकिन
नेहरु सरकार ने (डर से) गोडसे के गांधी वध के कारणोँ पर रोक लगा दी जिससे
वे बयान भारत की जनता के समक्ष न पहुँच पाये। गोडसे के उन क्रमबद्ध बयानोँ
मेँ से कुछ बयान आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा जिससे आप जान सके कि गोडसे के
बयानोँ पर नेहरु ने रोक क्योँ लगाई.?
तथा गांधी वध उचित था या अनुचित.??
दक्षिण अफ्रिका मेँ गांधीजी ने भारतियोँ के हितोँ की रक्षा के लिए बहुत
अच्छे काम किये थे। लेकिन जब वे भारत लोटे तो उनकी मानसिकता व्यक्तिवादी हो
चुकी थी। वे सही और गलत के स्वयंभू निर्णायक बन बैठे थे। यदि देश को उनका
नेतृत्व चाहिये था तो उनकी अनमनीयता को स्वीकार करना भी उनकी बाध्यता थी।
ऐसा न होने पर गांधी कांग्रेस की नीतियोँ से हटकर स्वयं अकेले खडे हो जाते
थे। वे हर किसी निर्णय के खुद ही निर्णायक थे। सुभाष चन्द्र बोस कांग्रेस
के अध्यक्ष पद पर रहते हुए गांधी की नीति पर नहीँ चलेँ। फिर भी वे इतने
लोकप्रिय हुए कि गांधीजी की इच्छा के विपरीत पट्टाभी सीतारमैया के विरोध
मेँ प्रबल बहुमत से चुने गये। गांधी को दुःख हुआ, उन्होँने कहा की सुभाष की
जीत गांधी की हार है। जिस समय तक सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस की गद्दी
से नहीँ उतारा गया तब तक गांधी का क्रोध शांत नहीँ हुआ ।
मुस्लिम लीग
देश की शान्ति को भंग कर रही थी और हिन्दुओँ पर अत्याचार कर रही थी ।
कांग्रेस इन अत्याचारोँ को रोकने के लिए कुछ भी नहीँ करना चाहती थी, क्योकि
वह मुसलमानोँ को खुश रखना चाहती थी।गांधी जिस बात को अनुकूल नहीँ पाते थे
उसे दबा देते थे । इसलिए मुझे यह सुनकर आश्चर्य होता है की आजादी गांधी ने
प्राप्त की । मेरा विचार है की मुसलमानोँ के आगे झुकना आजादी के लिए लडाई
नहीँ थी। गांधी व उसके साथी सुभाष को नष्ट करना चाहते थे ।
श्री
नाथूराम गोडसे व अन्य राष्ट्रवादी युवा गांधीजी की हठधर्मिता और मुस्लिम
तुष्टिकरण की नीति से क्षुब्ध थे, हिन्दुस्थान की जनता के दिलोँ मेँ
गांधीजी के झूठे अहिँसावाद और नेतृत्व के प्रति घृणा पैदा हो चुकी थी।उस
समय गांधीजी के चरित्र पर भी अंगुली उठ रही थी जिसके चलते वरिष्ठ नेता जे.
बी. कृपलानी और वल्लभ भाई पटेल आदि नेताओँ ने उनसे दूरी बना ली। यहा तक की
कई लोगोँ ने उनका आश्रम छोड दिया था। अब उससे आगे के बयान....
इस बात
को तो मैँ सदा से बिना छिपाए कहता रहा हूँ कि मैँ गांधीजी के सिद्धांतोँ के
विरोधी सिद्धांतोँ का प्रचार कर रहा हूँ। यह मेरा पूर्ण विश्वास रहा है
कि अहिँसा का अत्याधिक प्रचार हिन्दू जाति को अत्यन्त निर्बल बना देगा और
अंत मेँ यह जाति ऐसी भी नहीँ रहेगी कि वह दूसरी जातियोँ से, विशेषकर
मुसलमानोँ के अत्याचारोँ का प्रतिरोध कर सके ।
हम लोग गांधीजी की
अहिँसा के विरोधी ही नहीँ थे, प्रत्युत इस बात के अधिक विरोधी थे कि
गांधीजी अपने कार्यो और विचारोँ मेँ मुस्लिमोँ का अनुचित पक्ष लेते थे और
उनके सिद्धांतोँ व कार्यो से हिन्दू जाति की अधिकाधिक हानि हो रही थी।
मालाबार, नोआख्याली, पंजाब, बंगाल, सीमाप्रांत मेँ हिन्दुओँ पर अत्याधिक
अत्याचार हुयेँ । जिसको मोपला विद्रोह के नाम से जाना जाता है । उसमेँ
हिन्दुओँ की संपत्ति, धन व जीवन पर सबसे बडा हमला हुआ।हिन्दुओँ को बलपूर्वक
मुसलमान बनाया गया, स्त्रियोँ के अपमान हुये । गांधीजी अपनी नीतियोँ के
कारण इसके उत्तरदायी थे, मौन रहे । प्रत्युत यह कहना शुरु कर दिया कि
मालाबार मेँ हिन्दुओँ को मुसलमान नहीँ बनाया गया ।यद्यपि उनके मुस्लिम
मित्रोँ ने यह स्वीकार किया कि सैकडोँ घटनाऐँ हुई है। और उल्टे मोपला
मुसलमानोँ के लिए फंड शुरु कर दिया ।
कांग्रेस ने गांधीजी को सम्मान
देने के लिए चरखे वाले ध्वज को राष्ट्रीय ध्वज बनाया। प्रत्येक अधिवेशन मेँ
प्रचुर मात्रा मेँ ये ध्वज लगाये जाते थे । इस ध्वज के साथ कांग्रेस का
अति घनिष्ट सम्बन्ध था। नोआख्याली के 1946 के दंगोँ के बाद वह ध्वज गांधीजी
की कुटिया पर भी लहरा रहा था, परन्तु जब एक मुसलमान को ध्वज के लहराने पर
आपत्ति हुई तो गांधी ने तत्काल उसे उतरवा दिया। इस प्रकार लाखोँ - करोडोँ
देशवासियोँ की इस ध्वज के प्रति श्रद्धा को गांधी ने अपमानित किया। केवल
इसलिए की ध्वज को उतारने से एक मुसलमान खुश होता था।
कश्मीर के विषय
मेँ गांधी हमेशा यह कहते रहे की सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौप दी जाये, केवल
इसलिए की कश्मीर मेँ मुस्लिम है। इसलिए गांधीजी का मत था कि महाराजा
हरिसिँह को संन्यास लेकर काशी चले जाना चाहिए, परन्तु हैदराबाद के विषय मेँ
गांधी की नीति भिन्न थी । यद्यपि वहाँ हिन्दूओँ की जनसंख्या अधिक थी,
परन्तु गांधीजी ने कभी नहीँ कहा की निजाम फकीरी लेकर मक्का चला जायेँ ।
जब खिलापत आंदोलन असफल हो गया तो मुसलमानोँ को बहुत निराशा हुई और अपना
क्रोध हिन्दुओँ पर उतारा । गांधीजी ने गुप्त रुप से अफगानिस्तान के अमीर
को भारत पर आक्रमण करने का निमन्त्रण दिया, जो गांधीजी के लेख के इस अंश से
सिद्ध हो जाता है - "मैँ नही समझता कि जैसे खबर फैली है, अली भाईयोँ को
क्योँ जेल मेँ डाला जायेगा और मैँ क्योँ आजाद रहूँगा? उन्होँने ऐसा कोई
कार्य नही किया है जो मैँ न करु।यदि उन्होँने अमीर अफगानिस्तान को आक्रमण
के लिए संदेश भेजा है, तो मैँ भी उनके पास संदेश भेज दूँगा कि जब वो भारत
आयेँगे तो जहाँ तक मेरा बस चलेगा एक भी भारतवासी उनको हिन्द से निकालने मेँ
सरकार की सहायता नहीँ करेगा।"
मुस्लिम तुष्टिकरण के लिए गांधी ने एक
मुसलमान के द्वारा भूषण कवि के विरुद्ध पत्र लिखने पर उनकी अमर रचना
शिवबवनी पर रोक लगवा दी, जबकि गांधी ने कभी भी भूषण का काव्य या शिवाजी की
जीवनी नहीँ पढी। शिवबवनी 52 छंदोँ का एक संग्रह है जिसमेँ शिवाजी महाराज की
प्रशंसा की गयी है । इसके एक छंद मेँ कहा गया है कि अगर शिवाजी न होते तो
सारा देश मुसलमान हो जाता । गांधीजी को ज्ञात हुआ कि मुसलमान वन्देमातरम्
पसंद नही करते तो जहाँ तक सम्भव हो सका गांधीजी ने उसे बंद करा दिया ।
राष्ट्रभाषा के विषय पर जिस तरह से गांधी ने मुसलमानोँ का अनुचित पक्ष लिया
उससे उनकी मुस्लिम समर्थक नीति का भ्रष्ट रुप प्रगट होता था । किसी भी
दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि इस देश की राष्ट्रभाषा बनने का
अधिकार हिन्दी को है । गांधीजी ने अपने राजनीतिक कैरियर की शुरुआत मेँ
हिन्दी को बहुत प्रोत्साहन दिया। लेकिन जैसे ही उन्हेँ पता चला कि मुसलमान
इसे पसन्द नही करते, तो वे उन्हेँ खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी का प्रचार
करने लगे । बादशाह राम, बेगम सीता और मौलवी वशिष्ठ जैसे नामोँ का प्रयोग
होने लगा। मुसलमानोँ को खुश करने के लिए हिन्दुस्तानी (हिन्दी और उर्दु का
वर्ण संकर रुप) स्कूलोँ मेँ पढाई जाने लगी। इसी अवधारणा से मुस्लिम
तुष्टिकरण का जन्म हुआ जिसके मूल से ही पाकिस्तान का निर्माण हुआ है
।गांधीजी का हिन्दू मुस्लिम एकता का सिद्धांत तो उसी समय नष्ट हो गया जिस
समय पाकिस्तान बना। प्रारम्भ से ही मुस्लिम लीग का मत था कि भारत एक देश
नही है। हिन्दू तो गांधी के परामर्श पर चलते रहे किन्तु मुसलमानोँ ने गांधी
की तरफ ध्यान नही दिया और अपने व्यवहार से वे सदा हिन्दुओँ का अपमान तथा
अहित करते रहे। अंत मेँ देश का दो टुकडोँ मेँ विभाजन हो गया और भारत का एक
तिहाई हिस्सा विदेशियोँ की भूमि बन गया।32 वर्षो से गांधीजी मुसलमानोँ के
पक्ष मेँ कार्य कर रहे थे और अंत मेँ उन्होँने जो पाकिस्तान को 55 करोड
रुपये दिलाने के लिए धूर्ततापूर्ण अनशन करने का निश्चय किया, इन बातोँ ने
मुझे गांधी वध करने का निर्णय लेने के लिए विवश कर दिया। 30 जनवरी 1948 को
बिडला भवन की प्रार्थना सभा मेँ देश की रक्षा के लिए मैने गांधी को गोली
मार दी।
वास्तव मेँ मेरे जीवन का उसी समय अन्त हो गया था जब मैने गांधी
वध का निर्णय लिया था। गांधी और मेरे जीवन के सिद्धांत एक है, हम दोनोँ
ही इस देश के लिए जीये,गांधीजी ने उन सिद्धांतोँ पर चलकर अपने जीवन का
रास्ता बनाया और मैने अपनी मौत का। गांधी वध के पश्चात मैँ समाधि मेँ हूँ
और अनासक्त जीवन बिता रहा हूँ।
मैँ मानता हूँ कि गांधीजी एक सोच है, एक
संत है, एक मान्यता है और उन्होँने देश के लिए बहुत कष्ट उठाए। जिसके कारण
मैँ उनकी सेवा के प्रति एवं उनके प्रति नतमस्तक हूँ, लेकिन इस देश के सेवक
को भी जनता को धोखा देकर मातृभूमि के विभाजन का अधिकार नही था। किसी का वध
करना हमारे धर्म मेँ पाप है, मै जानता हूँ कि इतिहास मेँ मुझे अपराधी समझा
जायेगा लेकिन हिन्दुस्थान को संगठित करने के लिए गांधी वध आवश्यक था । मैँ
किसी प्रकार की दया नही चाहता हँ । मैँ यह भी नही चाहता कि मेरी ओर से कोई
और दया की याचना करेँ ।
यदि देशभक्ति पाप है तो मैँ स्वीकार करता हूँ
कि यह पाप मैने किया है ।यदि पुण्य है तो उससे उत्पन्न पुण्य पर मेरा नम्र
अधिकार है। मुझे विश्वास है कि मनुष्योँ के द्वारा स्थापित न्यायालय के
ऊपर कोई न्यायालय हो तो उसमेँ मेरे काम को अपराध नही माना जायेगा । मैने
देश और जाति की भलाई के लिए यह काम किया! मैने उस व्यक्ति पर गोली चलाई
जिसकी नीतियोँ के कारण हिन्दुओँ पर घोर संकट आये और हिन्दू नष्ट हुए!!
मेरा विश्वास अडिग है कि मेरा कार्य 'नीति की दृष्टि' से पूर्णतया उचित
है। मुझे इस बात मेँ लेश मात्र भी सन्देह नही की भविष्य मेँ किसी समय सच्चे
इतिहासकार इतिहास लिखेँगे तो वे मेरे कार्य को उचित आंकेगे।