विज्ञानसम्मत दृश्यगणित के अनुसार, शुक्रवार, 2 मई को
वैशाख-शुक्ल-तृतीया (अक्षय तृतीया) सूर्योदय से मध्याथ्काल में 12.04 बजे
तक विद्यमान रहने से स्नान-दान का पर्वकाल इसी समय में रहेगा। वस्तुत: दान
देने से तन-मन-धन, तीनों शुद्ध हो जाते हैं।वैशाख मास को भगवान विष्णु के नाम पर 'माधव मास' कहा जाता है। इस मास
के शुक्लपक्ष की तृतीया को सनातन ग्रंथों में अक्षय-फलदायी बताया गया है।
इसी कारण इस तिथि का नाम 'अक्षय तृतीया' पड़ गया। भविष्य पुराण में कहा गया
है- 'यत् किंचिद् दीयते दानं स्वल्पं वा यदि वा बहु। तत् सर्वमक्षयं
यस्मात् तेनेयमक्षया स्मृता।।' अर्थात इस तिथि में थोड़ा या बहुत, जितना और
जो कुछ भी दान दिया जाता है, उसका फल अक्षय हो जाता है। अक्षय तृतीया पर मूल्यवान वस्तुएं खरीदने का प्रचलन बन गया है, लेकिन
सनातन धर्म के ग्रंथों में इसे संग्रह का नहीं, बल्कि जरूरतमंदों को दान
करने का पर्व बताया गया है।
भारतीय काल-गणना के अनुसार, वैशाख-शुक्ल-तृतीया से ही त्रेतायुग का
शुभारंभ हुआ था। त्रेतायुग की प्रारंभिक तिथि होने के कारण इसे 'युगादि
तिथि' भी कहते हैं। पृथ्वीचंद्रोदय नामक ग्रंथ में सौर पुराण का यह कथन
दिया गया है- 'युगादौ तु नर: स्नात्वा विधिवल्लवणोदधौ। गोसहस्र प्रदानस्य
फलं प्राप्नोति मानव:।।' अर्थात युगादि तिथि के दिन किसी तीर्थ, पवित्र नदी
अथवा सरोवर में स्नान कर दान करने से एक सहश्च गायों के दान (गोदान) का
पुण्यफल मिलता है। ऋषि-मुनियों का निर्देश है कि अक्षय तृतीया के दिन हर
व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य के अनुसार दान अवश्य करना चाहिए। भविष्योत्तर
पुराण में जौ-चने का सत्तू, दही-चावल, गन्ने का रस, दूध से बनी मिठाई,
शक्कर, जल से भरे घड़े, अन्न तथा ग्रीष्म ऋतु में उपयोगी वस्तुओं के दान की
बात कही गई है। सामान्यत: सत्तू, पानी से भरी सुराही अथवा घड़े के साथ
ताड़ के पंखे का दान किए जाने का प्रचलन है। यह समाज सेवा है, जो सबसे बड़ा
धार्मिक कार्य है। इस दिन समाजसेवी संस्थाएं प्यासे पथिकों के लिए पौशाला
(प्याऊ) लगवाती हैं। कुछ लोग शीतल जल का शर्बत पिलाते हैं। सही मायनों में
तन-मन-धन से गरीबों की सेवा ही नारायण की अर्चना है। बृहत्पाराशर संहिता
में कहा गया है- 'दानमेकं कलौ युगे' अर्थात कलियुग में दान अकेले ही सारा
पुण्य दे देता है। भगवान कृष्ण का गीता में उपदेश है-'यज्ञो दानं तपश्चैव
पावनानि मनीषिणाम्' अर्थात यज्ञ, दान और तप मनीषियों को पावन करने वाले
हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार, -'शुध्यंति दानै: संतुष्ट्या
द्रव्याणि' अर्थात धन दान और संतोष से शुद्ध होता है। इससे अभिप्राय यह है
कि धन होने पर दान जरूर करें, इससे मन को संतोष मिलता है और चित्त शुद्ध हो
जाता है।
अक्षय तृतीया संग्रह करने की बजाय दान देने की प्रेरणा देती है, परंतु
आजकल इस तिथि का व्यावसायीकरण हो गया है। इस संदर्भ में यह कहा जाने लगा है
कि अक्षय तृतीया को सोना या सोने के आभूषण खरीदने से समृद्धि बढ़ती है। यह
तिथि अपने नाम के अनुरूप अक्षय फल देने में समर्थ है, पर संग्रह करना इस
पावन तिथि का मूल उद्देश्य नहीं है। इस तिथि की प्रशस्ति दान से जुड़ी है,
संग्रह करने से नहीं। निर्णयसिंधु में भविष्योत्तर पुराण के संदर्भ से
स्वर्ण-दान की बात कही गई है, स्वर्ण के क्रय की नहीं। इसलिए इस तिथि को
दान का महापर्व कहा जाए, तो अतिशयोक्ति न होगी। दान देने से मन में परोपकार
की भावना का उदय होता है तथा आसक्ति और लोभ का दमन होता है।
अक्षय तृतीया का मुहूर्तविज्ञानसम्मत दृश्यगणित के अनुसार, शुक्रवार, 2 मई को
वैशाख-शुक्ल-तृतीया (अक्षय तृतीया) सूर्योदय से मध्याथ्काल में 12.04 बजे
तक विद्यमान रहने से स्नान-दान का पर्वकाल इसी समय में रहेगा। वस्तुत: दान
देने से तन-मन-धन, तीनों शुद्ध हो जाते हैं।