किसी स्त्री का बलात्कार करने के उपरांत आरा मशीन से उसे दो भागों में चीर देने की किसी घटना के बारे में आपने सुना है ? और दो भाग भी ऐसे कि उसके गुप्तांग से आरी चलाते हुए दोनों वक्ष स्थलों को दो भाग में करते हुए माथे को दो भाग में चीर देना .
सुना है आपने ?
नहीं ???
लेकिन आपने फिलिस्तीन में , सीरिया में शरणार्थियों के बुरे हाल के बारे में जरूर सुना होगा. सुना है कि नहीं ? कई लोग तो फिलिस्तीन पर कवितायेँ लिख कर महान भी बन गए।
खैर!!छोडिये उसको जिसके बारे में आपने सुना है, आइये!उसके बारे में जानें और तय करें कि हमने उसके बारे में क्यों नहीं सुना. किसी स्त्री के साथ होने वाली इतनी लोमहर्षक घटना आप तक क्यों नहीं पहुँच पायी? किसी ने उसकी इस खौफनाक मौत पर अफ़सोस क्यों नहीं जाहिर किया?
उस स्त्री का नाम था गिरिजा टिक्कू . जो 25 वर्ष की एक ख़ूबसूरत महिला थी एवं कश्मीर के बांदीपोरा में एक शिक्षिका थी . 1990 में जब आतंकवाद बढ़ा तो वह बांदीपोरा छोड़ कर बाहर निकल गयी लेकिन वह अपना सामान नहीं ले जा पायी थी. एक दिन किसी के यह कहने पर कि अब वहां स्थिति सामान्य है, वह बांदीपोरा अपना सामान लाने गयी. लेकिन वहां से वह वापस नहीं आ पायी. एक शिक्षिका जो अपना सामान लाने गयी थी का भीड़ के द्वारा बलात्कार किया गया . लेकिन बलात्कार इस देश में कौन सी बड़ी घटना है , यह तो होता ही रहता है..... आपने सुना नहीं लड़कों से गलतियाँ हो जाती हैं . ......
लेकिन बलात्कार के बाद जो हुआ वह अत्यंत वीभत्स था एवं सम्पूर्ण मानव इतिहास को कलंकित करने वाला था . बलात्कार के बाद उसके शरीर को उसके गुप्तांगो के पास से आरी चलाकर दो भागों में काट दिया गया एवं सड़क के किनारे फ़ेंक दिया गया ..... लेकिन इतनी बड़ी घटना अखबारों के मुख्य पृष्ठ पर अपना स्थान नहीं बना पायी . देश के लोगों को इसकी खबर नहीं हुई. कोई कैंडल मार्च नहीं निकला ... कोई सभा नहीं हुई..... क्यों ?
कश्मीर की आज़ादी के नाम पर एक स्त्री से ऐसा व्यवहार क्या भुला देने योग्य था ? लेकिन ऐसा हुआ।
यहाँ यह बात दृष्टव्य है कि यह घटना 25 जून 1990 की है , उस समय V P singh प्रधानमंत्री थे एवं मुफ़्ती मोहम्मद सईद उनके गृह मंत्री।
आपको बताता चलूँ कि 19 जनवरी 1990 को जब कश्मीर में मस्जिदों से यह घोषणा की गयी कि कश्मीर के हिन्दू काफ़िर हैं एवं वे कश्मीर छोड़ दें या इस्लाम कबूल कर लें या मारे जायें और जो पहला विकल्प चुने वे अपनी औरतों को छोड़ कर जाएँ ,
गिरिजा टिक्कू बांदीपोरा की एक कश्मीरी पंडित विवाहित महिला थी और कश्मीर घाटी के एक सरकारी स्कूल में प्रयोगशाला सहायक के रूप में काम करती थी। वह अपने पूरे परिवार के साथ कश्मीर क्षेत्र से भाग गई और जेकेएलएफ (यासीन मलिक के नेतृत्व में जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) के "आजादी आंदोलन" के बाद जम्मू में बस गई। एक दिन, उसे किसी का फोन आया जिसने उसे बताया कि घाटी में सांप्रदायिक अलगाववादी आंदोलन शांत हो गया है और वह वापस आकर अपना बकाया वेतन ले सकती है। उसे आश्वासन दिया गया था कि वह सुरक्षित घर लौट आएगी और क्षेत्र अब सुरक्षित था।
जून 1990 में, गिरिजा घाटी लौटने के लिए निकलीं, स्कूल से अपना वेतन बकाया लिया और अपने स्थानीय मुस्लिम सहयोगी के घर का दौरा किया क्योंकि वह लंबे समय के बाद इस क्षेत्र का दौरा कर रही थीं। उसके लिए अज्ञात, उसे जिहादी आतंकवादियों द्वारा बारीकी से ट्रैक किया गया था, जिन्होंने गिरिजा को उसके सहयोगी के घर से अपहरण कर लिया था और उसे आंखों पर पट्टी बांधकर अज्ञात स्थान पर ले जाया गया था। उस सहकर्मी के अलावा, इलाके के अन्य सभी लोग या तो चुपचाप देखते रहे जब उसका अपहरण जनता के सामने किया जा रहा था, या यह देखने के लिए तैयार थे, क्योंकि उनका मानना था कि वह एक 'काफिर' थी और इसलिए उन्हें बहुत ज्यादा नहीं सोचना चाहिए उसके लिए।
कुछ दिनों के बाद, उसका मृत शरीर बेहद भयानक स्थिति में सड़क के किनारे पाया गया, पोस्टमॉर्टम में बताया गया कि उसके जीवित रहने के दौरान उसे बेरहमी से सामूहिक बलात्कार किया गया, उसके साथ दुष्कर्म किया गया, बुरी तरह से प्रताड़ित किया गया और एक यांत्रिक आरी का उपयोग करके उसे दो हिस्सों में काट दिया गया। जी हाँ, एक ज़िंदा महिला के शरीर के बीचों-बीच नुकीले आरी से टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए! उसके दर्द, पीड़ा और रोने की कल्पना करना असंभव है जो उसने उस वक्त छैला होगा होगा। बस इसे देखने की कोशिश करें, यदि आप कर सकते हैं, तो 2012 के निर्भया कांड की क्रूरता भी उतनी खराब नहीं थी।
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, अदालतों और सरकारों ने इस खूनी हत्या का कोई जवाब नहीं दिया और कोई गिरफ्तारी नहीं हुई, इस अपराध के लिए विशेष रूप से किसी का नाम भी नहीं लिया गया। अतिसक्रिय सर्वव्यापी मुख्यधारा के मीडिया ने उसकी कहानी को प्रसारित नहीं किया, जैसा कि वे कुछ समुदायों के खिलाफ अपराध के लिए करते हैं। उसके लिए न्याय मांगने के लिए कोई तख्तियां नहीं लिखी गईं, कोई विरोध नहीं, कोई आक्रोश नहीं! इस शर्मनाक अत्याचार का एकमात्र उल्लेख कश्मीरी नरसंहार की कहानियों को प्रदर्शित करने वाली वेबसाइटों पर और कांग्रेस के पूर्व कैबिनेट मंत्री सलमान खुर्शीद द्वारा "बियॉन्ड टेररिज्म- ए न्यू होप फॉर कश्मीर" नामक पुस्तक में था।
बीस साल की एक युवती, जिसने प्रयोगशाला सहायक के रूप में काम किया, राजनीति से कोई संबंध नहीं, इतनी घिनौनी क्रूरता से गुजरना पड़ा उसको जिसका कोई गुनाह नहीं था| शायद एक ही गुनाह था कि गिरिजा टिक्कू एक भारतीय थी, एक कश्मीरी पंडित, एक हिंदू महिला थी, इसलिए किसी ने यहां न्याय नहीं मांगा और न ही उसके दोषियों को सजा मिलते देखा।
1989-90 के बाद से कश्मीर में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां न केवल आतंकवादियों को ले जा रही जिहादी भीड़, बल्कि कभी-कभी विशेष समुदाय के पड़ोसी और सहयोगी बड़ी संख्या में हिंदू घरों के बाहर 'आजादी आजादी' के नारे लगाते हुए आते थे, जबरन अंदर घुस जाते थे और फिर हिंदू महिलाओं के साथ बलात्कार और तुरंत हिंदू पुरुषों को गोली मार देते थे, कुछ अन्य इतने आतंकित थे कि उन्हें अपनी महिलाओं और बेटियों की जान और सम्मान बचाने के लिए इस्लाम में परिवर्तित होना पड़ा।
तब से घाटी आतंकवादियों का अड्डा बन गई और कभी प्रसिद्ध हैवन-ऑन-अर्थ अपने मूल मूल निवासियों के लिए रक्तपात और घृणा के नर्क में बदल गया। तीन दशक बाद भी, 2020 में कश्मीरी पंडित होना अभी भी कश्मीर में एक अपराध है|
विषय
यह है कि गिरिजा टिक्कू की खबर आप तक कभी क्यों नहीं पहुंची . एक व्यक्ति
को अभी हाल ही में फोर्सेज ने जीप के आगे बिठाकर घुमाया तो इसपर काफी चर्चा
हुई एवं उसके मानवाधिकार पर गहरी चिंता जाहिर की गयी तो फिर गिरिजा टिक्कू
के मानवाधिकार का क्या हुआ? उसके परिवार पर क्या बीती होगी? मैं अभी जब
उसके यंत्रणा की कल्पना करता हूँ तो सिहर उठता हूँ ......
कश्मीर
मांगे आज़ादी का समर्थन करने वालों से मैं पूछना चाहता हूँ कि आपने कभी
गिरिजा टिक्कू के बारे में क्यों नहीं बातें की ? आपको कभी गिरिजा टिक्कू
के बारे में क्यों पता नहीं चला? कश्मीर की आजादी किसके लिए ? कश्मीर
मांगे आज़ादी या कश्मीर मांगे निज़ामे मुस्तफा ? का नारा लगाने वाले या
कश्मीर मांगे आज़ादी का समर्थन करने करने वाले, एक बार गिरिजा टिक्कू को
जरूर याद कर लें!!!
मैं सोचता हूँ कभी गिरिजा टिक्कू के ऊपर एक
कविता लिखूंगा. कितना दर्द , कितनी असह्य पीड़ा से गुजरी होगी वह, जब उसके
शरीर को शर्मशार करने के बाद आरी से दो भागों में काटा जा रहा होगा और
उन्मादी भीड़ मज़हबी नारे लगा रही होगी एवं चिल्ला रही होगी “कश्मीर मांगे
आज़ादी”. यह सोचकर ही मेरी कलम रूक जाती है . मैं कभी इससे ज्यादा नहीं
सोच पाता हूँ।
यह सत्य है गिरिजा टिक्कू तुम्हारी पीड़ा को मैं शब्द
दे सकूं इतनी क्षमता नहीं है अभी मुझमें . लेकिन एक दिन मैं लिखूंगा
तुम्हारे लिए एक छोटी सी कविता. ना ना उस लोमहर्षक घटना के बारे में नहीं
बल्कि उससे पहले के बारे में जब तुम अपने पिता की एक प्यारी बेटी थी और
कश्मीर की वादियों में उन्मुक्त तितली की भांति घुमती फिरती थी अपने भविष्य
के सपने बुनते हुए. तुम्हारी उस ख़ुशी के बारे में जब तुम्हे शिक्षिका की
नौकरी मिली थी और हाँ तुम्हारे प्रेम के बारे में . मैं लिखूंगा गिरिजा
टिक्कू यह वादा रहा।
मेरा मन उनके प्रति घृणा से भर जाता है, जो
पत्थरबाजों की लड़ाई लड़ने सुप्रीम कोर्ट चले जाते हैं लेकिन कभी तुम्हारी
चर्चा नहीं करते ....
मैं शर्मिंदा हूँ ......
अपनी और अपनों की सुरक्षा के लिए इन पिशाचों के भयावह पैशाचिक कृत्यों को जानना ज़रूरी है।