निर्माणाधीन (शिखर, कलश, ध्वजादि रहित) मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा की अशास्त्रीयता-- सर्वत्र प्रसारित करें!!
सावधान
राजनैतिक हिंदू पोस्ट से दुर रहे।
पोस्ट से पुर्व अज्ञानी हिंदु के लिए गीता मे भगवान श्रीकृष्ण का आदेश
अवश्य स्मरण करने योग्य है।
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श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय १६ श्लोक २३
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्।।16.23।।
देवप्रासाद(मन्दिर) निर्माण के प्रमुख हेतु के विषय में बताते हुए कहा गया है कि देवप्रासाद के प्रत्येक अङ्ग और उपाङ्गो में देव और देवियों के विन्यास करके देवप्रतिष्ठा के समय उसका अभिषेक किया जाता है। इसलिए देवप्रासाद सर्वदेवमय बन जाता है।
देवप्रासाद को स्थाप्यदेवता/श्रीहरि का स्थूल विग्रह माना गया है। यथा-
'प्रासादो वासुदेवस्य मूर्तिरूपो निबोध मे॥'
'निश्श्चलत्वं च गर्भोऽस्या अधिष्ठाता तु केशवः।
एवमेष हरिः साक्षात्प्रासादत्वेन संस्थितः॥'
(आग्नेयमहापुराण ६१।१९,२६)
'प्रासादं देवदेवस्य प्रोच्यते तात्त्विकी तनुः।
तत्त्वानि विन्यसेत्पीठे यथा तत्त्वाधिवासकः॥'
(विश्वामित्रसंहिता १४।८४)
'प्रासादो देवरूपः स्यात्...'
(विश्वकर्माविरचित क्षीरार्णव २)
अतः देवप्रासाद की प्रतिष्ठा (विधानवर्णन- आग्नेयमहापुराण १०१ में) के पश्चात प्रासाद का देवता के विग्रह के रूप में ध्यान किया जाता है, जिसमें प्रासाद के मूल या भूतलवर्ती हिस्सों से लेकर शिखर और ध्वज पर्यन्त विभिन्न अंशों में स्थाप्य देवता के विभिन्न अवयवों(अंगों) की कल्पना की जाती है।
ईश्वर उवाच-
प्रासादस्थापनं वक्ष्ये तच्चैतन्यं स्वयोगतः।
शुकनाशासमाप्तौ तु पूर्ववेद्याश्च मध्यतः॥
(आग्नेयमहापुराण १०१।१)
श्रीशिवजी ने कहा-
स्कन्द! अब मैं मन्दिर की प्रतिष्ठा का वर्णन कर रहा हूँ और उसमें चैतन्य का योग बतला रहा हूँ।
विधायैवं प्रकृत्यन्ते कुम्भे तं विनिवेशयेत्॥
(आग्नेयमहापुराण १०१।१३)
विधिपूर्वक समस्त उपदिष्ट कर्मों को करने के पश्चात उस पुरुष को कलश में स्थापित करना चाहिए।
उक्त श्लोकों के आधार पर यह तथ्य सुस्पष्ट हो जाता है कि प्रासाद(मन्दिर) भगवान् वासुदेव का (स्थूल) मूर्तिरूप है-
पत्ताकां प्रकृतिं विद्धि दण्डं पुरुषरूपिणंम्।
प्रासादो वासुदेवस्य मूर्तिरूपो निबोध मे॥
धारणाद्धरणीं विद्धि आकाशं सुषिरात्मकम्।
तेजस्तत्पावकं विद्धि वायुं स्पर्शगतं तथा॥
पाषाणादिष्वेवजलं पार्थिवं पृथिवीगुणम्।
प्रतिशब्दोद्भवं शब्दं स्पर्श स्यात्कर्कशादिकम्॥
शुक्लादिकं भवेद्रूपं रसमाह्लाद दर्शकम्।
धूपादिगन्धं गन्धं तु वाग्भेर्यादिषु संस्थिता॥
शुकनासाश्रिता नासा बाहू भद्रात्मकौ स्मृतौ।
शिरस्त्वण्डं निगदितं कलशाः मूर्धजाः स्मृताः॥
कण्ठं कण्ठमितिज्ञेयं स्कन्धो वेदी निगद्यते।
पायूपस्थे प्रणाले तु त्वक्सुधा परिकीर्तिता॥
मुखं द्वारं भबेदस्य प्रतिमा जीव उच्यते।
तच्छक्तिं पिण्डिकां विद्धि प्रकृतिं च तदाकृतिम्॥
निश्श्चलत्वं च गर्भोऽस्या अधिष्ठाता तु केशवः।
एवमेष हरिः साक्षात्प्रासादत्वेन संस्थितः॥
जङ्घं त्वस्य शिवो ज्ञेयः स्कन्धे धाता व्यवस्थितः।
ऊर्ध्वभागे स्थितो विष्णुरेवं तस्य स्थितस्य हि॥
(आग्नेयमहापुराण ६१।१९-२७)
'मध्ये ब्रह्मा शिवोऽन्ते स्यात् कलशे तु स्वयं हरिः॥
कलशान्ते महाविष्णुः सदाविष्णुस्तदग्रतः।....'
'मेखला रशना कुक्षिर्गर्भः स्तम्भाश्च बाहवः।
मध्यं नाभिश्च हृत् पीठमपानं जलनिर्गमः॥
पादाधारस्त्वहंकारः पिण्डिका बुद्धिरुच्यते।
तदन्ते प्रकृतिः पद्मं प्रतिमा पुरुषः स्मृतः॥
पादाधारस्त्वहंकारः पिण्डिका बुद्धिरुच्यते।
तदन्ते प्रकृतिः पद्मं प्रतिमा पुरुषः स्मृतः॥
घण्टा जिह्वा मनो दीपो दारु स्नायुः शिलाऽस्थि च।
त्वक् सुधा लेपनं मांसं रुधिरं तत्र यो रसः॥
चक्षुः शिखरपार्श्वे तु ध्वजाग्रं च शिखा भवेत्।
तलकुम्भो भवेत् पाणिर्द्वारं प्रजननं स्मृतम्॥
शुकनासैव नासोक्ता गवाक्षं श्रवणं विदुः।
कपोतालिं तथा स्कन्धं कण्ठं चामलसारकम्॥
घटं शिरो घृतं मज्जा वाङ् मन्त्रः सेचन पयः।
नामशैत्यादिवर्णान्नधूपेषु विषयाः स्थिताः॥
रन्ध्रे वातायने धाम्नि लेपे स्थैर्य च खादयः।
पर्वाणि सन्धयो ज्ञेया लोहबन्धास्तथा नखाः॥
केशरोमाणि चैवास्य विज्ञेया दुग्धकूर्चकाः।
प्रासादपादमात्रोच्चः प्राकारः परितो भवेत्॥'
(विष्णुसंहिता १६।६३-७०)
'तत्रापि तत्त्वविन्यासं वक्ष्यामि शृणु तत्त्वतः॥
शिला ध्यातास्य पृथिवी स्नानवेद्याप उच्यते।
तेजो रविकराः ज्ञेयाः जालान्तर्गताः मुने॥
गवाक्षस्तु समीरस्स्यात् गगनं गगनं स्मृतम्।
प्राग्द्वारमुच्यते तस्य कवाटौ कीर्तितौ करौ॥
पादाः पादास्तु विज्ञेयाः पायुः स्याज्जलनिर्गमः।
योनिराणि समाख्याता विमानस्याग्रतो मुने॥
श्रोत्रे कपोतपाली तु त्वक् सुधा परिकीर्तिता।
नेत्रे शिखरपार्श्वे तु जिह्वा ज्ञेया च वेदिका॥
घ्राणं नासा समाख्याता गीर्वाणनिकरान्विता।
श्यामकृष्णौ तथा पीतं रक्तश्वेतौ यथाक्रमम्॥
गन्धमात्रादिकाः पञ्च वर्णास्तु परिकीर्तिताः।
मनो दीपस्तु विज्ञेयः पिण्डिका बुद्धिरुच्यते॥
पादाधारो विमानस्तु प्रकृतिः पिण्डिकान्तरम्।
पञ्चविंशतिको ज्ञेयः प्रतिमा पुरुषः परः॥
विज्ञेया दण्डकूर्चास्तु केशरोमाणि सर्वतः।
विमानमेवं सङ्कल्प्य सर्वतत्त्वसमन्वितम्॥'
(नारदसंहिता १५।१७३-१८१)
ध्वजादि अंगों से रहित देवालयों में तो असुर वास करते हैं। यथा-
ततो ध्वजस्य विन्यासः कर्तव्यः पृथिवीपते।
असुरा वासमिच्छन्ति ध्वजहीने सुरालये॥
(विष्णुधर्मोत्तरपुराण ९४।४४)
अर्थात- हे राजन! तत्पश्चात देवमन्दिर में ध्वज को प्रतिष्ठित करना चाहिए। (क्योंकि) ध्वजविहीन देवालय में असुर वास करना चाहते हैं!
तथा ध्वजारोह करने से भूताप्रेतादि नष्ट होते हैं ऐसा शास्त्रों का स्पष्ट निर्देश है-
चत्वारो वा चतुर्दिक्षु स्थापनीया गरुत्मतः।
ध्वजारोहं प्रवक्ष्यामि येन भूतादि नश्यति॥
प्रासादस्य प्रतिष्ठां तु ध्वजरूपेण मे शृणु।
ध्वजं कृत्वा सुरैर्दैत्या जिताः शस्त्रादिचिह्नितम्॥
(आग्नेयमहापुराण ६१।१६, २८)
हरिप्रोक्त तथा श्रीविश्वकर्मा विरचित ग्रंथ 'क्षीरार्णव' में विश्वकर्मा जी कहते हैं-
प्रासादो देवरूपः स्यात् पादौ पाद शिलास्तथा।
गर्भश्चैवोदरं ज्ञेयं जंघा पादोर्ध्व मुच्यते॥
स्तंभाश्च जानवो ज्ञेया घंटा जिह्वा प्रकीर्तिता।
दीपः प्राण रूपो ज्ञेया ह्यपाने जल निर्गतः॥
ब्रह्मस्थानं यदैतच्च तन्नाभिः परिकीर्तिता।
हृदयं पीठिका ज्ञेया प्रतिमा पुरुषः स्मृतः॥
पादचारस्त्वहंकारो ज्योतिस्तच्चक्षुरुच्यते।
तदूर्ध्वं प्रकृतिस्तस्य प्रतिमात्मा स्मृतौ बुधैः॥
तलकुंभादधोद्वार तस्य प्रजननं स्मृतम्।
शुकनासा भवेन्नासा गवाक्षः कर्णउच्यते॥
कायापाली स्मृतः स्कंधे ग्रीवा चामलसारिका।
कलशस्तु शिरोज्ञेयो मज्जादित्पर संयुतं॥
मेदश्च वसुधा विद्यात् प्रलेपो मासमुच्यते।
अस्थिनो च शिलास्तस्य स्नायुकीलादयः स्मृताः॥
चक्षुषि शिखरास्तस्य ध्वजाकेश प्रकीर्तिताः।
एव पुरुषरूपं तु ध्यायेच्च मनसा सुधीः॥
(विश्वकर्माविरचित क्षीरार्णव, श्लोक- २-९)
यहाँ देवप्रासाद(देवमन्दिर) को अधिष्ठित देवता का शरीररूप माना गया है। देवप्रासाद के कलश को देवता का शिर/मस्तक जानना चाहिए। शिखर को देवता का नेत्र तथा ध्वजा को केश जानना चाहिए।
इन्हीं श्लोकों को प्रतिष्ठामयूख में श्रीनीलकण्ठभट्ट ने उद्धृत किया गया है-
पादौ पादशिलास्तस्य जङ्घा पादोर्ध्वमुच्यते।
गर्भश्चैवोदरं ज्ञेयं कटिश्च कटिमेखला॥
स्तम्भाश्च बाहवो ज्ञेया घण्टा जिह्वा प्रकीर्तिता।
दीपः प्राणोऽस्य विज्ञेयो ह्यपानो जलनिगमः॥
ब्रह्मस्थानं यदेतच्च तन्नाभिः परिकीर्तिता।
हृत्पद्म पिण्डिका ज्ञेया प्रतिमा पुरुषः स्मृतः॥
पादचारस्त्वहङ्कारो ज्योतिस्तच्चक्षुरुच्यते।
तदूर्ध्वं प्रकृतिस्तस्य प्रतिमात्मा स्मृतो बुधः॥
नलकुम्भादधोद्वारं तस्य प्रजननं स्मृतम्।
शुकनासा भवेन्नासा गवाक्षः कर्ण उच्यते॥
कपोतपाली स्कन्धोऽस्य ग्रीवा चामलसारिका।
कलशस्तु शिरो ज्ञेयं मज्जादिप्रदसंहितम्॥
मेदश्चैव सुधां विद्यात्प्रलेपो मांसमुच्यते।
प्रस्थीनि च शिलास्तस्य स्नायुः कीलादयः स्मृताः॥
चक्षुषी शिखरास्तस्य ध्वजाः केशाः प्रकीर्तिताः।
एवं पुरुषरूपं त ध्यात्वा च मनसा सुधीः॥
प्रासादं पूजयेत्पश्चाद्गन्धध्वजादिभिः शुभेः।
सूत्रण वेष्टयेद्देवं वासस्तत्परिकल्पयेत्॥
प्रासादमेवमभ्यर्च्य वाहनं चाग्रमण्डपे। इति।
(प्रतिष्ठामयूखे, श्रीनीलकण्ठभट्ट)
अर्थात- देवप्रासाद में पादशिला को प्रासादरूपी देवता(श्रीहरि) के दोनों चरणों के रूप में ध्यान करे। पाद के ऊपर के भाग को प्रासादरूपी देवता के जंघाओं के रूप में ध्यान करे। गर्भगृह को श्रीहरि का उदर (पेट) समझना चाहिए और प्रासाद के कटिभाग को कटि की मेखला समझना चाहिए। प्रासाद के स्तम्भों को प्रासाद रूपी देवता की भुजाएँ समझना चाहिए। घण्टा को जिह्वा, दीपक को प्राण और जलनिर्गम को अपान समझना चाहिए। प्रासाद के गर्भगृह की भूमि के मध्य में स्थित ब्रह्मस्थान को श्रीहरि की नाभि कहा गया है। पिण्डिका को हृदय कमल समझना चाहिए और पिण्डिका के ऊपर स्थापित प्रतिमा को पुरुष (आत्मा) समझना चाहिए। पादचार को उस प्रासाद रूपी देवपुरुष का अहङ्कार, ज्योति को नेत्र, उसके ऊपर के भाग को प्रकृति और प्रतिमा को विद्वानों ने आत्मा कहा है। नलकुम्भ के अधोवर्ती द्वार को उसका जननेन्द्रिय कहा गया है। शुकनासा को उसकी नासिका और गवाक्ष को कान कहा गया है। कपोतपाली को उसका (श्रीहरि का) स्कन्ध (कन्धा), अमलसारिका को ग्रीवा (गरदन), प्रासाद-शिखरस्थ कलश को शिर और ईंट-पत्थर आदि को जोड़ने के लिए प्रयुक्त गारे को मज्जा आदि समझना चाहिए। सुधा के लेप को मेद, प्रलेप को मांस, शिलाओं, इंटो आदि को अस्थियाँ और कोलो आदि को स्नायु समझे। मन्दिर के शिखरों को श्रीहरि के दोनों नेत्र, ध्वजों और पताकाओं को केश कहा गया है। इस प्रकार विद्वान् आचार्य अपने मन में उस प्रासाद का पुरुष रूप में ध्यान करके शुभ गन्धों और ध्वजाओ आदि से उस प्रासाद का पूजन करे। उस प्रासाद रूपी देव को सूत्र से वेष्टित करे बऔर उस वेष्टन-सूत्र में प्रासादरूपी देवता के वस्त्र की कल्पना करें।
उक्त शास्त्रीयसंदर्भों के आधार पर मन्दिरको अधिष्ठित देवता का शरीर माना जाता है। कलश को देवता का शिर, शिखर को देवता का नेत्र तथा ध्वजा को केश जानना चाहिए।
तब इन अंगों से विहीन शरीर में आत्मा(मूर्ति) की प्रतिष्ठा कैसै हो सकती है? बिना शिर वाले, बिना नेत्र वाले, बिना केश वाले ऐसे निर्माणाधीन प्रासादपुरुष के शरीर(मन्दिर) में आत्मा की प्रतिष्ठा पूर्णतः अशास्त्रीय ही सिद्ध होती है! विष्णुधर्मोत्तरपुराण के अनुसार ऐसे हीनांग ध्वाजादि रहित प्रासाद में तो असुर ही निवास करेंगे-
असुरा वासमिच्छन्ति ध्वजहीने सुरालये॥
(विष्णुधर्मोत्तरपुराण ९४।४४)
हर हर महादेव
आध शंकराचार्य भगवान कि जय हो
हर हर शंकर
जय जय शंकर
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