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रविवार, 12 मई 2024
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शनिवार, 11 मई 2024
कैसे पड़ा रिलायंस का नाम ?
बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि रिलायंस से पहले उनकी कंपनी का नाम तीन बार बदला गया. कंपनी की नींव रखने वाले रिलायंस के फाउंडर धीरूभाई अंबानी ने तीन बार बदलने के बाद कंपनी का नाम रिलायंस रखा, लेकिन इसके पीछे की वजह आप जानते हैं? रिलायंस नाम के पीछे का किस्सा बहुत ही दिलचस्प है.
कैसे पड़ा रिलायंस का नाम ?
धीरूभाई अंबानी ने साल 1958 में रिलायंस ग्रुप की नींव रखी. अपने चचेरे भाई चंपकलाल दमानी के साथ मिलकर उन्होंने कंपनी की शुरुआत की. इससे पहले 1950 के दशक में धीरूभाई अंबानी ने यमन में मसाले और पॉलिएस्टर यार्न लाने के लिए एक बिजनेस शुरु किया, जिसका नाम माजिन रखा. यहीं से रिलायंस की शुरुआत हुई. यही कंपनी आगे चलकर रिलायंस इंजस्ट्रीज बनी. कुछ साल वहां काम करने के बाद साल 1960 के दशक में धीरूभाई अंबानी और उनके भाई चंपकलाल दमानी भारत लौटे. उन्होंने भारत आकर रिलायंस कमर्शियल कॉर्पोरेशन नाम से नए बिजनेस की शुरुआत की.
छोटे से बिजनेस को बनाया बड़ा कारोबार
धीरूभाई अंबानी ने एक छोटे व्यापारी के तौर पर अपना कारोबार शुरू किया. अपने मेहनत के दम पर उन्होंने कुछ ही सालों में बड़ा साम्राज्य खड़ा कर दिया. लेकिन कारोबार बढ़ने के बाद दोनों पार्टनर के बीच मतभेद भी शुरू हुआ, जिसके बाद साल 1965 में अंबानी और दमानी का बिजनेस बंट गया. बिजनेस पार्टनरशिप टूट गई. बंटवारे के बाद धीरूभाई अंबानी ने कपड़ा कारोबार पर फोकस किया. बंटवारे के बाद साल 1966 में धीरूभाई अंबानी के कंपनी का नाम रिलायंस कमर्शियल कॉपोरेशन से बदलकर रिलायंस टेक्सटाइल्ट कर दिया.
फिर पड़ा रिलायंस इंडस्ट्रीज का नाम
कपड़ा कारोबार में छा जाने के बाद धीरूभाई अंबानी ने अलग-अलग सेक्टर्स में अपना कारोबार फैलाना शुरू किया. उन्होंने अब कंपनी का नाम रिलायंस कमर्शियल कॉपोरेशन से बदलकर रिलायंस इंजस्ट्रीज लिमिटेड रखा. रिलायंस इंडस्ट्रीज तक पहुंचने में कंपनी का नाम तीन
बार बदल गया. पिता के निधन के बाद कंपनी को मुकेस अंबानी और अनिल अंबानी के बीच बांट दिया गया.
'रिलायंस' नाम ही क्यों ?
धीरूभाई अंबानी ने कंपनी का नाम 'रिलायंस' ही चुना. इस नाम के पीछे उनकी सोच थी कि यह कंपनी उत्पादों और असाधारण सेवा के लिए भरोसे का प्रतीक बनेगी. वो कंपनी के नाम पर भरोसे और आत्मनिर्भरता को बनाए रखना चाहते थे. इन नाम के पीछे उनका मकसद आत्मविश्वास पैदा करना और हाई क्वालिटी प्रोडक्ट बनाने की मिसाल पैदा करना था. Reliance का मतलब ही आश्वस्त या भरोसेमंद निर्भरता है, इसलिए उन्होंने अपनी कंपनी का नाम तीन बार बदलने के बाद भी रिलायंस शब्द को जारी रखा .
जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।
श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं।
इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।
जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।
एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-
नारद- बालक तुम कौन हो ?
बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।
नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ?
बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।
तब नारद ने ध्यान धर देखा। नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।
बालक- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?
नारद- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?
नारद- शनिदेव की महादशा।
इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।
ब्रह्मा जी से वरदान मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।
शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।
अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए।ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वरदान मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-
1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।
2- मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।अतः तभी से शनि "शनै:चरति य: शनैश्चर:" अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।
सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है.....
जय जय श्री राम 🙏🚩
हिंदू लङकियाँ सतर्क रहें और सावधान रहें, वरना नई मुसीबत के लिए तैयार रहिएगा...
हिंदू लङकियाँ सतर्क रहें और सावधान रहें, वरना नई मुसीबत के लिए तैयार रहिएगा...
बहुतों को शायद ये पता न हो कि दरगाहो मे एक बेड़ी बाँधने और काटने की रस्म होती है। दरगाह मे जाकर मन्नत माँगने वाली लड़की के पैर मे काले रंग के धागे से बेड़ी बाँध दी जाती है।
ये बेड़ी कथित मन्नत के पूरा होने पर दरगाह मे जाकर खादिम से कटवाई जाती है, तब जाकर वो लड़की बेड़ी कटवाकर मुक्त होती है।
ये मजारों के खादिमों का नया टंटा है, जिसमे अधिकतर हिन्दू लड़कियां दरगाहों पर बेड़ी बँधवा रही हैं। इसकी शुरुआत कलियर शरीफ से हुई थी... यह भोली भाली हिन्दू लड़कियों को फ़साने का टोटका है जो बहुत हद तक कामयाब हो रहा है।
आजकल हर छोटी बडी दरगाह मे यही बाँधने काटने का धंधा चाल रहा है। पैर के पास जहां पायल या धागा पहनते है उस जगह पर मंगल ग्रह का निवास माना जाता है और मंगल ग्रह को काली चीज पसंद नही इसलिए काला धागा पैरों में नही पहनना चाहिए। इससे अशुभ हो सकता है।
कई लडकियों और लेडीज के पैर में ऐसा धागा देखा है पर तब पता नही था कि ये धागा किसलिए है। सोचा कि फैशन होगा। यदि आप ऐसा धागा पहने किसी लडकी को देखें तो उसे समझाएं। वर्ना वो भी अगली "श्रद्धा" बनने की राह पर है और फिर सूटकेस में पैक होगी।
परंतु फिर भी कुछ लोग पैरों में काला धागा बांधने के पीछे अपने अज्ञानता पूर्ण तर्क देते हैं..
आंख कान खुला रखें.
"रेंगता था हर नज़र का सांप उसके जिस्म पर, मैं ये कैसे मान लूं उसका बदन संदल न था"
हाईवे में जमीन जाने से एकदम से अमीर हुए लोगों और टेबल के नीचे से कमाई करने वाले बाबुओं की तो मैं नहीं कहता लेकिन मेरे जैसे जिन साधारण मनुष्यों के बच्चे स्कूल में, वह भी प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं; उनके लिए अप्रैल का महीना बड़ा कठिन गुजरता है।
दिल्ली जैसे बड़े शहर में वैसे तो किसी ठीक-ठाक स्कूल में बच्चों को एडमिशन जल्दी से मिलता नहीं है। लेकिन एक बार जब एडमिशन मिल जाता है तो चालाक स्कूल वाले मोटी फीस के लिए फिर हर साल अप्रैल में बच्चों का रि-एडमिशन करते हैं और मोटी फीस वसूलते हैं।
तो हुआ यूं कि एक नामी गिरामी प्राइवेट स्कूल में दोनों बच्चों की भारी- भरकम फीस जमा करने के बाद शर्मा जी स्कूटी से ऑफिस आ रहे थे । रास्ते मे शर्मा जी के आगे एक सुंदर महिला स्कूटी से जा रही थी । शर्मा जी उस सुंदरी को देखते हुए मोटी फीस भरने का बिल्कुल ताज़ा गम भुलाकर एक रूमानी सा शेर-
"रेंगता था हर नज़र का सांप उसके जिस्म पर,
मैं ये कैसे मान लूं उसका बदन संदल न था"
गुनगुनाते हुए ऑफिस चले आ रहे थे।
अचानक जेएनयू चौराहे के पास लाइट रेड हो गई । वह महिला तो
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की उल्टी गिनती पूरी होने तक स्टॉप लाइन से पीछे रुक गई लेकिन शर्मा जी का ध्यान चूंकि रेड लाइट की तरफ कम और उस महिला की तरफ ज्यादा था, अतः इमरजेंसी ब्रेक मारते-मारते भी शर्मा जी ज़ेबरा क्रॉसिंग पार कर गए।
ट्रैफिक पुलिस वाले होते तो शर्मा जी कोई गोली दे देते लेकिन नाश जाए चौराहों पर लगे इन सीसीटीवी कैमरों का , जिसने झट से शर्मा जी की स्कूटी सहित फोटो खींची और फट से 2000 का चालान बना दिया। एक तो अप्रैल की गरीबी , उस पर आटा भी गीला हो गया।
अच्छा यहां तक तो फिर भी ठीक था। विद्वानों ने कहा है कि पैसा हाथ का मैल होता है, इसके नुकसान पर ज्यादा शोक नहीं करना चाहिए।
लेकिन असल शोक तब हुआ जब इन नासपीटे ट्रैफिक वालों ने फोटो सहित चालान शर्मा जी के घर भेज दिया । शर्मा जी का bad luck देखिये कि चालान शरमाईन भाभी ने रिसीव किया। भाभी जी को चालान की भाषा और पेनाल्टी की राशि तो समझ नहीं आई लेकिन चालान के साथ लगी हुई, हेलमेट लगाए महिला की तरफ घूरते हुए शर्मा जी की फ़ोटो उन्हें खूब समझ आई।
परिणाम यह हुआ कि शर्मा जी को आज टिफिन में सिर्फ दो संतरे और कुछ अंगूर मिले । वैसे तो शर्मा जी नवरात्र का व्रत कल से शुरू होना था लेकिन उस महिला की महिमा से इस बार उनका उपवास नवरात्रि से एक दिन पहले ही शुरू हो गया है।
हरि बोल
वैशाख की कहानियाँ (बृहस्पतिवार की कथा)
वैशाख की कहानियाँ (बृहस्पतिवार की कथा)
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दो भाई बहन थे। बहन बृहस्पतिवार के व्रत करती थी। बृहस्पति महाराज आते चार लड्डू चाँदी का कटोरा दे के चले जाते। बहन लड्डू खा लेती कटोरा कोठरी में धर देती।
एक दिन उसकी भाभी ने कोठरी खोल के देखा, कोठरी में जगमग हो रही है। उसने पड़ोसन से कहा, 'मेरी ननद चाँदी का कटोरा कहाँ से लाई, कोठरी जगमग हो रही है।' पड़ोसन बोली, 'अपने आदमी से पूछना।' भाभी बोली, 'मेरा आदमी तो मेरी बात ही नहीं सुनता।' पडोसन बोली, 'बोली दाल का चमचा भात में और भात का चमचा दाल में डाल देना।'
दूसरे दिन भाभी ने दाल का चमचा भात में और भात का चमचा दाल में डाल दिया। लड़की का भाई बोला, 'तू पागल हो गयी है।' भाभी बोली, 'पागल मैं नहीं हो रही, तुम्हारी बहन हो रही है। पता नहीं कहाँ से चाँदी के कटोरे ला-लाकर कोठरी भर रखी है। पूरी कोठरी जगमग कर रही है। इसे घर से निकाल दो।'
भाई जाकर अपनी बहन से बोला, 'जीजी मामा के घर चलें।' बहन जानती थी कैसे मामा के घर ले जा रहा है। बहन बोली, 'भाई जहाँ केले का पेड़ हो और पास में मन्दिर हो वहीं उतार देना।' भाई ने भी हाँ कर दी।
आगे जंगल में एक मन्दिर और केले के पेड़ के पास उसे उतार दिया। बृहस्पतिवार का दिन था लड़की ने केले के पेड़ की पूजा की बृहस्पति की कहानी कही। बृहस्पति महाराज आये चाँदी के कटोरे में चार लड्डू देकर जाने लगे। भाई छिपकर देख रहा था। उसने दौड़कर बृहस्पति के पैर पकड़ लिये। बृहस्पति बोले, 'छोड़ पापी मेरे पैर। यह तो सत् का व्रत करती है चाँदी का कटोरा मैं देकर जाता हूँ, तू इसे कलंक लगा रहा है।'
भाई बहन को लेकर बापस घर आ गया। भाभी दरवाजे पर खड़ी देख रही थी। बोली, 'इसको फिर लेकर आ गया।' भाई बोला, 'इसे कुछ मत कहना, ये बृहस्पति के व्रत करती है, वो ही इसे चाँदी का कटोरा देकर जाते हैं।'
भाभी ने सोचा, 'मैं भी देखूँगी ये कैसे बृहस्पति के व्रत करती है और वे इसे चाँदी का कटोरा देकर जाते हैं।' वो जाकर सारे पड़ोस में सबको बोल आयी, 'सब अपने-अपने बच्चे लेकर आ जाना, मेरी ननद बृहस्पति का व्रत करती है। सबको चार-चार लड्डू और चाँदी का कटोरा मिलेगा।'
बहन ने यह बात सुनी तो वो एक टाँग पर खड़ी होकर बोली, 'हे बृहस्पति महाराज, आज मेरी लाज रखना।' तीन बार ऐसा कहा। बृहस्पति महाराज आये, सबको चार-चार लड्डू और चाँदी का कटोरा देकर चले गये।
हे बृहस्पति महाराज, जैसे उस लड़की की लाज रखी, सबकी रखना।
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छत्रपति शिवाजी राजे (भोसले) जन्मोत्सव (तिथि प्रमाण)
छत्रपति शिवाजी राजे (भोसले) जन्मोत्सव (तिथि प्रमाण)
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भारत के वीर सपूतों में से एक श्रीमंत छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में सभी लोग जानते हैं। बहुत से लोग इन्हें हिन्दू हृदय सम्राट कहते हैं तो कुछ लोग इन्हें मराठा गौरव कहते हैं, जबकि वे भारतीय गणराज्य के महानायक थे।
कुछ लोग मानते हैं कि शिवाजी की जन्मतिथि अंग्रेजी कैलेंडर के आधार पर तय की जाटी आई है। इस बात में भेद बिल्कुल नही होना चाहिये क्योंकि तारीख अंग्रेजी कलेंडर अनुसार मानी जाती है और तिथि भारतीय पञ्चाङ्ग अनुसार जो कि सर्वदा उचित भी है इसका कारण यह है कि तिथि अनुसार जन्मदिवस अथवा पुण्य तिथि के दिन अधिकांश ग्रह नक्षत्र जन्म अथवा मृत्यु के समय वाले ही रहते है उन्ही ग्रह नक्षत्रों में व्यक्ति विशेष के प्रति किये गए दान पुण्य का पूर्ण फल मिलता है।
शिवाजी की जन्मतारीख अंग्रेजी कलेंडर अनुसार 19 फरवरी 1630 है. वहीं पंचांग के अनुसार, वीरशिवाजी का जन्म वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया और तृतीया तिथि के मध्य 1551 शक संवत्सर में मानते है।
शिवाजी महाराज व्यक्तिगत विवरण
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पूरा नाम – शिवाजी राजे भोंसले
उप नाम – छत्रपति शिवाजी महाराज
जन्म – 19 फ़रवरी 1630, शिवनेरी दुर्ग, महाराष्ट्र
मृत्यु – 3 अप्रैल 1680, महाराष्ट्र
पिता का नाम – शाहजी भोंसले
माता का नाम – जीजाबाई
शादी – सईबाई निम्बालकर के साथ, लाल महल पुणे में सन 14 मई 1640 में हुई।
शिवाजी महाराज की जीवनी
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हमारा देश वीर शासको और राजाओं की पृष्ठभूमि रहा है. इस धरती पर ऐसे महान शासक पैदा हुए है जिन्होंने अपनी योग्यता और कौशल के दम पर इतिहास में अपना नाम बहुत ही स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज किया है. ऐसे ही एक महान योद्धा और रणनीतिकार थे – छत्रपति शिवाजी महाराज. वे शिवाजी महाराज ही थे जिन्होंने भारत में मराठा साम्राज्य की नीवं रखी थीं।
शिवाजी जी ने कई सालों तक मुगलों के साथ युद्ध किया था. सन 1674 ई. रायगड़ महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक किया गया था, तब से उन्हें छत्रपति की उपाधि प्रदान की गयी थीं. इनका पूरा नाम शिवाजी राजे भोसलें था और छत्रपति इनको उपाधि में मिली थी. शिवाजी महाराज ने अपनी सेना, सुसंगठित प्रशासन इकाईयों की सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया था।
शिवाजी महाराज ने भारतीय सामाज के प्राचीन हिन्दू राजनैतिक प्रथाओं और मराठी एवं संस्कृत को राजाओं की भाषा शैली बनाया था. शिवाजी महाराज अपने शासनकाल में बहुत ही ठोस और चतुर किस्म के राजा थे. लोगो ने शिवाजी महाराज के जीवन चरित्र से सीख लेते हुए भारत की आजादी में अपना खून तक बहा दिया था।
शिवाजी महाराज का आरम्भिक जीवन
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शिवाजी महाराज का जन्म 19 फ़रवरी 1630 में शिवनेरी दुर्ग में हुआ था. इनके पिता का नाम शाहजी भोसलें और माता का नाम जीजाबाई था. शिवनेरी दुर्ग पुणे के पास हैं, शिवाजी का ज्यादा जीवन अपने माता जीजाबाई के साथ बीता था. शिवाजी महाराज बचपन से ही काफी तेज और चालाक थे. शिवाजी ने बचपन से ही युद्ध कला और राजनीति की शिक्षा प्राप्त कर ली थी।
भोसलें एक मराठी क्षत्रिय हिन्दू राजपूत की एक जाति हैं. शिवाजी के पिता भी काफी तेज और शूरवीर थे. शिवाजी महाराज के लालन-पालन और शिक्षा में उनके माता और पिता का बहुत ही ज्यादा प्रभाव रहा हैं. उनके माता और पिता शिवाजी को बचपन से ही युद्ध की कहानियां तथा उस युग की घटनाओं को बताती थीं. खासकर उनकी माँ उन्हें रामायण और महाभारत की प्रमुख कहानियाँ सुनाती थी जिन्हें सुनकर शिवाजी के ऊपर बहुत ही गहरा असर पड़ा था. शिवाजी महाराज की शादी सन 14 मई 1640 में सईबाई निम्बलाकर के साथ हुई थीं।
एक सैनिक के रूप में शिवाजी महाराज का वर्चस्व
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सन 1640 और 1641 के समय बीजापुर महाराष्ट्र पर विदेशियों और राजाओं के आक्रमण हो रहे थें. शिवाजी महाराज मावलों को बीजापुर के विरुद्ध इकट्ठा करने लगे. मावल राज्य में सभी जाति के लोग निवास करते हैं, बाद में शिवाजी महाराज ने इन मावलो को एक साथ आपस में मिलाया और मावला नाम दिया. इन मावलों ने कई सारे दुर्ग और महलों का निर्माण करवाया था।
इन मावलो ने शिवाजी महाराज का बहुत ज्यादा साथ दिया. बीजापुर उस समय आपसी संघर्ष और मुगलों के युद्ध से परेशान था जिस कारण उस समय के बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह ने बहुत से दुर्गो से अपनी सेना हटाकर उन्हें स्थानीय शासकों के हाथों में सौप दी दिया था। तभी अचानक बीजापुर के सुल्तान बीमार पड़ गए थे और इसी का फायदा देखकर शिवाजी महाराज ने अपना अधिकार जमा लिया था. शिवाजी ने बीजापुर के दुर्गों को हथियाने की नीति अपनायी और पहला दुर्ग तोरण का दुर्ग को अपने कब्जे में ले लिया था।
शिवाजी महाराज का किलों पर अधिकार
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तोरण का दुर्ग पूना (पुणे) में हैं. शिवाजी महाराज ने सुल्तान आदिलशाह के पास अपना एक दूत भेजकर खबर भिजवाई की अगर आपको किला चाहिए तो अच्छी रकम देनी होगी, किले के साथ-साथ उनका क्षेत्र भी उनको सौपं दिया जायेगा. शिवाजी महाराज इतने तेज और चालाक थे की आदिलशाह के दरबारियों को पहले से ही खरीद लिया था।
शिवाजी जी के साम्राज्य विस्तार नीति की भनक जब आदिलशाह को मिली थी तब वह देखते रह गया. उसने शाहजी राजे को अपने पुत्र को नियंत्रण में रखने के लिये कहा लेकिन शिवाजी महाराज ने अपने पिता की परवाह किये बिना अपने पिता के क्षेत्र का प्रबन्ध अपने हाथों में ले लिया था और लगान देना भी बंद कर दिया था.
वे 1647 ई. तक चाकन से लेकर निरा तक के भू-भाग के भी मालिक बन चुके थें. अब शिवाजी महाराज ने पहाड़ी इलाकों से मैदानी इलाकों की और चलना शुरू कर दिया था. शिवाजी जी ने कोंकण और कोंकण के 9 अन्य दुर्गों पर अपना अधिकार जमा लिया था. शिवाजी महाराज को कई देशी और कई विदेशियों राजाओं के साथ-साथ युद्ध करना पड़ा था और सफल भी हुए थे।
शाहजी की बंदी और युद्ध बंद करने की घोषणा
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बीजापुर के सुल्तान शिवाजी महाराज की हरकतों से पहले ही गुस्से में था. सुल्तान ने शिवाजी महाराज के पिता को बंदी बनाने का आदेश दिया था. शाहजी उनके पिता उस समय कर्नाटक राज्य में थें और दुर्भाग्य से शिवाजी महाराज के पिता को सुल्तान के कुछ गुप्तचरों ने बंदी बना लिया था. उनके पिता को एक शर्त पर रिहा किया गया कि शिवाजी महाराज बीजापुर के किले पर आक्रमण नहीं करेगा. पिताजी की रिहाई के लिए शिवाजी महाराज ने भी अपने कर्तव्य का पालन करते हुए 5 सालों तक कोई युद्ध नहीं किया और तब शिवाजी अपनी विशाल सेना को मजबूत करने में लगे रहे।
शिवाजी महाराज का राज्य विस्तार
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शाहजी की रिहा के समय जो शर्ते लागू की थी उन शर्तो में शिवाजी ने पालन तो किया लेकिन बीजापुर के साउथ के इलाकों में अपनी शक्ति को बढ़ाने में ध्यान लगा दिया था पर इस में जावली नामक राज्य बीच में रोड़ा बना हुआ था. उस समय यह राज्य वर्तमान में सतारा महाराष्ट्र के उत्तर और वेस्ट के कृष्णा नदी के पास था. कुछ समय बाद शिवाजी ने जावली पर युद्ध किया और जावली के राजा के बेटों ने शिवाजी के साथ युद्ध किया और शिवाजी ने दोनों बेटों को बंदी बना लिया था और किले की सारी संपति को अपने कब्जे में ले लिया था और इसी बीच कई मावल शिवाजियो के साथ मिल गए थे।
मुगलों से पहला मुकाबला
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मुगलों के शासक औरंगजेब का ध्यान उत्तर भारत के बाद साउथ भारत की तरफ गया. उसे शिवाजी के बारे में पहले से ही मालूम था. औरंगजेब ने दक्षिण भारत में अपने मामा शाइस्ता खान को सूबेदार बना दिया था. शाइस्ता खान अपने 150,000 सैनिकों को लेकर पुणे पहुँच गया और उसने 3 साल तक लूटपाट की।
एक बार शिवाजी ने अपने 350 मावलो के साथ उनपर हमला कर दिया था तब शाइस्ता खान अपनी जान निकालकर भाग खड़ा हुआ और शाइस्ता खान को इस हमले में अपनी 4 उँगलियाँ खोनी पड़ी. इस हमले में शिवाजी महाराज ने शाइस्ता खान के पुत्र और उनके 40 सैनिकों का वध कर दिया था. उसके बाद औरंगजेब ने शाइस्ता खान को दक्षिण भारत से हटाकर बंगाल का सूबेदार बना दिया था।
सूरत की लूट
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इस जीत से शिवाजी की शक्ति ओर मजबूत हो गयी थीं. लेकिन 6 साल बाद शाइस्ताखान ने अपने 15,000 सैनिको के साथ मिलकर राजा शिवाजी के कई क्षेत्रो को जला कर तबाह कर दिया था. बाद में शिवाजी ने इस तबाही को पूरा करने के लिये मुगलों के क्षेत्रों में जाकर लूटपाट शुरू कर दी. सूरत उस समय हिन्दू मुसलमानों का हज पर जाने का एक प्रवेश द्वार था. शिवाजी ने 4 हजार सैनिको के साथ सूरत के व्यापारियों को लुटा लेकिन उन्होंने किसी भी आम आदमी को अपनी लुट का शिकार नहीं बनाया।
आगरा में आमन्त्रित और पलायन
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शिवाजी महाराज को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया गया है. इसके खिलाफ उन्होंने अपना रोष दरबार पर निकाला और औरंगजेब पर छल का आरोप लगाया. औरंगजेब ने शिवाजी को कैद कर लिया था और शिवाजी पर 500 सैनिको का पहरा लगा दिया. कुछ ही दिनों बाद 1666 को शिवाजी महाराज को जान से मारने का औरंगजेब ने इरादा बनाया था लेकिन अपने बेजोड़ साहस और युक्ति के साथ शिवाजी और संभाजी दोनों कैद से भागने में सफल हो गये।
संभाजी को मथुरा में एक ब्राह्मण के यहाँ छोड़ कर शिवाजी महाराज बनारस चले गये थे और बाद में सकुशल राजगड आ गये. औरंगजेब ने जयसिंह पर शक आया और उसने विष देकर उसकी हत्या करा दी. जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद शिवाजी ने मुगलों से दूसरी बार संधि की. 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लुटा था, यहाँ से शिवाजी को 132 लाख की संपति हाथ लगी और शिवाजी ने मुगलों को सूरत में फिर से हराया था।
शिवाजी महाराज का राज्यभिषेक
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सन 1674 तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरंदर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे. बालाजी राव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवाड़ के सिसोदिया वंश से मिलते हुए प्रमाण भेजे थें. इस कार्यक्रम में विदेशी व्यापारियों और विभिन्न राज्यों के दूतों को इस समारोह में बुलाया था. शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि धारण की और काशी के पंडित भट्ट को इसमें समारोह में विशेष रूप से बुलाया गया था. शिवाजी के राज्यभिषेक करने के 12वें दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया था और फिर दूसरा राज्याभिषेक हुआ।
शिवाजी महाराज की मृत्यु और वारिस
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शिवाजी अपने आखिरी दिनों में बीमार पड़ गये थे और 3 अप्रैल 1680 में शिवाजी की मृत्यु हो गयी थी. उसके बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र संभाजी को राजगद्दी मिली. उस समय मराठों ने संभाजी को अपना नया राजा मान लिया था. शिवाजी की मौत के बाद औरंगजेब ने पुरे भारत पर राज्य करने की अभिलाषा को पूरा करने के लिए अपनी 5,00,000 सेना को लेकर दक्षिण भारत का रूख किया इसी समय औरंगजेब के पुत्र ने विद्रोह कर दिया तब संभाजी ने उसे शरण दी लेकिन औरंगजेब ने विद्रोह शांत होने पर सम्भाजी को बंदी बनाकर मृत्यु कर दी। इसके बाद संभाजी के छोटे भाई राजाराम ने मराठो की गद्दी संभाली।
1700 ई. में राजाराम की मृत्यु हो गयी थी उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई ने 4 वर्ष के पुत्र शिवाजी 2 की सरंक्षण बनकर राज्य किया। आखिरकार 25 साल मराठा स्वराज से युद्ध और थके हुए औरंगजेब को उसी छत्रपति शिवाजी के स्वराज में दफन किये गया।
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माँ मातंगी जयन्ती विशेष (मन्त्र साधना)
माँ मातंगी जयन्ती विशेष (मन्त्र साधना)
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समस्त जगत जिस शक्ति से चलित है, उसी शक्ति की दस स्वरूप हैं ये दस महाविद्याएँ, जिनके नौवें क्रम में भगवती मातंगी का नाम आता है। भगवान शिव के मतंग रूप में उनकी अर्द्धांगिनी होने के कारण ही उनकी संज्ञा मातंगी रूप में विख्यात हुई।
जीवन में भगवती मातंगी की साधना प्राप्त होना ही सौभाग्य का प्रतीक माना गया है। महर्षि विश्वामित्र ने तो यहाँ तक कहा है कि बाकी नौ महाविद्याओं का भी समावेश मातंगी साधना में स्वतः ही हो गया है। चाहे हम बाकी नौ साधनाएँ नहीं भी करें और केवल मातंगी साधना को ही सम्पन्न कर लें तो भी अपने आप में पूर्णता प्राप्त हो सकती है।
इसीलिए तो शास्त्रों में मातंगी साधना की प्रशंसा में कहा गया है कि
"मातंगी मेवत्वं पूर्ण, मातंगी पूर्णत्व उच्चते"
इससे यह स्पष्ट होता है कि मातंगी एकमात्र श्रेष्ठतम साधना है और एकमात्र मातंगी ही पूर्णता दे सकती है।
मातंगी शब्द जीवन के प्रत्येक पक्ष को उजागर करने की क्रिया के का नाम है, जिससे जीवन के दोनों ही पक्षों को पूर्णता मिलती है। परन्तु मातंगी साधना साधकों के मध्य विशेष रूप से जीवन के भौतिक पक्ष को सुधारने के लिए ही की जाती रही है।
माना जाता है कि मातंगी देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु ने की थी। तभी से वे सुखी, सम्पन्न, श्रीयुक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं। देवी की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं, किन्तु बौद्ध धर्म के प्रारम्भ में देवी का कोई अस्तित्व नहीं था। कालान्तर में देवी बौद्ध धर्म में “मातागिरी” नाम से जानी जाती है। तन्त्र विद्या के अनुसार देवी सरस्वती नाम से भी जानी जाती हैं, जो श्रीविद्या महात्रिपुरसुन्दरी के रथ की सारथी तथा मुख्य सलाहकार हैं।
हम जीवन में सदैव मेहनत करते हैं तथा हमेशा यह प्रयत्न करते रहते हैं कि हमारा समाज तथा हमारा परिवार हमसे सदैव प्रसन्न रहे, परन्तु ऐसा होता नहीं है। उसका सबसे बड़ा कारण है कि हमारे पास बहुमत नहीं है। यहाँ बहुमत का अर्थ प्रसिद्धि से है, क्यूँकि जब तक हमें जीवन में प्रसिद्धि नहीं मिलती, हमारा कोई सम्मान नहीं करता है। दुनिया सर झुकाएगी तो ही परिवार भी हमें सम्मान देगा अन्यथा वो कहावत तो सुनी ही होगी, घर की मुर्गी दाल बराबर। और यदि आप प्रसिद्ध है तो लक्ष्मी भी आपके जीवन में आने को आतुर हो उठती है।
प्रस्तुत साधना इसीलिए है। कुछ लाभ यहाँ लिख रहा हूँ, जो इस साधना से आपको प्राप्त होंगे👉
👉. इस साधना को सम्पन्न करने के बाद साधक अपने कार्य क्षेत्र में तथा समाज में ख्याति प्राप्त करता है। वह एक लोकप्रिय और यशस्वी व्यक्तित्व बन जाता है।
👉. साधना माँ मातंगी से सम्बन्धित है, अतः साधक को पूर्ण गृहस्थ सुख प्राप्त होता है तथा परिवार में सम्मान होता है। साधक को कुटुम्ब सुख, पुत्र, पुत्रियाँ, पत्नी, स्वास्थ्य, पूर्णायु आदि सभी कुछ प्राप्त होता है, जिससे उसका गृहस्थ जीवन पूर्ण माना जा सकता है।
👉. माँ मातंगी में महालक्ष्मी समाहित है, अतः साधक का आर्थिक पक्ष मजबूत होता है। स्वास्थ्य, आय, धन, भवन सुख, वाहन सुख, राज्य सुख, यात्राएँ और विविध इच्छाओं की पूर्ति सब कुछ तो मातंगी अपने साधक को प्रदान कर देती है।
यहाँ केवल मैंने तीन लाभ ही लिखे हैं, परन्तु एक साधक होने के नाते आप सभी यह बात बखूबी जानते हैं कि कोई भी साधना मात्र लाभ ही नहीं देती है, बल्कि साधक का चहुँमुखी विकास करती है। साथ ही धैर्य तथा विश्वास परम आवश्यक है। अतः साधना साधना कर लाभ उठाएं तथा अपने जीवन को प्रगति प्रदान करें।
साधना विधि
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यह साधना गुप्त नवरात्री अक्षय तृतीया या मातंगी जयन्ती अथवा मातंगी सिद्धि दिवस से आरम्भ की जा सकती है। इसके अतिरिक्त यह साधना किसी भी नवरात्रि के प्रथम दिन से अथवा किसी भी शुक्रवार से शुरू की जा सकती है। फिर भी अक्षय तृतीया से वैशाख पूर्णिमा के मध्य यह साधना सम्पन्न करना सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
यह साधना रात्रि 10 बजे के बाद शुरू करे या ब्रह्ममुहूर्त में भी की जा सकती है। आसन, वस्त्र सफ़ेद हो तथा आपका मुख उत्तर की ओर हो। सामने बजोट पर सफ़ेद वस्त्र बिछाएं और उस पर अक्षत से बीज मन्त्र "ह्रीं" लिखें, फिर उस पर माँ मातंगी का कोई भी यन्त्र या चित्र स्थापित करे। यह सम्भव न हो तो एक मिटटी के दीपक में तिल का तेल डालकर कर जलाएं और उसे स्थापित कर दें। इस दीपक को ही माँ का स्वरूप मानकर पूजन करना है। अगर अपने यन्त्र या चित्र स्थापित किया है तो घी का दीपक पूजन में लगाना होगा, जो सम्पूर्ण साधना काल में जलता रहे।
सबसे पहले साधक को चाहिए कि वह समान्य गुरु पूजन करे और गुरुमन्त्र का चार माला जाप करे। फिर सद्गुरुदेवजी से महामातंगी साधना सम्पन्न करने के लिए मानसिक रूप से गुरु-आज्ञा लें और उनसे साधना की पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।
तदुपरान्त भगवान गणपतिजी का संक्षिप्त पूजन करके "ॐ वक्रतुण्डाय हुम्" मन्त्र की एक माला जाप करें। फिर गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।
इसके बाद भगवान भैरवनाथजी का स्मरण करके "ॐ हूं भ्रं हूं मतंग भैरवाय नमः" मन्त्र की एक माला जाप करें और गुरुदेव तथा भगवान भैरवनाथ से साधना की निर्बाध पूर्णता एवं सफलता के लिए निवेदन करें।
तत्पश्चात साधक को साधना के पहले दिन संकल्प अवश्य लेना चाहिए। संकल्प में अपनी मनोकामना का उच्चारण करें और उसकी पूर्ति के लिए माँ भगवती मातंगी से साधना में सफलता तथा आशीर्वाद प्रदान करने की प्रार्थना करें।
इसके बाद साधक माँ भगवती मातंगी का सामान्य पूजन करे, भोग में सफ़ेद मिठाई अर्पित करे। साथ ही कोई भी इतर अर्पित करे। यदि अपने तेल का दीपक स्थापित किया है तो घी का दीपक लगाने की कोई जरुरत नहीं है। बाकी सारा क्रम वैसा ही रहेगा।
पूजन के बाद माँ भगवती मातंगी से अपनी मनोकामना कहे एवं सफलता तथा आशीर्वाद प्रदान करने की प्रार्थना करे। इसके बाद विनियोग मन्त्र न्यास आड़े के बाद स्फटिक माला से निम्न मन्त्र की 21 माला करें।
विनियोग:
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अस्य मंत्रस्य दक्षिणामूर्ति ऋषि विराट् छन्दः मातंगी देवता ह्रीं बीजं हूं शक्तिः क्लीं कीलकं सर्वाभीष्ट सिद्धये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादिन्यास :
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ॐ दक्षिणामूर्ति ऋषये नमः शिरसि। (सिर को स्पर्श करें)
विराट् छन्दसे नमः मुखे। (मुख को स्पर्श करें)
मातंगी देवतायै नमः हृदि। (हृदय को स्पर्श करें)
ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये। (गुह्य स्थान को स्पर्श करें)
हूं शक्तये नमः पादयोः। (पैरों को स्पर्श करें)
क्लीं कीलकाय नमः नाभौ। (नाभि को स्पर्श करें)
विनियोगाय नमः सर्वांगे। (सभी अंगों को स्पर्श करें)
करन्यास
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ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः। (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः। (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)
हृदयादिन्यास
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ॐ ह्रां हृदयाय नमः। (हृदय को स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। (सिर को स्पर्श करें)
ॐ ह्रूं शिखायै वषट्। (शिखा को स्पर्श करें)
ॐ ह्रैं कवचाय हूं। (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्। (नेत्रों को स्पर्श करें)
ॐ ह्रः अस्त्राय फट्। (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)
ध्यानः
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ॐ ध्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्गीं।
न्यस्तैकाङ्घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्र
मातङ्गीं शङ्खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥
मैं मातंगी देवी का ध्यान करता हूँ । वे रत्नमयी सिंहासनपर बैठकर पढ़ते हुए तोते का मधुर शब्द सुन रही हैं । उनके शरीर का वर्ण श्याम है । वे अपना एक पैर कमलपर रखे हुए हैं और मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा कह्लार - पुष्पों की माला धारण किये वीणा बजाती हैं । उनके अंग में कसी हुई चोली शोभा पा रही है । वे लाला रंग की साड़ी पहने हाथ में शंखमय पात्र लिये हुए हैं । उनके वदन पर मधु का हलका - हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाट में बिंदी शोभा दे रही है।
मन्त्र :
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।। ॐ ह्रीं ह्रीं ह्रीं महामातंगी प्रचितीदायिनी लक्ष्मीदायिनी नमो नमः ।।
मन्त्र जाप के उपरान्त एक आचमनी जल छोड़कर समस्त जाप माँ भगवती मातंगी को ही समर्पित कर दें।
रोज की माला जाप हो जाने के बाद आप अपना जाप देवी मां मातंगी जी को समर्पित करे मंत्र दे रहा हूं वो बोलकर जाप समर्पित करे ।
जाप समर्पण मंत्र -
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गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री-त्वं
गृहाणास्मितकृतम् जपं।
सिद्धिर्भवतु मे देवी
त्वत्प्रसादान्मयि स्थिरा ||
इस प्रकार यह साधना नित्य 11 दिनों तक सम्पन्न करें। साधना के अन्तिम दिन अग्नि प्रज्ज्वलित कर घी, तिल तथा अक्षत मिलकर 108 आहुति प्रदान करे।
अगले दिन दीपक हो तो विसर्जन कर दे। यन्त्र या चित्र हो तो पूजाघर में रख दे। प्रसाद स्वयं ग्रहण कर ले। इतर सँभाल कर रख ले, प्रतिदिन इसे लगाने से आकर्षण पैदा होता है। इस तरह यह 11 दिवसीय साधना सम्पन्न होगी।
कुछ दिनों में आप साधना का प्रभाव स्वयं अनुभव करने लगेंगे।
मातंगी कवच
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।। श्रीदेव्युवाच ।।
साधु-साधु महादेव, कथयस्व सुरेश्वर
मातंगी-कवचं दिव्यं, सर्व-सिद्धि-करं नृणाम् ।।
श्री-देवी ने कहा – हे महादेव ! हे सुरेश्वर ! मनुष्यों को सर्व-सिद्धि-प्रद दिव्य मातंगी-कवच अति उत्तम है, उस कवच को मुझसे कहिए ।
।। श्री ईश्वर उवाच ।।
श्रृणु देवि प्रवक्ष्यामि, मातंगी-कवचं शुभं।
गोपनीयं महा-देवि, मौनी जापं समाचरेत् ।।
ईश्वर ने कहा – हे देवि उत्तम मातंगी-कवच कहता हूँ, सुनो । हे महा-देवि इस कवच को गुप्त रखना, मौनी होकर जप करना ।
विनियोगः-
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ॐ अस्य श्रीमातंगी-कवचस्य श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषिः । विराट् छन्दः । श्रीमातंगी देवता । चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यासः-
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श्री दक्षिणा-मूर्तिः ऋषये नमः शिरसि ।
विराट् छन्दसे नमः मुखे ।
श्रीमातंगी देवतायै नमः हृदि ।
चतुर्वर्ग-सिद्धये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे ।
।। मूल कवच-स्तोत्र ।।
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ॐ शिरो मातंगिनी पातु, भुवनेशी तु चक्षुषी ।
तोडला कर्ण-युगलं, त्रिपुरा वदनं मम ।।
पातु कण्ठे महा-माया, हृदि माहेश्वरी तथा।
त्रि-पुष्पा पार्श्वयोः पातु, गुदे कामेश्वरी मम ।।
ऊरु-द्वये तथा चण्डी, जंघयोश्च हर-प्रिया ।
महा-माया माद-युग्मे, सर्वांगेषु कुलेश्वरी ।।
अंग प्रत्यंगकं चैव, सदा रक्षतु वैष्णवी ।
ब्रह्म-रन्घ्रे सदा रक्षेन्, मातंगी नाम-संस्थिता ।।
रक्षेन्नित्यं ललाटे सा, महा-पिशाचिनीति च ।
नेत्रयोः सुमुखी रक्षेत्, देवी रक्षतु नासिकाम् ।।
महा-पिशाचिनी पायान्मुखे रक्षतु सर्वदा ।
लज्जा रक्षतु मां दन्तान्, चोष्ठौ सम्मार्जनी-करा ।।
चिबुके कण्ठ-देशे च, ठ-कार-त्रितयं पुनः।
स-विसर्ग महा-देवि हृदयं पातु सर्वदा ।।
नाभि रक्षतु मां लोला, कालिकाऽवत् लोचने ।
उदरे पातु चामुण्डा, लिंगे कात्यायनी तथा ।।
उग्र-तारा गुदे पातु, पादौ रक्षतु चाम्बिका ।
भुजौ रक्षतु शर्वाणी, हृदयं चण्ड-भूषणा ।।
जिह्वायां मातृका रक्षेत्, पूर्वे रक्षतु पुष्टिका।
विजया दक्षिणे पातु, मेधा रक्षतु वारुणे ।।
नैर्ऋत्यां सु-दया रक्षेत्, वायव्यां पातु लक्ष्मणा ।
ऐशान्यां रक्षेन्मां देवी, मातंगी शुभकारिणी ।।
रक्षेत् सुरेशी चाग्नेये, बगला पातु चोत्तरे ।
ऊर्घ्वं पातु महा-देवि देवानां हित-कारिणी ।।
पाताले पातु मां नित्यं, वशिनी विश्व-रुपिणी ।
प्रणवं च ततो माया, काम-वीजं च कूर्चकं ।।
मातंगिनी ङे-युताऽस्त्रं, वह्नि-जायाऽवधिर्पुनः ।
सार्द्धेकादश-वर्णा सा, सर्वत्र पातु मां सदा ।।
इसके बाद फल श्रुति करे।
।। फल-श्रुति ।।
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इति ते कथितं देवि गुह्यात् गुह्य-तरं परमं।
त्रैलोक्य-मंगलं नाम, कवचं देव-दुर्लभम् ।।
यः इदं प्रपठेत् नित्यं, जायते सम्पदालयं ।
परमैश्वर्यमतुलं, प्राप्नुयान्नात्र संशयः ।।
गुरुमभ्यर्च्य विधि-वत्, कवचं प्रपठेद् यदि।
ऐश्वर्यं सु-कवित्वं च, वाक्-सिद्धिं लभते ध्रुवम् ।।
नित्यं तस्य तु मातंगी, महिला मंगलं चरेत् ।
ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च, ये देवा सुर-सत्तमाः ।।
ब्रह्म-राक्षस-वेतालाः, ग्रहाद्या भूत-जातयः।
तं दृष्ट्वा साधकं देवि लज्जा-युक्ता भवन्ति ते ।।
कवचं धारयेद् यस्तु, सर्वां सिद्धि लभेद् ध्रुवं ।
राजानोऽपि च दासत्वं, षट्-कर्माणि च साधयेत् ।।
सिद्धो भवति सर्वत्र, किमन्यैर्बहु-भाषितैः।
इदं कवचमज्ञात्वा, मातंगीं यो भजेन्नरः ।।
अल्पायुर्निधनो मूर्खो, भवत्येव न संशयः ।
गुरौ भक्तिः सदा कार्या, कवचे च दृढा मतिः ।।
तस्मै मातंगिनी देवी, सर्व-सिद्धिं प्रयच्छति ।।
आशा है कि ये साधना आपके समस्त कार्य सिद्ध करेगी कृपया इस साधना को पूर्ण विश्वास से करे ।
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