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बुधवार, 18 सितंबर 2024

पितृ पक्ष (श्राद्ध करने की विधि)

पितृ पक्ष (श्राद्ध करने की विधि)

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पितृलोक से पृथ्वी लोक पर पितरो के आने का मुख्य कारण उनकी पुत्र-पौत्रादि से आशा होती है की वे उन्हें अपनी यथासंभव शक्ति के अनुसार पिंडदान प्रदान करे अतएवं प्रत्येक सद्गृहस्थ का धर्म है कि स्पष्ट तिथि के अनुसार श्राद्ध अवस्य करे यदि पित्र पक्ष मे परिजनों का श्राद्ध नहीं किया गया तो वे श्राप दे देते हैं और ये परिवार के सदस्यों पर अपना प्रभाव छोड़ सकता है जिससे हानि होनी ही होनी है। अतः इस पक्ष में श्राद्ध अवश्य किया जाना चाहिये। 

श्राद्ध में पंचबली की महता: 
〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️पित्र पक्ष में ब्राह्मण भोजन और जलमिश्रित तिल से तर्पण करने जितना ही अनिवार्य पञ्चबलि भी है पञ्चबलि का नियम कुछ इस प्रकार है।

एक थाली के पांच भिन्न भिन्न भाग करके थोड़े थोड़े सभी प्रकार के भोजन को परोसकर हाथ मे तिल, अक्षत और पुष्प लेकर संकल्प करते समय निम्न का उचारण करे: अद्यामुक गोत्र अमुक शर्माहं/बर्माहं/गुप्तोहं/दासोहं अमुकगोत्रस्य मम पितुः/मातु आदि वार्षिकश्राद्धे (महालयश्राद्धे) कृतस्य पाकस्य शुद्ध्यर्थं पंचसूनाजनितदोषपरिहारार्थं च पंचबलिदानं करिष्ये। 

पंचबलि-विधि इस प्रकार है:
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(1)👉 गोबलि (पत्ते पर)
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ऊँ सौरभेय्यः सर्वहिताः पवित्राः पुण्यराशयः। प्रतिगृह्वन्तु मे ग्रासं गावस्त्रैलोक्यमातरः।। इदं गोभ्यो न मम। 

इस श्लोक का उचारण पश्चिम दिशा की और पुष्प और पते को दिखाकर करे। पंचबली का एक निहित भाग गाय को खिलायें। 

(2)👉 श्वानबलि (पत्ते पर)
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द्वौ श्वानौ श्यामशबलौ वैवस्वतकुलोöवौ। ताभ्यामन्नं प्रयच्छामि स्यातामेतावहिंसकौ।। इदं श्वभ्यां न मम। 

इस श्लोक का उचारण कुत्तों को बलि देने के लिए करे। इस पंचबलि के समय कान मे जनेऊ डालना अनिवार्य है। 

(3)👉 काकबलि (पृथ्वी पर)
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ऊँ ऐन्द्रवारूणवायव्या याम्या वै नैर्ऋतास्तथा। वायसाः प्रतिगृह्वन्तु भूमौ पिण्डं मयोज्झितम्।। इदमन्नं वायसेभ्यो न मम। 

इस श्लोक का उचारण कौओं को भूमि पर अन्न देने के लिए करे। पंचबली का एक निहित भाग कौओं के लिये छत पर रख दें।

(4)👉 देवादिबलि (पत्ते पर)
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ऊँ देवा मनुष्याः पशवो वयांसि सिद्धाः सयक्षोरगदैत्यसंघाः। प्रेताः पिशाचास्तरवः समस्ता ये चान्नमिच्छन्ति मया प्रदत्तम्।। इदमन्नं देवादिभ्यो न मम। 

इस श्लोक का उचारण देवता आदि के लिय अन्न देने के लिए होता है। पंचबली का एक निहित भाग अग्नि के सपुर्द कर दें।

(5)👉 पिपीलिकादिबलि (पत्ते पर)
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पिलीलिकाः कीटपतंगकाद्या बुभुक्षिताः कर्मनिबन्धबद्धाः। तेषां हि तृप्त्यर्थमिदं मयान्नं तेभ्यो विसृष्टं सुखिनो भवन्तु।। इदमन्नं पिपीलिकादिभ्यो न मम। 

इस श्लोक का उचारण चींटी आदि को बलि देने के लिए होता है। पंचबली का एक निहित भाग चींटीयों के लिये रख दें पंचबलि देने के बाद एक थाल मे खाना परोसक निम्न मंत्र का उचारण कर ब्राह्मणों के पैर धोकर सभी व्यंजनों का भोजन करायें।

यत् फलं कपिलादाने कार्तिक्यां ज्येष्ठपुष्करे। 
तत्फलं पाण्डवश्रेष्ठ विप्राणां पादसेचने।।

इसे बाद उन्हें अन्न, वस्त्र और द्रव्य-दक्षिणा देकर तिलक करके नमस्कार करें। तत्पश्चात् नीचे लिखे वाक्य यजमान और ब्राह्मण दोनों बोलें 

यजमान 👉 शेषान्नेन किं कर्तव्यम्। (श्राद्ध में बचे अन्न का क्या करूँ?) 

ब्राह्मण 👉 इष्टैः सह भोक्तव्यम्। (अपने इष्ट-मित्रों के साथ भोजन करें।) इसके बाद अपने परिवार वालों के साथ स्वयं भी भोजन करें तथा निम्न मंत्र द्वारा भगवान् को नमस्कार करें👉

प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्। स्मरणादेव तद्विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः।

श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है, क्योंकि कई बार विधि पूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ श्राप भी दे देते हैं। आज हम आपको श्राद्ध से जुड़ी कुछ विशेष बातें बता रहे हैं, जो इस प्रकार हैं।

श्राद्धकर्म के नियम
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1👉 श्राद्धकर्म में गाय का घी, दूध या दही काम में लेना चाहिए। यह ध्यान रखें कि गाय को बच्चा हुए दस दिन से अधिक हो चुके हैं। दस दिन के अंदर बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध का उपयोग श्राद्ध कर्म में नहीं करना चाहिए।

2👉 श्राद्ध में चांदी के बर्तन का उपयोग व दान पुण्यदायक तो है ही राक्षसों का नाश करने वाला भी माना गया है। पितरों के लिए चांदी के बर्तन में सिर्फ पानी ही दिए जाए तो वह अक्षय तृप्तिकारक होता है। पितरों के लिए अर्घ्य, पिण्ड और भोजन के बर्तन भी चांदी के हों तो और भी श्रेष्ठ माना जाता है।

3👉 श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाते समय परोसने के बर्तन दोनों हाथों से पकड़ कर लाने चाहिए, एक हाथ से लाए गए अन्न पात्र से परोसा हुआ भोजन राक्षस छीन लेते हैं।

4👉 ब्राह्मण को भोजन मौन रहकर एवं व्यंजनों की प्रशंसा किए बगैर करना चाहिए, क्योंकि पितर तब तक ही भोजन ग्रहण करते हैं, जब तक ब्राह्मण मौन रह कर भोजन करें।

5👉 जो पितृ शस्त्र आदि से मारे गए हों उनका श्राद्ध मुख्य तिथि के अतिरिक्त चतुर्दशी को भी करना चाहिए। इससे वे प्रसन्न होते हैं। श्राद्ध गुप्त रूप से करना चाहिए। पिंडदान पर साधारण या नीच मनुष्यों की दृष्टि पडने से वह पितरों को नहीं पहुंचता।

6👉 श्राद्ध में ब्राह्मण को भोजन करवाना आवश्यक है, जो व्यक्ति बिना ब्राह्मण के श्राद्ध कर्म करता है, उसके घर में पितर भोजन नहीं करते, श्राप देकर लौट जाते हैं। ब्राह्मण हीन श्राद्ध से मनुष्य महापापी होता है।

7👉 श्राद्ध में जौ, कांगनी, मटर सरसों का उपयोग श्रेष्ठ रहता है। तिल की मात्रा अधिक होने पर श्राद्ध अक्षय हो जाता है। वास्तव में तिल पिशाचों से श्राद्ध की रक्षा करते हैं। कुशा (एक प्रकार की घास) राक्षसों से बचाते हैं।

8👉 दूसरे की भूमि पर श्राद्ध नहीं करना चाहिए। वन, पर्वत, पुण्यतीर्थ एवं मंदिर दूसरे की भूमि नहीं माने जाते क्योंकि इन पर किसी का स्वामित्व नहीं माना गया है। अत: इन स्थानों पर श्राद्ध किया जा सकता है।

9👉 चाहे मनुष्य देवकार्य में ब्राह्मण का चयन करते समय न सोचे, लेकिन पितृ कार्य में योग्य ब्राह्मण का ही चयन करना चाहिए क्योंकि श्राद्ध में पितरों की तृप्ति ब्राह्मणों द्वारा ही होती है।

10👉 जो व्यक्ति किसी कारणवश एक ही नगर में रहनी वाली अपनी बहिन, जमाई और भानजे को श्राद्ध में भोजन नहीं कराता, उसके यहां पितर के साथ ही देवता भी अन्न ग्रहण नहीं करते।

11👉 श्राद्ध करते समय यदि कोई भिखारी आ जाए तो उसे आदरपूर्वक भोजन करवाना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसे समय में घर आए याचक को भगा देता है उसका श्राद्ध कर्म पूर्ण नहीं माना जाता और उसका फल भी नष्ट हो जाता है।

12👉 शुक्लपक्ष में, रात्रि में, युग्म दिनों (एक ही दिन दो तिथियों का योग)में तथा अपने जन्मदिन पर कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए। धर्म ग्रंथों के अनुसार सायंकाल का समय राक्षसों के लिए होता है, यह समय सभी कार्यों के लिए निंदित है। अत: शाम के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए।

13👉 श्राद्ध में प्रसन्न पितृगण मनुष्यों को पुत्र, धन, विद्या, आयु, आरोग्य, लौकिक सुख, मोक्ष और स्वर्ग प्रदान करते हैं। श्राद्ध के लिए शुक्लपक्ष की अपेक्षा कृष्णपक्ष श्रेष्ठ माना गया है।

14👉 रात्रि को राक्षसी समय माना गया है। अत: रात में श्राद्ध कर्म नहीं करना चाहिए। दोनों संध्याओं के समय भी श्राद्धकर्म नहीं करना चाहिए। दिन के आठवें मुहूर्त (कुतपकाल) में पितरों के लिए दिया गया दान अक्षय होता है।

15👉 श्राद्ध में ये चीजें होना महत्वपूर्ण हैं- गंगाजल, दूध, शहद, दौहित्र, कुश और तिल। केले के पत्ते पर श्राद्ध भोजन निषेध है। सोना, चांदी, कांसे, तांबे के पात्र उत्तम हैं। इनके अभाव में पत्तल उपयोग की जा सकती है।

16👉 तुलसी से पितृगण प्रसन्न होते हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि पितृगण गरुड़ पर सवार होकर विष्णु लोक को चले जाते हैं। तुलसी से पिंड की पूजा करने से पितर लोग प्रलयकाल तक संतुष्ट रहते हैं।

17👉 रेशमी, कंबल, ऊन, लकड़ी, तृण, पर्ण, कुश आदि के आसन श्रेष्ठ हैं। आसन में लोहा किसी भी रूप में प्रयुक्त नहीं होना चाहिए।

18👉 चना, मसूर, उड़द, कुलथी, सत्तू, मूली, काला जीरा, कचनार, खीरा, काला उड़द, काला नमक, लौकी, बड़ी सरसों, काले सरसों की पत्ती और बासी, अपवित्र फल या अन्न श्राद्ध में निषेध हैं।

19👉 भविष्य पुराण के अनुसार श्राद्ध 12 प्रकार के होते हैं, जो इस प्रकार हैं-
1- नित्य, 2- नैमित्तिक, 3- काम्य, 4- वृद्धि, 5- सपिण्डन, 6- पार्वण, 7- गोष्ठी, 8- शुद्धर्थ, 9- कर्मांग, 10- दैविक, 11- यात्रार्थ, 12- पुष्टयर्थ।

20👉 श्राद्ध के प्रमुख अंग
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तर्पण- इसमें दूध, तिल, कुशा, पुष्प, गंध मिश्रित जल पितरों को तृप्त करने हेतु दिया जाता है। श्राद्ध पक्ष में इसे नित्य करने का विधान है।

भोजन व पिण्ड दान:👉 पितरों के निमित्त ब्राह्मणों को भोजन दिया जाता है। श्राद्ध करते समय चावल या जौ के पिण्ड दान भी किए जाते हैं।

वस्त्रदान👉 वस्त्र दान देना श्राद्ध का मुख्य लक्ष्य भी है।

दक्षिणा दान👉 यज्ञ की पत्नी दक्षिणा है जब तक भोजन कराकर वस्त्र और दक्षिणा नहीं दी जाती उसका फल नहीं मिलता।

21👉 श्राद्ध तिथि के पूर्व ही यथाशक्ति विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलावा दें। श्राद्ध के दिन भोजन के लिए आए ब्राह्मणों को दक्षिण दिशा में बैठाएं।

22👉 पितरों की पसंद का भोजन दूध, दही, घी और शहद के साथ अन्न से बनाए गए पकवान जैसे खीर आदि है। इसलिए ब्राह्मणों को ऐसे भोजन कराने का विशेष ध्यान रखें।

23👉 तैयार भोजन में से गाय, कुत्ता कौआ, देवता और चींटी के लिए थोड़ा सा भाग निकालें। इसके बाद हाथ जल, अक्षत यानी चावल, चन्दन, फूल और तिल लेकर ब्राह्मणों से संकल्प लें।

24👉 कुत्ते और कौए के निमित्त निकाला भोजन कुत्ते और कौए को ही कराएं किंतु देवता और चींटी का भोजन गाय को खिला सकते हैं। इसके बाद ही ब्राह्मणों को भोजन कराएं। पूरी तृप्ति से भोजन कराने के बाद ब्राह्मणों के मस्तक पर तिलक लगाकर यथाशक्ति कपड़े, अन्न और दक्षिणा दान कर आशीर्वाद पाएं।

25👉 ब्राह्मणों को भोजन के बाद घर के द्वार तक पूरे सम्मान के साथ विदा करके आएं। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ब्राह्मणों के साथ-साथ पितर लोग भी चलते हैं। ब्राह्मणों के भोजन के बाद ही अपने परिजनों, दोस्तों और रिश्तेदारों को भोजन कराएं।

26👉 पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र के न होने पर पत्नी श्राद्ध कर सकती है। पत्नी न होने पर सगा भाई और उसके भी अभाव में सपिंडो (परिवार के) को श्राद्ध करना चाहिए । एक से अधिक पुत्र होने पर सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करें या सबसे छोटा।

भारतीय शास्त्रों में ऐसी मान्यता है कि, पितृगण पितृपक्ष में पृथ्वी पर आते हैं, और 15 दिनों तक पृथ्वी पर रहने के बाद अपने लोक लौट जाते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि, पितृपक्ष के दौरान पितृ अपने परिजनों के आस-पास रहते हैं, इसलिए इन दिनों कोई भी ऐसा काम नहीं करें, जिससे पितृगण नाराज हों। पितरों को खुश रखने के लिए पितृ पक्ष में कुछ बातों पर विशेष ध्यान देना चाहिए।
पितृ पक्ष के दौरान ब्राह्मण, जामाता, भांजा, गुरु या नाती को भोजन कराना चाहिए। इससे पितृगण अत्यंत प्रसन्न होते हैं। ब्राह्मणों को भोजन करवाते समय भोजन का पात्र दोनों हाथों से पकड़कर लाना चाहिए, अन्यथा भोजन का अंश राक्षस ग्रहण कर लेते हैं, जिससे ब्राह्मणों द्वारा अन्न ग्रहण करने के बावजूद पितृगण भोजन का अंश ग्रहण नहीं करते हैं। पितृ पक्ष में द्वार पर आने वाले किसी भी जीव-जंतु को मारना नहीं चाहिए बल्कि उनके योग्य भोजन का प्रबंध करना चाहिए। हर दिन भोजन बनने के बाद एक हिस्सा निकालकर गाय, कुत्ता, कौआ अथवा बिल्ली को देना चाहिए। मान्यता है कि इन्हें दिया गया भोजन सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। शाम के समय घर के द्वार पर एक दीपक जलाकर पितृगणों का ध्यान करना चाहिए।

सनातन धर्म ग्रंथों के अनुसार जिस तिथि को जिसके पूर्वज गमन करते हैं, उसी तिथि को उनका श्राद्ध करना चाहिए। इस पक्ष में जो लोग अपने पितरों को जल देते हैं, तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं, उनके समस्त मनोरथ पूर्ण होते हैं। जिन लोगों को अपने परिजनों की मृत्यु की तिथि ज्ञात नहीं होती, उनके लिए पितृ पक्ष में कुछ विशेष तिथियां भी निर्धारित की गई हैं, जिस दिन वे पितरों के निमित्त श्राद्ध कर सकते हैं।

आश्विन कृष्ण प्रतिपदा👉 इस तिथि को नाना-नानी के श्राद्ध के लिए सही बताया गया है। इस तिथि को श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है। यदि नाना-नानी के परिवार में कोई श्राद्ध करने वाला न हो और उनकी मृत्युतिथि याद न हो, तो आप इस दिन उनका श्राद्ध कर सकते हैं।

पंचमी👉 जिनकी मृत्यु अविवाहित स्थिति में हुई हो, उनका श्राद्ध इस तिथि को किया जाना चाहिए।

नवमी👉 सौभाग्यवती यानि पति के रहते ही जिनकी मृत्यु हो गई हो, उन स्त्रियों का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। यह तिथि माता के श्राद्ध के लिए भी उत्तम मानी गई है। इसलिए इसे मातृनवमी भी कहते हैं। मान्यता है कि, इस तिथि पर श्राद्ध कर्म करने से कुल की सभी दिवंगत महिलाओं का श्राद्ध हो जाता है।

एकादशी और द्वादशी👉 एकादशी में वैष्णव संन्यासी का श्राद्ध करते हैं। अर्थात् इस तिथि को उन लोगों का श्राद्ध किए जाने का विधान है, जिन्होंने संन्यास लिया हो।

चतुर्दशी👉 इस तिथि में शस्त्र, आत्म-हत्या, विष और दुर्घटना यानि जिनकी अकाल मृत्यु हुई हो, उनका श्राद्ध किया जाता है, जबकि बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को करने के लिए कहा गया है।

सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या👉 किसी कारण से पितृपक्ष की अन्य तिथियों पर पितरों का श्राद्ध करने से चूक गए हैं, या पितरों की तिथि याद नहीं है, तो इस तिथि पर सभी पितरों का श्राद्ध किया जा सकता है। शास्त्र अनुसार, इस दिन श्राद्ध करने से कुल के सभी पितरों का श्राद्ध हो जाता है। यही नहीं जिनका मरने पर संस्कार नहीं हुआ हो, उनका भी अमावस्या तिथि को ही श्राद्ध करना चाहिए। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर श्राद्ध करना चाहिए, यही उचित भी है।

पिंडदान करने के लिए👉 सफेद या पीले वस्त्र ही धारण करें। जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं, वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं।
विशेष: श्राद्ध कर्म करने वालों को निम्न मंत्र तीन बार अवश्य पढ़ना चाहिए। यह मंत्र ब्रह्मा जी द्वारा रचित आयु, आरोग्य, धन, लक्ष्मी प्रदान करने वाला अमृतमंत्र है।

देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिश्च एव च। नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव भवन्त्युत ।। (वायु पुराण)

श्राद्ध सदैव दोपहर के समय ही करें। प्रातः एवं सायंकाल के समय श्राद्ध निषेध कहा गया है। हमारे धर्म-ग्रंथों में पितरों को देवताओं के समान संज्ञा दी गई है। सिद्धांत शिरोमणि ग्रंथ के अनुसार चंद्रमा की ऊधर्व कक्षा में पितृलोक है, जहां पितृ रहते हैं। पितृ लोक को मनुष्य लोक से आंखों द्वारा नहीं देखा जा सकता। जीवात्मा जब इस स्थूल देह से पृथक होती है, उस स्थिति को मृत्यु कहते हैं। यह भौतिक शरीर 27 तत्वों के संधान से बना है। स्थूल पंच महाभूतों एवं स्थूल कर्मेन्द्रियों को छोड़ने पर अर्थात मृत्यु को प्राप्त हो जाने पर भी 17 तत्वों से बना हुआ सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहता है।
सनातन मान्यताओं के अनुसार एक वर्ष तक प्रायः सूक्ष्म जीव को नया शरीर नहीं मिलता। मोहवश वह सूक्ष्म जीव स्वजनों व घर के आसपास भ्रमण करता रहता है। श्राद्ध कार्य के अनुष्ठान से सूक्ष्म जीव को तृप्ति मिलती है, इसीलिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। अगर किसी के कुंडली में पितृदोष है, और वह इस श्राद्ध पक्ष में अपनी कुंडली के अनुसार उचित निवारण करते हैं तो, जीवन की बहुत सी समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं। योग्य ब्राह्मण द्वारा ही श्राद्ध कर्म पूर्ण करवाये जाने चाहिएं।
ऐसा कुछ भी नहीं है कि, इस अनुष्ठान में ब्राह्मणों को जो भोजन खिलाया जाता है, वही पदार्थ ज्यों का त्यों उसी आकार, वजन और परिमाण में मृतक पितरों को मिलता है। वास्तव में श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध में दिए गए भोजन का सूक्ष्म अंश परिणत होकर, उसी अनुपात व मात्रा में प्राणी को मिलता है, जिस योनि में वह प्राणी इस समय है।
पितृ लोक में गया हुआ प्राणी श्राद्ध में दिए हुए अन्न का स्वधा रूप में परिणत भाग को प्राप्त करता है। यदि शुभ कर्म के कारण मर कर पिता देवता बन गया हो तो, श्राद्ध में दिया हुआ अन्न उसे अमृत में परिणत होकर देवयोनि में प्राप्त होगा। गंधर्व बन गया हो तो, वह अन्न अनेक भोगों के रूप में प्राप्त होता है। पशु बन जाने पर घास के रूप में परिवर्तित होकर उसे तृप्त करता है। यदि नाग योनि में है तो, श्राद्ध का अन्न वायु के रूप में तृप्ति देता है। दानव, प्रेत व यक्ष योनि मिलने पर श्राद्ध का अन्न नाना प्रकार के अन्न पान और भोग्य रसादि के रूप में परिणत होकर प्राणी को तृप्त करता है। अगर किसी की जन्मकुंडली में पितृदोष है तो, जन्म कुंडली के अनुसार उचित उपाय करें।
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श्री हनुमानजी जनेऊ कौन सी पहनने थे? "काँधे मूँज जनेऊ साजे

श्री हनुमानजी जनेऊ कौन सी पहनने थे?
 "काँधे मूँज जनेऊ साजे" एक मूँज घास है जो खुरखुरी और तीखी होती है, पहले तपस्वी मूँज का जनेऊ धारण करते थे।

शायद इसीलिये धारण करते थे कि हमेशा हमारे कन्धे को खुजलाती रहे हमको विस्मरण न हो जायें, जैसे- समाज ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण ये विस्मृत न हो जायें इसलिये हमारी गर्दन को हर समय खुजलाती रहे, श्री हनुमानजी महाराज भी मूँज का जनेऊ इसलिये धारण करते थे कि श्री हनुमानजी ब्रह्मचर्य के प्रतीक है, तपस्वी के प्रतीक है।

ब्रह्मचारी के भी दो अर्थ है, एक तो जिसने शुक्र को स्खलन नहीं होने दिया, यह ब्रह्मचर्य का एक श्रेष्ठ सवरूप है, ऐसे बहुत से पहलवान हैं जिन्होंने अपने शुक्र का स्खलन नहीं होने दिया, लेकिन उन्हें कोई श्रेष्ठ ब्रह्मचारी नहीं माने जाते, ब्रह्मचर्य का अर्थ है जिसकी चर्या ब्रह्म जैसी हो, जो चौबीस घण्टे, प्रतिपल, प्रतिक्षण ब्रह्म की चर्या में डूबा है? 

हम ब्रह्म की चर्चा तो करते हैं लेकिन हम ब्रह्म की चर्या में नहीं डूबते, आप वैष्णवों को पतित होते बहुत कम सुनेंगे, ज्ञानी का हो सकता है लेकिन भक्त का पतन नहीं होता है, भगवान श्री कृष्णजी ने गीता में भी घोषणा की है, कि मेरे भक्त का पतन नहीं होता, इसलिये वैष्णवों का भी पतन नहीं होता, क्यों? क्योंकि वैष्णव साधु सदैव भगवान् की सेवा में रहते हैं और जो चौबीस घण्टे सेवा में रत रहेगा वह विकृत नहीं हो सकता, उसका कभी पतन नहीं हो सकता।

प्रातःकाल से वैष्णव प्रभु की सेवा में कथा, जागरण, मंगला आरती करता है, स्नान कराना, श्रृंगार करना, फिर प्रात:काल की आरती करनी, भोग लगाना, शयन कराना, उत्थापन कराना, फिर संध्या आरती करता है, यानी प्रात:काल से लेकर एक क्षण भी इधर-उधर नहीं चौबीस घण्टे मन भगवान् की सेवा में और जो प्रतिपल भगवान् के सेवा में है तो से मन में पवित्रता ही तो होगी, शुद्धता ही तो होगी, शुद्ध और पवित्र मन में कभी विकार प्रवेश ही नहीं कर सकता,इसलिये वैष्णवों को ब्रह्मचर्य कहा गया है।

इसी को भजन कहा है भजन कोई क्रिया नही,भजन कोई डयूटी नहीं है, भजन एक जीवन जीने की शैली है, भजन जीवन की चर्या है, उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते भजन करना माने भगवान् में डूबे रहना, भजन करना माने भगवान् में जगना, उठना, बैठना, नहाना, खाना, चलना, पीना भगवान् के अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं, हर श्वांस में उसी की धडकन, उसी की यादें, भगवान् सुमिरन में बने रहे, किसी ने बहुत अच्छा गाया है! 

हर धड़कन में प्यास है तैरौ, श्वासों में तेरी खुशबू है।
इस धरती से उस अम्बर तक,मेरी नजर में तू ही तू है।
प्यार ये टूटे ना, तू मुझसे रूठो ना,साथ ये छूटे कभी ना।
तेरे बिना भी क्या जीना,प्रभु रे तेरे बिना भी क्या जीना।
फूलों में कलियो में,सपनों की गलियों में।
तेरे बिना कुछ कहीं ना, तेरे बिना भी क्या जीना।
तेरे बिना भी क्या जीना, प्रभु रे, तेरे बिना भी क्या जीना।

हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे।
हरे राम हरे राम, राम-राम हरे हरे।।

जिसके बिना जीना व्यर्थ लगे, चौबीस घण्टे मन डुबाना न पडे, डूब जाए जैसे बृज की गोपियों, आपने किसी गोपी को अलग से बैठे भजन करते नहीं देखा होगा, चौबीस घण्टे भजन में ही डूबी, "मुरारी पादार्पित चित्तवृत्ति" उनकी चित्तवृत्ति भगवान के श्रीचरणों में ही डूब चुकी है, वैसे ही हनुमानजी हमेशा भगवान् श्री रामजी के भजन में डूबे रहते हैं।

भगवान् श्री रामजी ने भी कितने स्नेह से कहा है कि हनुमान तुम्हारे जैसा मेरा भक्त संसार में कभी और नहीं होगा, इसलिये जो तुम्हें कोई भक्त भजेगा, तुम्हारा गुणगान करेगा, तुम्हारी भक्ति करेगा, उसे वही फल मिलेगा जो मुझे भजने से मिलता है, इसलिये भाई-बहनों! भगवान् श्री रामजी के अनन्य भक्त श्री हनुमानजी की भक्ति के साथ आज के पावन दिवस की पावन शुभकामनाएं आप सभी के लिये मंगलमय् हो। 

!! जय श्री राम !!
करूँ राम से प्रार्थना, दें तुमको आनंद।
फूल भरी हो जिंदगी, और रहो सानंद।।
जय श्रीराम 

  🙏जय श्री रामजी🙏
🙏जय श्री हनुमानजी🙏

शनिवार, 14 सितंबर 2024

RSS की प्रार्थना का हिन्दी में अनुवाद .

RSS की प्रार्थना का हिन्दी में अनुवाद .



.. पढ़ो और सोचिये कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारत माता के प्रति भावना क्या है 🚩

1. नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे, त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोsहम्। 🚩
हे प्यार करने वाली मातृभूमि! मैं तुझे सदा (सदैव) नमस्कार करता हूँ। तूने मेरा सुख से पालन-पोषण किया है। 🚩

2. महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे, पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते।। १।। 🚩
हे महामंगलमयी पुण्यभूमि! तेरे ही कार्य में मेरा यह शरीर अर्पण हो। मैं तुझे बारम्बार नमस्कार करता हूँ। 🚩

3. प्रभो शक्ति मन्हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता, इमे सादरं त्वाम नमामो वयम् त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं, शुभामाशिषम देहि तत्पूर्तये। 🚩
हे सर्वशक्तिशाली परमेश्वर! हम हिन्दूराष्ट्र के सुपुत्र तुझे आदर सहित प्रणाम करते है। तेरे ही कार्य के लिए हमने अपनी कमर कसी है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अपना शुभाशीर्वाद दे। 🚩

4. अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिम, सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्, श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं, स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत्।। २।। 🚩
हे प्रभु! हमें ऐसी शक्ति दे, जिसे विश्व में कभी कोई चुनौती न दे सके, ऐसा शुद्ध चारित्र्य दे जिसके समक्ष सम्पूर्ण विश्व नतमस्तक हो जाये। ऐसा ज्ञान दे कि स्वयं के द्वारा स्वीकृत किया गया यह कंटकाकीर्ण मार्ग सुगम हो जाये। 🚩

5. समुत्कर्षनिःश्रेयसस्यैकमुग्रं, परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा, हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्राsनिशम्। 🚩
उग्र वीरव्रती की भावना हम में उत्स्फूर्त होती रहे, जो उच्चतम आध्यात्मिक सुख एवं महानतम ऐहिक समृद्धि प्राप्त करने का एकमेव श्रेष्ठतम साधन है। तीव्र एवं अखंड ध्येयनिष्ठा हमारे अंतःकरणों में सदैव जागती रहे। 🚩

6. विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्, विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम्। परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं, समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्।। ३।। ।। भारत माता की जय।। 🚩
हे माँ तेरी कृपा से हमारी यह विजयशालिनी संघठित कार्यशक्ति हमारे धर्म का सरंक्षण कर इस राष्ट्र को वैभव के उच्चतम शिखर पर पहुँचाने में समर्थ हो। भारत माता की जय।.. 🚩

अब आप ही विचार करे कि RSS की विचारधारा कैसी है... 🚩🚩
नफरत और घृणा का चश्मा उतार कर संघ को देखने की कोशिश करें। साथ ही संघ को समझना है तो संघ की शाखाओं में आकर समझें।
संघ ने कभी यह दावा नहीं किया वो हिंदू समाज का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि यह समझता है कि संघ समाज का हिस्सा है और राष्ट्रीय मुद्दों के लिए समाज ही प्रतिनिधित्व करता है। । संघ व्यक्ति निर्माण पर अपना ध्यान केंद्रित करता है। समाज को दोष देना निष्क्रिय लोगों का काम है संघ चाहता है व्यक्ति निर्माण के रास्ते में समाज शक्तिशाली, संगठित एवं राष्ट्र के लिए काम करने वाला हो। जो संघ को साधारणतया नहीं समझता है वह भी जातिवाद का लांछन तो कभी नहीं लगाता क्योंकि वह जानता है किस संघ में जातिवाद कोई स्थान नहीं है। व्हाट्सएप पर पोस्ट करने वाले को एक साधारण आदमी जितना ज्ञान होना तो आवश्यक है।
माता की जय वंदे मातरम

देवी लक्ष्मी के शाप से कटा भगवान विष्णु का मस्तक

 देवी लक्ष्मी के शाप से कटा भगवान विष्णु का मस्तक
                             (हयग्रीव अवतार)

          एक समय की बात है भगवान विष्णु दस हजार वर्षों तक भीषण युद्ध करके अत्यन्त थक गये थे। तदनन्तर एक समतल तथा शुभ स्थान पर पद्मासन कण्ठप्रदेश (गर्दन) टिकाये हुए उस धनुष की नोंक पर भार लगाकर पृथ्वी पर स्थित प्रत्यंचा चढ़े हुए धनुष पर टिककर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु सो गये और थकावट के कारण दैवयोग से उन्हें गहरी नींद आ गयी।
          कुछ समय बीतने के बाद ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र सहित सभी देवता यज्ञ करने को उद्यत हुए। वे सब देवकार्य की सिद्धिहेतु यज्ञों के अधिपति जनार्दन भगवान् विष्णु के दर्शनार्थ वैकुण्ठलोक गये। उस समय उन्हें वहाँ न देखकर वे देवतागण ज्ञान-दृष्टि से देख करके वहाँ पहुँचे, जहाँ भगवान् विष्णु विराजमान थे।
          वहाँ उन्होंने सर्वव्यापी भगवान् विष्णु को योग निद्रा के वशीभूत होकर अचेत पड़ा हुआ देखा। तब वे देवगण वहीं रुक गये। सभी देवताओं के वहाँ रुक जाने के बाद जगत्पति विष्णु को निद्रामग्न देखकर ब्रह्मा रुद्र आदि प्रमुख देवता अत्यन्त चिन्तित हुए।
          तदनन्तर इन्द्र ने देवताओं से कहा–‘हे श्रेष्ठ देवगण! अब क्या किया जाय ? हे श्रेष्ठ देवताओ ! अब आप सभी यह विचार करें कि इनकी निद्रा किस प्रकार भंग की जाय ?।’
          शिवजी ने इन्द्र से कहा–‘इनकी निद्रा का भंग करने से महान् दोष लगेगा, किन्तु श्रेष्ठ देवगण ! यज्ञकार्य भी अवश्यकरणीय है।’
          इसके बाद परमेष्ठी ब्रह्माजी ने पृथ्वी पर स्थित धनुष के अग्रभाग को खा जाने के लिये दीमक का सृजन किया। उन्होंने यह सोचा–‘दीमक के द्वारा धनुष का अग्रभाग खा लिये जाने पर धनुष नीचा हो जायगा।    तब वे देवाधिदेव विष्णु निद्रामुक्त हो जायँगे। ऐसा होने पर निस्सन्देह देवताओं का सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायगा।’ अतः सनातन ब्रह्माजी ने दीमक को इस कार्य के लिये आदेश दिया।
          दीमक ने ब्रह्माजी से कहा–‘देवाधिदेव जगद्गुरु लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु का निद्रा भंग मैं कैसे करूँ ? क्योंकि नींद में बाधा डालना, कथा में विघ्न पैदा करना, पति-पत्नी के बीच भेद उत्पन्न करना एवं माँ-पुत्र के बीच वैरभाव पैदा करने के लिये षड्यन्त्र करना ब्रह्महत्या के समान कहा गया है। अतः मैं देवाधिदेव भगवान् विष्णु का सुख क्यों नष्ट करूँ ? हे देव ! उस धनुष का अग्रभाग खाने से मेरा क्या लाभ है, जिसके लिये मैं ऐसा पाप करूँ ?
          स्वार्थ के वशीभूत होकर ही समस्त लोक पापकार्य में प्रवृत्त होता है इसलिये मैं भी इसमें कोई स्वार्थ सिद्धि होने पर ही इसका भक्षण करूँगा।’
          ब्रह्माजी बोले–‘सुनो, हम लोग यज्ञ में तुम्हारे भाग की व्यवस्था कर देंगे। इसलिये तुम अविलम्ब भगवान् विष्णु को जगाकर हम लोगों का कार्य सम्पन्न कर दो। होम-कार्य में आहुति प्रदान करते समय जो हव्य आस-पास गिरेगा, उसी को अपना भाग समझना; और अब तुम शीघ्रता पूर्वक हमारा कार्य करो।’
          ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने के अनन्तर दीमक ने धरातल पर स्थित धनुषाग्र को शीघ्र ही खा लिया, जिससे धनुष की डोरी मुक्त हो गयी।
          प्रत्यंचा के खुल जाने पर धनुष का वह ऊपरी कोना मुक्त हो गया। इस प्रकार एक भीषण ध्वनि पैदा हुई जिससे वहाँ सभी देवगण भयभीत हो गये, ब्रह्माण्ड क्षुब्ध हो उठा, पृथ्वी में कम्पन होने लगा, सभी समुद्र उद्विग्न हो गये, जलचर जन्तु व्याकुल हो उठे। 
          प्रचण्ड हवाएँ प्रवाहित होने लगीं, पर्वत प्रकम्पित हो उठे, किसी दारुण आपदा के सूचक उल्कापात आदि महान् उपद्रव होने लगे, सूर्य तिरोहित हो गये तथा सभी दिशाएँ अत्यन्त भयावह हो गयीं। यह सब देखकर देवता लोग चिन्तित होकर सोचने लगे कि इस दुर्दिन में अब क्या होगा ?
          वे देवतागण ऐसा सोच ही रहे थे कि किरीट-कुण्डल सहित देवाधिदेव भगवान् विष्णु का सिर कटकर कहीं चला गया। कुछ समय पश्चात् उस घोर अन्धकार के शान्त हो जाने पर ब्रह्मा और शंकर ने भगवान् विष्णु का मस्तक विहीन विलक्षण शरीर देखा।
          भगवान् विष्णु का सिरविहीन धड़ देखकर वे श्रेष्ठ देवता अत्यन्त विस्मित हुए और चिन्तासागर में निमग्न होकर शोकाकुल हो विलाप करने लगे।
          तब शिव सहित समस्त देवताओं को करुण क्रन्दन करते हुए देखकर वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा–‘हे महाभागो ! अब इस प्रकार क्रन्दन से क्या लाभ है ? इस समय तो विवेक का आश्रय लेकर कोई उपाय करना चाहिये।
          हे देवेन्द्र ! भाग्य एवं पुरुषार्थ–दोनों ही समान श्रेणी के हैं फिर भी उपाय करना ही चाहिये और वह दैवयोग से ही सफल होता है।
          इन्द्र बोले–‘अनर्थकारी पुरुषार्थ को धिक्कार है, मैं तो दैव को श्रेष्ठतर मानता हूँ; क्योंकि हम देवताओं के देखते-देखते विष्णु का सिर कट गया।’
          ब्रह्माजी बोले–‘काल द्वारा जो भी शुभाशुभ कर्मों का फल निर्धारित है, उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है; भाग्य का अतिक्रमण कौन कर सकता है ?
          प्रत्येक प्राणी काल-क्रम के अनुसार सुख-दुःख भोगता ही है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। जिस प्रकार पूर्वकाल में काल की प्रेरणा से शंकरजी ने मेरा मस्तक काट दिया था, उसी प्रकार शाप के कारण शिवजी का लिंग कटकर गिर गया था और उसी प्रकार आज विष्णु का सिर कटकर लवण सागर में जा गिरा है।
          दैवयोग से ही इन्द्र को भी सहस्र भगों की प्राप्ति हुई। उन्हें दुःख भोगना पड़ा। वे स्वर्ग से च्युत हो गये और मानसरोवर के कमल में रहने लगे।    इस संसार में जब इन महाभाग देवताओं को भी दुःख का भोग करने के लिये विवश होना पड़ा तो फिर दुःख भोगने से भला कौन वंचित रह सकता है ?
          अतएव आप लोग शोक का परित्याग कर दें और उन महामाया, विद्यारूपा, सनातनी, ब्रह्मविद्या तथा जगत्‌ को धारण करने वाली देवी का ध्यान कीजिये, जिनके द्वारा यह चराचर सम्पूर्ण त्रिलोक व्याप्त है। वे निर्गुणा परा प्रकृति हम लोगों का समस्त कार्य सिद्ध कर देंगी।’
          देवताओंसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने कार्य की सिद्धि की कामना से अपने सम्मुख सशरीर विद्यमान वेदों को आदेश दिया–‘आपलोग समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाली, पराम्बा, ब्रह्मविद्या, सनातनी तथा निगूढ़ अंगों वाली महामाया का स्तवन कीजिये।’
          उनका यह वचन सुनकर समस्त सुन्दर अंगों वाले वेद जगत् की आधार-स्वरूपा तथा ज्ञानगम्या उन महामाया की स्तुति करने लगे।
          सब प्रकार सामगान-निपुण साङ्गवेदों द्वारा स्तुति किये जाने से गुणातीता, महेश्वरी, परात्परा महामाया भगवती प्रसन्न हो गयीं।
          उसी समय देवताओं को सुख प्रदान करने वाले शब्दों युक्त और भक्तजनों को आनन्दित करने वाली आकाश स्थित अशरीरिणी शुभ वाणी ने उनसे कहा–‘हे देवताओ ! आप लोग किसी प्रकार की चिन्ता न करें और स्वस्थचित्त रहें। इन वेदों के भावपूर्ण स्तवन से मैं परम प्रसन्न हो गयी हूँ, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। 
          हे देवो! अब आप विष्णु के शिरोच्छेद का कारण सुनिये; क्योंकि इस लोक में बिना कारण कोई कार्य कैसे हो सकता है ? एक बार अपने समीप बैठी हुई अपनी प्रियतमा सागरपुत्री लक्ष्मी का चित्ताकर्षक मुख देखकर भगवान् विष्णु हँस पड़े।
          देवी लक्ष्मी ने सोचा–‘भगवान् विष्णु मुझे देखकर क्यों हँस पड़े ? मेरे मुख में विष्णुजी द्वारा दोष देखे जाने का आखिर क्या कारण हो सकता है ? और फिर बिना किसी कारण उनका हँसना सम्भव नहीं हो सकता। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने किसी अन्य सुन्दर स्त्री को मेरी सौत बना लिया है।’
          इसी विचार-मन्थन के परिणाम स्वरूप लक्ष्मीजी कोपाविष्ट हो गयीं और तब उनके शरीर में तमोगुण सम्पन्न तामसी शक्ति व्याप्त हो गयी। (किसी दैवयोग के प्रभाव से देवताओं के कार्य-साधन के उद्देश्य से ही उनके शरीर में अत्यन्त उग्र तामसी शक्ति प्रविष्ट हुई।)
          तब लक्ष्मीजी के शरीर में तामसी शक्ति का समावेश हो जाने के कारण वे अत्यन्त क्रोधित हो उठीं और उन्होंने मन्द स्वर में यह कहा–‘तुम्हारा यह सिर कटकर गिर जाय।’
          स्त्री स्वभाव के कारण, भावीवश तथा संयोग से बिना सोचे-समझे ही लक्ष्मीजी ने अपने ही सुख को विनष्ट करने वाला शाप दे दिया। सौत के व्यवहारादि से उत्पन्न होने वाला दुःख वैधव्य से भी बढ़कर होता है। मन में ऐसा सोचकर तथा शरीर पर तामसी शक्ति का प्रभाव रहने के कारण उन्होंने ऐसा कह दिया था। मिथ्याचरण, साहस, माया, मूर्खता, अतिलोभ, अपवित्रता तथा दयाहीनता–ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं।
          अब मैं उन वासुदेव को पूर्व की भाँति सिरयुक्त कर देती हूँ। इनका सिर पूर्वशाप के कारण लवण सागर में डूब गया है।
          हे श्रेष्ठ देवताओ ! इस घटना के होने में एक अन्य भी कारण है। आप लोगों का महान् कार्य अवश्य सिद्ध होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। 
          प्राचीन काल में महाबाहु एवं अति प्रसिद्ध हयग्रीव नाम वाला एक दानव था, जो सरस्वती नदी के तटपर बहुत कठोर तपस्या करने लगा। वह दैत्य आहार का त्यागकर समस्त इन्द्रियों को वश में करके तथा सभी प्रकार के भोगैश्वर्य से दूर रहते हुए मेरे माया बीजात्मक एकाक्षर मन्त्र (ह्रीं) का जप करता रहा।
          इस प्रकार समस्त आभूषणों से विभूषित मेरी तामसी शक्ति का सतत ध्यान करता हुआ वह एक हजार वर्षों तक कठोर तप करता रहा। उस समय उस दैत्य ने जिस रूप में मेरा ध्यान किया था, उसी तामस रूप में उसे दर्शन देने हेतु उसके समक्ष मैं प्रकट हुई।
          उस समय सिंह पर आरूढ़ हुई मैंने दयापूर्वक उससे कहा–‘हे महाभाग ! तुम वरदान माँगो; हे सुव्रत ! मैं तुम्हें यथेच्छ वरदान दूँगी।’
          वह दानव देवी का यह वचन सुनकर प्रेमविह्वल हो उठा और उसने तत्काल प्रणाम और प्रदक्षिणा की। मेरा रूप देखते ही प्रेमभावना के कारण प्रफुल्लित नेत्रों वाला तथा हर्षातिरेक के कारण अश्रुपूरित नयनों वाला वह दानव मेरी स्तुति करने लगा।
          उसकी स्तुति से सन्तुष्ट हो देवी बोलीं–‘तुम्हारा क्या अभीष्ट है ? जो भी तुम्हारा अभिलषित वर हो, माँग लो। मैं उसे कुछ अवश्य पूर्ण करूँगी; क्योंकि मैं तुम्हारी अनन्य भक्ति तथा अद्भुत तपस्या से अतिशय प्रसन्न हूँ।
          हयग्रीव बोला–‘हे माता! आप मुझे वैसा वरदान दें, जिससे मेरी मृत्यु कभी न हो और देव दानवों द्वारा अपराजेय रहता हुआ मैं सदा के लिये अमर योगी हो जाऊँ।’
          देवी बोलीं–‘जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म भी निश्चित है। लोक में स्थापित इस प्रकार की मर्यादा का उल्लंघन कैसे सम्भव है ?
          अतएव हे दानवश्रेष्ठ ! मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अपने मन में सम्यक् विचार करके तुम अन्य यथेच्छ वर माँग लो।’
          हयग्रीव बोला–‘हे जगदम्बे ! मेरी मृत्यु हयग्रीव से ही हो, किसी अन्य से नहीं। मेरी इसी मनोवांछित कामना को आप पूर्ण करें।’
          देवी बोलीं–‘हे महाभाग ! अपने घर जाकर अब तुम सुख पूर्वक राज्य करो। हयग्रीव के अतिरिक्त अन्य किसी से भी तुम्हारी कदापि मृत्यु नहीं होगी।’
          उस दैत्यको यह वरदान देकर मैं अन्तर्धान हो गयी और वह भी परम प्रसन्न होकर अपने घर लौट गया। वह दुष्टात्मा इस समय मुनिजनों तथा वेदों को हर प्रकार से पीड़ित कर रहा है और तीनों लोकों में कोई भी ऐसा नहीं है, जो उसका संहार कर सके।
          अतः त्वष्टा इस अश्व का मनोहर सिर अलग करके उसे इन सिर विहीन विष्णु के धड़ पर संयोजित कर देंगे।  तत्पश्चात् देवताओं के कल्याणार्थ भगवान् हयग्रीव उस पापात्मा, अत्यन्त क्रूर तथा दानवी स्वभाव वाले महा असुर हयग्रीव का संहार करेंगे।’
          देवताओं से इस प्रकार कहकर भगवती शान्त हो गयीं और इसके बाद देवगण परम सन्तुष्ट होकर देवशिल्पी विश्वकर्मा से बोले–‘आप विष्णु के धड़ पर घोड़े का सिर जोड़कर देवताओं का कार्य कीजिये। वे भगवान् हयग्रीव ही दानवश्रेष्ठ दैत्य का वध करेंगे।’
          देवताओं का यह वचन सुनकर विश्वकर्मा ने अतिशीघ्रतापूर्वक अपने खड्ग से देवताओं के सामने ही घोड़े का सिर काटा। तत्पश्चात् उन्होंने घोड़े का वह सिर अविलम्ब विष्णु भगवान् के शरीर में संयोजित कर दिया और इस प्रकार महामाया भगवती की कृपा से वे भगवान् विष्णु हयग्रीव हो गये।
          कुछ समय बाद उन भगवान् हयग्रीव ने अहंकार के मद में चूर उस देवशत्रु दानव का युद्धभूमि में अपने तेज से वध कर दिया।
          इस संसार में जो प्राणी इस पवित्र कथा का श्रवण करते हैं, वे समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं; इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है।
          महामाया भगवती का चरित्र अति पावन है तथा पापों का नाश कर देता है। इस चरित्र का पाठ तथा श्रवण करने वाले प्राणियों को सभी प्रकार की सम्पदाएँ अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं।

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                           "जय जय श्री राधे"

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