पापांकुशा साधना..........................
पापांकुशा साधना, द्वारा व्यक्ति अपने जीवन में व्याप्त सभी प्रकार के
दोषों को - चाहे वह दरिद्रता हो, अकाल मृत्यु हो, बीमारी हो या चाहे और कुछ
हो, उसे पूर्णतः समाप्त कर सकता है और अब तक के संचित पाप कर्मों को
पूर्णतः नष्ट करता हुआ भविष्य के लिए भी उनके पाश से मुक्त हो जाता है, उन
पर अंकुश लगा पाता है |
इस साधना को संपन्न करने से व्यक्ति के जीवन में यदि ऊपर
बताई
गई स्थितियां होती है, तो वे स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं| वह फिर
दिनों-दिन उन्नति की ओर अग्रसर होने लग जाता है, इच्छित क्षेत्र में सफलता
प्राप्त करता है और फिर कभी भी, किसी भी प्रकार की बाधा का सामना उसे अपने
जीवन में नहीं करना पड़ता|
यह साधना अत्याधिक उच्चकोटि की है और
बहुत ही तीक्ष्ण है| चूंकि यह तंत्र साधना है, अतः इसका प्रभाव शीघ्र देखने
को मिलता है| यह साधना स्वयं ब्रह्म ह्त्या के दोष से मुक्त होने के लिए
एवं जनमानस में आदर्श स्थापित करने के लिए कालभैरव ने भी संपन्न की थी ...
इसी से साधना की दिव्यता और तेजस्विता का अनुमान हो जाता है ....
यह साधना तीन दिवसीय है, इसे पापांकुशा एकादशी से या किसी भी एकादशी से
प्रारम्भ करना चाहिए| इसके लिए 'समस्त पाप-दोष निवारण यंत्र' तथा 'हकीक
माला' की आवश्यकता होती है|
सर्वप्रथ साधक को ब्रह्म मुहूर्त में
उठ कर स्नान आदि से निवृत्त हो कर, सफेद धोती धारण कर, पूर्व दिशा की ओर
मूंह कर बैठना चाहिए और अपने सामने नए श्वेत वस्त्र से ढके बाजोट पर 'समस्त
पाप-दोष निवारण यंत्र' स्थापित कर उसका पंचोपचार पूजन संपन्न करना चाहिए|
'मैं अपने सभी पाप-दोष समर्पित करता हूं, कृपया मुझे मुक्ति दें और जीवन
में सुख, लाभ, संतुष्टि प्रसन्नता आदि प्रदान करें' - ऐसा कहने के साथ यदि
अन्य कोई इच्छा विशेष हो, तो उसका भी उच्चारण कर देना चाहिए| फिर 'हकीक' से
निम्न मंत्र का २१ माला मंत्र जप करना चाहिए --
|| ॐ क्लीं ऐं पापानि शमय नाशय ॐ फट ||
यह मंत्र अत्याधिक चैत्यन्य है और साधना काल में ही साधक को अपने शरीर का
ताप बदला मालूम होगा| परन्तु भयभीत न हों, क्योंकि यह तो शरीर में उत्पन्न
दिव्याग्नी है, जिसके द्वारा पाप राशि भस्मीभूत हो रही है| साधना समाप्ति
के पश्चात साधक को ऐसा प्रतीत होगा, कि उसका सारा शरीर किसी बहुत बोझ से
मुक्त हो गया है, स्वयं को वह पूर्ण प्रसन्न एवं आनन्दित महसूस करेगा और
उसका शरीर फूल की भांति हल्का महसूस होगा |
जो साधक अध्यात्म के
पथ पर आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें तो यह साधना अवश्य ही संपन्न करने
चाहिए, क्योंकि जब तक पाप कर्मों का क्षय नहीं हो जाता, व्यक्ति की
कुण्डलिनी शक्ति जागृत हो ही नहीं सकती और न ही वह समाधि अवस्था को प्राप्त
कर सकता है|
साधना के उपरांत यंत्र तथा माला को किसी जलाशय में
अर्पित कर देना चाहिए| ऐसा करने से साधना फलीभूत होती है और व्यक्ति समस्त
दोषों से मुक्त होता हुआ पूर्ण सफलता अर्जित कर, भौतिक एवं अध्यात्मिक,
दोनों मार्गों में श्रेष्टता प्राप्त करता है| इसलिए साधक को यह साधना बार
बार संपन्न करनी है, जब तक कि उसे अपने कार्यों में इच्छित सफलता मिल न
पाये|