यह ब्लॉग खोजें

गुरुवार, 14 मार्च 2013

क्यों करते हैं नमस्कार ..? नमस्कार से लाभ :-

क्यों करते हैं नमस्कार ..? नमस्कार से लाभ :- जय सिया राम
भारतीय धर्म में ऐसी मान्यता है कि जब हम किसी को प्रणाम करते हैं, तो हम अवश्य ही आशीर्वाद प्राप्त करते हैं और पुण्य अर्जित करते हैं।

मनु ने तो प्रणाम करने के कई लाभ गिनाए हैं।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपि सेविन:, तस्य चत्वारि वर्धन्ते, आयु: विद्या यशो बलं।

अर्थात-प्रणाम करने वाले और बुजुर्गों की सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल चार चीजें अपने आप बढ़ जाती हैं। यह समाज की विडंबना ही है कि बहुत से लोग प्रणाम करने की बात तो दूर, प्रणाम का जवाब देने से भी कतराते हैं। इस बात को एक शेर में बहुत ही अच्छे ढंग से कहा गया है।

इस सन्दर्भ में गोस्वामी तुलसीदास ने तो गजब का आदर्श प्रस्तुत किया है।
सीय राममय सब जग जानी, करउं प्रनाम जोरि जुग पानी।
बन्दउं सन्त असज्जन चरना, दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।

मतलब यह कि वह सभी को प्रणाम करने का सन्देश देते हैं। उनके अनुसार सम्पूर्ण संसार में भगवान व्याप्त है, इसलिए सभी को प्रणाम किया जाना चाहिए। उन्होंने तो सन्त और असज्जन सभी की वन्दना की है।
यही नहीं, श्रीरामचरित मानस में तो दुश्मन को भी प्रणाम करने का उदाहरण है। हनुमान जी को सुरसा निगल जाना चाहती है, फिर भी हनुमान जी ने उसे प्रणाम किया। चौपाई है-
बदन पैठि पुनि बाहर आवा, मांगी बिदा ताहि सिर नावा। एक बात और, किसी को प्रणाम न करने से अनजाने में ही सही, उसका अपमान हो जाता है। शकुन्तला ने दुर्बासा ऋषि को प्रणाम नहीं किया, तो उन्होंने क्रोधित हो कर शकुन्तला को श्राप दे डाला।
दरअसल, प्रणाम कोई साधारण आचार या व्यवहार नहीं है। इसमें बहुत बड़ा विज्ञान छिपा है। साधारण तौर पर उसका अर्थ है, हृदय से प्रस्तुत हूं।
प्रणाम करने में प्राय: भगवान के नाम का उच्चारण किया जाता है, जिसका अलग ही पुण्य होता है। बहुत से मामलों में तो प्रणाम भी बाहरी तौर पर किया जाता है और हृदय को उससे दूर ही रखा जाता है।
शायद इसी सन्दर्भ में कहावत प्रचलित हुई-मुख पर राम बगल में छूरी। इस तरह का प्रणाम करने से अच्छा है न ही किया जाए। प्रणाम एक ऐसी व्यवस्था है, जो समाज को प्रेम के सूत्र में बांध कर रखती है। इसके महत्व को समझा जाए, तो समाज से कटुता अवश्य दूर होगी। ऐसी मान्यता है कि यदि आप किसी साधक को प्रणाम करते हैं, तो उसकी साधना का फल आपको बिना कोई साधना किए मिल जाता है। प्रणाम करने से अहंकार भी तिरोहित होता है। अहंकार के तिरोहित होने से परमार्थ की दिशा में कदम आगे बढ़ता है। प्रणाम को निष्काम कर्म के रूप में लिया जाना चाहिए। वेदों में ईश्वर को प्रणाम करने की व्यवस्था है, जिसे प्रार्थना कहा गया है। यह कोई याचना नहीं, निष्काम कर्म ही है, जो परमार्थ के लिए प्रमुख साधन है। श्रीरामचरित मानस में कहा गया है, हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होइ मैं जाना। ईश्वर कण-कण में व्याप्त है, जो प्रेम के वशीभूत हो कर प्रकट हो जाता है। इसलिए चेतन ही नहीं, जड़ वस्तुओं को भी प्रणाम किया जाए, तो वह ईश्वर को ही प्रणाम है, क्योंकि कोई ऐसी जगह नहीं है, जहां ईश्वर नहीं है।
एक बात और, प्रणाम सद्भाव से ही किया जाना चाहिए, भले ही वह मानसिक क्यों न हो। शास्त्रों में इसके भी उदाहरण मिलते हैं। श्रीरामचरित मानस का सन्दर्भ लें, तो स्वयंबर के मौके पर श्रीराम ने अपने गुरु को मन में ही प्रणाम किया था।
गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा, अति लाघव उठाइ धनु लीन्हा।
अर्थात-उन्होंने मन-ही-मन गुरु को प्रणाम किया और बड़ी फुर्ती से धनुश उठा लिया। इस प्रकार प्रणाम के रहस्य को समझ कर उसे जीवन में लागू किया जाए, तो अनेक रहस्यपूर्ण अनुभव होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं।

मूली के आयुर्वेदिक प्रयोग

मूली के आयुर्वेदिक प्रयोग
मूली स्वयं हजम नहीं होती, लेकिन अन्य भोज्य पदार्थों को पचा देती है। भोजन के बाद यदि गुड़ की 10 ग्राम मात्रा का सेवन किया जाए तो मूली हजम हो जाती है।

- मूली का रस रुचिकर एवं हृदय को प्रफुल्लित करने वाला होता है। यह हलका एवं कंठशोधक भी होता है।

- घृत में भुनी मूली वात-पित्त तथा कफनाशक है। सूखी मूली भी निर्दोष साबित है। गुड़, तेल या घृत में भुनी मूली के फूल कफ वायुनाशक हैं तथा फल पित्तनाशक।
- छोटी पतली और चरपरी मूली वात ,पित्त , कफ नाशक है जब की मोटी और पकी मूलियाँ त्रिदोष कारक है।
- मूली में प्रोटीन , केल्शियम , गंधक ,आयोडीन तथा लौह तत्व भरपूर मात्रा में होता है।इसमें सोडियम , फोस्फोरस ,क्लोरिन तथा मैग्नेशियम भी होता है।इसमें विटामिन ए ,बी और सी भी होता है।
- मूली के साथ उसके पत्तों का भी सेवन किया जाना चाहिए।ये दोनों ही कच्चे या पका कर बवासीर में लाभकारी है।
- मूली सुबह नाश्ते में खाना चाहिए। इसे सुबह सुबह खाने से किडनी ठीक हो जाती है।
- पीलिया में लाभ होता है।
- शरीर की खुश्की दूर होती है।
-खट्टी डकारों में एक कप मूली के रस में मिश्री मिलाकर पियें।
- मधुमेह में लाभ होता है।
- लड़कियों का मासिक धर्म नियमित होता है।
- मूली के रस में सामान मात्रा में निम्बू का रस मिलाकर लगाने से चेहरे की रंगत निखरती है।
- त्वचा रोग में मूली के पत्तें और बीजों को एक साथ पीसकर लेप करें।
- मूली हमारे दांतों को मजबूत करती है तथा हडि्डयों को शक्ति प्रदान करती है।
-मूली के रस में थोड़ा नमक और नीबू का रस मिलाकर नियमित रू प में पीने से मोटापा कम होता है और शरीर सुडौल बन जाता है।
- पानी में मूली का रस मिलाकर सिर धोने से जुएं नष्ट हो जाती हैं।
- मूली पत्ते चबाने से हिचकी बंद हो जाती है।
- मूली के पत्ते जिमिकंद के कुछ टुकड़े एक सप्ताह तक कांजी में डाले रखने तथा उसके बाद उसके सेवन से बढ़ी हुई तिल्ली ठीक होती है और बवासीर का रोग नष्ट हो जाता है।
- मूली के पत्तों के चार तोला रस में तीन माशा अजमोद का चूर्ण और चार रत्ती जोखार मिलाकर दिन में दो बार एक सप्ताह तक लेने पर गुर्दे की पथरी गलने की संभावना होती है।
- एक कप मूली के रस में एक चम्मच अदरक का और एक चम्मच नीबू का रस मिलाकर नियमित सेवन से भूख बढ़ती है
- मोटे लोगों के लिए मूली के पत्तों का सेवन काफी फायदेमंद है, क्योंकि इनमें पानी की मात्रा अधिक रहती है।
- सौ ग्राम मूली के कच्चे पत्तों में नीबू निचोड़कर चबाकर निगल लें। इससे पेट साफ होगा और शरीर में स्फूर्ति आएगी।
- अजीर्ण रोग होने पर मूली के पत्तों की कोंपलों को बारीक काटकर, नीबू का रस मिलाकर व चुटकी भर सेंधा नमक डालकर खाने से लाभ होता है।
- चूंकि मूली के पत्तों में फास्फोरस होता है। भोजन के बाद इनका सेवन करने से बालों का असमय गिरना बंद हो जाता है।
मूली के पत्तों को धोकर मिक्सी में पीस लें। फिर इन्हें छानकर इनका रस निकालें व मिश्री मिला दें। इस मिश्रण को रोजाना पीने से पीलिया रोग में आराम मिलता है।
- मूली के पत्तों में लौह तत्व भी काफी मात्रा में रहता है इसलिए इनका सेवन खून को साफ करता है और इससे शरीर की त्वचा भी मुलायम होती है।
- हडि्डयों के लिए मूली के पत्तों का रस पीना फायदेमंद है।
- आधी मूली को पीसकर उसका रस निकाल लें। इसे दो--दो घंटे बाद पिएं। यह कमजोर दांतों के लिए लाभदायक है।
- मूली के पत्तों का शाक पाचन क्रिया में वृद्धि करता है।
- मूली के नरम पत्तों पर सेंधा नमक लगाकर (प्रात:) खाएं, इससे मुंह की दुर्गंध दूर होगी।
- हाथ-पैरों के नाखूनों का रंग सफेद हो जाए तो मूली के पत्तों का रस पीना हितकारी है।
- मूली के पत्ते खाने से दांतों का असमय हिलना बंद होता है।
- पेट में गैस बनती हो तो मूली के पत्तों के रस में नीबू का रस मिलाकर पीने से तुरंत लाभ होता है।

- मूली के पत्तों को सुखा कर इसे जला लें ..अब बची राख को पानी में मिलाकर आग पर तबतक उबालें जबतक सूखकर क्षार का रूप न ले लें ..अब इस क्षार को ५०० मिलीग्राम क़ी मात्रा में नियमित सेवन श्वांस के रोगियों के लिए अच्छी औषधि है I

-मूली क़ी पत्तियों का रस को तिल के तेल में सिद्धित कर ...२-३ बूँद कान में टपकाने से पीड़ा में आराम मिलता है I

-तिल के साथ आधी मात्रा में मूली के बीजों का सेवन किसी भी सूजन में प्रभावी हैI

भोजन की सही विधि और कुछ उपयोगी बातें-

भोजन की सही विधि और कुछ उपयोगी बातें-


अधिकांश लोग भोजन की सही विधि नहीं जानते। गलत विधि से गलत मात्रा में अर्थात् आवश्यकता से अधिक या बहुत कम भोजन करने से या अहितकर भोजन करने से जठराग्नि मंद पड़ जाती है, जिससे कब्ज रहने लगता है। तब आँतों में रूका हुआ मल सड़कर दूषित रस बनाने लगता है। यह दूषित रस ही सारे शरीर में फैलकर विविध प्रकार के रोग उत्पन्न करता है। उपनिषदों में भी कहा गया हैः आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः। शुद्ध आहार से मन शुद्ध रहता है। साधारणतः सभी व्यक्तियों के लिए आहार के कुछ नियमों को जानना अत्यंत आवश्यक है। जैसे-

आलस तथा बेचैनी न रहें, मल, मूत्र तथा वायु का निकास य़ोग्य ढंग से होता रहे, शरीर में उत्साह उत्पन्न हो एवं हलकापन महसूस हो, भोजन के प्रति रूचि हो तब समझना चाहिए की भोजन पच गया है। बिना भूख के खाना रोगों को आमंत्रित करता है। कोई कितना भी आग्रह करे या आतिथ्यवश खिलाना चाहे पर आप सावधान रहें।

सही भूख को पहचानने वाले मानव बहुत कम हैं। इससे भूख न लगी हो फिर भी भोजन करने से रोगों की संख्या बढ़ती जाती है। एक बार किया हुआ भोजन जब तक पूरी तरह पच न जाय एवं खुलकर भूख न लगे तब तक दुबारा भोजन नहीं करना चाहिए। अतः एक बार आहार ग्रहण करने के बाद दूसरी बार आहार ग्रहण करने के बीच कम-से-कम छः घंटों का अंतर अवश्य रखना चाहिए क्योंकि इस छः घंटों की अवधि में आहार की पाचन-क्रिया सम्पन्न होती है। यदि दूसरा आहार इसी बीच ग्रहण करें तो पूर्वकृत आहार का कच्चा रस(आम) इसके साथ मिलकर दोष उत्पन्न कर देगा। दोनों समय के भोजनों के बीच में बार-बार चाय पीने, नाश्ता, तामस पदार्थों का सेवन आदि करने से पाचनशक्ति कमजोर हो जाती है, ऐसा व्यवहार में मालूम पड़ता है।

रात्रि में आहार के पाचन के समय अधिक लगता है इसीलिए रात्रि के समय प्रथम पहर में ही भोजन कर लेना चाहिए। शीत ऋतु में रातें लम्बी होने के कारण सुबह जल्दी भोजन कर लेना चाहिए और गर्मियों में दिन लम्बे होने के कारण सायंकाल का भोजन जल्दी कर लेना उचित है।

अपनी प्रकृति के अनुसार उचित मात्रा में भोजन करना चाहिए। आहार की मात्रा व्यक्ति की पाचकाग्नि और शारीरिक बल के अनुसार निर्धारित होती है। स्वभाव से हलके पदार्थ जैसे कि चचावल, मूँग, दूध अधिक मात्रा में ग्रहण करने सम्भव हैं परन्तु उड़द, चना तथा पिट्ठी से बने पदार्थ स्वभावतः भारी होते हैं, जिन्हें कम मात्रा में लेना ही उपयुक्त रहता है।

भोजन के पहले अदरक और सेंधा नमक का सेवन सदा हितकारी होता है। यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, भोजन के प्रति रूचि पैदा करता है तथा जीभ एवं कण्ठ की शुद्धि भी करता है।

भोजन गरम और स्निग्ध होना चाहिए। गरम भोजन स्वादिष्ट लगता है, पाचकाग्नि को तेज करता है और शीघ्र पच जाता है। ऐसा भोजन अतिरिक्त वायु और कफ को निकाल देता है। ठंडा या सूखा भोजन देर से पचता है। अत्यंत गरम अन्न बल का ह्रास करता है। स्निग्ध भोजन शरीर को मजबूत बनाता है, उसका बल बढ़ाता है और वर्ण में भी निखार लाता है।

चलते हुए, बोलते हुए अथवा हँसते हुए भोजन नहीं करना चाहिए।

दूध के झाग बहुत लाभदायक होते हैं। इसलिए दूध खूब उलट-पुलटकर, बिलोकर, झाग पैदा करके ही पियें। झागों का स्वाद लेकर चूसें। दूध में जितने ज्यादा झाग होंगे, उतना ही वह लाभदायक होगा।

चाय या कॉफी प्रातः खाली पेट कभी न पियें, दुश्मन को भी न पिलायें।

एक सप्ताह से अधिक पुराने आटे का उपयोग स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं है।

भोजन कम से कम 20-25 मिनट तक खूब चबा-चबाकर एवं उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके करें। अच्छी तरह चबाये बिना जल्दी-जल्दी भोजन करने वाले चिड़चिड़े व क्रोधी स्वभाव के हो जाते हैं। भोजन अत्यन्त धीमी गति से भी नहीं करना चाहिए।

भोजन सात्त्विक हो और पकने के बाद 3-4 घंटे के अंदर ही कर लेना चाहिए।

स्वादिष्ट अन्न मन को प्रसन्न करता है, बल व उत्साह बढ़ाता है तथा आयुष्य की वृद्धि करता है, जबकि स्वादहीन अन्न इसके विपरीत असर करता है।

सुबह-सुबह भरपेट भोजन न करके हलका-फुलका नाश्ता ही करें।

भोजन करते समय भोजन पर माता, पिता, मित्र, वैद्य, रसोइये, हंस, मोर, सारस या चकोर पक्षी की दृष्टि पड़ना उत्तम माना जाता है। किंतु भूखे, पापी, पाखंडी या रोगी मनुष्य, मुर्गे और कुत्ते की नज़र पड़ना अच्छा नहीं माना जाता।

भोजन करते समय चित्त को एकाग्र रखकर सबसे पहले मधुर, बीच में खट्टे और नमकीन तथा अंत में तीखे, कड़वे और कसैले पदार्थ खाने चाहिए। अनार आदि फल तथा गन्ना भी पहले लेना चाहिए। भोजन के बाद आटे के भारी पदार्थ, नये चावल या चिवड़ा नहीं खाना चाहिए।

पहले घी के साथ कठिन पदार्थ, फिर कोमल व्यंजन और अंत में प्रवाही पदार्थ खाने चाहिए।

माप से अधिक खाने से पेट फूलता है और पेट में से आवाज आती है। आलस आता है, शरीर भारी होता है। माप से कम अन्न खाने से शरीर दुबला होता है और शक्ति का क्षय होता है।

बिना समय के भोजन करने से शक्ति का क्षय होता है, शरीर अशक्त बनता है। सिरदर्द और अजीर्ण के भिन्न-भिन्न रोग होते हैं। समय बीत जाने पर भोजन करने से वायु से अग्नि कमजोर हो जाती है। जिससे खाया हुआ अन्न शायद ही पचता है और दुबारा भोजन करने की इच्छा नहीं होती।

जितनी भूख हो उससे आधा भाग अन्न से, पाव भाग जल से भरना चाहिए और पाव भाग वायु के आने जाने के लिए खाली रखना चाहिए। भोजन से पूर्व पानी पीने से पाचनशक्ति कमजोर होती है, शरीर दुर्बल होता है। भोजन के बाद तुरंत पानी पीने से आलस्य बढ़ता है और भोजन नहीं पचता। बीच में थोड़ा-थोड़ा पानी पीना हितकर है। भोजन के बाद छाछ पीना आरोग्यदायी है। इससे मनुष्य कभी बलहीन और रोगी नहीं होता।

प्यासे व्यक्ति को भोजन नहीं करना चाहिए। प्यासा व्यक्ति अगर भोजन करता है तो उसे आँतों के भिन्न-भिन्न रोग होते हैं। भूखे व्यक्ति को पानी नहीं पीना चाहिए। अन्नसेवन से ही भूख को शांत करना चाहिए।

भोजन के बाद गीले हाथों से आँखों का स्पर्श करना चाहिए। हथेली में पानी भरकर बारी-बारी से दोनों आँखों को उसमें डुबोने से आँखों की शक्ति बढ़ती है।

भोजन के बाद पेशाब करने से आयुष्य की वृद्धि होती है। खाया हुआ पचाने के लिए भोजन के बाद पद्धतिपूर्वक वज्रासन करना तथा 10-15 मिनट बायीं करवट लेटना चाहिए(सोयें नहीं), क्योंकि जीवों की नाभि के ऊपर बायीं ओर अग्नितत्त्व रहता है।

भोजन के बाद बैठे रहने वाले के शरीर में आलस्य भर जाता है। बायीं करवट लेकर लेटने से शरीर पुष्ट होता है। सौ कदम चलने वाले की उम्र बढ़ती है तथा दौड़ने वाले की मृत्यु उसके पीछे ही दौड़ती है।

रात्रि को भोजन के तुरंत बाद शयन न करें, 2 घंटे के बाद ही शयन करें।

किसी भी प्रकार के रोग में मौन रहना लाभदायक है। इससे स्वास्थ्य के सुधार में मदद मिलती है। औषधि सेवन के साथ मौन का अवलम्बन हितकारी है।

कुछ उपयोगी बातें-

घी, दूध, मूँग, गेहूँ, लाल साठी चावल, आँवले, हरड़े, शुद्ध शहद, अनार, अंगूर, परवल – ये सभी के लिए हितकर हैं।

अजीर्ण एवं बुखार में उपवास हितकर है।

दही, पनीर, खटाई, अचार, कटहल, कुन्द, मावे की मिठाइयाँ – से सभी के लिए हानिकारक हैं।

अजीर्ण में भोजन एवं नये बुखार में दूध विषतुल्य है। उत्तर भारत में अदरक के साथ गुड़ खाना अच्छा है।

मालवा प्रदेश में सूरन(जमिकंद) को उबालकर काली मिर्च के साथ खाना लाभदायक है।

अत्यंत सूखे प्रदेश जैसे की कच्छ, सौराष्ट्र आदि में भोजन के बाद पतली छाछ पीना हितकर है।

मुंबई, गुजरात में अदरक, नींबू एवं सेंधा नमक का सेवन हितकर है।

दक्षिण गुजरात वाले पुनर्नवा(विषखपरा) की सब्जी का सेवन करें अथवा उसका रस पियें तो अच्छा है।

दही की लस्सी पूर्णतया हानिकारक है। दहीं एवं मावे की मिठाई खाने की आदतवाले पुनर्नवा का सेवन करें एवं नमक की जगह सेंधा नमक का उपयोग करें तो लाभप्रद हैं।

शराब पीने की आदवाले अंगूर एवं अनार खायें तो हितकर है।

आँव होने पर सोंठ का सेवन, लंघन (उपवास) अथवा पतली खिचड़ी और पतली छाछ का सेवन लाभप्रद है।

अत्यंत पतले दस्त में सोंठ एवं अनार का रस लाभदायक है।

आँख के रोगी के लिए घी, दूध, मूँग एवं अंगूर का आहार लाभकारी है।

व्यायाम तथा अति परिश्रम करने वाले के लिए घी और इलायची के साथ केला खाना अच्छा है।

सूजन के रोगी के लिए नमक, खटाई, दही, फल, गरिष्ठ आहार, मिठाई अहितकर है।

यकृत (लीवर) के रोगी के लिए दूध अमृत के समान है एवं नमक, खटाई, दही एवं गरिष्ठ आहार विष के समान हैं।

वात के रोगी के लिए गरम जल, अदरक का रस, लहसुन का सेवन हितकर है। लेकिन आलू, मूँग के सिवाय की दालें एवं वरिष्ठ आहार विषवत् हैं।

कफ के रोगी के लिए सोंठ एवं गुड़ हितकर हैं परंतु दही, फल, मिठाई विषवत् हैं।

पित्त के रोगी के लिए दूध, घी, मिश्री हितकर हैं परंतु मिर्च-मसालेवाले तथा तले हुए पदार्थ एवं खटाई विषवत् हैं।

अन्न, जल और हवा से हमारा शरीर जीवनशक्ति बनाता है। स्वादिष्ट अन्न व स्वादिष्ट व्यंजनों की अपेक्षा साधारण भोजन स्वास्थ्यप्रद होता है। खूब चबा-चबाकर खाने से यह अधिक पुष्टि देता है, व्यक्ति निरोगी व दीर्घजीवी होता है। वैज्ञानिक बताते हैं कि प्राकृतिक पानी में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के सिवाय जीवनशक्ति भी है। एक प्रयोग के अनुसार हाइड्रोजन व ऑक्सीजन से कृत्रिम पानी बनाया गया जिसमें खास स्वाद न था तथा मछली व जलीय प्राणी उसमें जीवित न रह सके।

बोतलों में रखे हुए पानी की जीवनशक्ति क्षीण हो जाती है। अगर उसे उपयोग में लाना हो तो 8-10 बार एक बर्तन से दूसरे बर्तन में उड़ेलना (फेटना) चाहिए। इससे उसमें स्वाद और जीवनशक्ति दोनों आ जाते हैं। बोतलों में या फ्रिज में रखा हुआ पानी स्वास्थ्य का शत्रु है। पानी जल्दी-जल्दी नहीं पीना चाहिए। चुसकी लेते हुए एक-एक घूँट करके पीना चाहिए जिससे पोषक तत्त्व मिलें।

वायु में भी जीवनशक्ति है। रोज सुबह-शाम खाली पेट, शुद्ध हवा में खड़े होकर या बैठकर लम्बे श्वास लेने चाहिए। श्वास को करीब आधा मिनट रोकें, फिर धीरे-धीरे छोड़ें। कुछ देर बाहर रोकें, फिर लें। इस प्रकार तीन प्राणायाम से शुरुआत करके धीरे-धीरे पंद्रह तक पहुँचे। इससे जीवनशक्ति बढ़ेगी, स्वास्थ्य-लाभ होगा, प्रसन्नता बढ़ेगी।

पूज्य बापू जी सार बात बताते हैं, विस्तार नहीं करते। 93 वर्ष तक स्वस्थ जीवन जीने वाले स्वयं उनके गुरुदेव तथा ऋषि-मुनियों के अनुभवसिद्ध ये प्रयोग अवश्य करने चाहिए।

स्वास्थ्य और शुद्धिः

उदय, अस्त, ग्रहण और मध्याह्न के समय सूर्य की ओर कभी न देखें, जल में भी उसकी परछाई न देखें।

दृष्टि की शुद्धि के लिए सूर्य का दर्शन करें।

उदय और अस्त होते चन्द्र की ओर न देखें।

संध्या के समय जप, ध्यान, प्राणायाम के सिवाय कुछ भी न करें।

साधारण शुद्धि के लिए जल से तीन आचमन करें।

अपवित्र अवस्था में और जूठे मुँह स्वाध्याय, जप न करें।

सूर्य, चन्द्र की ओर मुख करके कुल्ला, पेशाब आदि न करें।

मनुष्य जब तक मल-मूत्र के वेगों को रोक कर रखता है तब तक अशुद्ध रहता है।

सिर पर तेल लगाने के बाद हाथ धो लें।

रजस्वला स्त्री के सामने न देखें।

ध्यानयोगी ठंडे जल से स्नान न करे।

function disabled

Old Post from Sanwariya