क्यों जरूरी है पूर्वजों का श्राद्ध? जानिए पितृपक्ष से जुड़े ऐसे ही कई सवालों के जवाब
सनानत धर्म की परंपराओं में भादौ महीने की पूर्णिमा से आश्विन माह की अमावस्या तककुल 16 दिनों के श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों को याद कर उनके सुख और शांति के लिए श्राद्ध कर्म कर उनसे स्वयं के जीवन के कष्टों को दूर करने की भी कामना की जाती है। किंतु प्राचीन काल से लेकर आधुनिक दौर तक धर्म की समझ से दूर कई लोगों यह सवाल करते हैँ कि आखिर श्राद्ध कर्म करने से पितरों को कैसे संतुष्टि मिलती है?
यही नहीं, कई धर्मावलंबियों की भी यह जिज्ञासा होती है कि पितृपक्ष में ही क्यों पूर्वजों का श्राद्ध जरूरी है? धर्मशास्त्रों में पितृपक्ष और श्राद्ध से जुड़े ऐसे ही कई सवालों के जवाब मिलते हैं, जिनसे धर्म व ईश्वर में विश्वास रखने वाले कई लोग भी अनजान हैं।
सनातन धर्म की मान्यता है कि मानव शरीर पंच तत्वों - आग, पानी, पृथ्वी, वायु, आकाश, पांच कर्म इन्द्रियों हाथ-पैर आदि सहित 27 तत्वों से बना है। किंतु जब मृत्यु होती है तो शरीर पंचतत्व और कर्मेंन्द्रियों को छोड़ देता है। किंतु शेष 17 तत्वों से बना अदृश्य और सूक्ष्म शरीर इसी संसार में बना रहता है।
हिन्दू शास्त्रों की मान्यता है कि सांसारिक मोह और लालसाओं के कारण यह सूक्ष्म शरीर 1 साल तक मूल स्थान, घर और परिवार के आस-पास ही रहता है। किंतु शरीर न होने से उसे किसी भी सुख का आनंद नहीं मिलता और इच्छा पूर्ति न होने के कारण वह अतृप्त रहता है।
इसके बाद वह अपने कर्म के अनुसार अलग-अलग योनि को प्राप्त करता है। हर योनि में किए गए कर्म के अनुसार जनम-मरण का चक्र चलता रहता है।
यही कारण है कि मृत्यु के बाद वर्ष भर और उसके बाद भी मृत परिजन को तृप्त करने और जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्राद्ध के द्वारा भोजन के साथ अन्य सुख, रस सूक्ष्म रुप में मृत जीव आत्मा या अलग-अलग योनि में घूम रहे पूर्वजों को मिलते हैं और वह तृप्त हो जाते हैं। खासतौर पर पितृपक्ष काल में, जबकि यह माना जाता है कि पूर्वज इस विशेष काल में अपने परिजनों से मिलने जरूर आते हैं।
शास्त्रों में किसी भी व्यक्ति के लिए 5 धर्म-कर्म जरूरी बताए गए हैं। ये भूतयज्ञ, मनुष्य यज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ व ब्रह्मयज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। इनमें सारे जीवों के लिए अन्न-जल दान भूतयज्ञ, घर आए अतिथि की सेवा मनुष्य यज्ञ, स्वाध्याय व ज्ञान का प्रचार-प्रसार ब्रह्मयज्ञ और पितरों के लिए तर्पण व श्राद्ध करना पितृयज्ञ कहलाता है।
इनको महायज्ञ कहा गया है और इनसे किसी तरह का दोष नहीं लगता। किंतु पितृयज्ञ से ही पितृऋण से छुटकारा नहीं मिलता और ऐसे पितृदोष से मुक्ति के लिए श्राद्ध जरूरी बताया गया है।
हिन्दू धर्मग्रंथों में कई तरह के श्राद्ध अवसर विशेष करने का महत्व बताया गया है। इनमें खासतौर पर तिथि और पार्वण श्राद्ध का विशेष महत्व है।
तिथि श्राद्ध हर साल उस तिथि पर किया जाता है, जिस तिथि पर किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई हो। यह
वहीं, पार्वण श्राद्ध हर साल पितृपक्ष में किए जाते हैं। इसे महालया या श्राद्ध पक्ष भी पुकारा जाता है। हर साल भादौ महीने की पूर्णिमा और आश्विन माह के कृष्ण पक्ष के 15 दिन सहित 16 दिन श्राद्धपक्ष आता है
इसी पक्ष में तिथि के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को पितरों के लिए जल का तर्पण व श्राद्ध करना चाहिए। तिथि न मालूम होने या तिथि विशेष पर श्राद्ध चूकने पर इसी पक्ष में आने वाली सर्वपितृ अमावस्या या महालया पर पूर्वजों के लिए श्राद्ध, दान व तर्पण करना चाहिए।
स्कन्दपुराण में लिखा है कि मृत्यु तिथि पर श्राद्ध न करने वाले व्यक्ति को उसके पितृगण श्राप देकर पितृलोक चले जाते हैं। ऐसे व्यक्ति के परिवार को पितृदोष लगता है और वहां रोग, शोक, दरिद्रता, दु:ख व दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है।
ब्रह्म और ब्रह्मवैवर्तपुराण में क्रमश: लिखा है कि धन बचाने की लालसा से श्राद्ध न करने वाले का पितृगण रक्त पीते हैं, वहीं सक्षम होने पर श्राद्ध न करने वाला रोगी और वंशहीन हो जाता है।
इसी तरह विष्णु स्मृति के मुताबिक श्राद्ध न करने वाला नरक को प्राप्त होता है।
वायुपुराण के मुताबिक पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध, देवताओं की प्रसन्नता के लिए किए जाने वाले यज्ञ आदि धर्म-कर्मों से भी ज्यादा शुभ फल देते हैं। श्रद्धा से किए श्राद्ध से कई पीढिय़ों के पितरगण प्रसन्न होकर व्यक्ति को आयु, धन-धान्य, संतान और विद्या से संपन्न होने का आशीर्वाद देते हैं।
गरुड पुराण के मुताबिक इस पक्ष में श्राद्ध से पितरों को स्वर्ग मिलता है। यहीं नहीं जिनका श्राद्ध किया जाता है, उनको प्रेत योनि नहीं मिलती और वे पितर बन जाते हैं। ये पितर तृप्त संतान के मनचाहे काम पूरे कर धर्मराज के मंदिर में पहुंच बड़ा ही सुख-सम्मान पाते हैं।
गुरुड पुराण में यह भी बताया गया है कि श्राद्ध करना पवित्र कार्य हैं। क्योंकि मृत्यु होने पर धर्मराजपुर में जाने के चार रास्ते हैं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण। पितरों का श्राद्ध करने वाले को स्वयं धर्मराज की सभा में पश्चिम द्वार से जाते हैं और धर्मराज स्वयं खड़े होकर उनका स्वागत व सम्मान करते हैं।
यथासंभव श्राद्ध अपने घर पर ही किया जाना चाहिए। संभव न हो तो किसी भी तीर्थ या जलाशय के किनारे भी किया जा सकता है।
दक्षिणायन में चूंकि पितरों का प्रभाव ज्यादा होता है। इसलिए श्राद्धकर्म के लिए यथासंभाव दक्षिण की तरफ झुकी हुई जमीन का उपयोग करना चाहिए।
शास्त्रों के मुताबिक पितृगणों को ऐसी जगह भाती है, जो पवित्र हो और जहां लोगों का ज्यादा आना-जाना होता है, नदी का किनारा भी पितरों का पसंद है। ऐसी जगह पर गोबर से जमीन को लीपकर श्राद्ध करना चाहिए।
काले तिल और कुश तर्पण व श्राद्धकर्म में जरूरी हैं। क्योंकि माना जाता है कि यह भगवान विष्णु के शरीर से निकले हैं और पितरों को भी भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है। इनके बिना पितरों को जल भी नहीं मिलता।
श्राद्ध का पहला अधिकार पुत्र का होता है। पुत्र न होने पर पुत्री का पुत्र यानी नाती श्राद्ध करे।
जिनके कई पुत्र हो तो वहां सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करे। पुत्र के उपस्थित न होने पर पोता और पोता भी न होने पर परपोता श्राद्ध कर सकता है।
पुत्र व पोते की अनुपस्थिति में विधवा औरत को भी श्राद्ध का हक है। मगर पुत्र के न होने पर ही पति, पत्नी का श्राद्ध कर सकता है। इसी तरह पुत्र होने पर उसे ही माता का श्राद्ध करना चाहिए, पति को नहीं।
पुत्र, पोते या दामाद के न होने पर भाई का पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है, यहां तक की दत्तक पुत्र या किसी उत्तराधिकारी को भी श्राद्ध करने का हक है।
श्राद्ध के एक दिन पहले श्राद्ध करने वाला विनम्रता के साथ साफ मन से विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रण देना चाहिए। क्योंकि ब्रह्मपुराण के मुताबिक ब्राह्मणों की देह में पितृगण वायु के रूप में मौजूद होते हैं और उनके साथ-साथ ही चलते हैं। उनके बैठते ही वे उनमें ही समाकर ब्राह्मणों के साथ ही बैठे होते हैं। उस वक्त श्राद्ध करने वाले का यह बोलना चाहिए कि- "मैं आपको आमंत्रित करता हूं।
पितृ शांति के लिए तर्पण का सही वक्त 'संगवकाल' यानी सुबह तकरीबन 8 से लेकर 11 बजे तक माना जाता है। इस दौरान किया गया जल से तर्पण पितरों को तृप्त करने के साथ पितृदोष और पितृऋण से छुटकारा भी देता
इसी तरह शास्त्रों के मुताबिक तर्पण के बाद बाकी श्राद्ध कर्म के लिए सबसे शुभ और फलदायी समय 'कुतपकाल' होता है। ज्योतिष गणना के अनुसार यह वक्त हर तिथि पर सुबह तकरीबन 11.36 से दोपहर 12.24 तक होता है।
धार्मिक मान्यता है कि इस समय सूर्य की रोशनी और ताप कम होने के साथ-साथ पश्चिमाभिमुख हो जाते हैं। ऐसे हालात में पितर अपने वंशजों द्वारा श्रद्धा से भोग लगाए कव्य बिना किसी परेशानी के ग्रहण करते हैं। इसलिए इस समय पितृकार्य करने के साथ पितरों की प्रसन्नता के लिए पितृस्तोत्र का पाठ भी करना चाहिए।
ब्राह्मण भोजन से पहले श्राद्ध के लिए बनाए गए भोजन में से पंचबली यानी गाय, कुत्ते, कौआ, देवता व चींटी के लिए थोड़ा हिस्सा निकाल एक पात्र में रखें। हाथ में जल, फूल, अक्षत, तिल व चंदन लेकर संकल्प करें और कौए का हिस्सा कौए को, कुत्ते का कुत्ते को और बाकी हिस्से गाय को खिला सकते हैं।
याज्ञवल्क्य स्मृति के मुताबिक श्राद्ध करने वाले को श्राद्ध तिथि पूरी होने तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। यही नहीं, सहवास से लेकर बाल कटवाने, गुस्सा करने, दूसरों का भोजन करने, सफर करना जैसे काम नहीं करने चाहिए। पान खाना या सौंदर्य प्रसाधन की चीजों का उपयोग भी नहीं करना चाहिए।
श्राद्ध की शुरुआत व आखिर में 3 बार यह श्लोक बोलना चाहिए - देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च नम: स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नम:।
सनानत धर्म की परंपराओं में भादौ महीने की पूर्णिमा से आश्विन माह की अमावस्या तककुल 16 दिनों के श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों को याद कर उनके सुख और शांति के लिए श्राद्ध कर्म कर उनसे स्वयं के जीवन के कष्टों को दूर करने की भी कामना की जाती है। किंतु प्राचीन काल से लेकर आधुनिक दौर तक धर्म की समझ से दूर कई लोगों यह सवाल करते हैँ कि आखिर श्राद्ध कर्म करने से पितरों को कैसे संतुष्टि मिलती है?
यही नहीं, कई धर्मावलंबियों की भी यह जिज्ञासा होती है कि पितृपक्ष में ही क्यों पूर्वजों का श्राद्ध जरूरी है? धर्मशास्त्रों में पितृपक्ष और श्राद्ध से जुड़े ऐसे ही कई सवालों के जवाब मिलते हैं, जिनसे धर्म व ईश्वर में विश्वास रखने वाले कई लोग भी अनजान हैं।
सनातन धर्म की मान्यता है कि मानव शरीर पंच तत्वों - आग, पानी, पृथ्वी, वायु, आकाश, पांच कर्म इन्द्रियों हाथ-पैर आदि सहित 27 तत्वों से बना है। किंतु जब मृत्यु होती है तो शरीर पंचतत्व और कर्मेंन्द्रियों को छोड़ देता है। किंतु शेष 17 तत्वों से बना अदृश्य और सूक्ष्म शरीर इसी संसार में बना रहता है।
हिन्दू शास्त्रों की मान्यता है कि सांसारिक मोह और लालसाओं के कारण यह सूक्ष्म शरीर 1 साल तक मूल स्थान, घर और परिवार के आस-पास ही रहता है। किंतु शरीर न होने से उसे किसी भी सुख का आनंद नहीं मिलता और इच्छा पूर्ति न होने के कारण वह अतृप्त रहता है।
इसके बाद वह अपने कर्म के अनुसार अलग-अलग योनि को प्राप्त करता है। हर योनि में किए गए कर्म के अनुसार जनम-मरण का चक्र चलता रहता है।
यही कारण है कि मृत्यु के बाद वर्ष भर और उसके बाद भी मृत परिजन को तृप्त करने और जनम-मरण के बंधन से मुक्त करने के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है। श्राद्ध के द्वारा भोजन के साथ अन्य सुख, रस सूक्ष्म रुप में मृत जीव आत्मा या अलग-अलग योनि में घूम रहे पूर्वजों को मिलते हैं और वह तृप्त हो जाते हैं। खासतौर पर पितृपक्ष काल में, जबकि यह माना जाता है कि पूर्वज इस विशेष काल में अपने परिजनों से मिलने जरूर आते हैं।
शास्त्रों में किसी भी व्यक्ति के लिए 5 धर्म-कर्म जरूरी बताए गए हैं। ये भूतयज्ञ, मनुष्य यज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ व ब्रह्मयज्ञ के रूप में जाने जाते हैं। इनमें सारे जीवों के लिए अन्न-जल दान भूतयज्ञ, घर आए अतिथि की सेवा मनुष्य यज्ञ, स्वाध्याय व ज्ञान का प्रचार-प्रसार ब्रह्मयज्ञ और पितरों के लिए तर्पण व श्राद्ध करना पितृयज्ञ कहलाता है।
इनको महायज्ञ कहा गया है और इनसे किसी तरह का दोष नहीं लगता। किंतु पितृयज्ञ से ही पितृऋण से छुटकारा नहीं मिलता और ऐसे पितृदोष से मुक्ति के लिए श्राद्ध जरूरी बताया गया है।
हिन्दू धर्मग्रंथों में कई तरह के श्राद्ध अवसर विशेष करने का महत्व बताया गया है। इनमें खासतौर पर तिथि और पार्वण श्राद्ध का विशेष महत्व है।
तिथि श्राद्ध हर साल उस तिथि पर किया जाता है, जिस तिथि पर किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई हो। यह
वहीं, पार्वण श्राद्ध हर साल पितृपक्ष में किए जाते हैं। इसे महालया या श्राद्ध पक्ष भी पुकारा जाता है। हर साल भादौ महीने की पूर्णिमा और आश्विन माह के कृष्ण पक्ष के 15 दिन सहित 16 दिन श्राद्धपक्ष आता है
इसी पक्ष में तिथि के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को पितरों के लिए जल का तर्पण व श्राद्ध करना चाहिए। तिथि न मालूम होने या तिथि विशेष पर श्राद्ध चूकने पर इसी पक्ष में आने वाली सर्वपितृ अमावस्या या महालया पर पूर्वजों के लिए श्राद्ध, दान व तर्पण करना चाहिए।
स्कन्दपुराण में लिखा है कि मृत्यु तिथि पर श्राद्ध न करने वाले व्यक्ति को उसके पितृगण श्राप देकर पितृलोक चले जाते हैं। ऐसे व्यक्ति के परिवार को पितृदोष लगता है और वहां रोग, शोक, दरिद्रता, दु:ख व दुर्भाग्य का सामना करना पड़ता है।
ब्रह्म और ब्रह्मवैवर्तपुराण में क्रमश: लिखा है कि धन बचाने की लालसा से श्राद्ध न करने वाले का पितृगण रक्त पीते हैं, वहीं सक्षम होने पर श्राद्ध न करने वाला रोगी और वंशहीन हो जाता है।
इसी तरह विष्णु स्मृति के मुताबिक श्राद्ध न करने वाला नरक को प्राप्त होता है।
वायुपुराण के मुताबिक पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध, देवताओं की प्रसन्नता के लिए किए जाने वाले यज्ञ आदि धर्म-कर्मों से भी ज्यादा शुभ फल देते हैं। श्रद्धा से किए श्राद्ध से कई पीढिय़ों के पितरगण प्रसन्न होकर व्यक्ति को आयु, धन-धान्य, संतान और विद्या से संपन्न होने का आशीर्वाद देते हैं।
गरुड पुराण के मुताबिक इस पक्ष में श्राद्ध से पितरों को स्वर्ग मिलता है। यहीं नहीं जिनका श्राद्ध किया जाता है, उनको प्रेत योनि नहीं मिलती और वे पितर बन जाते हैं। ये पितर तृप्त संतान के मनचाहे काम पूरे कर धर्मराज के मंदिर में पहुंच बड़ा ही सुख-सम्मान पाते हैं।
गुरुड पुराण में यह भी बताया गया है कि श्राद्ध करना पवित्र कार्य हैं। क्योंकि मृत्यु होने पर धर्मराजपुर में जाने के चार रास्ते हैं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर व दक्षिण। पितरों का श्राद्ध करने वाले को स्वयं धर्मराज की सभा में पश्चिम द्वार से जाते हैं और धर्मराज स्वयं खड़े होकर उनका स्वागत व सम्मान करते हैं।
यथासंभव श्राद्ध अपने घर पर ही किया जाना चाहिए। संभव न हो तो किसी भी तीर्थ या जलाशय के किनारे भी किया जा सकता है।
दक्षिणायन में चूंकि पितरों का प्रभाव ज्यादा होता है। इसलिए श्राद्धकर्म के लिए यथासंभाव दक्षिण की तरफ झुकी हुई जमीन का उपयोग करना चाहिए।
शास्त्रों के मुताबिक पितृगणों को ऐसी जगह भाती है, जो पवित्र हो और जहां लोगों का ज्यादा आना-जाना होता है, नदी का किनारा भी पितरों का पसंद है। ऐसी जगह पर गोबर से जमीन को लीपकर श्राद्ध करना चाहिए।
काले तिल और कुश तर्पण व श्राद्धकर्म में जरूरी हैं। क्योंकि माना जाता है कि यह भगवान विष्णु के शरीर से निकले हैं और पितरों को भी भगवान विष्णु का ही स्वरूप माना गया है। इनके बिना पितरों को जल भी नहीं मिलता।
श्राद्ध का पहला अधिकार पुत्र का होता है। पुत्र न होने पर पुत्री का पुत्र यानी नाती श्राद्ध करे।
जिनके कई पुत्र हो तो वहां सबसे बड़ा पुत्र श्राद्ध करे। पुत्र के उपस्थित न होने पर पोता और पोता भी न होने पर परपोता श्राद्ध कर सकता है।
पुत्र व पोते की अनुपस्थिति में विधवा औरत को भी श्राद्ध का हक है। मगर पुत्र के न होने पर ही पति, पत्नी का श्राद्ध कर सकता है। इसी तरह पुत्र होने पर उसे ही माता का श्राद्ध करना चाहिए, पति को नहीं।
पुत्र, पोते या दामाद के न होने पर भाई का पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है, यहां तक की दत्तक पुत्र या किसी उत्तराधिकारी को भी श्राद्ध करने का हक है।
श्राद्ध के एक दिन पहले श्राद्ध करने वाला विनम्रता के साथ साफ मन से विद्वान ब्राह्मणों को भोजन के लिए आमंत्रण देना चाहिए। क्योंकि ब्रह्मपुराण के मुताबिक ब्राह्मणों की देह में पितृगण वायु के रूप में मौजूद होते हैं और उनके साथ-साथ ही चलते हैं। उनके बैठते ही वे उनमें ही समाकर ब्राह्मणों के साथ ही बैठे होते हैं। उस वक्त श्राद्ध करने वाले का यह बोलना चाहिए कि- "मैं आपको आमंत्रित करता हूं।
पितृ शांति के लिए तर्पण का सही वक्त 'संगवकाल' यानी सुबह तकरीबन 8 से लेकर 11 बजे तक माना जाता है। इस दौरान किया गया जल से तर्पण पितरों को तृप्त करने के साथ पितृदोष और पितृऋण से छुटकारा भी देता
इसी तरह शास्त्रों के मुताबिक तर्पण के बाद बाकी श्राद्ध कर्म के लिए सबसे शुभ और फलदायी समय 'कुतपकाल' होता है। ज्योतिष गणना के अनुसार यह वक्त हर तिथि पर सुबह तकरीबन 11.36 से दोपहर 12.24 तक होता है।
धार्मिक मान्यता है कि इस समय सूर्य की रोशनी और ताप कम होने के साथ-साथ पश्चिमाभिमुख हो जाते हैं। ऐसे हालात में पितर अपने वंशजों द्वारा श्रद्धा से भोग लगाए कव्य बिना किसी परेशानी के ग्रहण करते हैं। इसलिए इस समय पितृकार्य करने के साथ पितरों की प्रसन्नता के लिए पितृस्तोत्र का पाठ भी करना चाहिए।
ब्राह्मण भोजन से पहले श्राद्ध के लिए बनाए गए भोजन में से पंचबली यानी गाय, कुत्ते, कौआ, देवता व चींटी के लिए थोड़ा हिस्सा निकाल एक पात्र में रखें। हाथ में जल, फूल, अक्षत, तिल व चंदन लेकर संकल्प करें और कौए का हिस्सा कौए को, कुत्ते का कुत्ते को और बाकी हिस्से गाय को खिला सकते हैं।
याज्ञवल्क्य स्मृति के मुताबिक श्राद्ध करने वाले को श्राद्ध तिथि पूरी होने तक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। यही नहीं, सहवास से लेकर बाल कटवाने, गुस्सा करने, दूसरों का भोजन करने, सफर करना जैसे काम नहीं करने चाहिए। पान खाना या सौंदर्य प्रसाधन की चीजों का उपयोग भी नहीं करना चाहिए।
श्राद्ध की शुरुआत व आखिर में 3 बार यह श्लोक बोलना चाहिए - देवताभ्य: पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च नम: स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नम:।