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शनिवार, 14 सितंबर 2024

देवी लक्ष्मी के शाप से कटा भगवान विष्णु का मस्तक

 देवी लक्ष्मी के शाप से कटा भगवान विष्णु का मस्तक
                             (हयग्रीव अवतार)

          एक समय की बात है भगवान विष्णु दस हजार वर्षों तक भीषण युद्ध करके अत्यन्त थक गये थे। तदनन्तर एक समतल तथा शुभ स्थान पर पद्मासन कण्ठप्रदेश (गर्दन) टिकाये हुए उस धनुष की नोंक पर भार लगाकर पृथ्वी पर स्थित प्रत्यंचा चढ़े हुए धनुष पर टिककर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु सो गये और थकावट के कारण दैवयोग से उन्हें गहरी नींद आ गयी।
          कुछ समय बीतने के बाद ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र सहित सभी देवता यज्ञ करने को उद्यत हुए। वे सब देवकार्य की सिद्धिहेतु यज्ञों के अधिपति जनार्दन भगवान् विष्णु के दर्शनार्थ वैकुण्ठलोक गये। उस समय उन्हें वहाँ न देखकर वे देवतागण ज्ञान-दृष्टि से देख करके वहाँ पहुँचे, जहाँ भगवान् विष्णु विराजमान थे।
          वहाँ उन्होंने सर्वव्यापी भगवान् विष्णु को योग निद्रा के वशीभूत होकर अचेत पड़ा हुआ देखा। तब वे देवगण वहीं रुक गये। सभी देवताओं के वहाँ रुक जाने के बाद जगत्पति विष्णु को निद्रामग्न देखकर ब्रह्मा रुद्र आदि प्रमुख देवता अत्यन्त चिन्तित हुए।
          तदनन्तर इन्द्र ने देवताओं से कहा–‘हे श्रेष्ठ देवगण! अब क्या किया जाय ? हे श्रेष्ठ देवताओ ! अब आप सभी यह विचार करें कि इनकी निद्रा किस प्रकार भंग की जाय ?।’
          शिवजी ने इन्द्र से कहा–‘इनकी निद्रा का भंग करने से महान् दोष लगेगा, किन्तु श्रेष्ठ देवगण ! यज्ञकार्य भी अवश्यकरणीय है।’
          इसके बाद परमेष्ठी ब्रह्माजी ने पृथ्वी पर स्थित धनुष के अग्रभाग को खा जाने के लिये दीमक का सृजन किया। उन्होंने यह सोचा–‘दीमक के द्वारा धनुष का अग्रभाग खा लिये जाने पर धनुष नीचा हो जायगा।    तब वे देवाधिदेव विष्णु निद्रामुक्त हो जायँगे। ऐसा होने पर निस्सन्देह देवताओं का सम्पूर्ण कार्य सिद्ध हो जायगा।’ अतः सनातन ब्रह्माजी ने दीमक को इस कार्य के लिये आदेश दिया।
          दीमक ने ब्रह्माजी से कहा–‘देवाधिदेव जगद्गुरु लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु का निद्रा भंग मैं कैसे करूँ ? क्योंकि नींद में बाधा डालना, कथा में विघ्न पैदा करना, पति-पत्नी के बीच भेद उत्पन्न करना एवं माँ-पुत्र के बीच वैरभाव पैदा करने के लिये षड्यन्त्र करना ब्रह्महत्या के समान कहा गया है। अतः मैं देवाधिदेव भगवान् विष्णु का सुख क्यों नष्ट करूँ ? हे देव ! उस धनुष का अग्रभाग खाने से मेरा क्या लाभ है, जिसके लिये मैं ऐसा पाप करूँ ?
          स्वार्थ के वशीभूत होकर ही समस्त लोक पापकार्य में प्रवृत्त होता है इसलिये मैं भी इसमें कोई स्वार्थ सिद्धि होने पर ही इसका भक्षण करूँगा।’
          ब्रह्माजी बोले–‘सुनो, हम लोग यज्ञ में तुम्हारे भाग की व्यवस्था कर देंगे। इसलिये तुम अविलम्ब भगवान् विष्णु को जगाकर हम लोगों का कार्य सम्पन्न कर दो। होम-कार्य में आहुति प्रदान करते समय जो हव्य आस-पास गिरेगा, उसी को अपना भाग समझना; और अब तुम शीघ्रता पूर्वक हमारा कार्य करो।’
          ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने के अनन्तर दीमक ने धरातल पर स्थित धनुषाग्र को शीघ्र ही खा लिया, जिससे धनुष की डोरी मुक्त हो गयी।
          प्रत्यंचा के खुल जाने पर धनुष का वह ऊपरी कोना मुक्त हो गया। इस प्रकार एक भीषण ध्वनि पैदा हुई जिससे वहाँ सभी देवगण भयभीत हो गये, ब्रह्माण्ड क्षुब्ध हो उठा, पृथ्वी में कम्पन होने लगा, सभी समुद्र उद्विग्न हो गये, जलचर जन्तु व्याकुल हो उठे। 
          प्रचण्ड हवाएँ प्रवाहित होने लगीं, पर्वत प्रकम्पित हो उठे, किसी दारुण आपदा के सूचक उल्कापात आदि महान् उपद्रव होने लगे, सूर्य तिरोहित हो गये तथा सभी दिशाएँ अत्यन्त भयावह हो गयीं। यह सब देखकर देवता लोग चिन्तित होकर सोचने लगे कि इस दुर्दिन में अब क्या होगा ?
          वे देवतागण ऐसा सोच ही रहे थे कि किरीट-कुण्डल सहित देवाधिदेव भगवान् विष्णु का सिर कटकर कहीं चला गया। कुछ समय पश्चात् उस घोर अन्धकार के शान्त हो जाने पर ब्रह्मा और शंकर ने भगवान् विष्णु का मस्तक विहीन विलक्षण शरीर देखा।
          भगवान् विष्णु का सिरविहीन धड़ देखकर वे श्रेष्ठ देवता अत्यन्त विस्मित हुए और चिन्तासागर में निमग्न होकर शोकाकुल हो विलाप करने लगे।
          तब शिव सहित समस्त देवताओं को करुण क्रन्दन करते हुए देखकर वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा–‘हे महाभागो ! अब इस प्रकार क्रन्दन से क्या लाभ है ? इस समय तो विवेक का आश्रय लेकर कोई उपाय करना चाहिये।
          हे देवेन्द्र ! भाग्य एवं पुरुषार्थ–दोनों ही समान श्रेणी के हैं फिर भी उपाय करना ही चाहिये और वह दैवयोग से ही सफल होता है।
          इन्द्र बोले–‘अनर्थकारी पुरुषार्थ को धिक्कार है, मैं तो दैव को श्रेष्ठतर मानता हूँ; क्योंकि हम देवताओं के देखते-देखते विष्णु का सिर कट गया।’
          ब्रह्माजी बोले–‘काल द्वारा जो भी शुभाशुभ कर्मों का फल निर्धारित है, उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है; भाग्य का अतिक्रमण कौन कर सकता है ?
          प्रत्येक प्राणी काल-क्रम के अनुसार सुख-दुःख भोगता ही है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। जिस प्रकार पूर्वकाल में काल की प्रेरणा से शंकरजी ने मेरा मस्तक काट दिया था, उसी प्रकार शाप के कारण शिवजी का लिंग कटकर गिर गया था और उसी प्रकार आज विष्णु का सिर कटकर लवण सागर में जा गिरा है।
          दैवयोग से ही इन्द्र को भी सहस्र भगों की प्राप्ति हुई। उन्हें दुःख भोगना पड़ा। वे स्वर्ग से च्युत हो गये और मानसरोवर के कमल में रहने लगे।    इस संसार में जब इन महाभाग देवताओं को भी दुःख का भोग करने के लिये विवश होना पड़ा तो फिर दुःख भोगने से भला कौन वंचित रह सकता है ?
          अतएव आप लोग शोक का परित्याग कर दें और उन महामाया, विद्यारूपा, सनातनी, ब्रह्मविद्या तथा जगत्‌ को धारण करने वाली देवी का ध्यान कीजिये, जिनके द्वारा यह चराचर सम्पूर्ण त्रिलोक व्याप्त है। वे निर्गुणा परा प्रकृति हम लोगों का समस्त कार्य सिद्ध कर देंगी।’
          देवताओंसे इस प्रकार कहकर ब्रह्माजी ने कार्य की सिद्धि की कामना से अपने सम्मुख सशरीर विद्यमान वेदों को आदेश दिया–‘आपलोग समस्त कार्यों को सिद्ध करने वाली, पराम्बा, ब्रह्मविद्या, सनातनी तथा निगूढ़ अंगों वाली महामाया का स्तवन कीजिये।’
          उनका यह वचन सुनकर समस्त सुन्दर अंगों वाले वेद जगत् की आधार-स्वरूपा तथा ज्ञानगम्या उन महामाया की स्तुति करने लगे।
          सब प्रकार सामगान-निपुण साङ्गवेदों द्वारा स्तुति किये जाने से गुणातीता, महेश्वरी, परात्परा महामाया भगवती प्रसन्न हो गयीं।
          उसी समय देवताओं को सुख प्रदान करने वाले शब्दों युक्त और भक्तजनों को आनन्दित करने वाली आकाश स्थित अशरीरिणी शुभ वाणी ने उनसे कहा–‘हे देवताओ ! आप लोग किसी प्रकार की चिन्ता न करें और स्वस्थचित्त रहें। इन वेदों के भावपूर्ण स्तवन से मैं परम प्रसन्न हो गयी हूँ, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। 
          हे देवो! अब आप विष्णु के शिरोच्छेद का कारण सुनिये; क्योंकि इस लोक में बिना कारण कोई कार्य कैसे हो सकता है ? एक बार अपने समीप बैठी हुई अपनी प्रियतमा सागरपुत्री लक्ष्मी का चित्ताकर्षक मुख देखकर भगवान् विष्णु हँस पड़े।
          देवी लक्ष्मी ने सोचा–‘भगवान् विष्णु मुझे देखकर क्यों हँस पड़े ? मेरे मुख में विष्णुजी द्वारा दोष देखे जाने का आखिर क्या कारण हो सकता है ? और फिर बिना किसी कारण उनका हँसना सम्भव नहीं हो सकता। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने किसी अन्य सुन्दर स्त्री को मेरी सौत बना लिया है।’
          इसी विचार-मन्थन के परिणाम स्वरूप लक्ष्मीजी कोपाविष्ट हो गयीं और तब उनके शरीर में तमोगुण सम्पन्न तामसी शक्ति व्याप्त हो गयी। (किसी दैवयोग के प्रभाव से देवताओं के कार्य-साधन के उद्देश्य से ही उनके शरीर में अत्यन्त उग्र तामसी शक्ति प्रविष्ट हुई।)
          तब लक्ष्मीजी के शरीर में तामसी शक्ति का समावेश हो जाने के कारण वे अत्यन्त क्रोधित हो उठीं और उन्होंने मन्द स्वर में यह कहा–‘तुम्हारा यह सिर कटकर गिर जाय।’
          स्त्री स्वभाव के कारण, भावीवश तथा संयोग से बिना सोचे-समझे ही लक्ष्मीजी ने अपने ही सुख को विनष्ट करने वाला शाप दे दिया। सौत के व्यवहारादि से उत्पन्न होने वाला दुःख वैधव्य से भी बढ़कर होता है। मन में ऐसा सोचकर तथा शरीर पर तामसी शक्ति का प्रभाव रहने के कारण उन्होंने ऐसा कह दिया था। मिथ्याचरण, साहस, माया, मूर्खता, अतिलोभ, अपवित्रता तथा दयाहीनता–ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं।
          अब मैं उन वासुदेव को पूर्व की भाँति सिरयुक्त कर देती हूँ। इनका सिर पूर्वशाप के कारण लवण सागर में डूब गया है।
          हे श्रेष्ठ देवताओ ! इस घटना के होने में एक अन्य भी कारण है। आप लोगों का महान् कार्य अवश्य सिद्ध होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है। 
          प्राचीन काल में महाबाहु एवं अति प्रसिद्ध हयग्रीव नाम वाला एक दानव था, जो सरस्वती नदी के तटपर बहुत कठोर तपस्या करने लगा। वह दैत्य आहार का त्यागकर समस्त इन्द्रियों को वश में करके तथा सभी प्रकार के भोगैश्वर्य से दूर रहते हुए मेरे माया बीजात्मक एकाक्षर मन्त्र (ह्रीं) का जप करता रहा।
          इस प्रकार समस्त आभूषणों से विभूषित मेरी तामसी शक्ति का सतत ध्यान करता हुआ वह एक हजार वर्षों तक कठोर तप करता रहा। उस समय उस दैत्य ने जिस रूप में मेरा ध्यान किया था, उसी तामस रूप में उसे दर्शन देने हेतु उसके समक्ष मैं प्रकट हुई।
          उस समय सिंह पर आरूढ़ हुई मैंने दयापूर्वक उससे कहा–‘हे महाभाग ! तुम वरदान माँगो; हे सुव्रत ! मैं तुम्हें यथेच्छ वरदान दूँगी।’
          वह दानव देवी का यह वचन सुनकर प्रेमविह्वल हो उठा और उसने तत्काल प्रणाम और प्रदक्षिणा की। मेरा रूप देखते ही प्रेमभावना के कारण प्रफुल्लित नेत्रों वाला तथा हर्षातिरेक के कारण अश्रुपूरित नयनों वाला वह दानव मेरी स्तुति करने लगा।
          उसकी स्तुति से सन्तुष्ट हो देवी बोलीं–‘तुम्हारा क्या अभीष्ट है ? जो भी तुम्हारा अभिलषित वर हो, माँग लो। मैं उसे कुछ अवश्य पूर्ण करूँगी; क्योंकि मैं तुम्हारी अनन्य भक्ति तथा अद्भुत तपस्या से अतिशय प्रसन्न हूँ।
          हयग्रीव बोला–‘हे माता! आप मुझे वैसा वरदान दें, जिससे मेरी मृत्यु कभी न हो और देव दानवों द्वारा अपराजेय रहता हुआ मैं सदा के लिये अमर योगी हो जाऊँ।’
          देवी बोलीं–‘जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरने वाले का जन्म भी निश्चित है। लोक में स्थापित इस प्रकार की मर्यादा का उल्लंघन कैसे सम्भव है ?
          अतएव हे दानवश्रेष्ठ ! मृत्यु को अवश्यम्भावी जानकर अपने मन में सम्यक् विचार करके तुम अन्य यथेच्छ वर माँग लो।’
          हयग्रीव बोला–‘हे जगदम्बे ! मेरी मृत्यु हयग्रीव से ही हो, किसी अन्य से नहीं। मेरी इसी मनोवांछित कामना को आप पूर्ण करें।’
          देवी बोलीं–‘हे महाभाग ! अपने घर जाकर अब तुम सुख पूर्वक राज्य करो। हयग्रीव के अतिरिक्त अन्य किसी से भी तुम्हारी कदापि मृत्यु नहीं होगी।’
          उस दैत्यको यह वरदान देकर मैं अन्तर्धान हो गयी और वह भी परम प्रसन्न होकर अपने घर लौट गया। वह दुष्टात्मा इस समय मुनिजनों तथा वेदों को हर प्रकार से पीड़ित कर रहा है और तीनों लोकों में कोई भी ऐसा नहीं है, जो उसका संहार कर सके।
          अतः त्वष्टा इस अश्व का मनोहर सिर अलग करके उसे इन सिर विहीन विष्णु के धड़ पर संयोजित कर देंगे।  तत्पश्चात् देवताओं के कल्याणार्थ भगवान् हयग्रीव उस पापात्मा, अत्यन्त क्रूर तथा दानवी स्वभाव वाले महा असुर हयग्रीव का संहार करेंगे।’
          देवताओं से इस प्रकार कहकर भगवती शान्त हो गयीं और इसके बाद देवगण परम सन्तुष्ट होकर देवशिल्पी विश्वकर्मा से बोले–‘आप विष्णु के धड़ पर घोड़े का सिर जोड़कर देवताओं का कार्य कीजिये। वे भगवान् हयग्रीव ही दानवश्रेष्ठ दैत्य का वध करेंगे।’
          देवताओं का यह वचन सुनकर विश्वकर्मा ने अतिशीघ्रतापूर्वक अपने खड्ग से देवताओं के सामने ही घोड़े का सिर काटा। तत्पश्चात् उन्होंने घोड़े का वह सिर अविलम्ब विष्णु भगवान् के शरीर में संयोजित कर दिया और इस प्रकार महामाया भगवती की कृपा से वे भगवान् विष्णु हयग्रीव हो गये।
          कुछ समय बाद उन भगवान् हयग्रीव ने अहंकार के मद में चूर उस देवशत्रु दानव का युद्धभूमि में अपने तेज से वध कर दिया।
          इस संसार में जो प्राणी इस पवित्र कथा का श्रवण करते हैं, वे समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं; इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं है।
          महामाया भगवती का चरित्र अति पावन है तथा पापों का नाश कर देता है। इस चरित्र का पाठ तथा श्रवण करने वाले प्राणियों को सभी प्रकार की सम्पदाएँ अनायास ही प्राप्त हो जाती हैं।

                             ०       ०       ०

                           "जय जय श्री राधे"

शुक्रवार, 13 सितंबर 2024

वक्फ कभी खत्म नहीं होंगा

क्या है वक्फ⁉️

कोई मुसलमान व्यक्ति अपनी जमीन को वक्फ करता(खुदा को समर्पित करता उसे वक्फ कहते है

*वक्फ यानी दान की हुई जमीन*

अतः भेड़ चाल न चले समझदार बने
अब तो समझ में आ गया ना

की वक्फ क्या है😄 वक्फ यानी दान

कोई इसे खत्म नहीं कर सकता

इनका जो वक्फ बोर्ड बना है और उसके जो एक्ट/कानून बने है सरकार उनमें संशोधन कर सकती है और बिल आ चुका है प्रक्रिया में है

*यानी जो बोर्ड बना हुआ है उसके एक्ट कानूनों को खत्म किया जा सकता है वक्फ को नहीं*

*हमे इससे संबंधित तीन समस्याएं है*


*पहली समस्या👉* वक्फ *बोर्ड* किसी भी जमीन पर दावा ठोक देता है फिर अदालत भी उसकी जज भी उसका
*`(बिल आ चुका है पास होते ही यह खत्म होंगा) विशेष बिल JPC में भेजा गया है फिर JPC सरकार को सुझाव देंगी, सरकार सुझाव को मानने के लिए बाध्य नहीं है, सरकार के पास दोनो सदनों में बहुमत है बिल पास होंगा`*

*विशेष जानकारी:- चुकी सरकार के पास बहुत है अतः JPC में भी सरकार के आदमी(नेता सांसद) ज्यादा है😄* यह मत समझना की JPC कोई अलग से संस्था है😄

*दूसरी समस्या👉* उस समय के शासकों *(मुगलों बादशाहो निजामो नवाबों)* ने जो संपत्ति वक्फ की थी यानी दान दी थी वो अभी वक्फ बोर्ड के पास है

*क्या वो उनके बाप की निजी जमीन थी या उनकी पुस्तैनी जमीन थी⁉️* राजा/बादशाह/PM/सरकार के पास जो होता है और जनता का होता है देश का होता है

*वो सारी जमीन सरकारी होनी चाहिए*

उस समय के शासक ने दी थी आज का शासक(यानी अभी की पहले वक्फ का मतलब समझिए

फिर वक्फ पर कांग्रेस ने जो कानून बनाए उनको समझिए

*और हमे इससे क्या समस्याएं उत्पन्न हो रही है को समझिए*सरकार) उसे वापस ले सकती है इसका सरकार को अधिकार भी है और यह नैतिक भी है और हमे सोसल मीडिया पर लगातार इस विषय को उठाते रहना है।

*तीसरी समस्या👉* बाद 1947 में जो मुसलमान पाकिस्तान गए

उनकी ज़मीने नेहरू कांग्रेस सरकार ने वक्फ की कर दी यानी मुसलमानो को पूरा का पूरा देश मिला(पाकिस्तान ओर बांग्लादेश) फिर भी यहा जो उनका था वो वक्फ का हो गया

*और जो वहा(पाकिस्तान) के हिंदुओ का था जो यहां भारत आ गए उनके लिए तो उन देशों में कोई बोर्ड नही बना*

इसलिए जब उनको पूरा का पूरा देश मिल गया तो उनका यहा बचा ही क्या था जाने वालो की जमीनें सरकारी होनी चाहिए थी

*यह मांग भी हमे लगातार उठाती रहनी चाहिए*
पहले वक्फ का मतलब समझिए

फिर वक्फ पर कांग्रेस ने जो कानून बनाए उनको समझिए

*और हमे इससे क्या समस्याएं उत्पन्न हो रही है को समझिए*

अब एक बार हम फिर सपष्ट करदे

*वक्फ कभी खत्म नहीं होंगा कोई नहीं कर सकता*

हा कांग्रेस ने जो *कानून बनाए वो खत्म होंगे*(सरकार संशोधन करके उपरोक्त काम कर सकती है)(इस दिशा में सरकार आगे भी बढ़ चुकी है)

उसके बोर्ड जो असीमित अधिकार है वो खत्म होंगे

उसके बोर्ड ने जो गलत तरीके से जमीनों पर कब्जा किया वो हटाया जा सकता है

*पर वक्फ खत्म नही हो सकता* इस बात को आप सभी अच्छे से समझ लीजिए

अब एक बार हम फिर सपष्ट करदे

*वक्फ कभी खत्म नहीं होंगा कोई नहीं कर सकता*

हा कांग्रेस ने जो *कानून बनाए वो खत्म होंगे*(सरकार संशोधन करके उपरोक्त काम कर सकती है)(इस दिशा में सरकार आगे भी बढ़ चुकी है)

उसके बोर्ड जो असीमित अधिकार है वो खत्म होंगे

उसके बोर्ड ने जो गलत तरीके से जमीनों पर कब्जा किया वो हटाया जा सकता है

*पर वक्फ खत्म नही हो सकता* इस बात को आप सभी अच्छे से समझ लीजिए

समझ गए ना ओर समझिए👇

*वक्फ यानी खुदा को दी हुई जमीन*

जिसे कभी नहीं बेचा जा सकता न किसी को दिया जाता वो हमेशा के लिए खुदा की हुई

*और उस जमीन को संभालने प्रबंधन का काम करता है बोर्ड जो उसका उपयोग मजहबी शिक्षा मस्जिद और कब्रिस्तान इत्यानी बनाने में करता है*

और इस बोर्ड को कांग्रेस ने असीमित शक्तियां देती(आप भी जानते है)


सरकार उन असीमित शक्तियों को खत्म करेंगी तथा बोर्ड यानी उन जमीनों को संभालने वाले लोगो का समूह/संस्था में मुस्लिम महिलाओं की एंट्री करवाना चाहती है यानी बोर्ड को पारदर्शी बनाना चाहती है ताकि उसका उपयोग समाज सेवा में हो

वक्फ बोर्ड में होंगे गैर-मुस्लिम और महिलाएं, जमीन को लेकर नहीं चलेगी मनमानी

गैर मुस्लिम यानी जो मुसलमान नही है

सोचिए सरकार कितना कुछ सोच रही है


*पर भेड़ों को समझ में ही नहीं आता😄*


*OPEN YOUR EYES:* वक्फ एक्ट पढो, रोओगे अपनी छाती पीट लोगे, कहोगे इतना धोखा तो अंग्रेजो ने भी नही किया,

वक्फ प्रोपर्टी एक्ट की जानकारियां ध्यान से सेक्शन वाइज पढ़ लीजिये, समझ लीजिए।

अभी जागिये सोये मत रहिये समय रहते शेयर करिये सब लोगों को,

रोना आ रहा है बताते हुए हमारे साथ बोहोत बड़ी साजिश की जा चुकी जिसको समझना जरूरी हैं, ये बातें केवल किसी पार्टी के विरोध के लिए नही है।

कितना बड़ा है ये खतरा जिसपे बैठे हैं हम, बिल्कुल अनजान रहे हमें पता भी नही चला कभी।

ये बातें हमारे देश की, धर्म की, संस्कृति की, आने वाले बच्चों के भविष्य की हैं।

पहले समझिए हम सब पर कितनी बड़ी चोट की जा चुकी है कानून बन चुका है।

कई राज्यों में वकफ बोर्ड जमीनें छीन चुका है जो लोग दादा परदादा तो क्या 10-10 पीढ़ी से हजारों सालों से जिन जमीनों पर बैठे थे पूरे गांव ही छीन चुका वक्फ बोर्ड।

*पहले समझिए और इन गद्दारों से जहां मिले वहां पूछना शुरू कीजिए।*
वक़्फ़ प्रॉपर्टी एक्ट जो मुस्लिम परस्त कांग्रेस ने हिंदुओं को समाप्त करने के लिए सन 2013 में वक़्फ़ प्रॉपर्टी एक्ट लागू किया है।

इसके अनुसार हर हिंदू जान ले उसकी कोठी मकान खेत जमीन जायदाद उसकी नहीं है कभी भी इस कानून के अनुसार वक़्फ़ बोर्ड उस पर अपना दावा कर सकता है और डायरेक्ट डीएम को ऑर्डर दे सकता है आप से खाली करवाई जाए।

आप कुछ नहीं कर पाएंगे और जहां आप की सुनवाई होगी वह उसमें भी मुस्लिम ही अधिकतर सुनवाई करेंगे तो आप जान लो आपका क्या हाल होगा।

मुस्लिम वक्फ एक्ट हिन्दुओं और भारतमाता के साथ हुआ एक बहुत ही भयानक षड्यंत्र है, यह कानून हमारे संविधान का मखौल उड़ता है,

यह कांग्रेस के द्वारा बनाया गया कानून, भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाने में कानूनी सुगमता देता है, यह कानून बहुत ही ज्यादा ख़तरनाक है।

समझ लीजिए शरिया से भी ज्यादा ख़तरनाक है, यह कानून Parliament jihad का एक नायाब उदाहरण है।

*वक्फ एक्ट का इतिहास-* वक्फ एक्ट के नाम पर जो कानून 1923 में बनाया गया था, तब इसे कोई स्पेशल पॉवर नहीं दिया गया था,

इस एक्ट को बनाने का मकसद सिर्फ बस यह था कि अगर कोई मोमिन अपनी प्रॉपर्टी अल्लाह को देना चाहता है तो वो अल्लाह को दे सकता और उसकी प्रॉपर्टी कि देख रेख वक्फ बोर्ड करेगा।

उसके बाद से समय समय पर इसमें कुछ संशोधन होते रहे..

१. वक्फ एक्ट 1954 (जिसमें इसे कुछ पॉवर दिए गए)

२. वक्फ एक्ट 1984 राजीव गांधी के समय जिसमें इसे थोड़ा और ज्यादा पॉवर दिए गए।

३. लेकिन 1995 में नया वक्फ एक्ट 1995 लाया गया जिसमें वक्फ बोर्ड को बहुत ज्यादा असीमित अधिकार दे दिए गए और फिर 2013 में मनमोहन सिंह ने जो संशोधन किये उसमें भी वक्फ एक्ट को सुपर पॉवर दिए, याद है मनमोहन सिंह का भाषण जब कहा था देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है (वो मुसलमानों के अलावा किसी को अल्पसंख्यक नही मानते)

वक्फ एक्ट 1995 जो इसे बहुत ही ज्यादा ख़तरनाक बनाता है हिन्दुओं सिखों बौधों जैनों और पूरे भारत भूमि के लिए।

Section (36) & sec (40)
इस क्लोज़ में यह लिखा है कि वक्फ बोर्ड किसी कि भी प्रॉपर्टी को चाहे वह प्राइवेट हो, सोसाइटी की हो या फिर किसी भी ट्रस्ट की उसको, वक्फ बोर्ड अपनी सम्पत्ति घोषित कर सकता है।

section 40 (1) अगर किसी individual की प्रॉपर्टी को वक्फ प्रॉपर्टी घोषित किया जाता है तो उसको उस ऑर्डर का कॉपी देना का कोई प्रावधान नहीं है, और आपने वो प्रॉपर्टी को ३ साल के अंदर चैलेंज नहीं किया तो वो ऑर्डर फाइनल हो जाएगा।

मान लीजिए कि आपकी प्रॉपर्टी को वक्फ प्रॉपर्टी घोषित कर दिया गया तो आपको पता भी नहीं चलेगा क्यों की उस ऑर्डर की कॉपी देने का कोई नियम नहीं है, और आपने अगर इसे ३ साल के अंदर चैलेंज नहीं किया तो वो प्रॉपर्टी वक्फ की हो जाएगी।

Section 52 & sec 54 जो सम्पत्ति वक्फ संपति घोषित हो जाएगी, उसके बाद वहा जो रह रहा होगा वो ENCROCHER माना जाएगा, और उसके बाद वक्फ बोर्ड डीएम को ऑर्डर देगा कि उनको हटाया जाए और डीएम बाध्य होगा उसके ऑर्डर का पालन करने के लिए।

Section 4,5,6&7 वक्फ बोर्ड जिसको बोलेगा अपनी संपत्ति उसका राज्य सरकार सर्वे करेगी और सर्वे का खर्चा राज्य सरकार वहन करेगी, और इसके कोई मापदंड तय नहीं है वो किसी भी सम्पत्ति को सर्वे में जोड़ सकते हैं।

जिसमे कोई नोटिफिकेशन, ऑब्जेक्शन, कोई प्रक्रिया तय नहीं है, सर्वे के बाद सर्वे कमिश्नर वक्फ बोर्ड को सूचित करेगा और इसके बाद वक्फ बोर्ड उसको अपनी सम्पत्ति घोषित कर सकता है, और अगर किसी को तकलीफ़ है उससे, तो उसे वक्फ ट्रिब्यूनल में जा कर अपना केस दर्ज़ कराना होगा।

Section (6) में एक बदमाशी कि गई मनमोहन सिंह के द्वारा 2013 में, 1995 के एक्ट में word था person interested अगर किसी मुस्लिम को लगता है कि उसकी प्रॉपर्टी गलत तरीके से एड हो गई सर्वे ऑफिसर के द्वारा तो वो उसको वक्फ ट्रिब्यूनल में चैलेंज कर सकता है, मगर मनमोहन सिंह ने एक चालाकी करके इसके जगह person aggrieved (व्यथित व्यक्ति) कर दिया।

इसका मतलब मेरी कोई प्रॉपर्टी ले लेगा तो मै person aggrieved होऊंगा, यह बहुत ही महीन सा अंतर है लेकिन बहुत ही ख़तरनाक है।

Sec 28 & sec 29 वक्फ बोर्ड का जो ऑर्डर होगा उसका पालन स्टेट मशीनरी एवम् डीएम को करना होगा, अब थोड़ी नजर हम वक्फ बोर्ड के कंपोजिशन पर करते है waqf board composition, एक चेयरमैन होगा।

एक इलेक्टोरल कॉलेज होगा जिसमें दो व्यक्ति होंगे जो मुस्लिम एमपी, एमएलए के द्वारा चुने जाएंगे, बार काउंसिल के मेंबर सिर्फ मुस्लिम होंगे, एक मुस्लिम टाउन प्लांनिंग का मेंबर होगा और एक ज्वाइंट सेकेट्री होगा।

अब एक सवाल उठता है कि क्या ऐसे आधिकार किसी पंडित, मठाधीश या फिर किसी हिन्दू ट्रस्ट को दिये गए है।

Sec (9) इसके तहत एक वक्फ काउंसिल बना हुआ है जिसके लिए एक मिनिस्ट्री इंचार्ज ऑफ minority affairs, उसका एक्स ऑफिसर चेयरमैन होगा, जो सरकार को एडवाइस देगा वक्फ बोर्ड के adminstration के लिए।

Sec (85) इसके तहत अगर कोई मामला वक्फ से संबंधित है तो आप दीवानी दावा दायर नहीं कर सकते है, मतलब अगर आपकी प्रॉपर्टी को वक्फ प्रॉपर्टी घोषित कर दिया गया तो आप सिविल कोर्ट में नहीं जा सकते हैं।

आप बाध्य होंगे वक्फ ट्रिब्यूनल में जाने के लिए और वक्फ ट्रिब्यूनल की कंपोजिशन ख़तरनाक है और इसमें पॉलिटिकल अफेयर काम करेगा, क्यों की इसमें एक ब्यूरोक्रेट बैठा है, तो बहुमत फैसला २-१ हो जायेगा।

Sec (89) इसमे अगर आप आप सिविल कोर्ट जाना चाहते है तो आपको वक्फ बोर्ड को २ महीने का नोटिस देना पड़ेगा।

Sec (101) यह जानकर आप दंग रह जाएंगे की वक्फ बोर्ड के मेंबर public servant हैं क्या किसी मठाधीश, शंकराचार्य, पंडित पुरोहित को पब्लिक सर्वेंट माना गया है।

Sec (107) इसके तहत वक्फ बोर्ड पर कोई पाबंदी नहीं है, वो कभी भी वक्फ प्रॉपर्टी को चैलेंज कर सकती है, और इसी के तहत हम places of worship act १९९१ को इस से तुलना करे तो हमारे पास ऐसा कोई आधिकार नहीं है।

इस तरह करके रेलवे और डिफेंस के बाद सबसे ज्यादा जमीन वक्फ बोर्ड के पास है, यह रिकॉर्ड आंध्र प्रदेश high court के हैं, एसोसिएशन ऑफ आंध्र प्रदेश सैफा नाजिम V/S यूनियन ऑफ इंडिया 2009, वक्फ बोर्ड के पास 4 लाख एकड़ प्रॉपर्टी है, अबतक वक्फ ने 6,59,877 प्रॉपर्टी को वक्फ प्रॉपर्टी घोषित कर दिया है।
*यह देखकर पता चलता है कि हम हिन्दुओं के साथ कितना बड़ा धोखा हुआ है।*

गणेश जी का विवाह किस से और कैसे हुआ और उनके विवाह में क्या रुकावटें आई...?

गणेश जी का विवाह किस से और कैसे हुआ और उनके विवाह में क्या रुकावटें आई...?
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भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र गणेश जी की पूजा सभी भगवानों से पहले की जाती है। प्रत्येक शुभ कार्य करने से पहले इन्हे ही पूजा जाता है। गणेश जी को गणपति के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यह गणों के देवता है और इनका वाहन एक मूषक होता है। ज्योतिषी विद्या में गणेश जी को केतु के देवता कहा गया है। गणेश जी के शरीर की रचना माता पार्वती द्वारा की गई थी उस समय उनका मुख सामान्य था, बिल्कुल वैसा जैसा किसी मनुष्य का होता है। एक समय की बात है माता पार्वती ने गणेश को आदेश दिया कि उन्हें घर की पहरेदारी करनी होगी क्योंकि माता पार्वती स्नानघर जा रही थी। गणेश जी को आदेश मिला की जब तक पार्वती माता स्नान कर रही है घर के अंदर कोई न आए तभी दरवाज़े पर भगवान शंकर आए और गणेश ने उन्हें अपने ही घर में प्रवेश करने से मना कर दिया, जिसके कारण शिव जी ने गणेश का सर धड़ से अलग कर दिया। गणेश को ऐसे देख माता पार्वती दुखी हो गई तब शिव ने पार्वती के दुख को दूर करने के लिए गणेश को जीवित कर उनके धड़ पर हाथी का सिर लगा दिया और उन्हें प्रथम पूज्य का वरदान दिया। 

गणेश जी का विवाह किस कारण नहीं हो पा रहा था 
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गणेश जी के दो दन्त भी थे जो उनके हाथी वाले सिर की सुंदरता बढ़ाते थे। किन्तु परशुराम के साथ युद्ध करने के कारण गणेशजी का एक दांत टूट गया था। तब से वे एकदंत कहलाए जाते है। दो कारणों की वजह से गणेश जी का विवाह नहीं हो पा रहा था। उनसे कोई भी सुशील कन्या विवाह के लिए तैयार नहीं होती थी। पहला कारण उनका सिर हाथी वाला था और दूसरा कारण उनका एक दन्त इसी कारणवश गणेशजी नाराज रहते थे। 

गणेश जी का विवाह किससे और कैसे हुआ 
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जब भी गणेश किसी अन्य देवता के विवाह में जाते थे तो उनके मन को बहुत ठेस पहुँचती थी। उन्हें ऐसा लगा कि अगर उनका विवाह नहीं हो पा रहा तो वे किसी और का विवाह कैसे होने दें सकते है। तो उन्होंने अन्य देवताओं के विवाह में बाधाएं डालना शुरू कर दिया। इस काम में गणेश जी की सहायता उनका वाहन मूषक करता था। वह मूषक गणेश जी के आदेश का पालन कर विवाह के मंडप को नष्ट कर देता था जिससे विवाह के कार्य में रूकावट आती थी गणेश और चूहे की मिली भगत से सारे देवता परेशान हो गए और शिवजी को जाकर अपनी गाथा सुनाने लगे। परन्तु इस समस्या का हल शिवजी के पास भी नहीं था तो शिव-पार्वती ने उन्हें बोला कि इस समस्या का निवारण ब्रह्मा जी कर सकते है। यह सुनकर सब देवतागण ब्रह्मा जी के पास गए, तब ब्रह्माजी योग में लीन थे। कुछ देर बाद देवताओं के समाधान के लिए योग से दो कन्याएं ऋद्धि और सिद्धि प्रकट हुई| दोनों ब्रह्माजी की मानस पुत्री थीं|दोनों पुत्रियों को लेकर ब्रह्माजी गणेशजी के पास पहुंचे और बोले की आपको इन्हे शिक्षा देनी है। गणेशजी शिक्षा देने के लिए तैयार हो गए। जब भी चूहे द्वारा गणेश जी के पास किसी के विवाह की सूचना अति थी तो ऋद्धि और सिद्धि उनका ध्यान भटकाने के लिए कोई न कोई प्रसंग छेड़ देतीं थी। ऐसा करने से हर विवाह बिना किसी बाधा के पूर्ण हो जाता था। परन्तु एक दिन गणेश जी को सारी बात समझ में आई जब चूहे ने उन्हें देवताओं के विवाह बिना किसी रूकावट के सम्पूर्ण होने के बारे में बताया। इससे पहले कि गणेश जी क्रोधित होते, ब्रह्मा जी उनके सामने ऋद्धि सिद्धि को लेकर प्रकट हुए और बोलने लगे कि मुझे इनके लिए कोई योग्य वर नहीं मिल रहा है कृपया आप इनसे विवाह कर लें। इस प्रकार गणेश जी का विवाह बड़ी धूमधाम से ऋद्धि और सिद्धि के साथ हुआ और इसके बाद इन्हे दो पुत्रों की प्राप्ति हुई जिनका नाम था शुभ और लाभ...!! 
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बुधवार, 11 सितंबर 2024

गणेश जी को कभी भी विदा नहीं करना चाहिए*

*गणेश जी को कभी भी विदा नहीं करना चाहिए* 

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क्योंकि विघ्न हरता ही अगर विदा हो गए तुम्हारे विघ्न कौन हरेगा।

क्या कभी सोचा है गणेश प्रतिमा का विसर्जन क्यों?  

अधिकतर लोग एक दूसरे की देखा देखी गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर रहे हैं, और 3 या 5 या 7 या 11 दिन की पूजा के उपरांत उनका विसर्जन भी करेंगे। 

आप सब से निवेदन है कि आप।गणपति की स्थापना करें पर विसर्जन नही विसर्जन केवल महाराष्ट्र में ही होता हैं क्योंकि गणपति वहाँ एक मेहमान बनकर गये थे, वहाँ लाल बाग के राजा कार्तिकेय ने अपने भाई गणेश जी को अपने यहाँ बुलाया और कुछ दिन वहाँ रहने का आग्रह किया था जितने दिन गणेश जी वहां रहे उतने दिन माता लक्ष्मी और उनकी पत्नी रिद्धि व सिद्धि वहीँ रही इनके रहने से लाल बाग धन धान्य से परिपूर्ण हो गया, तो कार्तिकेय जी ने उतने दिन का गणेश जी को लालबाग का राजा मानकर सम्मान दिया यही पूजन गणपति उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। 

अब रही बात देश की अन्य स्थानों की तो गणेश जी हमारे घर के मालिक हैं और घर के मालिक को कभी विदा नही करते वहीं अगर हम गणपति जी का विसर्जन करते हैं तो उनके साथ लक्ष्मी जी व रिद्धि सिद्धि भी चली जायेगी तो जीवन मे बचा ही क्या। जहां मूर्तियों का विषर्जन होता है वहां समस्या ज्यादा होती है चाहे वेस्ट बंगाल,(काली मां का विषर्जन) हो या महराष्ट्र हो।

हम बड़े शौक से कहते हैं *गणपति बाप्पा मोरया अगले बरस तू जल्दी आ* इसका मतलब हमने एक वर्ष के लिए गणेश जी लक्ष्मी जी आदि को जबरदस्ती पानी मे बहा दिया, तो आप खुद सोचो कि आप किस प्रकार से नवरात्रि पूजा करोगे, किस प्रकार दीपावली पूजन करोगे और क्या किसी भी शुभ कार्य को करने का अधिकार रखते हो जब आपने उन्हें एक वर्ष के लिए भेज दिया। 

इसलिए गणेश जी की स्थापना करें पर विसर्जन कभी न करे। 

बाहुबली गणेश , सेल्फ़ी लेते हुए स्कूटर चलाते हुए ऑटो चलाते हुए बॉडी बिल्डर बाहुबली सिक्स पैक या अन्य किसी प्रकार के अभद्र स्वरुप में गणेश जी को बिठाने का कोई औचित्य नहीं है सनातन धर्म की हँसी उड़ाई जा रही है..
*अपने धर्म का मज़ाक न उड़ायें*
         *ओर सभी से निवेदन है कि सही सकारात्मक positive शाश्त्र, साइंस,गणित से प्रमाणित ही गणेश जी की मूर्ति घर मे रखे और उसकी हमेसा पूजा करे विषर्जन का मतलब होता है उसको स्नान साफ कर के पुनः स्थापित कर देवे ओम एकदंताय नमो नमःजय सियाराम जय श्री कृष्णा*
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महर्षि दाधीच जन्मोत्सव विशेष

महर्षि दाधीच जन्मोत्सव विशेष

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दधीच के जन्म के संबंध में अनेक कथाएँ हैं।यास्क के मतानुसार ये अथर्व के पुत्र हैं। पुराणों में इनकी माता का नाम 'शांति' मिलता है। इनकी तपस्या के संबंध में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। इन्हीं की हड्डियों से बने वज्र से इंद्र ने वृत्रासुर का संहार किया था। कुछ लोग आधुनिक मिश्रिखतीर्थ (बिहार के सिवान जिले) को इनकी तपोभूमि बताते हैं। इनका प्राचीन नाम 'दध्यंच' कहा जाता है।
दधीचि का कुल: ब्राह्मण है इनके पिता: अथर्वा जी और विवाह: गभस्तिनी से हुआ तथा पिप्पलाद इनकी संतान है।

विशेष: दधीचि द्वारा देह त्याग देने के बाद देवताओं ने उनकी पत्नी के सती होने से पूर्व उनके गर्भ को पीपल को सौंप दिया था, जिस कारण बालक का नाम 'पिप्पलाद' हुआ था।

यास्क के मतानुसार दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। दधीचि प्राचीन काल के परम तपस्वी और ख्यातिप्राप्त महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम 'गभस्तिनी' था। महर्षि दधीचि वेद शास्त्रों आदि के पूर्ण ज्ञाता और स्वभाव के बड़े ही दयालु थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं पाया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे, जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि महर्षि दधीचि के आश्रम पर आता, स्वयं महर्षि तथा उनकी पत्नी अतिथि की पूर्ण श्रद्धा भाव से सेवा करते थे। यूँ तो 'भारतीय इतिहास' में कई दानी हुए हैं, किंतु मानव कल्याण के लिए अपनी अस्थियों का दान करने वाले मात्र महर्षि दधीचि ही थे। देवताओं के मुख से यह जानकर की मात्र दधीचि की अस्थियों से निर्मित वज्र द्वारा ही असुरों का संहार किया जा सकता है, महर्षि दधीचि ने अपना शरीर त्याग कर अस्थियों का दान कर दिया।

लोक कल्याण के लिये आत्म-त्याग करने वालों में महर्षि दधीचि का नाम बड़े ही आदर के साथ लिया जाता है। यास्क के मतानुसार दधीचि की माता 'चित्ति' और पिता 'अथर्वा' थे, इसीलिए इनका नाम 'दधीचि' हुआ था। किसी पुराण के अनुसार यह कर्दम ऋषि की कन्या 'शांति' के गर्भ से उत्पन्न अथर्वा के पुत्र थे। अन्य पुराणानुसार यह शुक्राचार्य के पुत्र थे। महर्षि दधीचि तपस्या और पवित्रता की प्रतिमूर्ति थे। भगवान शिव के प्रति अटूट भक्ति और वैराग्य में इनकी जन्म से ही निष्ठा थी।

पौराणिक कथा
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कहा जाता है कि एक बार इन्द्रलोक पर 'वृत्रासुर'(दधीचि के मास से भगवान विष्णूका सुदर्शन चक्रभी बना हैl) नामक राक्षस ने अधिकार कर लिया तथा इन्द्र सहित देवताओं को देवलोक से निकाल दिया। सभी देवता अपनी व्यथा लेकर ब्रह्मा, विष्णु व महेश के पास गए, लेकिन कोई भी उनकी समस्या का निदान न कर सका। बाद में ब्रह्मा जी ने देवताओं को एक उपाय बताया कि पृथ्वी लोक में 'दधीचि' नाम के एक महर्षि रहते हैं। यदि वे अपनी अस्थियों का दान कर दें तो उन अस्थियों से एक वज्र बनाया जाये। उस वज्र से वृत्रासुर मारा जा सकता है, क्योंकि वृत्रासुर को किसी भी अस्त्र-शस्त्र से नहीं मारा जा सकता। महर्षि दधीचि की अस्थियों में ही वह ब्रह्म तेज़ है, जिससे वृत्रासुर राक्षस मारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा उपाय नहीं है।

देवराज इन्द्र महर्षि दधीचि के पास जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि इन्द्र ने एक बार दधीचि का अपमान किया था, जिसके कारण वे दधीचि के पास जाने से कतरा रहे थे। माना जाता है कि ब्रह्म विद्या का ज्ञान पूरे विश्व में केवल महर्षि दधीचि को ही था। महर्षि मात्र विशिष्ट व्यक्ति को ही इस विद्या का ज्ञान देना चाहते थे, लेकिन इन्द्र ब्रह्म विद्या प्राप्त करने के परम इच्छुक थे। दधीचि की दृष्टि में इन्द्र इस विद्या के पात्र नहीं थे। इसलिए उन्होंने इन्द्र को इस विद्या को देने से मना कर दिया। दधीचि के इंकार करने पर इन्द्र ने उन्हें किसी अन्य को भी यह विद्या देने को मना कर दिया और कहा कि- "यदि आपने ऐसा किया तो मैं आपका सिर धड़ से अलग कर दूँगा"। महर्षि ने कहा कि- "यदि उन्हें कोई योग्य व्यक्ति मिलेगा तो वे अवश्य ही ब्रह्म विद्या उसे प्रदान करेंगे।" कुछ समय बाद इन्द्रलोक से ही अश्विनीकुमार महर्षि दधीचि के पास ब्रह्म विद्या लेने पहुँचे। दधीचि को अश्विनीकुमार ब्रह्म विद्या पाने के योग्य लगे। उन्होंने अश्विनीकुमारों को इन्द्र द्वारा कही गई बातें बताईं। तब अश्विनीकुमारों ने महर्षि दधीचि के अश्व का सिर लगाकर ब्रह्म विद्या प्राप्त कर ली। इन्द्र को जब यह जानकारी मिली तो वह पृथ्वी लोक में आये और अपनी घोषणा के अनुसार महर्षि दधीचि का सिर धड़ से अलग कर दिया। अश्विनीकुमारों ने महर्षि के असली सिर को फिर से लगा दिया। इन्द्र ने अश्विनीकुमारों को इन्द्रलोक से निकाल दिया। यही कारण था कि अब इन्द्र महर्षि दधीचि के पास उनकी अस्थियों का दान माँगने के लिए आना नहीं चाहते थे। वे इस कार्य के लिए बड़ा ही संकोच महसूस कर रहे थे।

दधीचि द्वारा अस्थियों का दानसंपादित करें
देवलोक पर वृत्रासुर राक्षस के अत्याचार दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जा रहे थे। वह देवताओं को भांति-भांति से परेशान कर रहा था। अन्ततः देवराज इन्द्र को इन्द्रलोक की रक्षा व देवताओं की भलाई के लिए और अपने सिंहासन को बचाने के लिए देवताओं सहित महर्षि दधीचि की शरण में जाना ही पड़ा। महर्षि दधीचि ने इन्द्र को पूरा सम्मान दिया तथा आश्रम आने का कारण पूछा। इन्द्र ने महर्षि को अपनी व्यथा सुनाई तो दधीचि ने कहा कि- "मैं देवलोक की रक्षा के लिए क्या कर सकता हूँ।" देवताओं ने उन्हें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की कहीं हुई बातें बताईं तथा उनकी अस्थियों का दान माँगा। महर्षि दधीचि ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। उस समय उनकी पत्नी आश्रम में नहीं थी। अब देवताओं के समक्ष ये समस्या आई कि महर्षि दधीचि के शरीर के माँस को कौन उतारे। इस कार्य के ध्यान में आते ही सभी देवता सहम गए। तब इन्द्र ने कामधेनु गाय को बुलाया और उसे महर्षि के शरीर से मांस उतारने को कहा। कामधेनु ने अपनी जीभ से चाट-चाटकर महर्षि के शरीर का माँस उतार दिया। अब केवल अस्थियों का पिंजर रह गया था।

महर्षि दधीचि ने तो अपनी देह देवताओ की भलाई के लिए त्याग दी, लेकिन जब उनकी पत्नी 'गभस्तिनी' वापस आश्रम में आई तो अपने पति की देह को देखकर विलाप करने लगी तथा सती होने की जिद करने लगी। तब देवताओ ने उन्हें बहुत मना किया, क्योंकि वह गर्भवती थी। देवताओं ने उन्हें अपने वंश के लिए सती न होने की सलाह दी। लेकिन गभस्तिनी नहीं मानी। तब सभी ने उन्हें अपने गर्भ को देवताओं को सौंपने का निवेदन किया। इस पर गभस्तिनी राजी हो गई और अपना गर्भ देवताओं को सौंपकर स्वयं सती हो गई। देवताओं ने गभस्तिनी के गर्भ को बचाने के लिए पीपल को उसका लालन-पालन करने का दायित्व सौंपा। कुछ समय बाद वह गर्भ पलकर शिशु हुआ तो पीपल द्वारा पालन पोषण करने के कारण उसका नाम 'पिप्पलाद' रखा गया। इसी कारण दधीचि के वंशज 'दाधीच' कहलाते हैं।
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राधाष्टमी पर्व 11 सितम्बर विशेष

राधाष्टमी पर्व 11 सितम्बर विशेष

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भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को राधाष्टमी के नाम से मनाया जाता है। इस वर्ष यह 11 सितम्बर को मनाया जाएगा। राधाष्टमी के दिन श्रद्धालु बरसाना की ऊँची पहाडी़ पर पर स्थित गहवर वन की परिक्रमा करते हैं। इस दिन रात-दिन बरसाना में बहुत रौनक रहती है. विभिन्न प्रकार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. धार्मिक गीतों तथा कीर्तन के साथ उत्सव का आरम्भ होता है।

राधाष्टमी की कथा 
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राधाष्टमी कथा, राधा जी के जन्म से संबंधित है. राधाजी, वृषभानु गोप की पुत्री थी. राधाजी की माता का नाम कीर्ति था. पद्मपुराण में राधाजी को राजा वृषभानु की पुत्री बताया गया है. इस ग्रंथ के अनुसार जब राजा यज्ञ के लिए भूमि साफ कर रहे थे तब भूमि कन्या के रुप में इन्हें राधाजी मिली थी. राजा ने इस कन्या को अपनी पुत्री मानकर इसका लालन-पालन किया।

इसके साथ ही यह कथा भी मिलती है कि भगवान विष्णु ने कृष्ण अवतार में जन्म लेते समय अपने परिवार के अन्य सदस्यों से पृथ्वी पर अवतार लेने के लिए कहा था, तब विष्णु जी की पत्नी लक्ष्मी जी, राधा के रुप में पृथ्वी पर आई थी. ब्रह्म वैवर्त पुराण के अनुसार राधाजी, श्रीकृष्ण की सखी थी. लेकिन उनका विवाह रापाण या रायाण नाम के व्यक्ति के साथ सम्पन्न हुआ था. ऎसा कहा जाता है कि राधाजी अपने जन्म के समय ही वयस्क हो गई थी. राधाजी को श्रीकृष्ण की प्रेमिका माना जाता है।

राधाष्टमी पूजन 
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राधाष्टमी के दिन शुद्ध मन से व्रत का पालन किया जाता है। राधाजी की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराते हैं स्नान कराने के पश्चात उनका श्रृंगार किया जाता है. राधा जी की सोने या किसी अन्य धातु से बनी हुई सुंदर मूर्ति को विग्रह में स्थापित करते हैं. मध्यान्ह के समय श्रद्धा तथा भक्ति से राधाजी की आराधना कि जाती है। धूप-दीप आदि से आरती करने के बाद अंत में भोग लगाया जाता है. कई ग्रंथों में राधाष्टमी के दिन राधा-कृष्ण की संयुक्त रुप से पूजा की बात कही गई है।

इसके अनुसार सबसे पहले राधाजी को पंचामृत से स्नान कराना चाहिए और उनका विधिवत रुप से श्रृंगार करना चाहिए. इस दिन मंदिरों में 27 पेड़ों की पत्तियों और 27 ही कुंओं का जल इकठ्ठा करना चाहिए. सवा मन दूध, दही, शुद्ध घी तथा बूरा और औषधियों से मूल शांति करानी चाहिए. अंत में कई मन पंचामृत से वैदिक मम्त्रों के साथ "श्यामाश्याम" का अभिषेक किया जाता है. नारद पुराण के अनुसार 'राधाष्टमी' का व्रत करनेवाले भक्तगण ब्रज के दुर्लभ रहस्य को जान लेते है. जो व्यक्ति इस व्रत को विधिवत तरीके से करते हैं वह सभी पापों से मुक्ति पाते हैं।

राधाष्टमी महत्व 
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वेद तथा पुराणादि में राशाजी का ‘कृष्ण वल्लभा’ कहकर गुणगान किया गया है, वही कृष्णप्रिया हैं. राधाजन्माष्टमी कथा का श्रवण करने से भक्त सुखी, धनी और सर्वगुणसंपन्न बनता है, भक्तिपूर्वक श्री राधाजी का मंत्र जाप एवं स्मरण मोक्ष प्रदान करता है. श्रीमद देवी भागवत श्री राधा जी कि पूजा की अनिवार्यता का निरूपण करते हुए कहा है कि श्री राधा की पूजा न की जाए तो भक्त श्री कृष्ण की पूजा का अधिकार भी नहीं रखता. श्री राधा भगवान श्री कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी मानी गई हैं।

ब्रज और बरसाना में राधाष्टमी उत्सव
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ब्रज और बरसाना में जन्माष्टमी की तरह राधाष्टमी भी एक बड़े त्यौहार के रूप में मनाई जाती है. वृंदावन में भी यह उत्सव बडे़ ही उत्साह के साथ मनाया जाता है. मथुरा, वृन्दावन, बरसाना, रावल और मांट के राधा रानी मंदिरों इस दिन को उत्सव के रुप में मनाया जाता है. वृन्दावन के 'राधा बल्लभ मंदिर' में राधा जन्म की खुशी में गोस्वामी समाज के लोग भक्ति में झूम उठते हैं. मंदिर का परिसर "राधा प्यारी ने जन्म लिया है, कुंवर किशोरी ने जन्म लिया है" के सामूहिक स्वरों से गूंज उठता है।

मंदिर में बनी हौदियों में हल्दी मिश्रित दही को इकठ्ठा किया जाता है और इस हल्दी मिली दही को गोस्वामियों पर उड़ेला जाता है. इस पर वह और अधिक झूमने लगते हैं और नृत्य करने लगते हैं.राधाजी के भोग के लिए मंदिर के पट बन्द होने के बाद, बधाई गायन के होता है. इसके बाद दर्शन खुलते ही दधिकाना शुरु हो जाता है. इसका समापन आरती के बाद होता है।

॥ श्री राधा कृपा कटाक्ष स्रोत ॥ (हिंदी भावार्थ सहित)
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श्रीराधा कृपाकटाक्ष स्तोत्र का गायन
वृन्दावन के विभिन्न मन्दिरों में नित्य किया जाता है। इस स्तोत्र के पाठ से साधक नित्यनिकुंजेश्वरि श्रीराधा और उनके प्राणवल्लभ नित्यनिकुंजेश्वर ब्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण की सुर-मुनि दुर्लभ कृपाप्रसाद अनायास ही प्राप्त कर लेता है। 

स्तोत्र
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“राधा साध्यम साधनं यस्य राधा, मंत्रो राधा मन्त्र
दात्री च राधाl
सर्वं राधा जीवनम् यस्य राधा, राधा राधा वाचि
किम तस्य शेषम ll”

“भावार्थ”: “राधा” साध्य है उनको पाने का साधन भी राधा नाम ही है। मन्त्र भी राधा है और मन्त्र देने वाली गुरु भी स्वयं राधा जी ही है सब कुछ राधा नाम में ही समाया हुआ है और सबका जीवन प्राण भी राधा ही है राधा नाम के अतिरिक्त ब्रम्हांड में शेष बचता क्या है?

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।

व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।

वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।

निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

भावार्थ : रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्दकिशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।

विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

भावार्थ : आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।

अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

भावार्थ : आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।

प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

भावार्थ : आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली है, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।

ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

भावार्थ : जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।

सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

भावार्थ : आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरतिनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।

करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

भावार्थ : आपका उर भाग में फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, आपका मध्य भाग रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं, हे ब्रजनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।

विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

भावार्थ : आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।

अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

भावार्थ : अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।

रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

भावार्थ : आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी है, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है। (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।

भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)

भावार्थ : हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा। (१३)

स्तोत्र पाठ करने की विधि व फलश्रुति
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राकायां च सिताष्टम्यां दशम्यां च विशुद्धया,
एकादश्यां त्रयोदश्यां य: पठेत्साधक: सुधी।
यं यं कामयते कामं तं तं प्राप्नोति साधक:,
राधाकृपाकटाक्षेण भक्ति: स्यात् प्रेमलक्षणा।।१४।।

भावार्थ–पूर्णिमा के दिन, शुक्लपक्ष की अष्टमी या दशमी को तथा दोनों पक्षों की एकादशी और त्रयोदशी को जो शुद्ध बुद्धि वाला भक्त इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह जो भावना करेगा वही प्राप्त होगा, अन्यथा निष्काम भावना से पाठ करने पर श्रीराधाजी की दयादृष्टि से पराभक्ति प्राप्त होगी।

उरुमात्रे नाभिमात्रे हृन्मात्रे कंठमात्रके,
राधाकुण्ड-जले स्थित्वा य: पठेत्साधक:शतम्।।
तस्य सर्वार्थसिद्धि:स्यात् वांछितार्थ फलंलभेत्,
ऐश्वर्यं च लभेत्साक्षात्दृशा पश्यतिराधिकाम्।।१५।।

भावार्थ–इस स्तोत्र के विधिपूर्वक व श्रद्धा से पाठ करने पर श्रीराधा-कृष्ण का साक्षात्कार होता है। इसकी विधि इस प्रकार है–गोवर्धन में श्रीराधाकुण्ड के जल में जंघाओं तक या नाभिपर्यन्त या छाती तक या कण्ठ तक जल में खड़े होकर इस स्तोत्र का १०० बार पाठ करे। इस प्रकार कुछ दिन पाठ करने पर सम्पूर्ण मनोवांछित पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं। ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। भक्तों को इन्हीं से साक्षात् श्रीराधाजी का दर्शन होता है।

तेन सा तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम्।
येन पश्यति नेत्राभ्यां तत्प्रियं श्यामसुन्दरम्।।
नित्य लीला प्रवेशं च ददाति श्रीब्रजाधिप:।
अत: परतरं प्राप्यं वैष्णवानां न विद्यते।।१६।।

भावार्थ–श्रीराधाजी प्रकट होकर प्रसन्नतापूर्वक वरदान देती हैं अथवा अपने चरणों का महावर (जावक) भक्त के मस्तक पर लगा देती हैं। वरदान में केवल ‘अपनी प्रिय वस्तु दो’ यही मांगना चाहिए। तब भगवान श्रीकृष्ण प्रकट होकर दर्शन देते है और प्रसन्न होकर श्रीव्रजराजकुमार नित्य लीलाओं में प्रवेश प्रदान करते हैं। इससे बढ़कर वैष्णवों के लिए कोई भी वस्तु नहीं है।
किसी-किसी को राधाकुण्ड के जल में १०० पाठ करने पर एक ही दिन में दर्शन हो जाता है। किसी-को कुछ समय लग जाता है इसलिए जब तक दर्शन न हों, पाठ करते रहें। किसी को घर में ही नित्य १०० पाठ करने से कुछ ही दिनों में इष्ट प्राप्ति हो जाती है।

श्रीराधा जी की आरती
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आरती श्री वृषभानुसुता की |
मंजु मूर्ति मोहन ममताकी || टेक ||
त्रिविध तापयुत संसृति नाशिनि,
विमल विवेकविराग विकासिनि |
पावन प्रभु पद प्रीति प्रकाशिनि,
सुन्दरतम छवि सुन्दरता की ||
मुनि मन मोहन मोहन मोहनि,
मधुर मनोहर मूरती सोहनि |
अविरलप्रेम अमिय रस दोहनि,
प्रिय अति सदा सखी ललिताकी ||
संतत सेव्य सत मुनि जनकी,
आकर अमित दिव्यगुन गनकी,
आकर्षिणी कृष्ण तन मनकी,
अति अमूल्य सम्पति समता की ||
कृष्णात्मिका, कृषण सहचारिणि,
चिन्मयवृन्दा विपिन विहारिणि |
जगज्जननि जग दुःखनिवारिणि,
आदि अनादिशक्ति विभुताकी ||
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